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History of Jangid Brahmin Samaj
स्वयंभू ब्रह्मा स्वायंभुव मनु ब्रह्मर्षि अंगिरा
महर्षि अंगिरा महर्षि अथर्वागिरस (अथर्वा) देवगुरु बृहस्पति
सृष्टि रचयिता विराट विश्वकर्मा आदि शिल्पाचार्य भौवन (भुवन) विश्वकर्मा विश्वकर्मा का देवकार्य में सहयोग
वसुपुत्र विश्वकर्मा भृगुवंशी विश्वकर्मा सुधन्वा विश्वकर्मा
विश्वकर्मा जी की अवधारणा विश्वकर्मा अवतार वंशावली
वेदों में विश्वकर्मा विश्वकर्मा संतति  

स्वयंभू ब्रह्मा
हमारा प्राचीन इतिहास स्वयंभू ब्रह्मा से प्रारम्भ होता है। वेद शास्त्र तथा पुराणों के अनुसार ये ही प्रथम मानव थे जिन से समस्त मानव प्रजा का विस्तार हुआ। जिनका दूसरा नाम आपव प्रजापति भी था। सबसे पहिले इनके मुख से वेदवाणी निकली ।

स्वयंभू ब्रह्मा के मानस पुत्र
स्वयंभू ब्रह्मा अमैथुनी सृष्टि के प्रथम जीव थे। इनके पौत्र स्वायंभुव मनु से मनुओं की परम्परा का प्रवर्तन हुआ। इसके अतिरिक्त स्वयंभू ब्रह्मा के सात मानस पुत्र हुये जिन्हें आदि युग के सप्तर्षि भी कहा जाता है। इनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वशिष्ठ हैं। ये सभी वेदों के पूर्ण ज्ञाता थे। ये सातों प्रवृत्ति मार्ग प्रवर्तक वेदाचार्य थे अर्थात् इन्होंने वेद धर्म का प्रचार करते हुए सृष्टि का विस्तार किया। वर्तमान हिन्दू जगत् इन्हीं सप्तर्षियों की सन्तान है, इसीलिये इन्हें सप्त ब्रह्मा भी कहा जाता है। इनकी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये ध्रुव की निकटतम परिक्रमा करने वाले सात तारों का इन्हीं सप्त ऋषियों के नाम पर नामकरण किया गया।
स्वायंभुव मनु
स्वयं ब्रह्मा के पौत्र स्वायंभुव मनु हुये। ये ही प्रथम मन्वन्तर (स्वायंभुव मन्वन्तर) के प्रवर्तक हैं, इन्हें वैराज प्रजापति भी कहा जाता है। इन्हीं की वंश परम्परा में आगे चलकर पांच और मनु हुये। छठे मनु (चाक्षुष मनु) के अन्तिम काल में इतिहास प्रसिद्ध जल प्रलय हुई|

स्वायंभुव मनु की सन्तति
अधिकतम पुराणों के अनुसार स्वायंभुव मनु के शतरूपा से प्रियव्रत तथा उत्तानपाद दो पुत्र तथा आकृति एवं प्रसूति दो पुत्रियों हुई| प्रियव्रत समस्त पृथ्वी के प्रजापति थे, इनके सात पुत्र थे। उनमें पृथ्वी के सातों महाद्वीप बांट दिये। ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र को जम्बुद्वीप (एशिया) का राज्य मिला। शेष छः पुत्रों को छः महाद्वीपों के राज्य मिले। आग्नीध्र ने अपने पुत्रों में जम्बुद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया। उन्होंने अपने पुत्र नामि को हिमवर्ष का राज्य दिया। नाभि के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत हुये जिन के नाम पर हिमवर्ष का नाम भारतवर्ष पड़ा।
स्वायंभुव मनु के द्वितीय पुत्र उत्तानपाद की प्रथम पत्नी सुनीति से ध्रुव तथा द्वितीय पत्नी सुरुचि से उत्तम हुये। सौतेली मां से तिरस्कृत ध्रुव ने घोर तपस्या कर अटल (ध्रुव) पद प्राप्त किया। उत्तरी दिशा के अटल निर्देशक तारे को ध्रुव नाम दे, उसकी तपस्या को चिरस्थायी कर दिया। उत्तम यक्षों द्वारा मारा गया, उसका पुत्र औत्तम मनु के नाम से तीसरा मनु हुआ।
स्वायंभुव मनु की पुत्री आकृति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ। इनके पुत्र यज्ञ तथा पुत्री दक्षिणा सन्तान हुई। इनके पुत्र याम इस मन्वन्तर के देवता हुये।
मनु की द्वितीय पुत्री प्रसूति का विवाह प्रथम दक्ष प्रजापति से हुआ। उनसे आठ पुत्रियां हुई जिनके विवाह स्वयंभू ब्रह्मा के मानस पुत्रों से इस प्रकार हुये-
संभूति का विवाह महर्षि मरीचि से हुआ। ख्याति का विवाह प्रथम भृगु ऋषि से हुआ। प्रीति का विवाह पुलस्त्य ऋषि से हुआ। स्मृति का विवाह आदि अंगिरा से हुआ। क्षमा से पुलह ऋषि के कर्दम ऋषि हुये। सन्नति से क्रतु का विवाह हुआ। 7वीं से वशिष्ठ का विवाह हुआ। 8वीं से अत्रि का विवाह हुआ।
ब्रह्मर्षि अंगिरा
ब्रह्मर्षि अंगिरा स्वयंभू ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में एक थे, आपका उनमें सर्वाधिक प्रमुख स्थान था। पुराण का निम्न कथन अंगिरा जी की महत्ता को प्रमाणित करता है:-
मरीचिरत्रिर्भगवानंगिरा पुलहः क्रतुः ।
पुलस्त्यश्च वशिष्ठश्च सप्तैते ब्रह्मणः सुताः ।
मरीचि, अत्रि, भगवान अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ ये सात ब्रह्मा के पुत्र हैं। ब्रह्मा के तपस्या करने पर उसके अंगों से रस का क्षरण हुआ। ब्रह्मा के अंगों का रस होने के कारण इन्हें आंगिरस कहा जाता है । ब्रह्मा ने जब दूसरी आहुति अंगारों में दी तो अंगार एकत्रित होकर मानव अवयव बन गये। उन अवयवों से तेज:पुंज पुत्र अंगिरा का निर्माण हुआ। यह ऋषि अपने ही तेज से तेजस्वी है, ऐसा समझ कर ब्रह्मा ने अग्निदेव से उस पुत्र को अपने लिये मांग लिया। तब से अंगिरा और उस कुल परम्परा में उत्पन्न व्यक्ति अंगिरस तथा अग्नेय कहलाये।

अंगिरा के हृदय में अथर्ववेद का प्रकाश
ब्रह्मर्षि अंगिरा के हृदय में अथर्ववेद का प्रकाश हुआ, अतः वेदाचार्यों में ये अग्रणी हुए। वेद चार हैं ऋग् ज्ञानवेद हैं, यजुः यज्ञ वेद हैं, साम उपासना वेद है तथा अथर्व विज्ञान वेद है। ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान चारों वेदों का साध्य है। ज्ञान, कर्म और उपासना का लक्ष्य विज्ञान है। वेदवित् वही है जिसने ज्ञान, कर्म और उपासना द्वारा विज्ञान की प्राप्ति की है। अतः ऋग, यजुः तथा साम इन तीनों का लक्ष्य विज्ञान वेद (अथर्ववेद) है। इस दृष्टि से चारों वेदों में अथर्ववेद की महत्ता सुस्पष्ट एवं सर्वोपरि है। इस धारणा को वेद स्वतः सम्पुष्ट करता है-
यस्माह्चो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
साताहन यस्य लोमान्यथर्वागिरसो मुखम् ।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ।।
अर्थात् उस स्कम्भ जगदाधार विराट् परमेश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। जिससे ऋग् वेद का विस्तार हुआ, जिससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है और अथर्ववेद जिसका मुख है। यहां अथर्ववेद को मुख कह कर इसकी सर्वोच्चता का ही प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यज्ञ के चार प्रधान ऋत्विजों के नेता ब्रह्मा के लिये अथर्ववेदवित् होने की अनिवार्यता रखी गई है।

अग्नि के आविष्कारक
अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि का आविष्कार किया। उस आदि काल में जब प्रकाश एवं ऊष्मा का एकमेव साधन सूर्य था, उस समय पृथ्वी पर अग्नि का आविष्कार करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। यह मनुष्य की प्रकृति पर प्रथम विजय थी।

अंगिरा वंश विस्तार
ब्रह्मर्षि अंगिरा का विवाह दक्ष पुत्री स्मृति से हुआ। उसके भरताग्नि तथा कीर्तिमान दो पुत्र तथा सिनीवाली, कुहू, राका तथा अनुमति चार पुत्रियां हुई। ज्येष्ठ पुत्र भरताग्नि का विवाह पुलस्त्य ऋषि पुत्री संहति (सद्वती) से हुआ, इन दोनों के हिरण्यरोमा पर्जन्य पुत्र हुआ। पर्जन्य का विवाह मरीचि ऋषि की पौत्री अथवा पौर्णमास मरीचि की पुत्री से हुआ। कहीं कहीं भरताग्नि के तीन पुत्र पावक, पवमान तथा शुचि भी माने जाते हैं, जिनके पुत्र पौत्रों से उनचास अग्नि संज्ञक सन्तानें हुई । अंगिरा के द्वितीय पुत्र कीर्तिमान से वरिष्ठ तथा धृतिमान दो पुत्र हुये। आगे चलकर इनके हजारों पुत्र और पौत्र (संतान) इस संसार में हुए जो अंगिरा के वंशज अंगिरस कहलाये |

भरताग्नि प्रथम कवि
पहिले वेद गद्य में थे। अंगिरा पुत्र भरताग्नि ही वेदों के प्रथम कवि हुये। इन्होंने वेद मन्त्रों को छन्दोबद्ध किया। इसी के फलस्वरूप ऋग्वेद में प्रथम स्थान भरताग्नि के बोधक मन्त्रों को दिया गया। ऋग्वेद 9.66.20 के अनुसार अग्नि ऋषि भी है और पुरोहित भी है। इनका सब ऋषियों में अग्रणी स्थान था, इसीलिये अग्रणी से अग्नि हुआ।

जांगल देश
ब्रह्मर्षि अंगिरा और उनके वंशज अंगिरस ऋषियों के आश्रम सरस्वती नदी के उत्तर में थे। कुछ आश्रम उसके दक्षिणी किनारे पर भी थे। सरस्वती जिस प्रदेश के मध्य बहती थी उसे प्राचीनकाल में जांगल देश कहा जाता था। यमुना से सतलुज नदी तक तथा पश्चिम में बीकानेर तक जांगल देश का विस्तार था। महाभारत काल तक जांगल देश काफी प्रसिद्ध था। काम्यक वन जहां पाण्डवों ने वनवास का अधिकांश समय व्यतीत किया, जांगल देश में ही था। सरस्वती नदी के तट पर अवस्थित कुरुक्षेत्र इसका केन्द्र बिन्दु था। इसी कारण जांगल देश को कुरुजांगल नाम भी दिया गया। इस जांगलदेश में सतत् साधना करने के कारण अंगिरा ऋषि का एक नाम जंगिड भी हो गया।

दिग्विजयी ब्रह्मर्षि जंगिड
स्वायंभुव मनु की परम्परा में चक्षुष ने वीरण प्रजापति की कन्या पुष्करिणी के गर्भ से चाक्षुष को जन्म दिया, जो चाक्षुषमनु के नाम से छठे मन्वन्तर के प्रर्वतक हुये। उनकी धर्मपत्नी नडवला अंगिरस थी। इनके दक्ष पुत्र हुये- उरु, पुरु, शतद्युम्न, सत्यवाक, कवि, अग्निष्टुत्, अतिरात्र, सुद्युम्न और अभिमन्यु। ज्येष्ठ पुत्र ऊरु (उल्मुक) ने आग्नेयी से अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय नामक महान् तेजस्वी एवं पराक्रमी छः पुत्र उत्पन्न किये। उल्मुक (ऊरु) के पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र अंग अपने समय के सबसे बड़े प्रजापति थे। उनकी दसवीं पीढ़ी में दक्ष प्रजापति हुये।

अंगिरा (जंगिड) की दिग्विजय
उल्मुक के कनिष्ठ भ्राता अभिमन्यु तथा पुत्र अंगिरा बहुत प्रतापी वीर थे। इन्होंने भारत से दूर सारी पृथ्वी को जीतने का निश्चय किया। अभिमन्यु ने ईरान को विजित कर मन्युपुरी बसाई, जो जलप्रलय में नष्ट हुई और पुनः उसी स्थान पर शुषा नगरी बसी। पुरातत्व विभाग ने इसे प्राचीनतम् नगरी सिद्ध किया है।
अंगिरा ने शाक द्वीप, क्रौंच द्वीप तथा कुरु द्वीप अर्थात् युरोप एवं अफ्रीका महाद्वीप को जीत कर अनेक नगर व क्षेत्र बसाये। टर्की का अंकारा, रूस का अंकारा प्रदेश, घाना का अकरा तथा अंगोला प्रान्त आदि पुरातन नाम उस अंगिरा की स्मृति को आज भी संजोये हुये हैं। इन प्रतापी वीर अंगिरा ने ही समस्त संसार को जीत कर राजराजेश्वर इन्द्र की पदवी धारण कर अत्याचारियों से प्रजा की रक्षा की। अथर्ववेद काण्ड 19 सूक्त 34 व 35 में अनेक मन्त्रों में इस अंगिरा की खूब प्रशंसा की है।
इन्द्रस्य नाम गृह्न्त ऋषियो जंगिडं ददुः ।
देवा यं चक्रुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम् ।।
इन्द्र की उपाधि स्वीकार करने के पश्चात् ऋषियों ने उस शत्रुनाशक जंगिड को प्रजा के लिये इन्द्र के पद पर स्थापित किया, जिसको देव सबसे आगे शत्रु की विविध सेनाओं का नाश करने वाला उपाय बताते हैं । दुर्धर्ष सेनानायक का कार्य करने के कारण ही इस प्रतापी वीर दिग्विजयी अंगिरा ऋषि का नाम जंगिड ऋषि पड़ा। जंगिड ऋषि की संतान ही जांगिड ब्राह्मण कहलाये ।

अंगिराऽसि जंगिडः
इस का अर्थ है अंगिरा तू ही जांगिड है। वेद भी इसको प्रमाणित करता है। अथर्ववेद में स्पष्ट लिखा है:-
अंगिराअसि जंगिडः रक्षितासि जंगिडः ।
द्विपाच्चतुष्पादस्माकं सर्व रक्षतु जंगिडः ।।
इसका अर्थ है कि जंगिड तू ही अंगिरा है। तू जंगिड होकर ही प्राणिमात्र या प्रजा का रक्षक है। जंगिड ही हमारे दोपाये तथा चौपाये सबकी रक्षा करे।
महर्षि अंगिरा
अंगिरा (जंगिड) के कुल में महर्षि अंगिरा हुये। ये वरुण (ब्रह्मा), भगवान् शंकर तथा कई ऋषियों के वेद संहिता सिखाने वाले गुरु थे इसी कारण इन्हें वारुणि अंगिरा भी कहा जाता है प्रचेतस् दक्ष प्रजापति की दो पुत्रियां सती एवं स्वधा इनकी दो धर्मपत्नियां थीं। जिनमें सती के महर्षि अथर्वा तथा स्वधा से पितृगण उत्पन्न हुये। महर्षि अथर्वा को भी अंगिरा की उपाधि मिलने से उसका भी कथन कहीं कहीं अंगिरा नाम से होता है तथा कुछ व्यक्ति दोनों को एक ही व्यक्ति समझ लेते हैं। परन्तु वेद की साक्षी से यह प्रमाणित नहीं होता। अथर्ववेद के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में अथर्वा तथा अंगिरा दो नाम स्पष्टतया अनेक मन्त्रों के साथ पृथक् पृथक लिखे हैं । महाभारत तथा पुराण भी महर्षि अंगिरा के पुत्र अथर्वा हैं, इसी की पुष्टि करते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मर्षि आदि अंगिरा वह आदि ऋषि हैं, जिन के हृदय में वेद प्रकाशित हुये । ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं तथा अग्नि के आविष्कारक हैं।

