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अथर्ववेद में विश्वकर्मा

अथर्ववेद
ये भक्षयन्तो न वसून्या नृघुर्यानग्नयोअन्वतप्यन्त घिष्णयाः।
या तेषामवया दुरिष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा ॥१॥
(विश्वकर्मा सूक्त ) काण्ड २ सूक्त ३५ ऋषि-अंगिरा देवता विश्वकर्मा

पदार्थ :- (य) जिन मनुष्यों ने (अक्षयन्तः) पेट भरते हुए (वसुनि) धन को (न) नहीं आनिषुः बढ़ाया और (यान्) जिन पर (धिष्ण्याः) बोलने काम वा बुद्धि में चतुर (अग्न्यः) गतिशील ज्ञानी। वा अग्रि समान तेजस्वी पुरुषों ने (अनवतप्यन्त) अनुताप किया है शोक माना है ( तेषाम्) उन (कंजूसों) की (या) जो (अवयाः) विनाश हेतु दुरिष्टि खोटी सङ्गति है (विश्वकर्मा) सब कर्मों में चतुर वा संसार का रचने वाला परमेश्वर (ताम) उस (कुसंगति) को (नः) हमारे लिए (स्विष्टिम) उत्तम फलदायक (कृणवत् ) करे ॥१॥
भावार्थ:- जो स्वार्थी मनुष्य केवल अपना पेट भरना जानते हैं और जो धन एकत्र करके उपकार नहीं करते उनकी दशा उदारशील महात्माओं को शोचनीय होती हैं सब कर्म कुशल मनुष्यों को विश्वकर्मा सुमति दे कि उनका मन स्वार्थपन छोड़कर जगत की भलाई में लगे सब मनुष्य विश्वकर्मा निहित कर्मों में कुशल होकर और कुसंगति का दुष्ट फल देखकर दुष्कर्मों से बचे और सदा आनन्द में रहें ॥१॥

यज्ञपतिमृषय एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा, अनुतप्यमानम् ।
मथव्यान्त्स्तोकानप यान् रराधसंनष्टे भिः सृजतु विश्वकर्मा ॥२॥
काण्ड २ सूक्त ३५ देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- (ऋषय) सूक्ष्मदर्शा (ऋषि) (प्रजा) मनुष्यादि प्रजाउ पर (अनुतप्यमानम) अनुताप अनुकम्पा करने वाले (यज्ञपतिम) उत्तम कर्मों के रक्षक पुरुष को (एनसा) पाप से (निभेक्तम्) पृथक् किया हुआ (आहूः) बताते हैं उसने (यान्) जिन (मयव्यान) मथने योग्य (स्तोकान्) प्रसन्न करने वाले सूक्ष्म विषयों को (आप) आनंद से (रराध) सिद्ध किया है (विश्वकर्मा) संसार का रचने वाला (तेभिः) (तः) उन सूक्ष्म विषयों के साथ (नः) हमें (संसृजतु) संयुक्त करें ॥२॥
भावार्थ:- ऋषि लोग उस पुरुषार्थी पुरुष को निष्पाप और पुण्यात्मा मानते हैं जो सब जीवों पर दया और उपकार करता है। वही धर्मात्मा आप्त पुरुष सत्य सिद्धान्तों को साक्षात् करके आनन्द से संसार में प्रकाशित करता है। विश्वकर्मा उन अटल वैदिक धर्मों को हम सबके हृदय में स्थापित करें जिससे हम पुरुषार्थ पूर्वक सदा आनन्द भोगें ॥२॥
अदान्यान्त्सोमपान् मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः ।
यदेवश्चकृवान् बद्ध एष तं विश्वकर्मन् प्र मुञ्चा स्वस्तये ॥३॥
काण्ड २ सुक्त ३५
पदार्थ :- (अदान्यान) दान के अयोग्य को (सोमपान) अमृत पान करने वाले (मान्यमानः) मानता हुआ पुरुष (यज्ञस्य) शुभ कर्म का विद्वान जानने वाला और (समये) समय पर (धीरः) धीर (न) नहीं होता (एषः) इस पुरुष ने (बद्धः) अज्ञान में वृद्ध होकर (यत) जो (एनः) पाप (चकृवान) किया है (विश्वकर्मन्) हे संसार के रचने वाले (तम) उस पुरुष को (स्वस्तय) आनन्द भोगने के लिये (प्रमुख्य) युक्त कर दें ॥३॥
भावार्थ: :- मनुष्य अविवेक के कारण मूढ़ होकर अपनी और संसार की हानि कर डालता है। वह पुरुष अपने प्रमाद पर पश्चाताप कर और पाप कर्म छोड़ कर विश्वकर्मा की आज्ञा का पालन करके आनन्द भोगें ॥३॥

