Jangid Brahmin Samaj.Com

यजुर्वेद में विश्वकर्मा

सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः ।
इन्द्रस्य त्वा भागं सोमेना तनंच्मि विष्णो हव्यं रक्ष ॥४॥
यजु अ.1 म. ४
पदार्थ :- हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर आप जिस वाणी का धारण करते हैं (सा) वह (विश्वायुः) पूर्ण आयु की देने वाली (सा) वह (विश्वकर्मा) जिससे कि सम्पूर्ण क्रिया कांड सिद्ध होता है और (सा) वह (विश्वधायाः) सब जगत को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है। पूर्व मंत्र में जो प्रश्न है, उसके उत्तर में यही तीन अकार की वाणी ग्रहण करने योग्य है इसी से मैं (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (भागम्) सेवन करने योग्य यज्ञ को (सोमेन) विद्या से सिद्ध किये रस अथवा आनंद से (आ तनंच्मि) अपने हृदय में दृढ़ करता हूँ तथा हे परमेश्वर (हव्यम्) पूर्वोक्त यज्ञ संबंधी देने लेने योग्य द्रव्य वा विज्ञान की (रक्ष) निरंतर रक्षा कीजिए ॥४॥
भावार्थ:- तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् प्रथम वह कि ब्रह्मचर्य में पूर्ण विद्या पढ़ने व पूर्ण आयु होने के लिए सेवन की जाती है। दूसरी वह जो गृहस्थाश्रम में अनेक क्रिया का उद्योग से सुखों की देने वाली विस्तार से प्रकट की जाती है और तीसरी वह जो इस संसार में सब मनुष्यों के शरीर और आत्मा के सुख की वृद्धि व ईश्वर आदि पदार्थों के विज्ञान को देने वाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विद्वानों से उपदेश की जाती है। इस तीन प्रकार की वाणी के बिना किसी को सब सुख नहीं हो सकते क्योंकि इसी से पूर्वोक्त यज्ञ तथा व्यापक ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करना योग्य हैं। ईश्वर की यह आज्ञा है कि नियम से किया हुआ यज्ञ संसार में रक्षा का हेतु और प्रेम सत्य भाव से प्रार्थित ईश्वर विद्वानों की सर्वदा रक्षा करता है, वहीं सबका अध्यक्ष है, परन्तु जो क्रिया में कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य है, वे ही ईश्वर और धर्म को जानकर मोक्ष और सम्यक क्रिया साधनों से इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं।

इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु प्रचेतास्त्वा रुद्रैः
पश्चात्पातु मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतः पातु
विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पात्विदमहं तप्तं
वार्बहिर्धा यज्ञानिः सृजामि ॥११॥
यजुर्वेद अध्याय ५ ऋषि गौतम देवता आप
पदार्थ :- हे विद्वान मनुष्यों, जैसे (प्रचेताः) उत्तम ज्ञानयुक्त (इन्द्रघोषः) परमात्मा वेद विद्या और बिजली का घोष अर्थात शब्द अर्थ और संबंधों के बोधवाला, (विश्वकर्मा) सब कर्म वाला में, (विज्ञान) पढ़ना पढ़ाना वा होमरूप यज्ञ से (इदम) आभ्यन्तर में रहने वाले (तप्तम्) तप्त जल (वहिर्धा) वाहार धारण होने वाले शीतल (वाः) जल को (निःसृजामि) सम्पादन करता या निःक्षेप करता हूँ वैसे आप भी कीजिए। जो (वसुभिः) अग्नि आदि पदार्थ वा चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य किये हुए मनुष्यों के साथ वर्तमान (इन्द्रघोसः) इन्द्र जीव और बिजली के अनेक शब्द सबंधी वाणी है, उस को (पुरस्तात्) पूर्वदेश से जैसे में रक्षा करता हूँ वैसे आप भी (पातु) रक्षा करो। जो (रुद्रोः) प्राण वा चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य किये हुए विद्वानों के साथ वर्तमान (प्रचेताः) उत्तम ज्ञान करने वाली वाणी है उसकी (पश्चात) पाश्चिम देश से रक्षा करता हूँ वैसे आप भी (यातु) रक्षा करे जो (पितृभिः) ज्ञानि वा ऋतुओं के साथ वर्तमान (मनोजवाः) मन के समान वेगवाली वाणी है उसका (दक्षिणतः) दक्षिण देश से पालन करता हूँ वैसे आप भी (पातु) रक्षा करे जो (आदित्यैः) बारह महिनो वा अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य किए हुए विद्वानों के साथ वर्तमान (विश्वकर्मा) सब कर्म युक्त वाणी है उसकी (उतरतः) उत्तर देश से पालन करता हूँ जैसे आप भी (पातु) रक्षा करे ।।११।।
भावार्थ:- मनुष्यो को योग्य है कि जो वसु रूद्र आदित्य और पितरों से सेवन की हुई वा यज्ञ को सिद्ध करने वाली वाणी वा जल को सेवन विद्या वा उत्तम क्रिया के साथ बिजली है उसके सेवन में निरंतरता बरते ॥११॥

वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेअद्या: हुवेम ।
सनो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा।
उपयामगृहितो सीन्द्राय त्वाविश्वकर्मणऽएष ते
योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ॥ ४५ ॥
यजुर्वेद- अध्याय ८ ऋषि भारद्वाज देवता विश्वकर्मा
पदार्थ : - हम (अध) अव (वाजे) विज्ञान वा युद्ध के निमित जिन (वाचाः) वेद वाणी के (पति) स्वामी वा रक्षा करने वाले (विश्वकर्माणम्) जिन के सब धर्मयुक्त कर्म है जो (मनोजुवम्) मन चाहती गति का जानने वाला है, उस परमेश्वर वा सभापित को (हुवेम) चाहते है सो आप (साधुकम्मां) अच्छे-अच्छे कर्म करने वाले (विश्वशम्भुः) समस्त सुख को उत्पन्न कराने वाले जगदीश्वरवा सभापति (नः) हमारे (अवसे) प्रेम बढ़ाने के लिए (विश्वानि) (हवनानि) दिए हुए सब प्रार्थना वचनों को (जोषत) प्रेम से माने जिन (ते) आपका (एष) वह तो कर्म (योनि) एक प्रेमभाव का कारण हैं वे आप (उपयामगृहीत) यम नियमों से ग्रहण किए हुए (असि) हैं इससे (विश्वकर्मणे ) उत्पन्न करने तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (त्वा) आप की प्रार्थना तथा (विश्वकर्म्मणे) समस्त काम की सिद्धि के लिए शिल्पक्रिया कुशलता से उत्तम ऐश्वर्य वाले आप का सेवन करते हैं।
भावार्थ:- जो विश्वकर्मा वा न्यायाधीश सभापति हमारे किये हुए कामों को जांचकर उनके अनुसार हम को यथायोग्य नियमों में रखता है, जो किसी को दुःख देने वाले छलकपट के काम को वह करता, जिस परमेश्वर वा सभापति के सहाय से मनुष्य मोक्ष और व्यवहार सिद्धि को पाकर धर्मशील होता है, वही ईश्वर परमार्थ सिद्धि वा सभापति व्यवहार सिद्धि के निमित्त हम लोगों को सेवन योग्य है ॥४५॥