मन्त्रद्रष्टा-
सृष्टि के आदि में जब चार ऋषियों के हृदय में वेद का प्रकाश हो गया तो अनेक योग्य व्यक्तियों ने उन मन्त्रों का मनन कर उन्हें प्रत्यक्ष किया। उनके अर्थ को यथावत् जानकर उन्हें साधन सम्पन्न किया। यही मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाये। महर्षि अंगिरा अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों के मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। इन्होंने आदि अंगिरा द्वारा आविष्कृत अग्नि के शक्ति विज्ञान को आगे बढ़ाकर उसे व्यापक रूप प्रदान किया ।

महाधनुर्धर-
महर्षि अंगिरा अपने पूर्वजों की तरह महाधनुर्धर थे। त्रिपुर नाश के समय शंकर भगवान् देवसेना के सेनापति, ब्रह्मा जी उनके सारथि तथा महर्षि अंगिरा और उनके पुत्र अथर्वा उनके दायें व बायें चक्र रक्षक बने थे। महर्षि अंगिरा तथा उनके पुत्र अथर्वा के पराक्रम के कारण ही त्रिपुर के असुर पराजित हुये।

गोपालक:-
महर्षि अंगिरा का कार्यक्षेत्र अति व्यापक था, जो ईरान व कंधार से लेकर वर्तमान के अफगानिस्तान, विलोचिस्तान होकर सप्त सिन्धु (वर्तमान में पाकिस्तान पार करके) कुरु जांगल प्रदेश तक रहा है। सिन्धु के तटवर्ती क्षेत्र में महर्षि अंगिरा के मुख्य आश्रम थे। यहीं पर इन्होंने सहस्त्रों गोऔं तथा अश्वों के स्थल बनाये थे, जिनमें अच्छी-अच्छी नस्ल की गायें और अनेकों प्रकार के दूर-दूर से मंगाकर अश्व रखे जाते थे, जिन्हें अश्वस्थ के नाम से पुकारा जाता था। गौ और अश्व पालन का कार्य सर्वप्रथम महर्षि अंगिरा ने ही किया था। आगे चलकर जब आर्यों का असुरों से युद्ध हुआ, तो उसमें अश्वस्थ ही काम देते थे। आर्यों के अश्वस्थ होते थे तथा असुरों के वृषभ् रथ। अश्वरथों को देखकर असुर भाग खड़े होते थे।

जन परिषद् के संस्थापक:-
आर्यों में जन परिषद् का चुनाव सर्वप्रथम महर्षि अंगिरा ने ही कराया था। वह जन परिषद् ही राज्यसत्ता कहलाती थी, असुरों में राजा होता था और आर्यों में जन परिषद् । महर्षि अंगिरा आर्य सभ्यता एवं परम्परा के माने हुये पंडित थे। उस समय तक स्थापित सभी आर्य जनपदों की व्यवस्था इनके द्वारा संचालित थी। महर्षि अंगिरा आर्य रक्त के पक्षपाती थे और उसके शुद्धिकरण पर विशेष बल देते थे। प्रयत्नशील रहते हुये भी असुरों का प्रभाव आर्यों पर पड़ने लगा था। वरुण और सौवीर ने यह रहस्य महर्षि अंगिरा को बताया। सौवीर की राय से ही अंगिरा ने इन्द्र का चुनाव बन्द करा दिया ।

तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापनाः-
महर्षि अंगिरा ने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार करने एवं भावी पीढ़ी को प्रशिक्षित करने के लिये सिन्ध की उपत्यका में तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। जिसका सफल संचालन उन्होंने 30 वर्ष तक किया। बाद में महर्षि अथर्वा उसके कुलपति नियुक्त हुए, जिन्होंने रोगों को दूर कर दीर्घजीवन के लिये औषध विज्ञान के विभाग की भी स्थापना की। आगे चलकर यह तक्षशिला का विश्वविद्यालय इतना प्रसिद्ध हुआ कि प्रायः समस्त संसार में जहां भी आर्य जनपद थे उनके सहस्त्रों विद्यार्थी यहां शिक्षा प्राप्त करने के लिये आने लगे।

कृषि भूमि का शोधन-
इन विद्यार्थियों की सहायता के लिये महर्षि अंगिरा ने वितस्ता (झेलम) से लेकर दृष्ट्वती (घग्घर) तथा सरस्वती नदी तक के जंगल साफ कराकर अन्नोत्पादन का मार्ग अपनाया। अंगिरा की इस दूरदर्शिता से दोहरा लाभ हुआ। दूर-दूर तक का क्षेत्र योग्य बन गया, उत्पन्न अन्न से विश्वविद्यालय स्वावलम्बी बना तथा छात्रों पर आर्थिक दायित्व कोई नहीं रहा तथा कृषि विज्ञान का व्यावहारिक प्रशिक्षण भी प्राप्त हुआ। महर्षि के सैंधव (घोड़े) समस्त भूमण्डल पर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। कंधार के आस पास नमक की पहाड़ियां हैं। संस्कृत में नमक को सैंधव कहते हैं। इन्हीं नमक की पहाड़ियों के पास ऋषि के अश्वस्थ थे, इसीलिये अंगिरा के अश्व भी सैंधव नाम से विख्यात हुए। यही कारण है कि संस्कृत भाषा में घोड़ा और नमक दोनों को ही सैंधव कहा जाता हैं।
महर्षि अथर्वागिरस (अथर्वा)
वंश परम्परा- मन्त्रद्रष्टा ब्रह्मर्षि अंगिरा के दक्ष की पुत्री सती से महर्षि अथर्वा का जन्म हुआ। भागवत पुराण के अनुसार-
प्रजापतेरंगिरसः स्वधा पत्नी पितृनथ |
अथर्वांगिरसं वेदं पुत्रत्वे चाकरोत् सती ।।
प्रजापति अंगिरा की प्रथम पत्नी स्वधा ने पितृगण को उत्पन्न किया और दूसरी पत्नी सती ने अथर्ववेद के नामयुक्त अथर्वा पुत्र को उत्पन्न किया।
अथर्ववेद की परम्परा के अनुसार भी अथर्वा अंगिरा के पुत्र सिद्ध होते हैं। ये अथर्ववेद के सर्वाधिक मन्त्रों के मन्त्रद्रष्टा (ऋषि) हैं। वहाँ इनके कई नाम लिखे हैं- जैसे अथर्वा, अथर्वण तथा अथर्वागिरस । इनमें अन्तिम के अर्थ हैं अंगिरा के पुत्र अथर्वा। इनके पिता अंगिरा भी अनेक मन्त्रों के ऋषि हैं। अथर्वा अपने पिता ब्रह्मर्षि अंगिरा की अनुपस्थिति में वरुण (ब्रह्मा) तथा देवों को वेद पढ़ाया करते थे, अतः ये भी अंगिरा के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
वायु पुराण के अनुसार अथर्वा के कश्यप की बहिन स्वरूपा (शुभा), कर्दम की पुत्री स्वराद तथा मनु पुत्री पथ्या ये तीन पत्नियां थीं। जिनसे स्वरूपा के बृहस्पति आदि, स्वराद के उतथ्य तथा गौतम आदि एवं पथ्या के धिष्णु संवर्त आदि अनेक पुत्र हुये। जिनमें एक भिषग् भी थे जो औषधिविज्ञान के आचार्य हुये। ये मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं भिषगाथर्वणः वेद का प्रमाण इन्हें अथर्वा का पुत्र सिद्ध करता है।

उत्तम व्रतधारी पुत्र-
महाभारत के अनुसार अथर्वा के तीन पुत्र विख्यात हुए ।
त्रयस्त्वंगिरसः पुत्रा लोके सर्वत्र विश्रुताः ।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तश्च धृतव्रताः ।।
अथर्वा के लोकविख्यात तथा उत्तमव्रतधारी बृहस्पति, उतथ्य तथा संवर्त नाम के तीन पुत्र हुए।

अथर्वागिरस के महान् कार्य

मन्त्रद्रष्टा-
अथर्ववेद में अथर्वा के ही सबसे अधिक मन्त्र पाये जाते हैं। उनकी कीर्ति उस समय समस्त संसार में इतनी फैली हुई थी कि उनके नाम से वेद का नाम भी अथर्ववेद प्रसिद्ध हुआ।

इन्द्र द्वारा पूजित-
महर्षि अथर्वा ने राज्य से बहिष्कृत होने पर इन्द्र का पुनः इन्द्र पद पर अभिषेक किया। देवराज इन्द्र ने अथर्वागिरस की पूजा की तथा वरदान दिया कि आप अथर्वागिरस नाम से प्रसिद्ध होंगे।

अग्निसम तेजस्विता-
अथर्वा की उपासना और तपस्या की तेजस्विता एवं प्रभाव वृद्धि को अपने से बहुत अधिक बढ़ी हुई जानकर अग्नि संतप्त होकर अथर्वा (अंगिरा ) के पास आये तथा गिड़गिड़ा कर कहा-
नष्टकीर्तिरहं लोके भवान् जातो हुताशनः ।
भवन्तमेव ज्ञास्यन्ति पावकं न तु मां जनाः ।।
हे अथर्वा मुनि, संसार में मेरी कीर्ति नष्ट हो रही है। अब आप ही अग्नि के पद पर प्रतिष्ठित हैं। आपको ही लोग अग्नि समझेंगे, आपके सामने मुझे कोई अग्नि नहीं मानेगा। इस पर महर्षि अथर्वा ने आश्वासन दिया, आप अग्नि के रूप में ही कार्य करें। साथ ही मुझे अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करें। अग्निदेव ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी बात स्वीकार की तथा उन्हें अपना प्रथम पुत्र मान लिया। फिर अथर्वा (अंगिरा) के भी बृहस्पति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

विद्युत् अग्नि के आविष्कारक -
महर्षि अथर्वा सह नामक अग्नि के आविष्कारक हैं। उन्होंने जल से मथ कर इसका प्राकट्य किया । ब्रह्मर्षि अंगिरा ने अरणियों के घर्षण से अग्नि को प्रकट किया था। अथर्वा ने इस अग्नि विज्ञान को आगे बढ़ाया तथा जल से अग्नि को प्रकट किया। जल से उत्पन्न अग्नि विद्युत् ही होती है। इस प्रकार महर्षि अथर्वा विद्युत् अग्नि के आविष्कारक हैं।
देवगुरु बृहस्पति
महर्षि अथर्वा की पत्नी शुभा से बृहस्पति का जन्म हुआ। ये देवताओं के गुरु हुए। इनका ज्येष्ठ पुत्र शंयु अग्नि हुआ। शंयु के भरद्वाज हुए।

मन्त्रद्रष्टा-
बृहस्पति ऋग्वेद दशम् मण्डल सूक्त 71 व 72 के 20 मन्त्रों के तथा यजुर्वेद के नवम् अध्याय मन्त्र 2 से 13 तथा अ. 16 के मन्त्र 5 के मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। इनके पुत्र शंयु बार्हस्पत्य के नाम से ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त 15, 16 तथा 48 के मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं।

वाजपेय यज्ञ के प्रथम कर्त्ता-
तैत्तिरीय ब्राह्मण अ० 1 प्र. 3 अनु. 2 के अनुसार बृहस्पति वाजपेय यज्ञ के प्रथम कर्त्ता हैं। प्रथम देवता लोग अग्निष्होम, उक्थ यज्ञ आदि किया करते थे। उन्हें पता चला कि वाजपेय यज्ञ से शस्त्रास्त्रों सहित दिव्य रथ प्राप्त होता है। इस यज्ञ को कौन करावे, इस पर निर्णय हुआ कि औदुम्बर वृक्ष की शाखा को जो पहले छू ले उसे ही देवताओं का अध्यक्ष बनाया जावे। बृहस्पति इसमें प्रथम रहे, फलस्वरूप प्रथम वाजपेय यज्ञ करने का सौभाग्य बृहस्पति को प्राप्त हुआ, जिसके फलस्वरूप वे देवगुरु बन गये। इन्द्र की प्रार्थना पर बृहस्पति ने इन्द्र से वाजपेय यज्ञ भी करवाया, जिससे इन्द्र देवों का सम्राट् बना। इसी कारण वाजपेय यज्ञ का दूसरा नाम बृहस्पतिसव भी रखा गया है। बृहस्पति ने देवों की विजय कामना के लिये सरस्वती नदी के तीर पर यज्ञ किया।

शिल्पाचार्य बृहस्पति
बृहस्पति शिल्प के प्रमुख आचार्य थे। मत्स्य पुराण में अध्याय 251 में 18 प्रमुख शिल्पाचार्यों का वर्णन हैं। बृहस्पति उनमें एक थे। इन्होंने त्रिसन्धि वज्र का निर्माण किया। वायुपुराण के अनुसार इनकी विमान निर्माताओं (रथकारों) में गणना होती है।

महान् सेनानायक
बृहस्पति अपने समय के प्रमुखतम सेनानायक थे। देवासुर संग्राम के समय ये ही युद्ध का संचालन करते थे। विभिन्न प्रकार की सैन्य व्यूह रचना के जन्मदाता थे। देवासुर संग्राम में इन्होंने क्रौन्चारुण व्यूह की रचना की थी ।
व्यूह: क्रौन्चारुणों नाम सर्वशत्रुनिवर्हणः ।
यं बृहस्पतिरिन्द्राय तदा देवासुरेऽब्रवीत् ।।
क्रौन्चारुण नामक व्यूह समस्त शत्रुओं का संहार करने वाला है, जिसे बृहस्पति ने देवासुर संग्राम में इन्द्र के लिये बताया था। बृहस्पति ने अपने पौत्र भरद्वाज को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। अग्निवेश द्रोणाचार्य से होकर यह अर्जुन के पास आया।