घोरा ऋषयो नमो अस्त्वे भ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम् ।
बृहस्पतये महिषद्युमन्नमो विश्वकर्मन् नमस्ते पाह्यस्मान् ॥४॥
काण्ड २ सुक्त ३५
पदार्थ :- (ऋषय) सूक्ष्मदर्शी पुरुष (घोराः) पाप कर्मों पर कार्यक होते हैं (यभ्यः) उन ऋषियों को (नमः) अन्न वा नमस्कार (अस्तु) होवे (यत) क्योंकि (एषाम) उन ऋषियों के (मनसः) मन की (चक्षु) आँख (च) निश्चय करके (सत्यम्) यथार्थ देखने वाली (अहित) है। पूजनीय परमेश्वर (वृहस्पतये) सब बड़े-बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी (आप) को (धुमत) स्पष्ट (नमः) नमस्कार है (विश्वकर्मन्) हे संसार के रचने वाले नमस्ते! तेरे लिये नमस्कार है (अस्मान ) हमारी (पाहि) रक्षा कर ॥४॥
भावार्थ:- जिस महात्मा आपत ऋषियों के मानसिक, वाचिक और कार्यक कर्म संसार को दुःख से मुक्त करने के लिए होते हैं उनके उपदेशों को सब मनुष्य प्रीतिपूर्वक ग्रहण करें और जो विश्वकर्मा समस्त सृष्टि का कर्त्ता-धर्ता हैं उसके उपकारों को हृदय में धारण करके उसकी उपासना करें और सदा पुरुषार्थ करके श्रेष्ठों की रक्षा करते रहें ॥४॥
यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि ।
इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥५॥
काण्ड २ सुक्त ३५ ऋषि देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- जो मनुष्य (यज्ञ से) पूजनीय कर्म का (चक्षु) नेत्र के समान प्रदर्शक (प्रभूति) पुष्टि (च) और (मुखम्) मुख समान मुख है उसको (वाचा) वाणी से (श्रोत्रेण) कान से और (मनसा) मन में (जुहोमि) में स्वीकार करता है (सुमनस्यमाना) शुभचिन्तकों के जैसे आचरण वाले (देवा) व्यवहार कुशल महात्मा (विश्वकर्मणा) संसार के रचने वाले के (विततम्) फैलाये हुए (इमम्) इस (यज्ञम्) पूजनीय मर्म को (आयन्तु) प्राप्त करे ।।५।।
भावार्थ:- मनुष्यों को उचित है कि सत्य संकल्पों सत्य ग्रन्थ ऋषि महात्माओं के वैदिक उपदेश को वाणी से पठन-पाठन, श्रोत्र से श्रवणश्रावण और मन से निदि-ध्यानम् अर्थात बारम्बार विचार करके ग्रहण करे और सब अनुग्रहशील महात्मा विश्वकर्मा के दिये हुए विज्ञान और धर्म का प्रचार करते रहें ॥५॥

यस्य नेशे यज्ञपतिर्न यज्ञो नास्य दातेशे न प्रतिग्रहीता ।
यो विश्वजिद् विश्वभृद् विश्वकर्मा धर्म नोब्रूत यतमश्चतुष्यात् ॥५॥
अथर्व कांड ४ सूत ११ ऋषि भृग्यङ्गिरा देवता इन्द्र
पदार्थ :- (न) न तो (यज्ञपतिः) संगतिकर्त्ता पुरुष और (न) न (यज्ञः) संगतिकर्म (यस्य) ब्रिह परमेश्वर का (ईषे-इष्टे) ईश्वर है (न) न तो दाता न (प्रतिग्रहीता) ग्रहण करता (अस्य) इसका (ईशे) ईश्वर है (व:) जो (विश्वजित) सबका जीतने वाला (विश्वमुत) सबका पोषण करने वाला (विश्वकर्मा) सब काम करने वाला और (यतमः) जोन सा (चतुष्यातु) चारों दिशाओं में स्थित वा गति वाला है (धर्मनः) उस प्रकाशमान सूर्येश दृश विश्वकर्मा को (नः) हमें है ऋषियों (बुत) बताओ ॥५॥
भावार्थ:- न तो संगति कर्त्ता और न संगति कर्म ईश्वर है न दाता और न संग्रहकर्त्ता ईश्वर है। है ऋषियों जो सर्वज्ञ, सृष्टि का निर्माता, सूर्य के समान चारों दिशों में प्रकाशमान विश्वकर्मा को हमें बताओ।