विश्वकर्मन् हविषा वर्धनेन वातारमिन्द्रमक्रणोरवध्यम् ।
तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्रो विहव्यो यथासत् ।
उपयामगृहीतोसिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणऽएष
तेयोनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ॥४६॥
यजुर्वेद अध्याय ८ ऋषि भरद्वाज देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे (विश्वकर्म्मन) समस्त अच्छे काम करने वाले जन, आप (वर्द्धनेन) बुद्धि के निमित्त (हविषा) ग्रहण करने योग्य विज्ञान से (अवध्यम्) जिस बुरे व्यसन और अधर्म से रहित (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य देने तथा (वातारम्) समस्त प्रजाजनों की रक्षा करने वाले सभापति को (अकृणोः) कीजिए कि (तस्मै) उसे (पूर्वीः) प्राचीन (धार्मिक) जनों ने जिन प्रजाओं को शिक्षा दी हुई है, वे (विश:) प्रजाजन (समनमन्त) अच्छे प्रकार माने जैसे (अयम) वह सभापति (उग्रः) दुष्टों को दंड देने को अच्छे प्रकार चमत्कारी और (विद्धव्यः) अनेक प्रकार के राज्य साधन पदार्थ अर्थात शस्त्र आदि रखने वाला (असत) हो वैसे प्रजा भी इस के साथ वरते ऐसी युक्ति कीजिए। (उपयामगृहीत) वाहा से लेकर मंत्र का पूर्वोक्त ही अर्थ जानना चाहिए ॥४६॥
भावार्थ :- इस संसार में मनुष्य सब जगत की रक्षा करने वाले ईश्वर तथा सभाध्यक्ष को न भूले किन्तु उनकी अनुमति में सब कोई अपना-अपना बर्ताव रखे। प्रजा के विरोध से कोई राजा भी अच्छी वृद्धि को नहीं पहुँचता और ईश्वर या राजा के बिना प्रजाजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्ध करने वाले काम भी नहीं कर सकते इससे प्रजाजन और राजा ईश्वर का आश्रय कर एक दूसरे के उपकार में धर्म के साथ अपना बर्ताव रखे ॥४६॥

परमेष्ठयभिधीतः प्रजापतिर्वाचि व्याह्नतायामन्धोअच्छेतः ।
सविता सन्या विश्वकर्मा दीक्षायाम्पूषा सोमक्रयण्याम् ॥५४॥
यजुर्वेद अध्याय १२ ऋषि सोमाहुति देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे गृहस्थों, तुम ने यदि (व्याहतायाम्) उच्चारित उपदिष्ट की हुई (वाचि) वेद वाणी में (परमेष्टी) परमानंदस्वरूप में स्थित (प्रजापतिः) समस्त प्रजा के स्वामी को (अच्छेतः) अच्छे प्रकार प्राप्त (विश्वकर्मा) सब विद्या और कर्मों को जानने वाले, सर्वथा श्रेष्ठ सभापति को (दीक्षायाम् ) सभा के नियमों के धारण में (सोमक्रयण्याम्) ऐश्वर्य ग्रहण करने में (पूषा) सबको पुष्ट करने हारे उत्तम वैद्य को और (सन्याम्) जिससे सनातन सत्य प्राप्त हो उसमें (सविता) सब जगत का उत्पादक (अभीधीतः) सुविचार से धारण किया (अंधः) उत्तम सुसंस्कृत अत्र का सेवन किया तो सदा सुखी हो ॥५४॥
भावार्थ:-जो ईश्वर वेद विद्या से अपने संसारिक जीवों और जगत के गुण कर्म स्वभावों को प्रकाशित न करता तो किसी मनुष्य को विद्या और इनका ज्ञान न होता और विद्या वा उक्त पदार्थों के ज्ञान के बिना निरन्तर सुख क्यों कर हो सकता है ॥५४॥

सर्बोधिसूरिर्मघवा वसुपते वसुदावन् ।
युयोध्यस्मद् द्वेषांसि विश्वकर्म्मणे स्वाहा ॥४३॥
पदार्थ :- हे (वसुपते) धनों के पालक (वसुदावन्) सु पुत्रों के लिए धन देने वाले। जो (मघवा) प्रशंसित विद्या से युक्त (सूरिः) बुद्धिमान आप सत्य को (बोधि) जाने (सः) सो आप (विश्वकर्म्मणे) सम्पूर्ण शुभ कर्मों के अनुसरण के लिए (स्वहा) सत्य वाणी का उपदेश करते हुए आप (अस्मत) हमसे (द्वेषांसि ) द्वेषयुक्त कर्मों को (वियुयोधि ) पृथक् कीजिए ॥४३॥
भावार्थ :- जो मनुष्य ब्रह्मचर्य के साथ जितेन्द्रिय हो, द्वेष को छोड़ धर्मानुसार उपदेश कर और श्रवण के प्रयत्न करते हैं, वे ही धर्मात्मा, विद्वान लोग सम्पूर्ण सत्य के जानने वाले और उपदेश करने के योग्य होते हैं और अन्य दृढ़ अभिमान युक्त शुद्र पुरुष नहीं ॥४३॥

मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यमग्रिथं स्वे योनावभारुरवा ।
तां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकम्मां विमुञ्चतु ॥६१॥
यजुर्वेद अध्याय १३ ऋषि त्रिषिरा देवता अग्नि
पदार्थ :- जो (उखा) जानने योग्य (पृथिवि) भूमि के समान वर्तमान विद्वान स्त्री (स्वे) अपने (योनो) गर्भाशय में (पूष्ययम्) पुष्टिकारक गुणों में हुए (अग्निम्) बिजली के तुल्य अच्छे प्रकाश से युक्त गर्भरूप (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के समान (अवभाः) पुष्ट वा धारण करती है (ताम्) उस को (सविदानः) सम्यक बोध करता हुआ (विश्वकर्मा) सब उत्तम कर्म करने वाला (प्रजापति) परमेश्वर विश्वः सब (देवः) दिव्य गुणों और (ऋतिभः) वसंत आदि ऋतुओं के साथ निरतंर दुःख से (विमुञ्चतु) छुड़ावे ॥६१॥
भावार्थ:- जैसे माता संतानों को उत्पन्न कर पालती है, वैसे ही पृथ्वी कारण रूप बिजली को प्रसिद्ध करके रक्षा करती है। वैसे परमेश्वर ठीक-ठीक पृथ्वी आदि के गुणों को जानते हुए और नियत समय पर मरे हुए और पृथ्वी आदि को धारण कर अपनी अपनी नियिम परिधि से चला के प्रलय समय में सबको भिन्न करता है वैसे ही विद्वानों को चाहिए कि अपनी बुद्धि के अनुसार इन सब पदार्थों को जान के कार्यसिद्धि के लिए प्रयत्न करे ।।६१।।