नीतिशास्त्र निर्माता
गुरु बृहस्पति ने एक लक्ष श्लोकों का नीति शास्त्र बनाया था। उसके आधार पर उशना ने नीति - शास्त्र का लघु रूप किया। इनके बनाये एक व्याकरण का भी उल्लेख है। बृहस्पति ने अपने पुत्र कच को संजीवनी विद्या सीखने के लिये शुक्राचार्य के पास भेजा था। अथर्वा के एक पुत्र या वंश में दध्यड़ हुये। बृहस्पति के आगे अनेक पुत्र पौत्र हुए, ये सब अंगिरा कुल के श्रेष्ठ ऋषि हुये हैं। इन सबको अंगिरस श्रेष्ठ कहा जाता है। अंगिरा कुल में ही भुवनपुत्र विश्वकर्मा हुये। उनका सब दृष्टि से प्रमुख स्थान है।
सृष्टि रचयिता विराट विश्वकर्मा
अंगिरा वंश में आदि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा हुये हैं। विश्वकर्मा नाम संस्कृत साहित्य में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ हैं। प्रथम अर्थ उस विराद् शक्ति का बोधक है, जिसने सृष्टि की रचना की, द्वितीय अर्थ है अंगिरा वंश के भुवन का पुत्र विश्वकर्मा, जो शिल्प के प्रवर्तक हुए तथा तीसरा अर्थ है विश्वकर्मा उपाधि। विशिष्ट कार्यों में दक्ष होने के कारण अनेक व्यक्तियों को विश्वकर्मा उपाधि प्रदान की गई। इसके अतिरिक्त आत्मा, वाणी, प्राण, आदित्य, त्वष्टा तथा प्रजापति के अर्थ में भी विश्वकर्मा शब्द का प्रयोग हुआ है।
जिस प्रकार शिव भक्त ने शिवपुराण में शिव को तथा विष्णु भक्त ने विष्णुपुराण में विष्णु को सर्वप्रमुख बना दिया, उसी प्रकार अपने आराध्य देव शिल्पाचार्य विश्वकर्मा को भी सर्वस्य कर्त्ता बनाने के लिये सृष्टि रचयिता विराट (परमात्मा) विश्वकर्मा के लिये प्रयुक्त होने वाली स्तुति का उल्लेख आदि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा की स्तुति के साथ कर दिया गया।
जैसे:- नमोस्तु विश्वरूपाय विश्वरूपाय ते नमः ।
नमो विश्वात्मभूताय विश्वकर्मन्नमोस्तु ते।।
विश्व जिसका रूप हैं, विश्व जिसकी आत्मा है तथा जो प्राणिमात्र में व्यापक हैं, उस विश्वकर्मा को नमस्कार करता हूं। यह संसार के निर्माता विश्वकर्मा की स्तुति है, परन्तु इसी के साथ आगे इसी प्रसंग में लिखा- शिल्पाचार्य देवाय नमस्ते विश्वकर्मणे ।
अर्थात् शिल्प के आचार्य विश्वकर्मा को नमस्कार है। यह शिल्प प्रवर्तक विश्वकर्मा की स्तुति है। इस मिले जुले प्रयोग ने विश्वकर्मा को समझने में अनेक भ्रम उत्पन्न किये। अतः उनका पृथक-पृथक वर्णन करना जरूरी है।

विश्वकर्मा परमात्मा
प्रथमतः विश्वकर्मा यह सृष्टि के निर्माता का एक गुणात्मक नाम है।
'यो विश्वं जगतं करोत्यतः स विश्वकर्मा'
जो संसार की रचना करता है वह विश्वकर्मा है।
इस अर्थ में विश्वकर्मा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद के विश्वकर्मा सूक्त में हुआ है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 के 14 मन्त्रों को विश्वकर्मा सूक्त कहते हैं।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा विद्यामौर्णोन्महिना विश्वचक्षाः ।।
इस मन्त्र में जगत् का मूल कारण क्या है, इस पर विचार किया है। इस मन्त्र में समस्त जगत् के बनाने वाले को विश्वकर्मा नाम से कहा गया।
ब्राह्मण ग्रन्थों में विराट् विश्वकर्मा - ऋग्वेद ऐतेरय ब्राह्मण पंचिका 4 खण्ड 22 अध्याय 3 में लिखा है:-
विश्वकर्माभवतु प्रजापतिः, प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्माभवत् ।
संवत्सरो विश्वकर्मेन्द्रमेव तदात्मानं प्रजापतिं संवत्सरं
विश्वकर्माणमाप्नुवन्तीन्द्र एव तदात्मनि प्रजापतौ संवत्सरे
विश्वकर्मण्यन्ततः प्रतितिष्ठति य एवं वेद ।।
प्रजा की सृष्टि कर विश्वकर्मा प्रजापति बना फिर वही संवत्सर बना, आदि में भी परमात्मा को विश्वकर्मा कहा गया है।

श्वेताश्वतरोपनिषद्
एष देवो विश्वकर्मा महात्मा, सदा जनानां हृदये संन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।।
यह देव विश्वकर्मा सदा मनुष्यों के हृदय में निवास करता हैं चित्त, मन एवं बुद्धि से जो इसके रहस्य को जान जाते हैं वे अमर हो जाते हैं।

निरुक्त
यास्क मुनि ने निरुक्त अ. 10 खण्ड में 26 विश्वकर्मा सर्वस्य कर्त्ता - संसार में सब पदार्थों का कर्त्ता विश्वकर्मा लिखा है।

स्कन्द पुराण
अनादिरप्रमेयश्च अरूपश्च जयाजयः ।
लोकरूपो जगन्नाथ विश्वकर्मन् नमोस्तु ते ।।
सहस्त्रशीर्ष पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
सहस्त्रबाहु संयुक्तः सहस्त्रचरणैर्युतः ।।
इसमें हजार सिर, हजार हाथ, हजार आंख तथा हजार पैर और उसे अनादि निराकार आदि बताकर विश्वकर्मा के विराट स्वरूप का ही वर्णन किया है।

मूल स्तम्भ पुराण
ज्योतिर्मयं शान्तमयं प्रदीप्तं विश्वात्मकं विश्वजितं निहीहम् ।
आद्यन्तशून्यं सकलैकनाथं श्रीविश्वकर्माणमहं नमामि ।।
जिसका न आदि है, न अन्त है, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। यह केवल परमात्मा हो सकता है।

शिल्प शास्त्र
देवेशं विश्वकर्माणं विश्वनिर्माणकारणिम
विश्व के निर्माता देवों के स्वामी भी परमात्मा ही हैं।
इस प्रकार वेदों से लेकर शिल्पशास्त्रों तक में विश्वकर्मा शब्द परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। परन्तु शिल्पप्रर्वतक विश्वकर्मा का इस अर्थ में आने वाले विश्वकर्मा से कोई ऐतिहासिक संबन्ध नहीं है। केवल मात्र इतना ही सम्बन्ध है कि मन्त्रद्रष्टा भौवन विश्वकर्मा ने जगत् निर्माता विश्वकर्मा के रचनात्मक दक्षता के रहस्य को समझ कर उसके अनुरूप शिल्प विज्ञान का प्रर्वतन कर दिया।
आदि शिल्पाचार्य भौवन (भुवन) विश्वकर्मा
ब्रह्मर्षि अंगिरा के आप्त्य ऋषि हुये। अनके एकत, द्वित, त्रित तथा भुवन नाम के चार पुत्र हुए। चारों वेदर्षि थे। ऋग्वेद अष्टम मण्डल सूक्त 47 के मन्त्रद्रष्टा ऋषि त्रित आप्त्य हैं अर्थात् आप्त्य के पुत्र त्रित हैं। इससे इनका ऋषित्व तथा ये आप्त्य के पुत्र थे, यह वेद प्रमाणित है। इसी प्रकार ऋग्वेद नवल मण्डल सूक्त 103 के ऋषि हैं, द्वित आप्त्य अर्थात् आप्त्य के पुत्र द्वित के मन्त्रद्रष्टा हैं। इसके अतिरिक्त त्रित ऋग्वेद दशम मण्डल के सूक्त 1 से 7, प्रथम मण्डल सूक्त 105, अष्टम् मण्डल सूक्त 47, नवम् मण्डल सूक्त 34 तथा यजुर्वेद अ. 11 मन्त्र 43 से 48 तक, अ. 12 के मन्त्र 13 से 17 तक तथा अ. 33 के मन्त्र 90 के भी मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं।

भुवनपुत्र विश्वकर्मा
आप्त्य के पुत्र भुवन तथा भुवन के पुत्र विश्वकर्मा हुये। आश्वलायन (सर्वानुक्रमणिका) व्याख्याकार षड्गुरु भाष्य के अष्टम के अष्टम अध्याय में लिखा है-
"भुवनो नाम आप्त्यपुत्र इति
एवं च भुवनपुत्रत्वेन विश्वकर्मणः
अंगिरं वंशजत्वं ऋषिगोत्रत्वम् च।"
अर्थात भुवन नाम आप्त्य पुत्र का है और भुवन का पुत्र होने के कारण विश्वकर्मा का अंगिरस वंश व ऋषि गोत्रत्व है।

वेद प्रमाण
स्वतः वेद यह प्रमाणित करता है कि विश्वकर्मा भुवन के पुत्र हैं। ऋग्वेद दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 तथा यजुर्वेद अध्याय 17 के मन्त्र 17 से 32 तक के ऋषि भौवन विश्वकर्मा हैं, जिसका अर्थ है भुवन के पुत्र विश्वकर्मा ने इन मन्त्रों का दर्शन किया।

ऐतरेय ब्राह्मण-
ऐतरेय ब्राह्मण का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने भी विश्वकर्मा को भुवन का पुत्र माना है। इसी के पश्चिका अध्याय 39 खण्ड 8 का भाष्य इस प्रकार किया है-
'भुवनाख्यस्य पुत्रं विश्वकर्मनामकं राजानमुदाहरति'
भुवन पुत्र विश्वकर्मा के राजा बनने का इतिहास ऐतरेय ब्राह्मण कहता है ।

शतपथ ब्राह्मण -
तेन हैतेन विश्वकर्मा भौवन ईजे (13-2-7) 1-14
भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने ब्रह्मा के सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया ।

निरुक्त -
यास्काचार्य ने विश्वकर्मा को भुवनपुत्र मानते हुये उसके सर्वमेध यज्ञ का वर्णन किया है-
विश्वकर्मा भौवनः सर्वमेधे सर्वाणि भूतानि जुहवांचकार
स आत्मानमप्यन्ततो जुहवांचकार ।
भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने सब भूतों का तथा आत्मा का सर्वमेध यज्ञ में समपर्ण कर दिया।

महाभारत -
वेदव्यास जी ने अनेक स्थानों पर विश्वकर्मा को भुवन का पुत्र माना है। अर्जुन के ध्वज की उपमा भुवनपुत्र विश्वकर्मा निर्मित ध्वज से की है। भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने अमृत घट की रक्षा की।

मत्स्य पुराण -
इसके अध्याय 203 में भुवनो, भौवन शब्द का अनेक बार प्रयोग करते हुए भुवन का पुत्र भौवन विश्वकर्मा सिद्ध किया है।

विष्णुरहस्य अध्याय 35 -
भुवनो नाम यो देवो विश्वकर्माथ तत्सुतः ।
प्रसिद्धो यश्च शास्त्रेषु भौवनः सुरवार्धकिः ।।
अर्थात् भुवन नाम के देवता के विश्वकर्मा नाम का पुत्र हुआ। यह भुवन का पुत्र सब शास्त्रों में देवताओं का शिल्पी कहकर विख्यात है।

मन्त्रद्रष्टा महर्षि भुवनपुत्र विश्वकर्मा
वेद सर्व विषय हैं अर्थात् संसार की सभी विद्यायें बीजरूप में विद्यमान हैं तथा उनका प्रकाश वेदों द्वारा हैं। वेद के प्रत्येक मन्त्र में किसी न किसी प्रकार की विद्या का कथन हुआ है। ईश्वर जब चार आदि ऋषियों के हृदयों में वेदों का प्रकाश कर चुका था उसी समय से प्राचीन ऋषि इन मन्त्रों के अर्थों को यथावत् जानने तथा उनमें निर्दिष्ट विद्या का साक्षात्कार कर उसे साधनयुक्त करने लगे। ईश्वर के ध्यान एवं अनुग्रह से बड़े पुरुषार्थ के साथ मन्त्र के अर्थ का यथावत् ज्ञान कर जिसने उसे साधनयुक्त बनाया, वही व्यक्ति उस मन्त्र का ऋषि कहलाता है। वेद के प्रत्येक मन्त्र के साथ ऋषि देवता तथा छन्द लिखा मिलता है।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः -
ऋषि मन्त्रद्रष्टा को कहते हैं। दूसरा शब्द देवता है। देवता का तात्पर्य है विषय अर्थात् मन्त्र में जिस विषय का प्रतिपादन किया जाता है, वह उस मन्त्र का देवता होता है। मन्त्र का अर्थ देवता को देखकर किया जाता है। वस्तुतः मन्त्र का देवता पहिचानना ही वेदज्ञता है।

विश्वकर्मा मन्त्रद्रष्टा
ऋग्वेद दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 के चौदक मन्त्रों के ऋषि भी हैं तथा देवता भी। यही चौदक मन्त्र तथा दो अन्य मन्त्र यजुर्वेद अध्याय 17 में 17 से 32 तक आते हैं। अध्याय 14 के मन्त्र 12 वें तथा 18 वें के मन्त्र 60, 62, 64, 65 एवं सामवेद प्र. 7 अर्ध प. 3 मन्त्र 9 के ऋषि विश्वकर्मा है।
ऋषि एवं देवता दोनों की संज्ञा एक ही हो यह सौभाग्य विश्वकर्मा बृहस्पति तथा अग्नि -आदि को ही प्राप्त हुआ हैं।
यह मन्त्रद्रष्ट्त्व शक्ति विश्वकर्मा को कुल परम्परा से ही प्राप्त है। उनके आदि पूर्वज ब्रह्मर्षि अंगिरा द्वित, त्रित आदि पूर्व ऋषि हो चुके हैं।

 विश्वकर्मा शिल्पप्रवर्तक
विश्वकर्मा सूक्त का देवता विश्वकर्मा यानी शिल्प है। उस शिल्पविद्या का साक्षात्कार कर सर्व प्रथम भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने ही उसे साधन युक्त बनाया। सर्वप्रथम शिल्प का कार्य चालू करने के कारण ये ही शिल्पप्रवर्तक हैं।

अर्थवेद
वेद की बीज रूप विद्या को उसी के अन्तर्गत जिस ग्रन्थ में विस्तार के साथ समझा कर उसे प्रत्यक्ष करना बतलाया गया है, उसे ही उस वेद का उपवेद कहते हैं। जिस महामानव ने उस विद्या को प्रत्यक्ष किया है, वह ही उस विद्या का आदि आचार्य होता है।
भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने मन्त्रद्रष्ट्त्व शक्ति से शिल्प का साक्षात्कार कर मानव कल्याणार्थ अथर्ववेद के उपवेद अर्थवेद की रचना की। अथर्ववेद में पदार्थों के प्रयोगों का वर्णन है। इन्हीं अथर्ववेदीय पदार्थों के संगतिकरण का नाम शिल्पविद्या है, जिसका प्रकाश सर्वप्रथम भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने किया, फलस्वरूप वे आदि शिल्पाचार्य कहलाये।