एतं भागं परिं ददामि विद्वान् विश्वंकर्मन प्रथमजा ऋतस्यं ।
अस्मामिर्दतं जरसं परस्तादच्छिन्नं तन्तु मनु सं तरेम ॥१॥
काण्ड 6 सूक्त १२२ ऋषि भृगु देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- (प्रथमजा) श्रेष्ठों में प्रसिद्ध (विद्वान) विद्वानों में (ऋस्य) सत्य धर्म के (एतम्) इस (भागम) सेवनीय व्यवहार को (विश्वकर्मन्) जगत के रचने वाले विश्वकर्मा परमेश्वर में (परिददामि) समर्पण करता है (जरसः) बुढ़ापे में (परस्तात) दूर देश में (अस्साभिः दतम्) अपने दिए हुए (अच्छिन्नम्) बिना टूटे (तन्तु मनु) फैले हुए अथवा वस्त्र में सूत के समान सर्वव्यापक परब्रह्म के पीछे-पीछे (सम) यथावत (तरेम्) हम पार करें ॥१॥
भावार्थ:- सर्वश्रेष्ठ, सत्य, धर्मयुक्त व्यवहार करने वाले सृष्टिकर्त्ता विश्वकर्मा परमेश्वर को समर्पित। सर्वव्यापक परमब्रह्म विश्वकर्मा के पीछे हम ऐसे चले जैसे वस्त्र सूत के समान।

यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः ।
यस्यां मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्ध्वाः शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात् ।
सा नो भूमिर्वर्धयद् वर्धमाना ॥१३॥
अथर्व (पृथ्वी सूक्त) काण्ड १२ सूक्त १ ऋषि अथर्वा देवता भूमि
पदार्थ : - (यस्याम भूम्याम) जिस भूमि पर (विश्वकर्मण:) विश्वकर्मा सब कामों में चतुर लोग (वेदिम्) वेदी (यज्ञस्थान) को (परिगृह्यन्ति) घेर लेते हैं (यस्याम) जिस (भूमि) पर (यज्ञम्) यज्ञ देव पूजा संगतिकरण और दान व्यवहार को (तन्वते) फैलाते (यस्या) (पृथिव्याम्) जिस पृथिवी पर (उर्ध्वाः) ऊँचे और (शुक्राः) उजले (स्वरवः) विजय स्तम्भ (आहुत्याः) आहुति (पूर्णाहुति यज्ञपूर्ति) से (पुरस्तात) पहले (मीयन्ते) गोदे जाते हैं (सा) वह (वर्धमाना) बढ़ती हुई (भूमि) (नः) हमें (वर्धयतु) बढ़ाती रहे ॥१३॥
भावार्थ:- सृष्टिकर्त्ता विश्वकर्मा के उपासक कौशलकर्मी यज्ञ वेदी को निर्मित करते हैं। उस यज्ञ वेदी में देवपूजा, दान आदि को पृथ्वी पर अग्रसर करते हैं और आहूतियों द्वारा यज्ञ पूर्ति करते हैं वही भूमि हमें भी उन्नति की ओर ले जाये।

यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम् ।
भुजिष्टां पात्रं निहितं गुहायदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भयः ॥६०॥
मण्डल १२ सूक्त १
पदार्थ :- (विश्वकर्मा) विश्वकर्मा सब कर्मों में चतुर मनुष्य ने (हविषा) देने लेने योग गुण के साथ वर्तमान (अर्णवे) जल वाले (रजसि अन्तः) अन्तरिक्ष के भीतर (प्रविष्टाम) प्रवेश की हुई (याम) जिस पृथिवी को (अवंच्छत) खोजा (भुजिष्यम्) भोजन योग्य (पात्रम्) पात्र रक्षा सादन (गुहा) पृथिवी के गर्भ में (अत) जो (निहितम्) रखा था (वह) (मातृम् दभ्य) माताओं वाले (प्राणियों) के लिए भोगे आहार व पाताल में (साविः अभवत) प्रकट हुआ है ।।६०।।
भावार्थ:- सब कर्मों में चतुर विश्वकर्मा ने अन्तरिक्ष के भीतर प्रवेश की हुई योग गुणों से भरपूर पृथ्वी को खोजा, सभी प्राणियों के लिए आहार भोजन योग्य सामग्री के लिए पृथ्वी को उपजाऊ व उत्पादन के योग्य बनायी।

