"विश्वकर्मा-सूक्त"
यइमाविश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणामिच्छमानः प्रथमच्छदवराँ आ विवेश ॥१॥
मंडल १० सूक्त ८१ ऋषि विश्वकर्मा भौवन, देवता विश्वकर्मा
पदार्थ :- (यः) जो सब जगत का द्रष्टा (होता) सब जगत का ग्रहण करने वाला (नः) हमारा (पिता) पिता है वह प्रभु (इमा) इन (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकों को (जुह्यवत) शक्ति प्रदान करता हुआ अथवा आहुति देता हुवा (निअसीदत) विराजता है (सः) वह (आशिषा) भावना मात्र से (द्रविणम) गतिशील जगत को (इच्छमान:) चाहता हुवा (प्रथमच्छत) प्रथम जगत में व्यापक होता हुआ (अवरान) पीछे उत्पन्न होने वाले जगत में भी आविषेश व्यापक होता है ॥१॥
भावार्थ:- यह सुक्त ऋषि विश्वकर्मा भोवन द्वारा समस्त जगत के कर्ता विश्व में व्यापक भगवान विश्वकर्मा के सर्वमेव पुष्टि आदि संबंधी यज से सम्बद्ध हैं यहाँ सृष्टि रचना यज्ञ के रूप में वर्णित है। सब जगत का द्रष्टा समस्त जगत को प्रलय में अंदर ग्रहण करने वाला परमेश्वर जो हमारा पिता है वह समस्त जगत को प्रलय में अपने अंदर ले लेता है और सृष्टि के समय में वह समस्त जगत को वह शक्ति प्रदान करता हुआ उसकी रचना करता है वह सिसृक्षा कामना से इस गतिशील यशशाली जगत को चाहता हुआ इसमें व्याप्त है और इसके बाद जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं उनमें भी व्यपाक है ॥१॥
किं स्विदासीद धिष्ठानमारम्भणं कतिमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमि जनयन्विश्वकर्मा विद्यामौर्णोन्महिनाविश्वचक्षाः ॥२॥
मण्डल १० सूक्त ८१
पदार्थ :- (किमस्वित) कौनसा (आसीत) होता है (आधिष्टागनम) आश्रय इस जगत का (कतमतस्वि) कौनसा होता है। (आरम्भणम) मूल उपादान कारण इस जगत का प्रारम्भ (कथा) किस प्रकार (आसीत) होता है (यतः) जिससे (विश्वकर्मा) सब जगत का बनाने वाला (विश्वचक्षाः) समस्त जगत का द्रष्टा परमेश्वर (भूमिम) भूमि को (जनयन) उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपने एश्वर्ये से भूमि ओर (धाम) धुलोक (विग्रोर्णीत) अच्छादित करता है ॥२॥
भावार्थ :- जगत् का आश्रय क्या हैं, कौनसा मूल उपादान कारण है कैसे यह उत्पन्न होता है कि जिससे सब जगत का द्रष्टा और सब जगत का कर्ता विश्वकर्मा भूमि और बनाता हुआ उन्हें अपनी व्यापकता से आच्छादित करता है वस्तुतः विश्वकर्मा उसका आश्रय है। विश्वकर्मा की प्रकृति उसका उपादान है और उसी से वह जगत को बनाता है अगले मंत्र में यह स्पष्ट हो जाता है ॥२॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्यात् ।
संबाहुभ्यांधमति संपतत्रैर्द्यावाभूमि जनयन्देव एकः ॥३॥
मण्डल १० सूक्त ८१
पदार्थ :- विश्वकर्मा (विश्वतश्चसु ) सर्वदृष्टा (विश्वतोमुखः) सर्ववक्ता (विश्वतोथाः) सर्वशक्तिमान (विश्वतस्यात) सर्वव्यापक है (एकः) यकेना देव वह परमेश्वर (पतत्रैः) प्रकृति के परमाणुओं द्वारा (धावा भूमि) धु और भूमि को (संजनयन) उत्पन्न करता हुआ (बहभ्यांम) ज्ञान और क्रिया से (संवमति) सम्पूर्ण जगत को चलता है ॥३॥