अर्थवेद के रचयिता
वेदों के उपवेद एवं उनके रचयिता के विषय में महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के ग्रंथ प्रामाण्याप्रमाण्य विषय में लिखते हैं-
तथायुर्वेदो वैद्यकशास्त्रं, धनुर्वेदः शस्त्रास्त्रराजविद्या, गान्धर्ववेदो गानविद्या, अर्थवेदश्च शिल्पशास्त्रं, चत्वार उपवेदा अपि।
अर्थात् (1) आयुर्वेद-वैद्यक शास्त्र, (2) धनुर्वेद शस्त्रास्त्र राजविद्या (3) गान्धर्ववेद - गानविद्या, (4) अर्थवेद शिल्पशास्त्र यह वेदों के चार उपवेद वेदानुकूल होने से प्रमाणिक हैं।
इन उपवेदों के प्रतिपादन में प्रामाणिक ग्रन्थों की व्याख्या करते हुए लिखा "अर्थवेदश्च विश्वकर्मत्वष्ट्रदेवज्ञमयकृत श्चतसृसंहिताख्यो ग्राह्य: "
इस प्रकार अर्थवेद अर्थात् शिल्पशास्त्र के प्रतिपादन में विश्वकर्मा, त्वष्टा, देवज्ञ और मयकृत संहितायें रची गई। त्वष्टा, देवज्ञ तथा मय तीनों विश्वकर्मा के शिष्य थे। इन्हें विश्वकर्मा द्वारा ही शिल्पविद्या प्राप्त हुई, अतः इन तीनों से पूर्व शिल्पशास्त्र (अर्थवेद) को बनाने का श्रेय विश्वकर्मा को है। वेदों के पश्चात् उपवेदों का स्थान है तथा शिल्पविद्या को प्रकाशित करने वाला प्रथम ग्रन्थ अर्थवेद विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है, अतः भुवनपुत्र विश्वकर्मा ही शिल्पकर्मा ही शिल्पविद्या के आदि आचार्य अर्थात् शिल्पप्रवर्तक हुए। पुराणों ने भी अर्थवेद (शिल्पशास्त्र) को विश्वकर्माकृत माना है-
आयुर्वेद धनुर्वेदं गान्धर्ववेदमात्मनः ।
स्थापत्यं चासृजद्वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः ।।

इसकी टीका करते हुये श्रीधर स्वामी ने लिखा है-
"स्थापत्यं विश्वकर्मशास्त्रम्"
अर्थात् शिल्पशास्त्र विश्वकर्माकृत हैं।
शौनकीय चरण व्यूह परिशिष्ट खण्ड 4 इसी की पुष्टि कितने स्पष्ट रूप में करता है-
“स्थापत्यवेदोअर्थशास्त्रं विश्वकर्मादिशिल्पशास्त्रमथर्ववेदस्योपवेदः"
अर्थात् विश्वकर्मा द्वारा निर्मित शिल्पशास्त्र ही अथर्ववेद का उपवेद हैं।

वराह पुराण -
परमात्मा ने सब मानवों के कल्याणार्थ शिल्प साध्य विज्ञानादि बड़े- बड़े यज्ञों के करने व कराने के निमित्त विश्वकर्मा को पृथ्वी पर उत्पन्न किया।

पद्मपुराण -
पद्मपुराण भी विश्वकर्मा को शिल्पप्रवर्तक मानता है-
दिवि भुव्यंतरिक्षे वा पाताले वापि सर्वशः ।
यत्किं चिच्छिल्पिनां शिल्पं तत्प्रवर्तके नमः ।।
अर्थात् आकाश, भूमि, अन्तरिक्ष और पाताल में जो कुछ भी शिल्पियों का शिल्प दिखलाई दे रहा है, उसके प्रवर्तक विश्वकर्मा को नमस्कार है।

संस्कृति के प्रथम आविष्कारक -
विश्वकर्मा संसार में संस्कृति के प्रथम आविष्कारक हैं। जब मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में था तथा खाने के लिये फल-मूल-कंद तथा पहिनने को वल्कल तथा निवास को केवल गुफायें थीं। उस अवस्था से आज तक की उन्नत अवस्था में पहुंचाने का श्रेय विश्वकर्माकृत शिल्पविज्ञान को है। आज जो विभिन्न प्रकार के स्वादुव्यजंन, सुविधापूर्ण निवास स्थान, रूपसम्पन्न वस्त्र, द्रुत गति के यातायात के साधन, उन्नत जीवन के जो भी साधन प्राप्य हैं, उनके पीछे विश्वकर्मा का शिल्पविज्ञान के लिये किया हुआ उनका योगदान ही दृष्टिगोचर होता है। आप किसी भी वस्तु को लें उसके निर्माण में विश्वकर्मा के हाथ को ही पायेंगे।
राज्यप्रणाली के संस्थापक -
भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने संसार में सर्वप्रथम राज्यप्रणाली की स्थापना की। संस्कृति के निर्माण के पश्चात् एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव होने लगी जिसमें मनुष्य निर्भय होकर अपना सर्वांगीण विकास कर सके। इसी सदुद्देश्य से प्रेरित हो विश्वकर्मा ने राज्यप्रणाली की स्थापना का निश्चय किया। उन्होंने कश्यप नाम के एक धर्मात्मा एवं विद्वान् पुरुष को राजा बनाने के लिये चुना, किन्तु सब प्रजा के अत्यन्त आग्रह तथा स्वयं कश्यप के उस परिस्थिति में अपने को राज्य शासन चलाने में असमर्थ बताने के कारण भुवनपुत्र विश्वकर्मा को स्वयं राजा बनना पड़ा। कश्यप ने राज्य महाभिषेक के द्वारा महर्षि भुवनपुत्र विश्वकर्मा का अभिषेक किया। राज्य पदारूढ़ विश्वकर्मा ने सम्पूर्ण संसार को विजित किया। इस प्रकार विश्वकर्मा ने सर्वप्रथम राज्य प्रणाली की स्थापना की।

सर्वमेधयज्ञकर्ता -
भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने संसार में सर्वमेध यज्ञ करके त्याग का एक महान् आदर्श प्रस्तुत किया है। त्याग के लिए संग्रह का यह अनुपम प्रतीक है। विश्वकर्मा ने कर्त्तव्य पालन हेतु राजा बन कर राज्य शासन के अनुरूप समस्त साधन प्रस्तुत कर विविध शस्त्रास्त्र का एवं जल- थल- नभ में चलने वाले विभिन्न द्रुतगति विमान बना, अनेक योग्य पुरुषों को अस्त्र शस्त्रों के संचालन की क्रिया सिखा, समस्त पृथ्वी को स्वाधीन किया। इस दिग्विजय स्वरूप सर्वमेध यज्ञ किया और उसी समय प्रजा को अत्यन्त आग्रह करने पर भी राज्य का परित्याग कर सब के समक्ष भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने कश्यप को राजा बना दिया ।

सार्वभौम राज्य का दान क्यों?
विश्वकर्मा ने समस्त पृथ्वी के राज्य को कश्यप को क्यों दान कर दिया। अंगिरा वंश के महर्षि संसार के कल्याणार्थ वेद ज्ञान के प्रसार को राज्य से अधिक महत्व देते थे। शरीर के दोनों प्रमुख अंग बुद्धि और आत्मा का विकास वेद ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। बुद्धि और आत्मा का जितना अधिक विकास होगा, उतना ही मानव उच्च विचारों का बन सकेगा। मनुष्य को सत्यपथ पर चलाने के लिए उदात्त विचार होने जरूरी हैं। इसीलिए पुरुष सूक्त में ब्राह्मण की मस्तिष्क से तथा क्षत्रिय की हाथों से तुलना की है। हाथों को चलाने के लिये मस्तिष्क की आवश्यकता है। इसीलिये अंगिरा वंश ने राज्य से अधिक वेद ज्ञान के प्रसार पर जोर दिया तथा इसी कारण विश्वकर्मा ने राज्य का दान कर दिया।

भुवनपुत्र विश्वकर्मा ही आदि शिल्पाचार्य हैं
अब तक हमने आदियुग के चार विश्वकर्माओं का वर्णन किया है। प्रथम भुवनपुत्र विश्वकर्मा, द्वितीय वसुपुत्र विश्वकर्मा, तृतीय भृगुवंशी विश्वकर्मा तथा चतुर्थ सुधन्वा विश्वकर्मा । काल की दृष्टि से भुवनपुत्र विश्वकर्मा सर्वप्रथम हुए हैं।
वेद प्रमाण -
वेद सृष्टि के आदि ग्रंथ हैं। विश्वकर्मा नाम वेद के विश्वकर्मा सूक्त 1 से लिया गया है। उसके मन्त्रद्रष्टा ऋषि भौवन विश्वकर्मा हैं । वेद की ऋषि परम्परा के अनुरूप उसका अर्थ है भुवन का पुत्र विश्वकर्मा । वेद से पूर्व कोई किसी भी ज्ञान विज्ञान का जानने वाला नहीं हुआ। वेद से उस सूक्त के अर्थों को सबसे पूर्व भुवनपुत्र विश्वकर्मा ने ही जाना, अतएव भुवन ऋषि के पुत्र ही आदि विश्वकर्मा हुए, अन्य नहीं। वसुपुत्र विश्वकर्मा, भृगुवंशी विश्वकर्मा तथा सुधन्वा विश्वकर्मा किसी भी वेद मन्त्र के मन्त्रद्रष्टा ऋषि नहीं हैं, अतः वे किसी भी प्रकार आदि विज्ञानवेत्ता तथा शिल्पप्रर्वतक नहीं हो सकते।
ब्राह्मण प्रमाण-
वेदों के पश्चात् प्रमाण की दृष्टि से ब्राह्मणों का क्रम आता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भुवनपुत्र विश्वकर्मा के राज बनने का इतिहास आता है तथा शतपथ ब्राह्मण में भुवनपुत्र विश्वकर्मा के सर्वमेध यज्ञ का वर्णन मिलता है। किसी भी ब्राह्मण ग्रंथ में अन्य तीनों विश्वकर्माओं का कोई वर्णन प्राप्त नहीं है। इस प्रकार राज्यप्रणाली के संस्थापक तथा सर्वमेध के प्रथम यज्ञस्त्रष्टा भी भुवन ऋषि के पुत्र प्रमाणित होते हैं।
पुरातन साक्ष्य -
जितने भी प्राचीनतम साक्ष्य हैं, सब भुवनपुत्र विश्वकर्मा के ही मिलते हैं जैसे अमृत घट की रक्षा भौवन विश्वकर्मा ने की। यह सत्युग के समय वृत्त है।
विश्वकर्मा का देवकार्य में सहयोग

अमृत घट रक्षा -
देव तथा असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिये समुद्र मन्थन किया। उसमें चौदह रत्नों में एक अमृत भी निकला। उसे लेने को दोनों पक्षों में महा-भयंकर युद्ध हुआ । विश्वकर्मा ने देवों को दिव्यास्त्र प्रदान किये, फलस्वरूप देव विजयी हुए तथा अमृत प्राप्त किया।
एक दिन विनता पुत्र गरुड़ ने अमृत घट प्राप्ति के लिये इन्द्र पर आक्रमण किया। उसके वेग को न समझकर मर्माहत इन्द्र ने भौवन विश्वकर्मा से अमृत घट की रक्षा की प्रार्थना की। विश्वकर्मा ने अमृत घट की रक्षार्थ चारों ओर तेजी से घूमने वाला सूर्य सम कान्तिवान् चक्र लगा दिया। उसके भीतर कोई नहीं जा सकता था। इस प्रकार उन्होंने अमृत घट की रक्षा की।
तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः ।
मौवनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता ।।
वहां विद्युत् एवं अग्नि के समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौवन (विश्वकर्मा) अमृत की रक्षा कर रहे थे।

स्थापत्य कला-
विश्वकर्मा ने देवों के लिये अनेक पुर बसाये, विभिन्न कलात्मक कार्य किये महात्मा हिमाचय की प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने पार्वती के विवाह का विस्तृत मण्डप तथा यज्ञीय वेदी बनाई जो अनेक आश्चर्यों से युक्त थी । स्थल को देखकर जल का तथा जल को देखने पर स्थल का आभास होता था। प्रतिमायें बिल्कुल चेतन देवों के समान सुंदर थी । कृत्रिम शेर, सारसों की पंक्तियां, नृत्य करते मोर, पुरुषों के साथ नृत्य करती स्त्रियां, धनुर्धारी द्वारपाल, समुद्र से ही प्राप्त हुई समस्त लक्षणों से युक्तपूर्ण द्वार पर स्थित लक्ष्मी, अलंकृत हाथी, घुड़सवार, गजारोही, रथी तथा पैदल सैनिक सब कृत्रिम बनाये थे, परन्तु चेतन सम दिखते थे। सिंह द्वार पर शुद्ध स्फटिक मणि का प्रकाशयुक्त नन्दी, उन पर दिव्य देवों सहित पुष्पक विमान सुशोभित था। चार दाँतों वाले हाथी, चंवरयुक्त अश्व, रत्न सम्पन्न लोकपाल, गरुड़ सहित विष्णु भगवान् तथा सपरिवार शिव ऐरावतारूढ़ इन्द्र - सब की मूर्तियां बनाई थीं। ये सब सूक्त पढ़ते दिखाई देते थे। ऐसा दिव्य एवं कलात्मक मण्डप विश्वकर्मा ने तैयार किया था। जब नारद जी मण्डप में पहुंचे तथा देवमूर्तियों को वास्तव देव समझ कर बहुत लज्जित हुए कि ये सब देव तो विष्णु के पास छोड़कर आया था, मुझसे पहले कैसे पहुंच गये। जब भीतर से लौट कर आये तो इतने ही समय में विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अपनी लज्जित अवस्था की प्रतिमा को देखकर सहम गये। कला की इतनी सजीवता आज दुर्लभ है।
इसी प्रकार उन्होंने अनेक मनोरम पुरी बनाई। कुबेर के लिये अल्कापुरी (यह इतरी मनोरम थी कि मनोरमता का प्रतीक बन गई) तथा शिवलोक, ब्रह्मलोक का निर्माण किया । श्रीपुर - यह स्तम्भों पर टिका कई योजन का विचित्र नगर था । स्फटिक मणि का उमापति शंकर निवास, महाराजा इन्द्रद्युम्न की यज्ञशाला, अमरावती तथा द्वारकापुरी, लंकापुरी, गरुड़ गवन आदि अनेक भव्य एवं विचित्र पुरी एवं भवन विश्वकर्मा ने बनाये ।

आयुध निर्माण-
विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने शस्त्र निर्माण किये, ब्रह्मा को कण्डिका, विष्णु को चक्र, शिव को त्रिशूल, इन्द्र को वज्र, अग्नि को परशु तथा धर्मराज को दण्ड बनाकर दिया।
यन्त्रों का निर्माण

दूरवीक्षण यन्त्र -
शिल्प संहिता में विश्वकर्मा निर्मित दूरवीक्षण यन्त्र का वर्णन तथा उसकी निर्माण विधि दी हुई है। इसी प्रकार तोय मन्त्र, घटी मन्त्र, स्वयंवह यन्त्र, बैरोमीटर बनाने आदि के विभिन्न यन्त्रों के वर्णनों से शिल्पशास्त्र भरे पड़े हैं।