ध्रुवासि धरुणास्तृता विश्वकर्मणा ।
मा त्वा समुद्रऽउद्वधीन्मा सुपर्णोऽअव्यथमाना पृथिवीं दृंह ॥१६॥
पदार्थ :- हे राजा की स्त्री! जिस कारण (विश्वकर्मणा) सब धर्म युक्त काम करने वाले अपने पति के साथ वर्तती हुई (आस्तुता) वस्त्र आभूषण और श्रेष्ठ गुणों से ढपी हुई (धरूणा) विद्या और धर्म को धारण करने हारी (ध्रुवा) निश्चल (असि) है सो तू (अव्यथमाना) पीड़ा से रहित हुई (पृथिवीम्) अपनी राज्य भूमि को (उहदृ) अच्छे प्रकार बढ़ा (त्वा) तुझको (समुद्रः) जार लोगों का व्यवहार (मा) मत (वधीत ) सतावे और (सुपर्णः) सुन्दर रक्षा किए अवयवों से युक्त तेरा पति (मा) नहीं मारे ॥१६॥
भावार्थ :- जैसे राजनीति विद्या को राजा पढ़ा हो, वैसी ही उसकी राणी भी पढ़ी होनी चाहिए, सदैव दोनों परस्पर पतिव्रता स्त्रीव्रता होकर न्याय पालन करे। व्यभिचार और काम को व्यथा से रहित होकर धर्मानुकूल पुत्रों को उत्पन्न कर के स्त्री राणी और पुरुष राजा न्याय करे ॥१६॥

योs अग्निरग्नेरध्यजायत शोकात्पृथिव्याऽउत वा दिवस्परि येन ।
प्रजा विश्वकर्मा जजान तमग्रे हेडः परि ते वृणक्तु ।।४५।।
ऋषि विरुप देवता अग्नि
पदार्थ :- हे (अग्ने) विद्वान जन (यः) जो (पृथिव्याः) पृथिवी के (शोकात) सुखाने हारे अग्नि (उत वा) अथवा (दिवः) सूर्य से (अग्नेः) बिजली रूप अग्नि से (अग्नि) प्रत्यक्ष अग्नि (अध्यजायत) उत्पन्न होता है, (येन) जिससे (विश्वकर्मा) सब कर्मों का आधार ईश्वर (प्रजा) प्रजाओं को (परि) सब ओर से (जजान) रचता है (तम्) उस अग्नि को (ते) तेरा (हेडः) (क्रोध) (परिवृणक्तु) सब प्रकार से छेदन करे ।।४५।।
भावार्थ :- हे विद्वानों! तुम लोग अग्नि पृथिवी को फोड़ कर और जो सूर्य के प्रकाश से बिजली निकलती है उस विघ्नकारी अग्नि से सब प्राणियों को रक्षित रखो और जिस अग्नि से ईश्वर सब की रक्षा करता है उस अग्नि की विद्या जानों ।।४५।।
अयं दक्षिणा विश्वकर्मा तस्यमनो वैश्वकर्मणं ग्रीष्मो
मानसस्त्रिष्टु ब्ग्रैष्मी त्रिष्टुभः स्वारं स्वारादत्तर्यामोन्तर्यामात्पञ्चदशः
पञ्चदशाद् बृहद भरद्वाजऋषि प्रजापतिगृहीतया
त्वया मनो गृहणामि प्रजाभ्यः ॥५५॥
ऋषि शौश्ना देवता प्रजापति
पदार्थ :- हे स्त्री ! जैसे (दक्षिण) दक्षिण दिशा से (अयम्) यह (विश्वकर्मा) सब कर्मों का निमित्त वायु के समान विद्वान चलता है (तस्य) उस वायु के योग से (वैश्वकर्मणम) जिससे सब कर्म सिद्ध होते है वह (मनः) विचार स्वरूप प्रेरक मन (मनसः) मन की गर्मी से उत्पन्न के तुल्य (ग्रीष्म) रसों का नाशक ग्रीष्म ऋतु (ग्रैष्मी) ग्रीष्म ऋतु के व्याख्यान वाला (त्रिष्टुव) त्रिष्टुप छन्द (त्रिष्टुभ्यः) त्रिष्टुप छन्द के (स्वारम) ताप से हुआ तेज (स्वारात्) और तेज से (यन्तर्यमात्:) मध्याह्न के प्रहर में विशेष दिन और (अन्तर्यामात्) मध्याह्न के विशेष दिन से (पंचदशः) पन्द्रह तिथियों की पूरक स्तुति के योग्य पूर्णमासी (पन्चदशाद) उस पूर्णमासी से (वृहत) बड़ा (भरद्वाज) मन का विज्ञान की पृष्टि और धारण का निमित (ऋषि) शब्द ज्ञान प्राप्त कराने द्वारा कान (प्रजापति गहीतय) प्रजा पालक पति राजा गृहण की विद्या से न्याय का गृहण करता है जैसे मैं (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिए (मनः) विचारस्वरूप विज्ञान युक्त चित का गृहण विज्ञान का (गृह्यमि) ग्रहण करता हूँ ॥५५॥
भावार्थ:- स्त्री पुरुषों को चाहिए कि प्राण का मन और मन का प्राण नियम करने वाला है, ऐसा जान के प्राणायाम से आत्मा को शुद्ध करते हुए पुरुषों से सम्पूर्ण सृष्टि के पदार्थों का विज्ञान स्वीकार करे ।।५५।।