रोहितो यज्ञंव्य दधाद् विश्वकर्मणे तस्मात् तेजांस्युपमेमान्यागुः ।
वोचेयं ते नाभिं भुवनस्याधि मज्मनि ॥१४॥
अथर्व (अध्यात्म सूक्त) काण्ड १३ सूक्त १ ऋषि ब्रह्मा देवता अध्यात्म
पदार्थ :- (रोहितः) सब के उत्पन्न करने वाले (परमेश्वर) ने (यज्ञम्) यज्ञ ( संगति योग्य व्यवहार) को (विश्वकर्मणे) सब कर्मों में चतुर (मनुष्य) के लिए (वि अदधात) उत्पन्न किया है, (तस्मात्) उस (विश्वकर्मा) से (इमानि) ये सब (तेजांसि) तेज (मा) मुझको (उप) समीप से (आ अगुः) प्राप्त हुए हैं। हे विश्वकर्मा (ते) तेरे (नाभिम) सम्बन्ध को (भुवनस्य) संसार के मज्मनि बल के भीतर (अधि) अधिकारपूर्वक (वोचेयम्) में बतलाई ॥१४॥
भावार्थ :- परमपिता विश्वकर्मा ने यज्ञ कर्म के लिए सब कार्यों में चतुर मानव को उत्पन्न किया। उस विश्वकर्मा की कृपा से ही ऊर्जा प्राप्त हुई। हे विश्वकर्मा, इस सृष्टि में तू ही सर्व शक्तिमान है।

वाचस्पत ऋतवः पञ्चये नौ वैश्वकर्मणाः परिये संवभूवुः ।
इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वां परमेष्ठिन् परि रोहित
आयुषा वर्चसा दधातु ॥१८॥
पदार्थ :- (वाचः पते) हे वेद वाणी के स्वामी (येये) जो ही (पञ्च) पाँच पृथिवी, जल, वायु, तेज, आकाश, पाँच तत्वों से सम्बन्ध वाले बसंत आदि छः (ऋतवः) ऋतुएँ (नौ) हम दोनों स्त्री-पुरुष के लिये (वैश्वकर्मणा) सब कर्मों के हितकारी (परि) सब ओर (से संवभूवुः) प्राप्त हुए हैं, (इहएव) यही इसी मनुष्य जन्मे प्राण जीवन वायु (नः) हमारी (सख्य) मित्रता में (अस्तु) होवे। (परमेष्टिन) हे बड़े ऊँचे पद वाले विश्वकर्मा (तं त्वां) उस तुझको (रोहित) उत्पन्न हुआ यह मनुष्य (आयुषाः) आयु के साथ और (वर्चसा:) प्रताप के साथ (परि) सब और से (दधातु) धारण करें ॥१८॥
भावार्थ :- हे वेदवाणी के स्वामी परमपिता पाँचों तत्त्वों के पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश तथा छः ऋतुओं के गतिमान आप मनुष्य के हितकारी हैं। प्राण वायु के सहचर सर्वस्व विश्वकर्मा आप द्वारा उत्पन्न किये जीव सदैव आपके प्रताप को स्मरण करें।

विश्वकर्मा मा सप्तऋषिभिरुदीच्या दिशः पातु तस्मिन् क्रमे ।
तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि समा गोपायतु तस्मा आत्मानं परिददे स्वाहा ॥७॥
अथर्व (सुरक्षासूत्र) काण्ड १९ सूक्त १७ ऋषि अथर्वा देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- विश्वकर्मा सब कर्म करने वाला (सप्तऋषिभिः) सात ऋषियों सहित कान, आँख, नाक, जिह्वा, त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और बुद्धि सहित (आ) मुझे (उदीव्याः) उत्तर वा वायी (दिशः) दिशा से (पातु) बचावे, (तस्मिन) उसमें उस परमेश्वर के विश्वास में (क्रमे) में पद बढ़ाता (तस्मिन) उसमें (श्रय) आश्रय लेता हूँ। (ताम) उस (पुरम्) अग्रगामिनी शत्सी दुर्गस्वरूप परमेश्वरं को (प्र) अच्छे प्रकार (एमि) प्राप्त होता हूँ (सः) वह ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (आ) मुझे (रक्षतु ) बचावे (सः) वह (मा) मुझे (गोपायतु) पाले (तस्मै) उसको (आत्मानम् ) अपना आत्मा मन सहित देह और जीव (स्वाहा) सुन्दर वाणी दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ (परिददे) मैं सौंपता हूँ ॥७॥
भावार्थ :- विश्वकर्मा सत्कर्म करने वाला परमेश्वर, सप्त ऋषियों सहित कान, आँख, नाक, जिह्वा, त्वचा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि सहित मुझे सांसारिक पाप कर्मों से बचाये। ताकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हुआ आगे बढूं और उसी में आत्मसात हो जाऊँ और दुर्गास्वरूप विश्वकर्मा को प्राप्त होऊँ। वही ज्ञान स्वरूप विश्वकर्मा मुझे पापकर्मों से बचाये। वहीं विश्वकर्मा को मैं समर्पित हूँ।