विमान-
वेद की विमान विद्या का प्रत्यक्षीकरण भी विश्वकर्मा द्वारा हुआ। ऋग्वेद विमान निर्माण को इस प्रकार निर्देशित करता है-
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति ।
अर्थात् पार्थिव पदार्थों से बने हुये यान को तेजगति से चलाने वाले अग्नि आदि अश्व, जल सेचन युक्त वाष्प को प्राप्त होकर यान्त्रिक गति द्वारा आकाश में उड़ा ले चलते हैं।
ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के 'नौविमानादिविषय' प्रकरण में इससे आगे वर्णित है-
द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत ।
तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शंकवोअर्पिता: षष्टिर्न चलाचलासः ।।
इस मन्त्र का भाष्य करते हुये स्वामी जी लिखते हैं-
विमान के अरों को धारण करने के लिये बारह प्रधियां रचनी चाहिये। उनके बीच सम्पूर्ण कल पुर्जो को चलाने के लिये एक पहिया बनाना चाहिये। बीच की मशीन को ठहराने के लिये बीच में तीन यन्त्र हों। उनके साथ तीन सौ ऐसे कल पुर्जे हों जो यान को ठहरा भी सकें और चला भी सकें। इसमें साठ कला यन्त्र भी लगे हुये होने चाहिये। अर्थात् विमान को ऊपर चढ़ाना हो तब भापघर के ऊपर के मुख बन्द रखने चाहिये और जब ऊपर से नीचे उतारना हो तब ऊपर का मुख खोल देना चाहिये । पूर्व को चलाना हो तो पूर्व के बन्द रखकर पश्चिम के खोलने चाहिये और जो पश्चिम को चलाना हो तो पश्चिम के बन्द करके पूर्व के खोलने चाहिये। इसके बाद उन्होंने कहा है-
इस महा-गंभीर शिल्पविद्या को सर्वसाधारण नहीं समझ सकते, किन्तु जो हस्तक्रिया में चतुर पुरुषार्थी लोग हैं वे ही सिद्ध कर सकते हैं।

गरुड़-
विष्णु का वाहन गरुड़ है। परन्तु यह गरुड़ कोई पक्षी नहीं था, बल्कि श्येन की आकृति का विशिष्ट प्रकार का विमान था। अर्थात् श्येन (गरुड़) पक्षी के तुल्य वह आकाश में उड़े। यह विमान विष्णु के पास था, विष्णु तथा विश्वकर्मा समकालीन थे अतः यह स्पष्ट है कि इसके निर्माता विश्वकर्मा जी थे।

मयूर-
गया चिन्तामणि नाम के ग्रन्थ में मयूर की आकृति के विमान का वर्णन मिलता है। संस्कृत में वि का अर्थ पक्षी तथा मान का अर्थ अनुरूप है अतः विमान का अर्थ पक्षी के सदृश होता है। इसी प्रकार हंस को समझना चाहिये। आजकल भी विमान चिड़िया के रूप के होते हैं।

पुष्पक विमान-
वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट लिखा है कि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा ने ब्रह्मदेव के लिये दिव्य पुष्पक विमान की रचना की।
नानोपकरणैर्युक्तं भास्वतं पुष्पकं विदुः
शिल्प संहिता में विश्वकर्मा द्वारा निर्मित विभिन्न यन्त्रों से सज्जित, भाप के योग से चलने वाले वायुसम शीघ्रगामी यान की पुष्पक विमान संज्ञा बताई है। यह पुष्पक विमान पृथ्वी के चक्कर लगाने में समर्थ था। पुष्पकं तु समारुह्य परिचक्राम मेदिनीम् ।

कामगं विमान
भागवत पुराण में इसकी आश्चर्यजनक विशेषता इन शब्दों में बताई है-
क्वचिद् भूमौ क्वचिद्व्योम्नि गिरिश्रृङ्गे जले क्वचित्
अर्थात् यह विमान कभी भूमि पर कभी आकाश में, कभी जल में तथा कभी पर्वतों की चोटी पर चल सकता है।

शातकुम्भ विमान-
ब्रह्मवैवर्त पुराण में सौ चक्रों से युक्त शातकुम्भ नामक रथ का वर्णन मिलता है।
वैहायस विमान-
भागवत में मय निर्मित वहायस नामक सामरिक विमान का वर्णन मिलता है। इसमें सब प्रकार की युद्ध सामग्री भरी हुई होती थी तथा यह अदृश्य हो सकता था। इस पर चढ़ कर बलि युद्ध करने को गये।

सेमयान-
भागवत के स्कन्ध 10 में वर्णन मिलता है।
इस प्रकार प्राचीन साहित्य में अनेक प्रकार के विमानों के वर्णन हैं। उनमें विमान को रथ भी कहा है। वस्तुतः स्थल, जल तथा नभ तीनों स्थानों पर चलने वालेयानों को रथ कहा गया है।
भारद्वाज रचित यन्त्र सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण की एक खण्डित प्रति में बौधायन जी की व्याख्या के केवल चार सूत्र प्राप्त हुये हैं, जिनमें विमान के 32 रहस्यों का वर्णन मिलता है । उनमें विमान से मारक धूम्र फेंक कर शत्रु विमान को नष्ट करना, विमान अदृश्य कर देना, शत्रु की स्मृति नष्ट कर देना, दूसरे विमान में बैठे शत्रु की वार्ता सुन लेना जैसे रहस्यों का वर्णन हैं।
ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों के सूक्तों में स्थान- स्थान पर विमानों का वर्णन आया हैं। विद्यूत् रथ, पनडुब्बी तथा अन्तरिक्ष यान का वर्णन भी मिलता है। उस समय आठ प्रकार की शक्तियों से विमान चलते थे। अर्थात् बिजली से चलने वाला, अग्नि, जल, वायु आदि भूतों से चलने वाला, वाष्प से चलने वाला पंचशिखी के तेल से चलने वाला, सूर्य की किरणों से, चुम्बक, मणिवाह (सूर्यकांत चन्द्रकांत मणि), केवल वायु से चलने वाला इस प्रकार आठ प्रकार की शक्तियों से विमान चलते थे।
वस्तुतः अंशुवाह, मणिवाह, मरुत्सखा, आदि शक्तियां जिनसे विमान चलते थे। वह अणुशक्ति से भी सूक्ष्म विज्ञान था। अतिसूक्ष्म विज्ञानयुक्त यन्त्र को मणि कहा जाता है। मणिवाह शक्ति सूर्यकांत तथा चन्द्रकांत मणियों द्वारा संचालित होती थी। वह इन दोनों की किरण शक्तियों को आबद्ध कर बनाई जाती थी। मरुत्सखा आकाश की विभिन्न शक्तियों को आबद्ध कर तैयार की जाती थी । इसी प्रकार उल्कारस भी एक अद्भूत शक्ति थी । ये सब शक्तियां आकाश स्थित इन्द्र, मरुत, सूर्य, चन्द्र किरणों से सम्बन्धित थीं । यह सब विज्ञान अतिसूक्ष्म था। डेढ़ पाव पारे से समस्त संसार का परिभ्रमण हो सकता था। इससे पता चलता है कि विश्वकर्मा निर्मित विमान का विज्ञान अभी छुपा पड़ा है, जिसके लिये बहुत अनुसंधान की आवश्यकता हैं।

यज्ञीय शिल्प का निर्माण-
विश्वकर्मा ने यज्ञकुण्ड चयन में प्रयुक्त इष्टिका निर्मित की। उन्होंने यज्ञ मण्डप, यज्ञ वेदि, यज्ञ कुण्ड तथा सब प्रकार के यज्ञ पात्र बनाये। विश्वकर्मा ने ऋषियों की प्रार्थना पर यज्ञ के पात्र स्त्रुक, आदि, यज्ञशाला एवं देवशिल्प निर्माण किये, इसी कारण विश्वकर्मा का स्थकार शिल्पी नाम हुआ। पुरुषोत्तम क्षेत्र वर्णन में विश्वकर्मा निर्मित तीन मूर्तियों की स्थापना का भी वर्णन मिलता है। इसी प्रकार -
लिगद्वयं महापुण्यं विश्वकर्मप्रतिष्ठितम् ।
अर्थात् विश्वकर्मा ने महापुण्यकारक दो लिंगों की प्रतिष्ठा की ।

शिल्पशास्त्र प्रणेता -
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि विश्वकर्मा ने लोक कल्याण के पावन उद्देश्य से प्रेरित होकर अपने शिल्प नैपुण्य से अनेक वस्तुओं की रचना की। अपने उस शिल्पविज्ञान एवं शिल्प नैपुण्य को आगे होने वाली सन्तति के निमित्त चिरस्थायी करने के लिए तथा आगे भी उसका प्रयोग कर मनुष्य को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिये उस ज्ञान को विश्वकर्मा ने व्यवस्थित रूप प्रदान करते हुए अनेक शिल्प शास्त्रों की रचना की। विश्वकर्मा ने समस्त शिल्पविज्ञान को चतुर्विध विभाजन कर फिर उनका अवान्तर मेद कर दस शास्त्रों में निरूपण किया है ।
उत्पादन की दृष्टि से कृषि, जल तथा खनि-ये तीन विभाग हैं।
आवास की दृष्टि से वास्तु, प्राकार तथा नगर रचना - ये तीन विभाग हैं।
आवागमन के साधनों की दृष्टि से रथ, नौका तथा विमान- ये तीन विभाग हैं।
अन्य सभी प्रकार के यन्त्रों का चौथा यन्त्र विभाग है । इस प्रकार समस्त शिल्प विज्ञान का निम्नलिखित दस शास्त्रों के अन्तर्गत प्रतिपादन किया है। कृषि शास्त्र, जल शास्त्र, खनि शास्त्र, नौका शास्त्र, विमान शास्त्र, वास्तु शास्त्र, प्राकार शास्त्र, नगर-रचना शास्त्र तथा यन्त्र शास्त्र।

सूर्य तेज हरण-
कई पुराणों में विश्वकर्मा के सम्बन्ध में यह अद्भुत कथा आती है। विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य से किया तथा उससे तीन संतान उत्पन्न हुई। अपने पति के असह्य तेज को न सहकर संज्ञा पिता के घर वापिस आई, परन्तु पिता ने उसे वापिस भेज दिया। संज्ञा पति के पास नहीं गई बल्कि उत्तर कुरु देश में चली गई। एक दिन अपनी मौसी छाया से तंग आकर यम ने अपने पिता सूर्य को सारा रहस्य बता दिया। सूर्य विश्वकर्मा के पास गये तथा उन्हें सारा वृत्त बता दिया । विश्वकर्मा ने सूर्य को खराद पर चढ़ाकर उसके अधिक तेज को छुरे की धार से खुरच दिया। उस छीलन से जो तैजस पदार्थ प्राप्त हुए उसके दस भागों में विष्णु के लिए चक्र, पांच भागों से शिव का त्रिशूल, यम के लिए दण्ड, इन्द्र के लिए शक्ति आदि अस्त्रों की रचना कर दी।
वसुपुत्र विश्वकर्मा
ब्रह्मा के वंश में एक धर्म ऋषि नामक पुत्र हुए। दक्ष प्रजापति ने अपनी दस कन्यायें धर्म ऋषि को तथा तेरह कन्यायें कश्यप को विवाही थीं। धर्म ऋषि के वसु नामक पत्नी से आठ वसु उत्पन्न हुए, जिनके नाम धर, ध्रुव, सोम, आप, अह, अनल, प्रत्यूष और प्रभास हैं। इनमें आठवें वसु प्रभास की पत्नी वरस्त्री थी। बृहस्पति की बहिन ब्रह्मवादिनी वरस्त्री आठवें प्रभास की धर्मपत्नी थी। शिल्पकर्म के प्रजापति महाभाग विश्वकर्मा उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। वह सहस्त्रों शिल्पों के निर्माता तथा देवताओं की वृद्धि करने वाले कहे जाते हैं।
विष्णु पुराण अंश 1 अध्याय 15 श्लोक 122 के अनुसार वसुपुत्र विश्वकर्मा के अर्जकपात, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा तथा रुद्र नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए।
भृगुवंशी विश्वकर्मा
कश्यप के अदिति से वरुण (ब्रह्मा) के भृगु उत्पन्न हुए। स्वयंभू ब्रह्मा ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भृगु को अग्नि से उत्पन्न किया था। वस्तुतः जलप्रलय के पश्चात् नई आबादी बसाने के कारण वरुण को ही ब्रह्मा कहा गया, उन्हीं के पुत्र भृगु हुए। भृगु के दो पत्नियां थीं । पौलोम की पुत्री पौलोमी से इन्होंने च्यवन को उत्पन्न किया। आगे चलकर उसी वंश परम्परा में आपन्वान, ओर्व, जमदग्नि तथा परशुराम हुए। इन सब को भार्गव कहा जाता है।
दूसरी ओर हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के भृगु से शुक्राचार्य हुए। कहीं कहीं भृगु के पुत्र वारुणि, भृगु के सानंग, शुनक, शुक्राचार्य, वाध्रयश्व तथा वाधूल से पांच पुत्र लिखे हैं। वारुणि भृगु को कवि तथा शुक्राचार्य को भार्गव (उशना) (काव्य) भी कहा गया है।
वायु पुराण अध्याय 4 श्लोक 75 से 77, शुक्राचार्य के अंगी से वरूत्री, त्वष्टाधर शंड तथा अर्मक चार पुत्र हुए। त्वष्टा (त्वष्टाधर) के विश्वकर्मा और विश्वरूप दो पुत्र हुए।
सुधन्वा विश्वकर्मा
महर्षि अथर्वा के तीसरी पत्नी पथ्या से धिष्णु तथा संवर्त दो पुत्र उत्पन्न हुये । धिष्णु के पुत्र सुधन्वा तथा सुधन्या के पुत्र ऋभु, बिम्बा तथा बाज हुये। इसी प्रकार धिष्णु अथर्वा के पुत्र हैं अंगिरा के नहीं । सुधन्वा अपने समय के सर्वश्रेष्ठ शिल्प विज्ञानी एवं आचार्य थे। विमान आदि विज्ञान में दक्ष व्यक्ति को रथकार कहा गया है। सुधन्वा श्रेष्ठ रथकार थे। इनके वंश में भी रथ शस्त्र शिल्प विद्या प्रचलित थी। सुधन्वा ऋषि रथ आयुध शिल्प निर्माण के मर्म में कुशल थे, इसी कारण विश्वमेदिनी कोष में सुधन्वा विश्वकर्मणि कहकर इन्हें भी विश्वकर्मा माना हैं।
विश्वकर्मा जी की अवधारणा

शोषणरहित अर्थव्यवस्था के प्रवर्तक -
अर्थव्यवस्था के प्रवर्तक की दृष्टि से भी विश्वकर्मा को भारतीय समाज व्यवस्था में एक अनुपम स्थान प्राप्त हैं । विश्वकर्मा के इस वैशिष्टय की ओर अभी विद्वानों का कम ध्यान गया है, परन्तु विश्वकर्मा की पद्धति पूर्ण एवं आदर्श है ।