इयमुपरि मतिस्तस्यै वाङ्मात्या हेमन्तो वाच्यः पङ्क्तिर्हेमन्ती
पङ्क्त्यै निधनवन्निधनवतऽआग्रयणः ।
आग्रयणात त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ त्रिणयत्रय स्त्रिँ शाभ्याँ शाक्त ररैवते
विश्वकर्मऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वयावाचं गृह्यमि प्रजाभ्यः ॥५८॥
यजु. अ. १३ म. ५८
पदार्थ :- हे विद्वान स्त्री जो (इयम्) वह (उपरि ) सबसे ऊपर विराजमान (मतिः) बुद्धि है (तस्य) उस (मात्या) बुद्धि का होना वा कर्म (वाक्) वाणी और (वाच्यः) उसका होना वा कर्म (हेमन्तः) गर्मी का नाशक हेमन्त ऋतु (हेमन्ती) हेमन्त ऋतु के व्याख्यान वाला पंक्ति छन्द (पंङ्क्त्यै) उस पंक्ती छन्द का (निधनवतः) मृत्यु का प्रशंसित व्याख्यान वाला सामवेद का भाग (निद्यनवत:) उससे (अग्रयणः) प्राप्ति का साधन ज्ञान फल (अग्रयणात) उससे (त्रिणवत्रयस्त्रिशो) बाहर और तैतीस सामवेद के स्रोत (त्रिणवय) (स्त्रिशाभ्याम) उन स्रोतों से (शाक्वररैवते) शक्ति और धन के सादक पदार्थों को जानकर (विश्वकर्मा) सब सुकर्मों के सेवन वाला (ऋषिः) वेदार्थ का वक्ता पुरुष वर्तत्ता वैसे में (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिए (वाचम) विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी को (गृहामि) ग्रहण करता हूँ ॥५८॥
भावार्थ :- स्त्री पुरुष को चाहिए कि विद्वानों की शिक्षा रूप वाणी को सुन के अपनी बुद्धि बढ़ाए उस बुद्धि से हेमन्त ऋतु में कर्तव्य कर्म और सामवेद के स्रोतों को जान महात्मा ऋषि लोगों के सामान बर्ताव कर विद्या और अच्छी शिक्षा से शुद्ध की वाणी को स्वीकार करके अपने संतानों के लिए भी वाणियों का उपदेश सदैव करे ।।५८।।

अदित्यास्त्वा पृष्ठे सादयाम्यन्तरिक्षस्य
धत्रींविष्टभनी दिशामधिपत्त्री भुवनानाम् ।
ऊर्मिर्द्रप्सो अपामसि विश्वकर्मातऽ
ऋषिरश्विनाध्वर्यू सादयतामिहत्वां ॥५॥
यजुर्वेद अध्याय १४ ऋषि उषना काव्य देवता अश्विनीकुमार
पदार्थ :- हे स्त्री ! जो (ते) तेरा (विश्वकर्मा) सब शुभ कर्मों से युक्त (ऋषि) विज्ञान दाता पति में (अन्तरिक्षस्य) अन्त: करण के नास रहित विज्ञान को (धत्रीम्) धारण करने (दिशाम्) पूर्वादि दिशाओं की (विष्टम्भनीय) आधार और (भूवनानम्) सन्तानोत्पति के निमित घरों की (अधिपत्नीम्) अधिष्ठाता होने से पालन करने वाली (त्वा) तुझको सूर्य की किरण के सामान (आदित्याः) पृथिवी की (पृष्ठे) पीठ पर (सादयामि) घर की अधिकारिणी स्थापित करता हूँ, जो तू (अपाम्) जलों की (ऊर्मिः) तरंग के सदृश (द्रप्ससः) आनंद युक्त (असि) है, उस (त्वा) तुझको (इह ) इस गृहाश्रम में (अध्यवर्यू) रक्षा के निमित्त यज्ञ को करने वाले (अश्विना) विद्यामि व्याप्त बुद्धि और उपदेशक पुरुष (सादयताम ) स्थापित करे ॥५॥
भावार्थ :- जो स्त्री अविनाशी सुख देने वाली, सब दिशाओं में प्रसिद्ध कीर्ति वाली, विद्वान पतियों से युक्त सदा आनंदित है, वे ही गृहाश्रम का धर्म पालने और उसकी उन्नति के लिए समर्थ होती हैं। तेरहवें अध्याय में जो (मधुश्च) कहा है वहाँ से बसन्त ऋतु के गुणों की प्रधानता से व्याख्यान किया है ऐसा जानना चाहिए ॥५॥
मूर्धा वयः प्रजापतिश्छन्दः क्षत्रंवयोमयन्दं छंदो विष्टम्भो
वयोधिपतिश्छन्दो विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छंदो वस्तो वयो
विवलं छन्दो वृष्णिर्वयो विशालं छन्दः पुरुषो वयस्तन्द्रं
छंदो व्याघ्रोवयोनाछृष्टं छन्दः सिंहो वयश्छदिश्छन्दः
पष्ठवाड्वयोबृहति छन्दऽउक्षा वयः ककुप्छन्द
ऋषभो वयः सतोबृहती छन्दः ॥९॥
ऋषि विश्वदेवा देवता प्रजापति विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे स्त्री वा पुरुष (मूर्धा) सिर के तुल्य उत्तम ब्राह्मण का कुल (प्रजापति:) प्रजा के रक्षक राजा के सामान तू (वयः) कामना के योग्य (मयन्दम) सुखदायक (छन्दः) बलयुक्त (क्षत्रम) क्षत्रिय कुल को प्रेरणा कर (विष्टम्भः) वैश्यो की रक्षा का हेतु (अधिपतिः) अधिष्ठाता नृप के सामान तू (वयः) न्याय विनय को प्राप्त हुए (छन्दः) स्वाधीन पुरुष को प्रेरणा कर (विश्वकर्मा) सब उत्तम कर्म करने हारे (परमेष्ठी) सब के स्वामी राजा के सामान (तू) (वय:) चाहने योग्य, (छन्दः) स्वतंत्रता को (एरय) बढ़ाइये (वस्तः) व्यवहारों से युक्त पुरुष के समान तू (वयः) अनेक प्रकार के व्यवहारों में व्यापी (विबलम्) विविध बल के हेतु (छन्दः) आनन्द को बढ़ा (वृष्णिः) सुख के सेचने वाले के सदृश तू (विशालम) विस्तार युक्त (वय:) सुखदायक (छन्दः) स्वतन्त्रता को बढ़ा (पुरुषः) पुरुषार्थ युक्त जन के तुल्य तू (वयः) चाहने योग्य (तन्द्रम) कुटुम्ब के धारण रूप कर्म और (छन्दः) बल को बढ़ा (व्याघ्रः) जो विविध प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार सूंघता है, उस जन्तु के तुल्य राजा तू (वयः) पराक्रम के साथ (छदिः) निरोध और (छन्दः) प्रकाश को बढ़ा (षष्ठवाट्) पीठ के बोझ उठाने वाले ऊंट आदि के सदृश वैश्य तू (बृहती) बड़े (वयः) बल युक्त (छन्दः) पराक्रम को प्रेरणा कर (उक्षा) सींचने हारे बैल के तुल्य शुद्र तू (वयः) अति बल का हेतु (ककूप्) दिशाओं और (छन्दः) आनंद को बढ़ा (ऋषभः) शीघ्रगन्ता पशु के भृत्य तू (वयः) बल के साथ (सतोबृहती) उत्तम बड़ी (छन्दः) स्वतंत्रता की प्ररेणा कर ॥९॥
भावार्थ:- स्त्री पुरुषों को चाहिए कि ब्राह्मण आदि वर्णों को स्वतंत्र वेदादि शस्त्रों का प्रचार, आलस्यादि त्याग और शत्रुओं का निवारण करके बड़े बल को सदा बढ़ाया करें ॥९॥