भावार्थ:- वह विश्वकर्मा सर्वदृष्टा सर्ववक्ता सर्वं सक्तिमान और सर्व व्यापक है, वह प्रकृति के परमाणुओं द्वारा अकेला ही और भूमि को उत्पन्न करता हुआ अपने ज्ञान और क्रिया से सम्पूर्ण जगत को बनाता है ॥३॥
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवीनिष्ट तक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्धु वनानि धारयन् ॥४॥
मण्डल १० सू ८१
पदार्थ :- (किम स्वित) कौन सा है (वनम्) वन (क:टि) (वृक्षः) वृक्ष (आस) है (यतः) जिससे विश्वकर्मा प्रेरित शक्तियाँ (आदा) आकाश और पृथिवी को (निः ततक्षु) बनाती है। (मनीषिणाः) हे विद्वान पुरुषों (मनसा) अपने मनों से (पृच्छत इतेउ) पूछो (तत) उसे यत जो (भुवनानि) होने के योग्य अर्थात् उत्पत्ति में समर्थ भवतिव्य जगत के कारणों को (धारयन) धारण करता हुआ (अधि अतिष्ठत) उनका अधिष्ठाता हो रहा है ॥४॥
भावार्थ:- कौन सा है व वन कौन सा है, वह वृक्ष जिससे विश्वकर्मा प्रेरित जगत की रचना में लगी शक्तियाँ और लोक को उत्पन्न करती है। हे विद्वज्जनों! अपने मन से पूछो उसकी जो समस्त जगत के कार्य रूप में परिणत होने वाले कारणों को धारण कर उसका अधिष्ठाता हो रहा है ॥४॥
याते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा ।
शिक्षा सखिभ्यी हविषि स्व धावः स्वयं यजस्वतन्वै वृधानः ॥५॥
मण्डल १० सुक्त ८१
पदार्थ :- (विश्वकर्मन) हे समस्त विश्व के कर्ता: प्रभो (ते) तेरे द्वारा निमित्त (या) जो (परमाणि) परम उत्कृष्ट (धामानि) नाम रूप और स्थान है (या) जो (मध्यमा) मध्यम कोटि के हैं (उत) तथा (या) जो (अवमा) अवर कोटि के हैं (इमा) इन सबको (सखिभ्यः) ज्ञानी जीवों को (शिक्ष) सिखा। (स्वधाव:) हे प्रकृति के स्वामी (स्वयम्) अपने आप (हविषि) अन्न आदि से (वृधानः) बढ़ाता हुआ (तन्वम) जीवों के शरीर को (यजस्व) प्रदान करते हो ॥५॥
भावार्थ :- हे विश्व के कर्त्ता प्रभो! आपके द्वारा निमित्त उत्तम, मध्यम और अवर कोटि के जितने नाम जल और स्थान हैं उन सबको जीवों को शिक्षा देते हो और अन्नादि से बढ़ाते हुए जीव के शरीरों को प्रदान करते हो ॥५॥
विश्वकर्मन् हविषां वावृधानः स्वयं यज्ञस्व पृथिवीमुत द्याम्।
मुह्यन्तवन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरेस्तु ॥६॥
मण्डल १० सुक्त ८१
पदार्थ :- (विश्वकर्मन) हे समस्त, जगत के निर्माता प्रभो! (हविषा) अयनी प्रवृत्ति शक्ति से (वावृधानः) प्रबल होता हुआ (पृथिवीम) पृथिवी (उत) और (धाम) धुलोक को (यजस्व) प्रदान करते हो अथवा संगत करते हो (अन्य) अन्य अजानी (जनासः) जीव लोग (अमतः) सर्वथा (मुहयन्तु) यथार्थ नहीं जान पाते हैं (मघवा) समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी ही (अस्माकम) हमारा (वह) इस जगत में (सूरिः) ज्ञानदाता (अस्तु) है ॥६॥
भावार्थ :- हे समस्त जगत के निर्माता प्रभो! आप अपनी प्रकृति शक्ति से प्रबल हुए पृथिवी और धु लोक की संगति लगाते हो। अन्य अज्ञानी जीव लोग यथार्थता को नहीं जान पाते हैं। समस्त एश्वर्यों के स्वामी विश्वकर्मा आप ही इस जगत में हमारे ज्ञानदाता हैं ॥६॥
वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेअद्या हुवेम ।