अर्थव्यवस्था की तीन पद्धतियां-
संसार में अर्थव्यवस्था की दृष्टि से तीन पद्धतियां प्रचलित हैं। पूंजीवाद, साम्यवाद तथा समाजवाद उनके नाम हैं। सामान्यतयाः देखने से यह तीनों व्यवस्थायें पृथक् पृथक् हैं। परन्तु ध्यान से एवं गहराई से देखने पर तीनों में ही कुछ प्रमुख तत्व समान रूप से पाये जाते हैं। उदाहरणतः इन तीनों व्यवस्थाओं में वास्तविक निर्माताओं को स्वामित्व में किसी प्रकार का स्थान नहीं, उन्हें निर्माता न कहकर श्रमिक कहा जाता है। उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नगण्य है। निर्माण की प्रबन्ध व्यवस्था में तथा उसकी निर्माण प्रक्रिया में उसे प्रत्यक्ष कोई लाभ नहीं। तीनों में केवल इतना ही अन्तर पाया जाता है कि जहां पूंजीवाद में निर्माता किसी पूंजीपति का नौकर है, वहां साम्यवाद या समाजवाद में वह किसी सरकार का नौकर होता है। इस तरह तीनों ही व्यवस्थाओं निर्माता को श्रमिक मान कर नौकर का दर्जा प्रदान करती हैं।
आदि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा ने अर्थव्यवस्था की ऐसी रचना की जिसमें ऊपर लिखित सब लाभ प्राप्त हो सकें। ग्राम-ग्राम में अपने-अपने आवास स्थान पर निर्माण करने वाला काष्ठकार, लोहकार, स्वर्णकार, वास्तुकार आदि शिल्पी समुदाय किसका नौकर है। कोई एक व्यक्ति (पूंजीपति या सरकारी व्यक्ति) उसका स्वामी नहीं है। वह किसी व्यक्ति विशेष का नौकर नहीं होता है। वह समाज का अंश है। आज की श्रम सम्बन्धी शब्दावली में वह स्वयं अपना मालिक और स्वयं अपना सेवक है। इस पद्धति में नियोजक नियुक्त भाव का सर्वथा अभाव है। यह अर्थ के अभाव को दूर करता हुआ अर्थ के प्रभाव को मर्यादित करता है। वर्ग संघर्ष से दूर यह विश्वकर्मा का ऐसा वैशिष्टय है जिस पर हम सब गर्व कर सकते हैं। इसे अपनाकर संसार को वर्ग संघर्ष से दूर कर सकते हैं।

निर्माण के तीन मौलिक तत्व -
विज्ञान सम्राट विश्वकर्मा ने निर्माण के मौलिक तत्वों का पूर्ण रूप से विचार कर इस पद्धति को आदर्श अर्थव्यस्था की दृष्टि से चरितार्थ किया है। प्रत्येक निर्माण में तीन मौलिक तत्त्व होते हैं। प्रथम तत्त्व है निर्माता जिसे आज की परिभाषा में श्रमिक कहते हैं। दूसरा तत्व है वह साधन जिसे प्रयुक्त कर निर्माण किया जा सके, जिस औजार या मशीन कहते हैं। तीसरा तत्त्व है उन औजारों या निर्माण के पदार्थों पर जो पूंजी लगे अर्थात् उनका स्वामित्व । विश्वकर्मा ने आदर्श अर्थव्यवस्था की दृष्टि से इन तीनों तत्त्वों को व्यक्ति व्यक्ति में निहित कर दिया अर्थात् एक ही व्यक्ति अपने औजारों या मशीन का स्वयं निर्माता है, उनका मालिक हैं तथा उन मशीनों से स्वयं काम करता है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था केन्द्रित नहीं हो सकती। अतः शोषण का भय निर्मूल हो जाता है। विश्वकर्मा ने अपनी इस अर्थव्यवस्था को स्पष्ट करने के लिए शिल्पशास्त्रों में परतन्त्र स्वतन्त्र तथा सर्वकर्म स्वतंत्र शब्दों की व्याख्या करते हुए आदेश दिया कि अधिकतम लाभ के लिए अधिकांश व्यक्ति सर्वकर्म स्वतंत्र उससे कम स्वतंत्र, परतंत्र को ग्रहण करे।
सर्वकर्म स्वतन्त्र - मशीन का निर्माता व मालिक तथा उस पर कार्य करनेवाला वही व्यक्ति हो उसे सर्वकर्म स्वतन्त्र कहते हैं।
स्वतन्त्र - मशीन का मालिक तो होता है उस पर स्वयं काम करता है परन्तु उस मशीन को बना नहीं सकता अतः दूसरे से बनवाता है उसे स्वतन्त्र कहते हैं।
परतन्त्र - जो किसी दूसरे की मशीन पर काम करता है ।

काशी वन में घोर तपस्या-
विश्वकर्मा यद्यपि उन वस्तुओं की निर्माण विधि नहीं जानते थे परन्तु उन्होंने गुरु आज्ञा को स्वीकार कर उन कार्यों को पूर्ण करने का संकल्प किया। वे काशी के वन में जाकर शिल्पविद्या के साक्षात्कार के लिए घोर तपस्या करने लगे । तपस्या का अर्थ धूनी रमाकर तपना नहीं है बल्कि किसी कार्य के लिए लगातार अध्यवसाय पूर्वक प्रयत्न करना है। साधना करना है । उस साधना के फलस्वरूप उन सभी वस्तुओं के निर्माण में वे सफल हुए तथा उनकी घोर तपस्या से सन्तुष्ट होकर स्वयं महादेव जी ने वरदान दिया-
विश्वेषां विश्वकर्माणि विश्वेषु भुवनेषु च ।
यतो ज्ञास्यसि तन्नाम विश्वकर्मेति तेअनघ ।।
अर्थात् समस्त भुवनों के सभी कर्मों को तुम जान जाओगे तथा इसी कारण तुम्हारा नाम विश्वकर्मा होगा। इससे भी आगे बढ़कर महादेव ने कहा-
अपरः को वरो देयस्तव तम्प्रार्थयाश्वहो ।
तवा अदेवयं न भो किन्चिल्लिन्डर्चनरतस्यहि ।।
इस मेरे दिये हुए वर के अतिरिक्त और कौनसा वरदान चाहते हो मांग लो। तुम्हारे समान तपस्या में रत रहने वाले को ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं हैं जो दिया न जा सके। अर्थात् तपस्या से सब कार्य सिद्ध होते हैं। इस प्रकार विश्वकर्मा ने महान् तपस्वी बनकर शिल्पविद्या को प्रत्यक्ष किया।

अद्वितीय राष्ट्रप्रेम-
राष्ट्रप्रेम की दृष्टि से भी विश्वकर्मा का अन्यतम स्थान है। भागवत महापुराण के षष्ठ स्कन्ध में शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को जो कथा सुनाई है वह विश्वकर्मा के अद्वितीय राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त करती हैं। एक बार गुरु बृहस्पति इन्द्र के अशिष्ट व्यवहार से रुष्ट होकर इन्द्र का परित्याग कर अदृश्य हो गये। उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने विश्वरूप को देवगुरु बना लिया। उसके प्रताप से देव विजयी हुए। परन्तु काल निकल जाने पर इन्द्र उनको भी सहन न कर सके । विश्वरूप की बढ़ती जनप्रियता एवं उसके अभयपक्षीय अनुराग से उत्पन्न संदेह के कारण एक दिन इन्द्र ने क्रोधाविष्ट होकर उसकी (विश्वरूप की) हत्या कर दी।
हत्या करने पर विश्वकर्मा के प्रभाव के कारण इन्द्र को भयभीत होकर जल में छुपना पड़ा। विश्वकर्मा ने पुत्र हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए इन्द्र के शत्रुरूप पुत्र की प्राप्ति हेतु यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया। किन्तु जब उन्होंने प्रकृतिस्थ होकर अपने कार्य के परिणाम पर विचार किया तो उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रनायक इन्द्र के वध से राष्ट्र दुर्बल होगा। विश्वकर्मा तो उत्कृष्ट देश भक्त थे, राष्ट्रहानि कैसे करते। अतः अनुष्ठान जारी रखते हुए भी वे इन्द्रशत्रु पद में शत्रु के बदले इन्द्र शब्द पर जोर देने लगे जिससे शब्द का अर्थ बदल कर 'इन्द्र' जिसका शत्रु हो, यह अर्थ हो गया। इससे वृत्रासुर का जन्म हुआ। वृत्रासुर की शक्ति अजेय थी। दधीचि ऋषि की अस्थियों के वज्र से ही वृत्रासुर का पराभव सम्भव था। उन अस्थियों से वज्र का निर्माण केवल विश्वकर्मा ही कर सकते थे। इन्द्र की प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने पुत्रप्रेम से बढ़कर राष्ट्रप्रेम को माना। वृत्रासुर के वध के लिए वज्र का निर्माण किया। राष्ट्र के लिए पुत्र का बलिदान - विश्वकर्मा के राष्ट्रप्रेम का ज्वलन्त उदाहरण है। यह सब देशभक्तों के लिए उत्प्रेरक आदर्श है।
विश्वकर्मा अवतार

जैसे राम, कृष्ण, आदि ईश्वर के अनेक अवतार पुराणों में वर्णन किये गये हैं, वैसे ही विश्वकर्मा भगवान के अवतारों का वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण के काशी खंड मे महादेव जी ने पार्वती जी से कहा है कि - हे पार्वती, मैं आप से पापनाशक कथा कहता हूँ। इसी कथा में महादेव जी ने पार्वती जी को विश्वकर्मेश्वर लिंग प्रकट होने की कथा कहते हुए त्वष्टा प्रजापति के पुत्र के संबंध में कहा-
विश्वकर्माऽभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराऽतनु
त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मसु ।।
अर्थ- प्रत्यक्ष आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों में निपुण था ।


दूसरा अवतार
स्कन्द पुराण प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का वर्णन इस भांति मिलता है।
ईश्वर उवाच -
शिल्पोत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः ।।
विश्वकर्माऽभवत्पूर्व शिल्पिनां शिव कर्मणाम् || 16 ||
मदंगेषु च संगूताः पुत्रा पंच जटाधराः ।।
हस्त कौशल संपूर्णा पंच ब्रह्मरताः सदा || 17 ||

एक समय कैलाश पर्वत पर शिवजी, पार्वती, गणपति आदि सब बैठे थे, उस समय स्कन्द जी ने गणपति जी के रत्नजड़ित दांतों और पार्वती जी के जवाहरात से जुड़े हुए जेवरों को देखकर प्रश्न किया कि हे पार्वतीनाथ! आप यह बताने की कृपा करें कि ये हीरे जवाहरात चमकीले पदार्थ किसने निर्मित किये? इसके उत्तर में भोलानाथ शंकर ने कहा कि शिल्पियों के अधिपति श्री विश्वकर्मा की उत्पति सुनो। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा के पांच मुखों से पांच जटाधारी पुत्र उत्पन्न हुए, जिन के नाम - मनु, मय, शिल्पी, त्वष्टा व दैवज्ञ थे । यह पांचों पुत्र ब्रह्म की उपासना में सदा लगे रहते थे।
तीसरा अवतार
आर्दव वसु प्रभास नामक को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति जी की बहिन योगसिद्धा विवाही गई और अष्टम् वसु प्रभास से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ, जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन वायुपुराण अ. 22 उत्तर भाग में दिया है:-
बृहस्पतेस्तु भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी ।।
योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा || 15 |
| प्रभासस्य तु सा गार्या वसु नामष्ट मस्य तु ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ||
मत्स्य पुराण अ. 5 में भी लिखा है:-
विश्वकर्मा प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः ।।
प्रासाद भवनोद्यान - प्रतिमा - भूषणादिषु ।।
तडागा राम कूप्रेषु स्मृतः सोमऽवर्धकी ।।
अर्थ - प्रभास का पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावड़ी, और कुएं निर्माण करने देव आचार्य थे।
आदित्य पुराण में भी कहा है कि-
विश्वकर्मा प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः।
महाभारत आदि पर्व विष्णु पुराण और भागवत में भी इसका उल्लेख किया गया है।

विश्वकर्मा ऋषि
विश्वकर्मा नाम के ऋषि भी हुए हैं। ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त दिया हुआ है और इस सूक्त में 14 ऋचायें हैं इस सूक्त का देवता विश्वकर्मा है और मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वकर्मा है।
'यइमा विश्वा भुवनानि' इत्यादि से सूक्त प्रारम्भ होता है। यजुर्वेद 4/3/4/3 "विश्वकर्मा ते ऋषि" इस प्रमाण से विश्वकर्मा का ऋषि होना सिद्ध है।
वेदों और पुराणों के अनेक प्रमाणों से हम विश्वकर्मा को परमात्मा परमपिता जगतकर्त्ता, सृष्टि निर्माता सिद्ध कर चुके तथा विश्वकर्मा के अवतारों को भी पुराणों से बता चुके है । विश्वकर्मा देव की अवहेलना करने से ही इस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। न इनके पास खुद की उत्पत्ति है, यह टकशाली ब्राह्मण यह देख पद्म पुराण के वचनों पर तनिक ध्यान नहीं देते, देखों कितना साफ कहा है (विष्णुश्च विश्वकर्मा च न मिद्यते परम्परा) अर्थ विष्णु और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं।
विश्वकर्मा अनेक नामों से विभूषित
जगतकर्त्ता विश्वकर्मा, भौवन विश्वकर्मा, ऋषि विश्वकर्मा के धर्म ग्रन्थों में अनेक अवतरण आये हैं। विषय अनेकानेक नामों में बँटा हुआ हैं। विश्वकर्म ब्राह्मण कर्म है अर्थात विश्वकर्मा सन्तान कहने का दावा करने वाले तथा अपने को पांचाल शिल्पी ब्राह्मण बताने वाले खरे ब्राह्मण है। यहां हम धर्म ग्रन्थों के प्रमाणों को देकर अन्त में ग्रन्थों के आधार पर भृगु, अंगिरा, मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ आदि की वंशावली की सप्रमाण दिखायेंगे ।
प्राचीन धर्म शास्त्रों में
शिल्पज्ञ, विश्वकर्म - ब्राह्मणों को रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पांचाल, स्थपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों में सम्बोधित किया गया था। उस समय आजकल के समान लोहाकारों, काष्ठकारों और स्वर्णकारों आदि सभी के अलग-अलग सहस्त्रों जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय मे शिल्प कर्म बहुत ऊँचा समझा जाता था, क्योंकि धर्मग्रन्थों की खोज में हमें पता चलता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों ही वर्ण रथ कर्म अर्थात् शिल्प कर्म करते थे।
हम यहां विश्वकर्म ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व विषयक कुछ प्रमाण देने से पूर्व यह उचित समझते है कि रथकार, पांचाल, नाराशस इत्यादि शब्दों के विषय में कुछ थोड़ा समझा दें। जिससे आगे जो धर्म शास्त्रों के प्रमाण हम दिखायेंगे उनमें जब इन शब्दों में से कोई आवे तो हमारे पाठकों को समझने में कठिनाई न पड़े।
रथकार
यह शब्द प्राचीन धर्मग्रन्थों में अनेक स्थलों पर आया है और उनमें शिल्पी ब्राह्मण के स्थान मे प्रयोग हुआ है। अर्थात लोहकार, काष्टकार, स्वर्णकार, सिलावट और ताम्रकार सब ही काम करने वाले कुशल प्रवीण शिल्पी ब्राह्मण का बोध केवल रथकार शब्द से ही कराया गया है और यही शब्द वेदों तथा पुराणों में भी शिल्पज्ञ ब्राह्मणों के लिए लिखा गया है।
स्कन्द पुराण नागर खण्ड अध्याय 6 में रथकार शब्द का प्रयोग हुआ हैः-
सद्योजाता दि पंचभ्यो मुझेभ्य पंच निर्भये ||
विश्वकर्म सुता ह्येते रथ कारास्तु पंच च ।।
तस्मिन् काले महाभागो परमो मय रूप भाक् ।।
पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा ।।
काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्वयो ददौ विभुः ।।
रथ कारास्तदा चक्रुः पंच कृत्यानि सर्वदा | |
षड्दशनाद्यनुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये ।।