विश्वकर्मात्वा सादयत्वन्तरिंक्षस्य पृष्ठे व्यचस्वतीं
प्रथस्वतीमन्तरिक्षं यच्छान्तरिक्षं दृथहान्तरिक्षं मा हिंसीः।
विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानायं प्रतिष्ठायै चरित्राय ।
वायुष्ट्वाभिपातु मह्यास्वस्त्या छर्दिषा
शन्तमेनतयां देवतयाङ्गिरस्वद ध्रुवासीद ॥१२॥
ऋषि विश्वकर्मा देवता वायु
पदार्थ :- हे स्त्री (विश्वकर्मा) सम्पूर्ण शुभ कर्म करने में कुशल पति जिस (व्यचस्वतीम् ) प्रशंसित विज्ञान व सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम) उत्तम विस्तृत विद्या वाले (अन्तरिक्षस्य) प्रकाश के (पृष्ठे) एक भाग में (त्वा) तुझको (सादयतु) स्थापित करे सो तू (विश्वसमै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान (व्यानाय) व्यान और (उदानाय) उदानरूप शरीर के वायु तथा ( प्रतिष्ठायै) प्रतिष्ठा (चरित्राय) और शुभ कर्मों के आचरण के लिए (अन्ततिरक्षम्) जलादि को (यच्छ) दिया कर (अन्तरिक्षम्) प्रशंसित शुद्ध किये जल से युक्त अन्न और धानादि को (दृह) बढ़ा और (अन्तरिक्षम्) मधुरता आदि गुणयुक्त रोग नाशक आकाशस्थ सब पदार्थों को (माहिंसी:) नष्ट मत कर, (त्वा) तुझको (वायुः) प्राण के तुल्य प्रिय पति (मा) बड़ी (स्वस्त्या) सुख रूप क्रिया (छर्दिया) प्रकाश और (शंतमेन) अति सुख दायक विज्ञान से तुझको (अभिपातु) सब और से रक्षा करे। सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्य सुख देने वाले क्रिया के साथ वर्तमान पति रूप देवता के साथ (अङ्गिरस्वत) व्यापक वायु के समान (ध्रुवा) निश्चल ज्ञान से युक्त (सीद) स्थिर हो ॥१२॥
भावार्थ:- जैसे पुरुष स्त्री को अच्छे कर्मों में नियुक्त करे, वैसे स्त्री भी अपने पति को अच्छे कर्मों में प्रेरणा करें जिससे निरंतर आनंद बढ़े ॥१२॥

विश्वकर्मात्वा सादयत्वन्तरिक्षस्य पृष्ठे ज्योतिष्मतीम् ।
विश्वस्मै प्राणयांऽपानाय व्यानाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ ।
वायुष्टेऽधिपतिस्तया देवतयाङ्गिर स्वद् ध्रुवासीद ॥१४॥
पदार्थ :- हे स्त्री ! जिस (ज्योतिष्मतीम) बहुत विज्ञान वाली (त्वा) तुझको (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान और (व्यानाय) व्यान की पुष्टि के लिए (अन्तरिक्षस्य) जल के (पृष्ठे) ऊपरी भाग में (विश्वकर्मा) सब शुभ कर्मों का चाहने वाला पति (सादयतु) स्थापित करे, सो तू (विश्वम्) सम्पूर्ण (ज्योति:) विज्ञान को (यच्छ) ग्रहण कर, जो (वायुः) प्राण के समान प्रिय (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी है (तया) उस (देवतया) देवस्वरूप पति के साथ (ध्रुवा) दृढ़ (अङ्गिरस्वत्) सूर्य के समान (सीद) स्थिर हो ॥१४॥
भावार्थ:- स्त्री को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम के साथ आप विद्वान होकर शरीर, आत्मा का बल बढ़ाने के लिए अपने संतानों को निरंतर विज्ञान देवें । यहाँ तक ग्रीष्म ऋतु का व्याख्यान पूरा हुआ ॥१४॥
अयं दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य रथस्वुनश्च रथेचित्रश्च सेनानी ग्रामण्यौ मेनका च सहजन्या चाप्सरसौ यतुधाना हेती रक्षायसि प्रहेतिस्तेभ्यो नमोऽस्तुते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जन्मे दध्मः ॥१६॥
यजुर्वेद अध्याय १५
पदार्थ :- हे मनुष्यों जैसे (अयं) यह (विश्वकर्मा) सब येष्टा रूप कर्मों का हेतु वायु (दक्षिणाः) दक्षिण दिशा से चलता है (तस्य) उस वायु के (रथस्वनः) रथ के शब्द के समान शब्द वाला (च) और (रथेचित्र:) रमणीय रथ में विचिह्नयुक्त आश्चर्य कार्यों को करने वाला (च) ये दोनों (सेनानिग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामाध्यक्ष के समान वर्तन (मेनका) जिससे मनन किया जाय वह (च) और (सहजन्या) एक साथ उत्पन्न हुई ये दोनों (अप्सरसी) अन्तरिक्ष में रहने वाली किरणादि अप्सरा हैं जो (यातुधाना) प्रजा को पीड़ा देने वाले है, उनके ऊपर (हेतिः) वज्र जो (रक्षासि) दुष्य कर्म करने वाले है, उनके ऊपर (प्रहेति) प्रकृष्ट वज्र के तुल्य (तेभ्यः) उन प्रजापीड़क आदि के लिए (नमः) वज्र का प्रहार (अस्तु) हो ऐसा करके जो न्याधीश शिक्षक (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करते हुए (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करे, वे हम लोगों को (यम्) दुष्ट से (द्विष्म) द्वेष करे (च) और (यः) जो दुष्ट (नः) हम से (देष्टि) द्वेष करे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं के (जम्भे) व्याघ्र के समान मुख में (दध्नः) धारण करते हैं वैसा प्रयत्न करो ॥१६॥
भावार्थ :- जो स्थूल सूक्ष्म और मध्यस्थ वायु से उपयोग लेने को जानते है वे शत्रुओं का निवारण करके सब को आनन्दित करते हैं। यह भी ग्रीष्म ऋतु का शेष व्याख्यान हैं ऐसा जानो ॥१६॥