विश्वकर्माणं ते सप्तऋषिवन्त मृच्छन्तु ।
ये माघायव उदीच्या दिशोऽभिदासात् ॥७॥
काण्ड १९ सूक्त १८
पदार्थ :- (ते) वे दुष्ट (सप्तऋषिवन्तम्) सात ऋषियों हमारे कान, आँख, नाक, जिह्वा, त्वचा, पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन, बुद्धि के स्वामी (विश्वकर्मणम्) विश्वकर्मा सबके बनाने वाले परमेश्वर की (ऋच्छन्तु) सेवा करे या जो (अधायवः) बुरा चीतने वाले (मा) मुझे (उदीव्याः) उत्तर वा बायी (दिश:) दिशा से (अभिदासात) सताया करें ॥७॥
भावार्थ:- ये सप्तऋषि हमारे कान, आँख, नाक, जिह्वा, त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि के स्वामी विश्वकर्मा सर्व निर्माणकर्त्ता को स्मरण करें। जो चीतने वाले मुझे उत्तर या बाँयी दिशा से सताया करें।

यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मन्सा जुहोमि ।
इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥५॥
अथर्व (यज्ञ सूक्त) काण्ड १९ सूक्त ५८ ऋषि देवता यज्ञ
पदार्थ : (जो पुरुष) (यज्ञस्य) पूजनीय कर्म का (चक्षु) नेत्र के समान प्रदर्शक (प्रभृतिः) पुष्टि (च) और (मुखम् ) मुख के समान मुख्य है उसको (वाचा) वाणी से (श्रोत्रेण) कान से और (मनसा) मन से (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ। (सुमनस्यमाना) शुभचिन्तकों के समान आचरण वाले (देवा) व्यवहार कुशल महात्मा (विश्वकर्मणा) संसार के रचने वाले विश्वकर्मा द्वारा (विततम्) फैलाये हुए (इमम्) इस (यज्ञम् ) पूजनीय धर्म को (आयन्तु ) प्राप्त करें ॥५॥
भावार्थ :- जो पुरुष पूजनीय कर्म का नेत्र के समान प्रदर्शक और मुख के समान मुख्य है उसको वाणी से कान से और मन से में स्वीकार करता हूँ। शुभचिन्तकों के समान आचरण वाले, व्यवहार कुशल महात्मा संसार के रचने वाले विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा फैलाये हुए पूजनीय धर्म को प्राप्त करें।

त्वमिन्द्रामि भूरसि त्वं सूर्यमरोचयः ।
विश्वकर्मा विश्वदेवो महाँ असि ।।६।।
काण्ड २० सूक्त ६२
पदार्थ :- (इन्द्र) हे इन्द्र, बड़े ऐश्वर्य वाले परमात्मन (त्वम्) तू (अभि भूः) विजयी (असि) है, (त्वम्) तूने (सूर्येम्) सूर्य को (अरोचयः) चमक दी है तू (विश्वकर्मा) विश्वकर्मा सबका बनाने वाला (विश्वदेवः) विश्वदेव सबका पूजनीय और (महान्) महान अति प्रबल (असि) है ॥६॥
भावार्थ :- हे इन्द्र बड़े ऐश्वर्य वाले विश्वकर्मा तू विजयी है तूने सूर्य को चमक दी है, तू सृष्टि का निर्माता है और हे विश्वदेव, सबके पूजनीय आप महान एवं अति प्रबल है।

ऋग्वेद में विश्वकर्मा
यजुर्वेद में विश्वकर्मा
सामवेद में विश्वकर्मा
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