अर्थ- शंकर बोले - हे स्कन्द, सद्योजात, वामदेव, तत्पुरूष, अधीर, और ईशान यह पंच ब्रह्म संज्ञक विश्वकर्मा के पांच मुखों से पैदा हुए। इन विश्वकर्मा पुत्रों की रथकार संज्ञा है। अनेक रूप धारण करने वाले उस विश्वकर्मा ने अपने पुत्रों को टांकी आदि दस शिल्प आयुध अर्थात् दस औजार सोना आदि नौ धातु और लोहा, लकड़ी इत्यादि दिया। उससे यह षट्कर्म करने वाले रथकार सृष्टि कार्य के पंचविध पवित्र शिल्प कर्म करने लगे।
रथकार शब्द के ब्राह्मण सूचक होने के विषय में व्याकरण में भी अष्टाध्यायी पाणिनि सूत्र पाठ सूत्र - शिल्पिनि चा कुत्र. 6 / 2 / 76 संज्ञायांच 6 / 2/77
सिद्धांत कौमुदी वृतिः शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते ।
परे पूर्व माद्युदात्तं स चेदण कृत्र परो न भवति ।
तंतुवायः शिल्पिनि किं- कांडलाव अकृत्र किं- कुम्मकारः ।
"संज्ञा यांच" अणयते परे तंतुवायो नाम कृमि: ।
अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम ब्राह्मणः पाणिनिसूत्र 4 / 1 - 151 कृर्वादिम्योण्यः ।
ब्राह्मण जाति सूचक अर्थ को बताने वाले जो गोत्र शब्द गण सूत्र में दिये है, वह यह है.- कुरू, गर्ग, मंगुष, अजमार, रथकार, बाबदूक, कवि, मति, काधिजल इत्यादि, कौरव्यां ब्राह्मणाः, मार्ग्या, मांगुष्यः, आजमार्या, राथकार्या, वावद्क्याः, कात्याः, मात्याः, कापिजल्याः, ब्राह्मणाः इति सर्वत्र ।
तात्पर्य यह है कि व्याकरण शास्त्र में भी रथकार शब्द को आर्य गोत्र, ब्राह्मण जाति बोधक सिद्ध किया हुआ है और उसका उदाहरण भी 'रथकारों नाम ब्राह्मणः' दिया है। जिससे सिद्ध किया गया है कि रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है क्योकि- रथं करोति इति रथकारः । अर्थात रथ निर्माण करने वाले विश्वकर्मा ब्राह्मण का बोध प्राचीन ग्रन्थों में रथकार शब्द से होता है ।
यहां यह भी लिखा देना जरूरी जान पड़ता है कि स्मृतियों में रथकार एक संकीर्ण (छोटी) जाति को भी लिखा है, परन्तु जहां पवित्र देव शिल्प आदि का वर्णन आता है वहां शिल्पी ब्राह्मण संतति रथकार का ही मतलब होता है।
आपको रथकार विषय में शास्त्र के मन्त्र और रथकार का प्राचीन समय में जो मान, सम्मान प्रतिष्ठा थी, उस समय विश्वकर्मा का रथकार रूप विस्तृत था। राजे महाराजे सभी विश्वकर्मा रथकारों को आदर देते थे, क्योंकि कलाकार राष्ट्र के निर्माण करने में अग्रसर रखते थे। यह ब्राह्मण वर्ग रथकारों में था।
पांचाल रथकार शब्द के विषय के नमूने के तौर पर ऊपर उदाहरण देकर बता चुके है। अब इसी भांति एक दो उदाहरण 'पांचाल' शब्द के विषय में भी देकर बतायेंगे कि विश्वकर्म ब्राह्मणों को प्राचीन धर्म ग्रन्थों में 'पांचाल' भी कहा गया है। वराह पुराण में कहा है:-
पांचाल ब्राह्मणेतिहासः कथं ।
तत्र सुवर्णालंकार वाणिज्यों प जीविनः पांचाल ब्राह्मणाः ।
शैवागम में कहा है-
पंचालानां च सर्वेषामा चारोऽप्यथ गीयते ।
षट् कर्म विनिर्मित्यनी पंचालाना स्मृतानिच ।।
रुद्रयामल वास्तु तन्त्र में शिवजी महाराज ने कहा कि – शिवा मनुमयस्त्वष्टा तक्षा शिल्पि च पंचमः ।।
विश्वकर्मसुतानेतान् विद्धि शिल्प प्रवर्तकान् ।।
एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि ।।
पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो ।।
पंचालास्ते सदा पूज्याः प्रतिमा विश्वकर्मणः ।।
रुद्रवामल वास्तु तन्त्र प्रत्यादि ।
उपरोक्त प्रमाणों में पांचाल शब्द का प्रयोग विश्वकर्म ब्राह्मण के स्थान में किया गया है। अर्थात् रथकार और पांचाल दोनों शब्द विश्वकर्म ब्राह्मण बोधक ही है।

स्थापत्य
यज्ञकर्म और देवकर्म संबंधी कर्म में ही कहीं कहीं विश्वकर्म पांचाल ब्राह्मण की संज्ञा स्थापत्य भी कही गई है। जैसे भागवत स्कन्द 3 में स्थापत्यं विश्वकर्म शास्त्र लिखा है, इसका यही अर्थ है, कि यज्ञ सम्बन्धी और देव सम्बन्धी पवित्र शिल्प कर्म करने वाले विश्वकर्मा सन्तान ब्राह्मण है। इसकी पुष्टि अमर कोष के प्रमाण से भी होती है।
देखो - अमर कोष अ. ब्रह्मवर्ग:-
समीष्प तोष्टय्या स्थपतिः
अर्थ - बृहस्पति संज्ञक इष्ट अर्थात् बृहस्पति संज्ञा वाले यह कर्म करने वाले बृहस्पति गुरु को कहते हैं और दूसरे बृहस्पति विश्व-कर्म कुलोत्पन्न शिल्पाचार्य हुए हैं।

नाराशंस
अंगिरा महर्षि को ऋग्वेद में नाराशंस कहा है इसका प्रमाण ऋग्वेद अ. 8/2/1 में देखो ।
नराः अंगिरसः महर्षयः मनुष्य जाता वुत्पन्नत्वात् ते शंस्यते इति नाराशंसः ।
बौधायन श्रौत सूत्र के महा प्रवराध्याय में भी लिखा है.-
वसिष्ट शुनकात्रि मृगु कण्व वाघ्रश्चाधूल राजन्य वैश्य इति नाराशंसाः ।।
गोत्र प्रवर दर्पण में भी यह शब्द पाया जाता है -
भृगु गणे त्वष्ट्या अग्ने नाराशंसान् व्याख्या स्यामः।
वशिष्ट शुनकात्रिभृगु काण्व वाघ्रश्चाधूल इति ।।
नाराशंस शब्द पितर संज्ञा में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद अध्याय 8/1/16/3 देखो।
मनोन्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन ।।
माष्य नरैः शस्यते इति नाराशंसा: पितरः ।।
आश्वलायन श्रौत सूत्र में भी नाराशंस का प्रयोग मिलता है। सूत्र 5/6/30 देखो।
आप्यायिताश्चिमतान् सादयंति ते नारांशंसा गवति।।
उपरोक्त अनेक प्रमाण हमने रथकार पांचाल, स्थापत्य और नाराशंस शब्दों के प्रयोग को दिखाकर यह सिद्ध किया है कि यह सब शब्द जहां कहीं भी धर्म ग्रन्थों में भी लिखे गये हैं। वहाँ वह शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक हैं। अब आगे हम यह सिद्ध करके दिखायेंगें कि विश्वकर्म वंश के ब्राह्मण होने के और भी अनेक प्रमाण सनातनी धर्म ग्रन्थों में खोजने से मिल सकते है।
उपरोक्त रथकार, पांचाल, स्थापत्य, नाराशंस यह सब स्तंभ प्रमाण संग्रह अर्थात् विश्वकर्म - ब्राह्मण-मास्कर से संग्रहीत किए हैं। यह पुस्तक स्व. जयकृष्ण मणिठिया, गुरुदेव की संग्रहीत है जिसे विश्वकर्मा -विजय-प्रकाश में कई स्तम्भ संग्रहीत कर प्रकाशित किये हैं।

भृगु- ऋषि - कुल
वायु पुराण अध्याय 4 के पढ़ने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वास्तव में विश्वकर्मा सन्तान भृगु ऋषि कुल उत्पन्न है। देखों लिखा है-
भार्ये भृगोर प्रति उत्तमेऽभिजाते शुभे ।।
हिरण्यकशिपोः कन्या दिव्यनाम्नी परिश्रुता।।
पुलोम्नश्चापि पौलोमी दुहिता वर वर्णिनी ।।
भृगोस्त्वजनद्विव्या काव्यवेदविदा वरं ।।
देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुतं ग्रहं ।।
पितॄणां मानसी कन्या सोमपाना यशस्विनी ।।
शुक्रस्य भार्यागीराम विजते चतुरः सुतान् ।।
ब्राह्मणे तेजमा युक्तः स जातो ब्रह्म वित्तमः ।। तस्या मेव तु चत्वारः पुत्राः शुक्रस्य जज्ञिरे ।।
त्वष्टावरूपी द्वावेतौ शण्डामर्कोतु ताबुगो ।।
ते तदादित्य संकाया ब्रह्मकल्पा प्रभावतः ।।सं. 1 पृष्ठ 58
अर्थ - हिरण्यकश्यप की बेटी दिव्या और पुलोमी की बेटी पौलीमी उत्तम कुलीन, यह दोनों भृगु ऋषि को विवाही गई। दिव्या नाम वाली स्त्री के गर्भ से शुक्राचार्य पैदा हुए। सौम्य पितरों की मानसी कन्या अंगी नाम वाली शुक्राचार्य को विवाही गई। शुक्राचार्य जी के सूर्य के समान ब्रह्म तेज वाले त्वष्टा, वस्त्र, शंड और अर्मक यह पुत्र पैदा हुए, इन चारों में त्वष्टा ब्रह्म तेज से विशेष युक्त था। अर्थात् त्वष्टा में ब्रह्म तेज अधिक था।
पाठकगणों इससे स्पष्ट है कि त्वष्टा भृगु कुल में पैदा हुआ और ब्राह्मण था, ब्रह्म तेज की विशेषता ब्राह्मणत्व को साफ बता रही है। अब इसी कुल में त्वष्टा से विश्वकर्मा का जन्म सुनो।
त्रिशिरा विश्वरूपस्तु त्वष्टुः पुत्राव भवताम् ।।
विश्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा प्रजापतिः ।।
अर्थ- त्वष्टा प्रजापति के त्रिशिरा (तीन सिर वाला) जिसका नाम विश्वरूप था बड़ा पराक्रमी और उसका भाई विश्वकर्मा प्रजापति यह दो पुत्र हुए।
इसी विश्वकर्मा प्रजापति के विषय में स्कन्द पुराण के प्रभास खंड में यह लिखा है।
विश्वकर्म महद्भूतं विश्वकर्माणाम् मदंगेषु च सम्भूताः ।।
पुत्रा पंच जटाधरा: हस्त कौशल सम्पूर्णा पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
अर्थ - शिल्पियों में विश्वकर्मा बड़ा महान हुआ, जिसके पांच जटाधारी पुत्र हुए। इन्हीं विश्वकर्मा के पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ का वायु पुराण अध्याय 4 में उल्लेख किया हुआ है। इन्हीं पांच पुत्रों की संतान जो हुई वह सब भृगु कुलोत्पन्न विश्व - ब्राह्मण या पांचाल ब्राह्मण कहलाई ।
पाठक गण यहां की देना जरूरी है कि उपरोक्त वंश से यह भली प्रकार विदित है कि यह कुल कितना खरा है। इसमें कोई अण्ड - बण्ड ऐसी उत्पत्ति नहीं है। जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका में हम टकसाली ब्राह्मणों की उत्पत्ति जाति भास्कर और ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड के आधार पर दिखा चुके है।
पाठकों की जानकारी के लिए हम यहां भृगु कुल में उत्पन्न हुए सब ही ऋषियों का उत्पत्ति सिलसिलेवार दिखाते हैं।

इस कुल में भृगु, च्यवन, दिवोदास और गृत्समद और शौनक यह वेद मंत्र के द्रष्टा हुए हैं।
भृगु - ब्रह्मदेव का मानस पुत्र कहा जाता है। पुराण में यह भी कथा आती है, एक बार सारे ब्रह्म मानस पुत्र महादेव जी के शाप से मर गये तब ब्रह्मदेव ने उनको फिर उत्पन्न किया और वह वरुण के यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए और वरुण ने इनको अपना पुत्र ग्रहण किया। इसी कारण यह वारूणी भृगु के नाम से प्रसिद्ध हुए। विशेष जिसे देखना हो वायुपुराण अ. 4 मत्स्य पुराण अ. 252 महाभारत अनुशासन पर्व अ 85 निरूक्त दैवत कांड भाग 1 और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में देख सकते हैं।
भार्गव - भृगु ऋषि के पुत्र शुक्राचार्य का ही नाम भार्गव है। यह देवों और दैत्यों दोनों के ही पुरोहित अर्थात् आचार्य थे। इन्होनें शिल्प शास्त्र का ओशनस' नामक ग्रन्थ भी लिखा है। वायु पुराण और बृहत्संहिता अ. 50 में विशेष रूप से देख सकते है।
त्वष्टा - शुक्राचार्य के चार पुत्रो में से थे। इनमें अधिक ब्रह्मतेज था। विश्वरूप और विश्वकर्मा इनके दो पुत्र थे।
शौनक - यह शुनक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि थे। पांचालो की शौन कायनी शाखा इन्हीं से चली है।
उपरोक्त सब ही ऋषि शिल्प कार्य करते थे। गोत्र प्रवर दीपिका में इस भृगु कुल के गोत्र प्रवर इस प्रकार दिये है।
भृगु ऋषि – भार्गव, च्यवन, देवो दासेति ।
वाध्यंश्वा- भार्गव, वाध्यंश्वा, देवो दासेति ।
भार्गव – भार्गव, त्वष्टा, विश्वरूपेति ।
वाधूल- भार्गव, वैतहव्य, सावेतसेति ।
शुनक - शौनक, भार्गव, शौन हौत्र गार्त्समदप्ति ।
किसी किसी ग्रन्थकार जैसे बोधयन नामक सूत्रकार ने वशिष्ट शुनक अत्रि, मृगु, कण्व वाध्न्यश्वा, वाधूल, यह गोत्र भी नाराशंस पांचालो के आर्षेय गोत्र लिखे हैं ।