किँ थस्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत् स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्माविद्यामौर्णोन्महिना विश्वचक्षाः ॥१८॥
अध्याय १७ ऋषि भौवन विश्वकर्मा देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे विद्वान पुरुष इस जगत का (अधिष्ठानम्) आधार (किं, स्वित ) क्या आश्चर्यरूप (आसीत) है तथा (आरम्भणम्) इस कार्य जगत की रचना आरम्भ कारण (कतमत्) बहुत उपदानों में क्या और वह (कथा) किस प्रकार से (स्वित्) तर्क के साथ (आसीत्) है कि (यतः) जिससे (विश्वकर्मा) सब सत्कर्मों वाला (विश्वचक्षाः) सब जगत का दृष्टा जगदीश्वर (भूमिम्) पृथिवी और (धाम) सूर्यादि लोक को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपनी महिमा से (व्योर्णोत्) विविध प्रकार से अच्छादित करता है ॥१८॥
भावार्थ :- हे मनुष्यों! तुम को यह जगत कहाँ वसता, क्या इसका कारण और किसलिए उत्पन्न होता है, इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि जो जगदीश्वर कार्य जगत को उत्पन्न तथा अपनी व्याप्ति से सब का आच्छादन करके सर्वज्ञता से सबको देखता है, वह इस जगत का आधार और निमित्त कारण है। वह सर्व शक्तिमान रचना आदि के सामर्थ्य से युक्त है, जीवों को पाप पुण्य का फल देने भोगवाने के लिए इस सब संसार को रचा है, ऐसा जानना चाहिए ॥१८॥
या ते धामानि परमाणि याऽवमा या
मध्यमाविश्वकर्मन्नुतेमा शिक्षा सखिभ्यो
हविषि स्वधावः स्वयं यजस्वतन्वं वृधानः ॥२१॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे (स्वधावः) बहुत अन्न से युक्त (विश्वकर्मन्) सब उत्तम कर्म करने वाले जगदीश्वर (ते) आपकी सृष्टि में (या) जो (परमाणि) उत्तम (या) जो (अवमा) निकृष्ट (या) जो (मध्यमा) मध्यकक्षा के (धामानि) सब पदार्थों के आधारभूत जन्म स्थान तथा नाम है (इमा) इन सबको (हविधि) देने लेने योग्य व्यवहार में (स्वयम्) आप (यजस्व) सङ्गत कीजिए (उत) और हमारे (तन्वम्) शरीर की (वृधानः) उन्नति करते हुए (सखिभ्यः) आपको आज्ञा पालक हम मित्रों के लिए (शिक्ष) शुभगुणों का उपदेश कीजिए ॥२१॥
भावार्थ :- जैसे इस संसार में ईश्वर ने निकृष्ट, मध्यम और उत्तम वस्तु तथा स्थान रचे हैं वैसे ही सभापति आदि को चाहिए कि तीन प्रकार के स्थान रच वस्तुओं को प्राप्त ब्रह्मचर्य से शरीर का बल बढ़ा और मित्रों की अच्छी शिक्षा दे के ऐश्वर्य युक्त होवे ॥२१॥

विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुत द्याम् ।
मुहयन्त्वन्येऽअभितः सपत्नाऽइहास्माकंमधवां सूरिरस्तु ॥२२॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे (विश्वकर्मन् ) सम्पूर्ण उत्तम कर्म करने वाले सभापति (हविषा) उत्तम गुणों के ग्रहण से (वावृधानः) उन्नति को प्राप्त हुआ जैसे ईश्वर (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (धाम) सूर्यादि लोकों को सङ्गत करता है वैसे आप (स्वयम्) सब से समागम कीजिए (इह) इस जगत में (मधवा) प्रशंसित धनवान पुरुष (सूरिः) विद्वान (अस्तु) हो जिससे (अस्माकम्) हमारे (अन्ये) और (स्पत्ना:) शत्रुजन (अभितः) सब ओर से (मुहान्तु) मोह को प्राप्त हो ॥२२॥
भावार्थ :- जो मनुष्य ईश्वर ने जिस प्रयोजन के लिए जो पदार्थ रचा है उसको वैसा जानकर उपकार लेते है, उनकी दरिद्रता और आलस्यादि दोषों का नाश होने से शत्रुओं का प्रलय होता है और वे आप भी विद्वान हो जाते हैं ॥२२॥

वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेऽअद्याहुवेम ।
स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा ॥२३॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि विश्वकर्मा देवता
पदार्थ :- हे मनुष्यों ! हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिए जिस (वाचस्पतिम) वेद वाणी के रक्षक (मनोजुवम्) मन के समान वेगवान् (विश्वकर्मणाम् ) सब कर्मों में कुशल, महात्मा पुरुष को (वाजे) संग्राम आदि कर्म में (हुवेम) बुलावे (सः) वह (विश्वशम्भूः) सब के लिए सुखदायक (साधुकर्मा) धर्म युक्त कर्मों को सेवन करने द्वारा विद्वान (नः) हमारी (अवसे) रक्षा आदि के लिए (अधः) आज (विश्ववानि) सब (हवनानि ) ग्रहण करने योग्य कर्मों को (जोषत) सेवन करे ॥२३॥
भावार्थ:- मनुष्यों को चाहिए कि जिसने ब्रह्मचर्यं नियम के साथ सब विद्या पढ़ी हो, जो धर्मात्मा आलस्य और पक्षपात को छोड़ के उत्तम कर्मों का सेवन करता तथा शरीर और आत्मा के बल से पूरा हो उसको सब प्रजा की रक्षा करने में अधिपति राजा बनावे ॥२३॥

विश्वकर्मन हविषा वर्द्धनेन त्रातारमिन्द्रमकृणो स्वध्यम् ।
तस्मैविशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्नो विहव्यो यथा सत् ॥२४॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि विश्वकर्मा देवता
पदार्थ :- हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण सब कर्मों सेवन करने वाले सब सभाओं के पति राजा ! आप (हविषा:) ग्रहण करने योग्य (वर्द्धनेन) बुद्धि से जिस (अवध्यम) मारने के योग्य (त्रातारम्) रक्षक (इन्द्रम्) उत्तम सम्पत्ति वाले पुरुष को राज कार्य में सम्मति दाता मंत्री (अकृणोः) करो (तस्मै) उसके लिए (पूर्वीः) पहिले न्यायधीशों ने प्राप्त कराई (विश:) प्रजाओं को (समनमन्त) अच्छे प्रकार नमन करो (यथा) जैसे (अयम्) मंत्री (उग्नः) मारने में तीक्ष्ण (विहव्यः) विविध प्रकार के साधनों से स्वीकार करने योग्य (असत्) होवे वैसे कीजिए ॥२४॥
भावार्थ:-सब सभाओं के अधिष्ठाता के सहित सब सभासद उस पुरुष को राज्य का अधिकार देवे कि जो पक्षपाति न होवे। जो पिता के समान प्रजाओं की रक्षा न करे, उनको प्रजा लोग भी कभी न माने और जो पुत्र के तुल्य प्रजा की न्याय से रक्षा करे उनके अनुकूल प्रजा निरन्तर हो ॥२४॥