सनोविश्वानि हवनानि जोद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा ॥७॥
ऋग्वेद मंडल १० सूक्त ८१
पदार्थ : हम (वाच: पतिम) वेदवाणी के स्वामी (विश्वकर्माणम्) समस्त जगत के कर्त्ता (मनोजुवम) मन के समान वेग वाले परमेश्वर को (उतय) के लिए तथा (वाजे) ऐश्वर्य और ज्ञान के लिए (हुवेम्) स्तुति करते हैं अथवा बुलाते हैं। (विश्वशम्भुः) सबका कल्याणकारी (साधुकर्मा) उत्तम कर्मों वाला (सः) वह परमेश्वर (अब से) हमारे रक्षार्थ (नः) हमारे (विश्वा) समस्त (हवनानि) स्तुतियों यज्ञादि को (जोषत) स्वीकार करता है ॥७॥
भावार्थ:- वेदवाणी के स्वामी समस्त जगत के कर्त्ता मन के समान वेग वाले विश्वकर्मा को अपनी रक्षा के लिए तथा ज्ञान और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए पुकारते हैं। समस्त विश्व का कल्याणकर्त्ता उत्तम कर्मों वाला वह प्रभु हमारी रक्षा के लिए हमारी समस्त स्तुतियों और यज्ञादि को स्वीकार करता है ॥७॥
(ये सात मंत्र विश्वकर्मा सुक्त के हैं)
विश्वकर्मा धिमना अद्विहाया धाताविधातापरमोत संदृक् ।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पुर एकमाहुः ॥२॥
ऋग्वेद मण्डल १० सुक्त ८२
पदार्थ :- (विश्वकर्मा) जगत की रचना के विविध कर्मों को करने वाला (विमनाः) व्यापक ज्ञान वाला (था) समन्तात (विहाया) आकाशवत व्यापक (धाता) समस्त विश्व का धारक (विधाता) पृथिवी सूर्य आदि विविध पदार्थों का निर्माता (परमा) परमोत्कृष्ट (उत) और (संद्दक) सर्वदृष्टा है, (यत्र) जिसके नियन्त्रण और धारण में (सप्त) सात (ऋषीन) इन्द्रियों से (परः) सूक्ष्म (एकम्) एक आत्मा को (आहूः) ज्ञानी जन कहते हैं (तेषाम्) इन इन्द्रियों के (इष्टानि) अभिषित भोग्य पदार्थ जिसकी (इषा) ज्ञान और प्रयत्न के संगदन्ति भली प्रकार हर्ष आदि के कारण होते हैं ॥२॥
भावार्थ:- विश्वकर्मा जगत की रचना के विविध कर्मों का कर्त्ता व्यापक ज्ञान वाला आकाश व व्यापक सबका धारक और निर्माता परमोत्कृष्ट और सर्वदृष्टा है। उसके नियंत्रण और व्यवस्था में सप्त इन्द्रियों से सूक्ष्म एक जीवात्मा है जिसे ज्ञानी जन जानते हैं। इन इन्द्रियों के भोग उस आत्मा के ज्ञान और प्रयत्न से भली प्रकार हर्ष आदि के कारण होते हैं ॥२॥
अभिभूरहमागमं विश्वकर्मेण धाम्ना ।
आवश्चित्तमावो व्रतमा वोऽहं समितिं ददे ॥४॥
ऋग्वेद मण्डल १० सुक्त १६६
पदार्थ :- हे शत्रुओं! (अभिभूः) तुम सबका अभिभव करने वाला (अहम् ) मैं (विश्वकर्मेण) सभी कार्यों में क्षम वाम्ना धारक तेज के साथ (आगमम) आया हूँ अत: (व:) तुम्हारे (चितम्) मन को (आददे) ग्रहण करता हूँ (वः) तुम्हारे व्रतन कर्म-पराक्रम को (आददे) हरण करता हूँ (वः) तुम्हारे (समितिम) संघ को (अहम्) मैं (आददे) हरण करता हूँ ॥४॥
भावार्थ :- हे शत्रुओं! तुम सबका अभिभव करने वाला मैं सब कार्यों में क्षम तेज के साथ तुम्हारे समक्ष आ गया हूँ। तुम्हारे मन तुम्हारे पराक्रम और संघ का मैं हरण करता हूँ ॥४॥
यजुर्वेद में विश्वकर्मा
सामवेद में विश्वकर्मा
अथर्ववेद में विश्वकर्मा
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