विश्वकर्म्मा विमनाऽआद्विहाया धाताविधाता पर मोत सुन्दृक् ।
तेषामिष्टानि समिषा मंदन्ति यत्रा सप्तऋषीन् परऽएकमाहुः ॥२६॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि विश्वकर्मा देवता
पदार्थ :- हे मनुष्यों (विश्वकर्मा) जिसका समस्त जगत का बनाना क्रियमाण काम और जो ( विमनाः) अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त (विहायाः) विविध प्रकार के पदार्थों में व्याप्त (धाता) सब का धारण पोषण करने (विधाता) और रचने वाला (संदूक) अच्छे प्रकार सब को देखता (परः) और सबसे उत्तम हैं तथा जिसको (एकम्) अद्वितीय (आहुः) कहते अर्थात् जिसमें दूसरा कहने में नहीं आता (आत्) और (यत्र) जिसमें (सप्तऋषीन) पांच प्राण सूत्रात्मा और धनञ्जय इन सात को प्राप्त होकर (इषा) इच्छा से जीव (संमदन्ति) अच्छे प्रकार आनंद को प्राप्त होते (उत) और जो (तेषाम्) उन जीवों के (परमा) उत्तम (इष्टानि ) सुख सिद्ध करने वाले कामों को सिद्ध करता है, उस परमेश्वर की तुम लोग उपासना करो ।।२६।।
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि सब जगत को बनाने, धारण, पालन और नाश करने वाला एक अर्थात् जिसका दूसरा कोई सहायक नहीं हो सकता उसी परमेश्वर की उपासना अपने चाहे हुए काम के सिद्ध करने के लिए करना चाहिए ॥२६॥

विश्वकर्मा हाजनिष्ट देवऽआदिद् गन्धर्वोऽअभवद द्वितीयः ।
तृतीयः पिता जनितौषधीनामपा गर्भ व्यदधात्युरुत्रा ।।३२।।
भौवन विश्वकर्मा ऋषि विश्वकर्मा देवता
पदार्थ :- हे मनुष्यों ! इस जगत में (विश्वकर्मा) जिसके समस्त शुभ काम है, वह (देवः) दिव्यस्वरूप वायु प्रथम (इत्) ही (अभवत) होता है। (आत्) इसके अनन्तर (गन्धर्वः) जो पृथिवी को धारण करता है वह सूर्य वा सूत्रात्मा वायु (अजनिष्ट) उत्पन्न और (औषधीनाम्) यव आदि औषधियों (अपाम्) जलों और प्राणों का (पिता) पालन करने वाला ही (द्वितीय) दूसरा अर्थात धनञ्जय तथा जो प्राणों के (गर्भम्) गर्भ अर्थात् धारण को (व्यदधात्) विधान करता है वह (पुरुत्रा) बहुतों का रक्षक (जनिता) जलों का धारण करने हारा मेघ (तृतीयः) तीसरा उत्पन्न होता है, इस विषय को आप लोग जानो ॥३२॥
भावार्थ:-सब मनुष्यों को योग्य है कि इस संसार सब कर्मों के सेवन करने वाले जीव पहिले, बिजली, अग्नि, वायु और सूर्य पृथिवी आदि लोकों के धारण करने वाले हैं, वे दूसरे और मेघ आदि तीसरे है। उनमें पहिले जीव अज अर्थात उत्पन्न नहीं होते और दूसरे, तीसरे उत्पन्न हुए है परन्तु वे भी कारण रूप से नित्य है, ऐसा जाने ॥३२॥
चित्तिंजुहोमि मनसा घृतेनयथा देवाऽइहागमन्वीति होत्राऽऋतावृधः।
पत्येविश्वस्य भूमनो जुहोमिविश्वकर्मणेविश्वादाभ्यहविः ॥७८॥
भौवन विश्वकर्मा ऋषि विश्वकर्मा देवता
पदार्थ :- हे मनुष्यों ! (यथा) जैसे मैं (मनसा) विज्ञान वा (घृतने) घी से (चित्तिम) जिस क्रिया से संचय करते हैं उसको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ वा जैसे (इह) इस जगत में (वीति होत्राः) सब ओर से प्रकाशमान जिनका यज्ञ है वे (ऋतावृधः) सत्य से बढ़ते और (देवा) कामना करते हुए विद्वान लोग (भूमनः) अनेक रूप वाले (विश्वस्य) समस्त संसार के (विश्वकर्मणे) सबके करने योग्य काम को जिसने किया है, उस (पत्ये) पालने वाले जगदीश्वर के लिए (अदाभ्यम) नष्ट न करने और (हविः) होमने योग्य सुख करने वाले पदार्थ का (विश्वाहा) सब दिनों होम करने को (आगमन्) आते हैं और मैं होमने योग्य पदार्थों को (जुहोमि) होमता हूँ, वैसे तुम लोग भी आचरण करो ॥७८॥
भावार्थ:-जैसे काठों में चिना हुआ अग्नि घी से बढ़ता है, वैसे में विज्ञान से बढूँ व जैसे ईश्वर की उपासना करने वाले विद्वान संसार के कल्याण करने का प्रयत्न करते हैं वैसे मैं भी यत्न करूं ॥७८॥

प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनोगन्धर्वस्तस्य ऽऋक्
सामान्य प्सरसऽएष्टयोनामं ।
स नऽइदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै
स्वाहा वाटताम्यः स्वाहा ॥४३॥
यजुर्वेद अध्याय १८ रितस्य ऋषि देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे मनुष्यों! तुम जो (विश्वकर्मा) समस्त कार्यों का हेतु (प्रजापतिः) और जो प्रजा का पालने वाल स्वामी मनुष्य है (तस्य) उसके (गन्धर्व:) जिससे वाणी आदि को धारण करता है (मनः) ज्ञान की सिद्धि करने द्वारा मन (ऋक्सामानि) ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र (अप्सरसः) हृदयाकाश में व्याप्त प्राण आदि पदार्थों में जाती हुई क्रिया (एष्टयः) जिनसे विद्वानों का सत्कार सत्य का सङ्ग और विद्या का दान होता है यह सब (नाम) प्रसिद्ध है जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिए (इदम्) इस (ब्रह्म) वेद और (क्षत्रम्) धनुर्वेद की (पातु) रक्षा करे वैसे (तस्मै) उसके लिए (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) धर्म की प्राप्ति और (ताभ्यः) उन उक्त पदार्थों के (स्वाहा) सत्य क्रिया से उपकार को करो ।।४३।।
भावार्थ :- जो मनुष्य पुरुषार्थी विचारशील वेद विद्या के जानने वाले होते हैं वे ही संसार के भूषण होते हैं ॥४३॥

य द्दत्तं यत्यरादानं यत्पूंर्त याश्च दक्षिणाः
तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषुनोदधत् ॥६४॥
ऋषि विश्वकमंषि यज्ञो देवता
पदार्थ :- हे गृहस्थ विद्वन आपने (यत) जो (दत्तम) अच्छे धर्मात्माओं को दिया वा (यत) जो (परादानम) और से लिया वा (यत) जो (पूर्तम) पूर्ण सामग्री (याश्च) ओर जो कर्म के अनुसार (दक्षिण) दक्षिणा दी जाती है (तत्) उस बस (स्व:) इन्द्रियों के सुख को (वैश्वकर्मण:) जिसके समग्र कर्म विद्यमान है उस (अग्नि) अग्नि के समान गृहस्थ विद्वान आप (देवेषु) दिव्य धर्म संबंधी व्यवहारों में (नः) हम लोगों को (दधत) स्थापन करें ॥६४॥
भावार्थ:- जो पुरुष और जो स्त्री गृहाश्रम किया चाहे वे पूर्ण प्रगल्भता अर्थात अपने में बल पराक्रम परिपूर्णता आदि सामग्री करके ही युवावस्था में स्वयंवर विधि के अनुकूल विवाह कर धर्म से दान, आदान, मान, सम्मान आदि व्यवहारों को करें ॥ ६४ ॥

यत्र धारा अनपेता मघोर्घृतस्य च याः ।
तदग्निवैश्वकर्मणः स्वर्देवेषुनोदधत ॥ १८/६५ ।।
यजुर्वेद अध्याय २४ ऋषि विश्वकर्मर्षि यज्ञो देवता
पदार्थ :- (यत्र) जिस यज्ञ में (मधोः) मधुरादि गुण युक्त सुगन्धित द्रव्यों (च) और (घृतस्य) घृत के (च) जिन (अनपेताः) संयुक्त (धारा) प्रवाहों को विद्वान लोग करते है (तत्) उन धाराओं से (वैश्वकर्मणः) सब कर्म होने का निमित (अग्नि) अग्नि (नः) हमारे लिए (देवेषु) दिव्य व्यवहारों में (स्वः) सुख को (दधत) धारण करता है ॥६५॥
भावार्थ:- जो मनुष्य वेदी आदि को बना के सुगन्ध और मिष्टादियुक्त बहुत घृत को अग्नि में हवन करते है, वे सब रोगों का निवारण करके अतुल सुख को उत्पन्न करते हैं ॥६५॥

उक्ताः सञ्चरा एता ऐन्द्रागनाः
प्राशृङ्ग माहेन्द्रा बहुरूपा वैश्वकर्मणाः ॥१७॥
यजुर्वेद अध्याय ३१ ऋषि नारायण देवता आदित्य विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे मनुष्यों, तुमको जो (एता:) ये (एन्द्राग्नाः) वायु और बिजली देवता वाले (प्राशृङ्गः) जिनके उतम सींग वे (माहेन्द्राः) महेन्द्र देवता वाले वा (बहुरूपाः) बहुतरंग युक्त (वैश्वकर्मणः) विश्वकर्म देवता वाले (संचराः) जिनके अच्छे प्रकार आते जाते है वे मार्ग (उक्ता:) निरूपण किए उनमें आना जाना चाहिए ।।१७।।
भावार्थ :- जैसे विद्वानों ने पशुओं की पालना आदि के मार्ग कहे है, वैसे ही वेद में प्रतिपादित है ॥१७॥

अद्भयः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्ने ।
तस्य त्वष्टाः विदध द्रपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्व माजान मग्ने ॥१७॥
यजुर्वेद अध्याय ३१ ऋषि नारायण देवता आदित्य विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे मनुष्यों! जो (अद्भयः) जलो (पृथिव्यै) पृथ्विी (च) और (विश्वकर्मणः) सब कर्म जिसके आश्रय से होते उस सूर्ये से (सम्भृतः) समयक पुष्ट हुआ उस (रसात) रस से (अग्ने) पहिले यह सब जगत (समअवर्तत) वर्तमान होता है (तस्य) उस इस जगत के (तत) उस (रूपम) स्वरूप को त्वष्टा सूक्ष्म करने वाला ईश्वर (विदधत) विधान करता हुआ (अग्ने) आदि में (मर्त्यस्य) मनुष्य के (आजानम) अच्छे प्रकार (कर्तव्य) कर्म और (देवत्व) विद्वता को एती प्राप्त होता है ॥१७॥
भावार्थ :- हे मनुष्यों ! जो सम्पूर्ण कार्यों को करने वाला परमेश्वर कारण से कार्यों को बनाता है, सब जगत के शरीरों के रूपों को बनाता है, उसका ज्ञान और उसकी आज्ञा का पालन ही देवत्व है, ऐसा जानो ॥१७॥

ब्रह्मणस्पते त्वमस्य यन्ता सूक्तस्य वोधितनयं य
जिन्व विश्वन्तद्भद्रं यदवन्ति देवा वृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥
यइमा विश्वा । विश्वकर्म्मा ।
यो नः पिता । अन्तपतैन्नस्य नोदेहि ॥५८॥
यजुर्वेद अध्याय ३४ ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- हे ब्रह्माण्ड के रक्षक ईश्वर विद्वान लोग प्रकट करने योग्य व्यवहार में जिसकी रक्षा का उपदेश करते है और जिसको (सुवीराः) सुन्दर उत्तम वीर पुरुष हम लोग (वृहद्) बड़ा श्रेष्ठ (वदेम) कहें, उस (अस्य) इस (सुक्तस्य) अच्छे प्रकार कहने योग्य वचन के (त्वम) आप (यन्ता) नियमकर्ता हूजिये (च) और (तनयम् ) विद्या का शुद्ध विचार करने वाले पुत्रवत् प्रिय पुरुष को (बोधि) बोध कराइये (भद्रम्) कल्याणकारी विश्वम् सब जीव मात्र को (जिन्व ) तृप्त कीजिए ॥५८॥
भावार्थ :- हे जगदीश्वर, आप हमारी विद्या और सत्य व्यवहार के नियम करने वाले होइए, हमारे सन्तानों को विद्या युक्त कीजिए, सब जगत की यथावत न्याय युक्त, धर्म उत्तम शिक्षा और परस्पर प्रीति उत्पन्न कीजिए ॥५८॥

ऋग्वेद में विश्वकर्मा
सामवेद में विश्वकर्मा
अथर्ववेद में विश्वकर्मा
Back