केवल आंगिरस कुल के प्रसिद्ध ऋषि
उपरोक्त अंगिरा वंशावली दी गई है, यह प्रमाण-संग्रह से उधृत है। अंगिरा ऋषि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुये। इनका वर्णन वेद ब्राह्मण ग्रन्थ, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत और सभी पुराणों में उल्लेख है। अंगिरा कुल परम श्रेष्ठ कुल है।
अंगिरा
अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण, भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है। भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।
महाभारत अनु. पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महायशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है ।
ऋग्वेद 10-14-6 में कहा है कि:-
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगबः सोम्यासः ।
तेषां वयं सुभतौ यज्ञियानामपि गद्रे सौमनसः स्याम ।।
अर्थ - जिसके कुल में भरद्वाज, गौतम और अनेक महापुरूष उत्पन्न हुए, ऐसे जो अग्नि के पुत्र महर्षि अंगिरा बड़े भारी विद्वान हुए हैं, उनके वंश को सुनो! अंगिरस देव धनुष और बाणधारी थे। उनको ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराद और मनु ऋषि कन्या पथ्या यह तीनों विवाही गई । सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति स्वराद से गौतम, प्रबन्ध, वामदेव, उतथ्य और उशिर यह पांच पुत्र जन्में, पथ्या के गर्भ से विष्णु संवर्त, विचित, अयास्य, अशिज, दीर्घतमा, सुधन्वा यह सात पुत्र उत्पन्न हुए। उतथ्य ऋषि से शरद्वान वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋभु विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। ऋभु रथकार में बड़े कुशल देवता थे, तो भी इनकी गणना ऋषियों में की गई है।
बृहस्पति का पुत्र महायशस्वी भरद्वाज हुआ, यह सब अंगिरस भृगु आदि देव शिल्प के निर्माण करने वाले रथकार नाम से प्रसिद्ध हुए।
इससे स्पष्ट सिद्ध हो गया है कि प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों को रथकार भी कहा करते थे और रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है, इस विषय में हम पूर्व पर रथकार शब्द को व्याकरण की कसौटी पर कसकर ब्राह्मण बोधक सिद्ध कर चुके हैं।
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 83 में अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय संज्ञा होने के विषय में यह उल्लेख है:-
अष्टौचांगिरसः पुत्राः आग्नेयास्तेऽप्युवाह्वताः ।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च पयस्यः शांतिरेवच ।
धोरो विरूषः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
अर्थ- अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय संज्ञा है जिनके नाम इस प्रकार है। बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, शांति, गोर, विरूष, संवर्त और सुधन्वा ।
इन्ही महर्षि अंगिरा ऋषि ने इन्द्र के सिंहासन पर बैठने के समय अथर्ववेद मंत्रों से इन्द्र की स्तुति की थी, और उसी से प्रसन्न होकर इन्द्र देवता ने अंगिरा को अथर्वांगिरस उपाधि दी थी। यह मन्त्र द्रष्टा ऋषि है। अथर्ववेद का उपवेद शिल्प वेद है और इसी कारण यह शिल्पज्ञ ऋषि है।
कुत्स - यह भृगुकुल उत्पन्न ऋषि है। ऋ.अ. 1/7/30/2
कण्व - यह सुर्पणा ऋषि का पिता एक ब्रह्म ऋषि है। (महाभारत)
स्थीतर - इसे भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में एक ब्रह्म ऋषि लिखा है।
सुन्धवा-विम्व मेदिनी कोष में लिखा है (सुधन्वा विश्वकर्मणि) तात्पर्य यह है कि सुधन्वा विश्वकर्मा है अर्थात् सुधन्वा विश्वकर्मा का ही नाम है। जैसे विष्णु अवतार से वासुदेव और वासुदेव के पुत्र प्रद्युम्न (पोता) अनिरुद्ध इसमें कोई भेद नहीं, इन सबही को विष्णु कहते है। ठीक इसी भांति विराट विश्वकर्मा का अवतार ब्रह्मदेव और ब्रह्मदेव का पुत्र अंगिरा और पोता वाचस्पति सुधन्वा, यह भी कोई पृथक व्यक्ति नहीं है। इसी से ब्रह्म अंगिरा वाचस्पति, सुधन्वा इत्यादि सब विश्वकर्मा के नाम है। सुधन्वा के बारे में महाभारत उद्योग पर्व में जो कथा आती है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सुधन्वा श्रेष्ठ ब्राह्मण है। वहां प्रश्न किया गया है कि:-
किं ब्राह्मणाः स्विच्छे यां सो दितिजा त्वद्वि रोचन ।।
अध केनस्मपर्य के सुधन्वा नाधि रोहति ॥8॥
प्रहलाद उवाच –
मत्तः श्रेया नंगिरा सुधन्वा त्वत्त एवच मातास्य श्रेयसी मातुस्तस्मात्वं तेन वै जितः ।
विरोचन सुधन्वाऽयं प्राणानामीश्वरस्तव ।
सुधन्वोवाच –
एव प्रहलाद पुत्रस्ते मया दत्तो विरोचनः ।
पाद प्रक्षालनं कुर्यात्कुमार्याः सन्निधौ मम ।।
इन पर नीलकंठ ने यह टीका की है,
सुन्धवा ब्राह्मण पर्यक अधिरोहत्येव त्वंतु नीचो दैत्यः ।
सन् किमर्य प्रत्याख्यानं करोषितिभावः ।।
इष्वस्त्रवर सम्पन्नमर्थ शास्त्र विशारदम् ।।
सुधन्वान मुपाध्यायं कच्चित्वं तात मन्यसे ।।
जब भरत जी श्री रामचन्द्रजी से मिलने चित्रकूट गये थे तो भेंट होने पर भगवान रामचन्द्र जी ने भरत जी से अयोध्यावासियों की कुशल क्षेम पूछी तो उसी समय श्री रामचन्द्रजी ने यह भी पूछी कि अपने अस्त्र शस्त्रधारी स्थारोहण विद्या सिखाने वाले गुरु रथशास्त्र (शिल्पशास्त्र) में कुशल सुधन्वा ऋषि हमारे उपाध्याय तो कुशल हैं?
आर्भव – ऋभु, बिम्भा और बाज ये तीनों सुधन्वा ऋषि के पुत्र शिल्प कौशल के महान् आचार्य थे। अश्विनी देव के लिए यात्रा करने को रथ निर्माण करके दिया था। उन्होनें यज्ञ के एक चमचे के चार चमचे बना दिये थे और रथ, विमान, यज्ञ पात्र आदि अनेक भांति - भांति के अद्भुत शिल्प काम किया करते थे, यह सब विश्वकर्मा के शिष्य थे।
सुनु - यह ऋभु कुल का एक मंत्र द्रष्टा ऋषि है। ऋग्वेद मंडल 10 अनु, 12 स. 176 देखें|
आप्त्य - यह भुवन ऋषि का पिता था। आश्वलायन सुर्वानुकमणिका ।
भुवन - एक ब्रह्मर्षि, इनका पुत्र भौवन विश्वकर्मा (महाभारत)।
शैरः श्रृंग - शमिक ऋषि का पौत्र श्रृंगी ऋषि का पुत्र, रामश्रृंगा पहाड पर गए तो वहां जमदग्नि ऋषि ने इनका बड़ा सत्कार किया और इनको वहां ठहरा लिया यह वहां बहुत समय तक तप करते रहे। विशेष वृतांत विश्वकर्मां कुलदीपक' में देख सकते हैं।

अंगिरस गणों में 8 ऋषि वेद मंत्र द्रष्टा हुए है। जो इस प्रकार है -
1-अंगिरा, 2 - मांधाता, 3- सुनु, 4- अंबरीष, 5- भौवन, 6- युवनाश्व, 7- विश्वकर्मा, 8- अजमीठ ।
केवल अंगिरस - गणों के हारीत, कुत्स, कण्व, स्थीतर यह पांच गोत्र है और इन पांचों के 3-3 प्रवर है।
गौतम अंगिरस - गणों के गौतम, दीर्घतमस और राहूगण यह 3 गोत्र और 3-3 प्रवर है इनमें गौतम और दीर्घतमा यह वेद मन्त्र द्रष्टा ऋषि हुए है।
भारद्वाज अंगिरस - गणों में भारद्वाज बृहस्पति और गर्ग यह 3 प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं और इनमे भारद्वाज और गर्ग यह दो गोत्र और 3-3 प्रवर है। भारद्वाज और गर्ग यह दोनों वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि हैं।
अत्रिगण— अत्रिगण में अत्रि ऋषि के सिवा दूसरा कोई गोत्र नहीं है। इनमें अत्रिका, आत्रेय, अस्वलायन और श्यावाश्व यह 3 ही प्रवर है और अत्रि व श्यावाश्व यह दोनों वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि हुए हैं।
कश्यपगण- कश्यप, सूर्य और नाभाने दिष्ट यह 3 प्रसिद्ध गण हुए है। कश्यप ब्रह्मा का मानस पुत्र मारीच का पुत्र है और शिल्पकार है।
सूर्य - इसमें सम्बन्ध में ऋग्वेद, विष्णु पुराण वायु पुराण और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष मे उल्लेख पाया गया है। यह कश्यप का पुत्र अदिति से जन्मा है।
संज्ञा, राज्ञी और प्रमा यह तीन सूर्य की स्त्रियां थीं, इसमें संज्ञा विश्वकर्मा की पुत्री थी । उसे त्वाष्ट्री भी कहते हैं। संज्ञा से सूर्य का तेज सहन नहीं हो सका तो संज्ञा ने योग बल से सर्वण (संध्या) नामक एक स्त्री अपने सरीखी बना कर सूर्य के पास भेज दिया व आप कुरूक्षेत्र में घोड़ी बनकर चरने लगी जब विश्वकर्मा जी को खबर लगी तो उन्होंने सूर्य से कहा कि तुम अपना तेज मुझसे कम करवा लो तो संज्ञा तुम्हारे साथ रह सकेगी अन्यथा नहीं। विश्वकर्मा जी की यह बात उनके दामाद सूर्य ने मान ली, तब विश्वकर्मा जी ने सूर्य का तेज कम कर दिया तो संज्ञा सूर्य के साथ चली गई - और उससे अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई ।
ताभानेदिष्ट - यह वैवस्वत मनु का पुत्र और विश्वकर्मा का पोता था । अंगिरा ऋषि ने यज्ञ किया था। उस यज्ञ में वैवस्वत मनु ने इसे ऋत्विज बनाकर भेजा था और उसमें दो सुक्तों का वेद पाठ किया था (भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष)। कश्यप, गणों में कश्यप और नामानेदिष्ट यह दोनो ही वेद मन्त्रा द्रष्टा ऋषि है। कश्यप 1 गोत्र और कश्यप, अवत्सार, ध्रुव यह तीन प्रवर है ।
वशिष्टगण में - वशिष्ट और कुडिंन यह दो ही गोत्र और 3-3 प्रवर है । परन्तु इस कुल में वशिष्ठ, इद्रमप्रति, भरब्दसु मैत्रा, वरुण और कुंडिल यह पांच वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि हुए है ।
पाठक वृन्द इससे आप लोगो की समझ में आ गया होगा कि जिसे विश्वकर्मा कुल या पांचाल ब्राह्मण वंश या शिल्पी ब्राह्मण समुदाय कहा जाता है, वह कोई साधारण या छोटा कुल नहीं है। संसार के जितने प्रसिद्ध ऋषि हुए है वह सब इसी कुल में उत्पन्न हुए। हमारे भाईयों को अभी तक यह ज्ञान नहीं हुआ था कि हमारा वंश कितना बड़ा और कितना पवित्र है ।
फिर दूसरी बात भी समझने योग्य है कि हमारे विश्वकर्मा वंश ऋषियों की उत्पति भी उट-पटांग नहीं है कि कोई किसी की नाक से, कोई घड़े से, कोई किसी पशु के पेट से पैदा हुआ। हमारे वंश की उत्पति वेदो के अनुकूल शुद्ध और सृष्टि के नियमानुसार है।
यहां तक हम भृगु, अंगिरा, गौतम, भारद्वाज, अत्रि, कश्यप और वशिष्ट गणों की वंशावली और गोत्र प्रवर आदि दिखा चुके, साथ ही साथ यह भी बता चुके है कि इन उपर्युक्त वंशधर ऋषियों में कौन-कौन ऋषि वेद मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि हुए हैं। जिससे हमारे पाठकों को यह पता लग जाये कि विश्वकर्मा ब्राह्मणों में वह ऋषि मुनि रहे हैं जो बड़े गारी तपस्वी, योगी थे और योग विद्या के बल के कारण ही उन्होने वेद मन्त्रों को देखकर संसार के कल्याण के लिए शिल्प वेद के गूढ़ रहस्य को अपने शिष्यों को सिखाया और उन उन शिष्यों द्वारा संसार में इस विद्या के प्रभाव से श्रमिक लेकर बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा तक संसार का सुख भोग रहे है और यूं कहा जाये तो अनुचित न होगा कि बिना इन ऋषियों और मुनियों की घोर तपस्या के आज संसार में अंधकार होता क्योंकि बिना शिल्प विद्या के इस संसार में मनुष्य जीवन पशु समान हो जायेगा।
अब हम विश्वकर्मा कुल के तीसरे अवतार का वंश लिखते है। जो आठवें वसु प्रभास नाम से पुराणों में प्रसिद्ध है।
धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युस और प्रमास यह आठ वसु है। इनको प्रजापति का पुत्र कहा गया है। वायु पुराण उत्तर भाग में इसी आठवें वसु से विश्वकर्मा की उत्पत्ति का इस भांति वर्णन है-
बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी।
योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा ।।15।।
प्रभामस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्त तु।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ।।16।।
त्वष्टा विराजो रूपाणां धर्मपौत्र उदारधीः।
कर्त्ता शिल्प सहस्त्राणां त्रिव्शानां च वास्तुकृत्।। 17।।
यः सर्वेषां विमानानि देवतानां चकल्प ह ।
मानुषा श्रोय जीवंति यस्य शिल्पं महात्मनः ।|18||
देवा चार्यस्य महतो धीमतो विश्वकर्मणः ।
विश्वकर्मात्मजश्चैव विश्वकर्ममयः स्मृतः ।।19 ||
सरेणुरिति विख्याता स्वसा तस्य यवीयसी ।
त्वाष्ट्री सा सवितुर्भार्या पुनः संज्ञेति विश्रुता ।।20 || (वायुपुराण)

अर्थ- बृहस्पति जी की बहिन जिसका नाम योगसिद्धा था, वह प्रभास नामक आठवें वसु की धर्मपत्नी हुई। इसी के गर्भ से शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा पैदा हुए। उसी को धर्म ऋषि का पोता (पौत्र) कहते है। यह त्वष्टा विश्वकर्मा सब रूपों का अधिपति और सारे शिल्पों का प्रवर्तक देवताओं के मन्दिर और विमान आदि सबको रचने वाला हुआ है।
इसी के शिल्प से संसार के मनुष्य अपनी जीविका करते है। वह विश्वकर्मा महा बुद्धिमान और देवताओं का पुरोहित है। इसका पुत्र विश्वरूप बड़ा तपस्वी हुआ और इसकी लड़की विश्वरूप की बड़ी बहिन जिसका नाम 'सुरेणू' था सूर्य को ब्याही गई और संज्ञा' नाम से प्रसिद्ध हुई। आदित्य पुराण महाभारत आदि पर्व भागवत छठे स्कन्द में वर्णन इसी भांति दिया हुआ है। यहां तक कि ऋग्वेद अध्याय 1 / 3 / 26 / 5 में श्रेष्ठों देवानां वसु। और महाभारत उद्योग पर्व में- त्वष्टा प्रजापति ह्यासी देवः श्रेष्ठो महातयाः।
यह वचन सब विश्वकर्मा के सम्बन्ध में कथन की पुष्टि करते हैं कि विश्वकर्मा महादेव हैं और समस्त शिल्प का कर्ता है।
इस वंश में जो कश्यप, वशिष्ठ और अत्रि आदि गोत्र प्रवर्तक ऋषि हुए हैं उनके सम्बन्ध में हम पीछे लिख आये हैं और यहां हम उन सबकी वंशावली का कोष्ठक पाठकों की जानकारी के लिए उसी भांति दिखाते है जिससे कि हम इससे पूर्व भृगु और अंगिरा कुलोत्पन्न ऋषियों के विषय में पीछे दिखा चुके है।

महर्षि अंगिरा अग्नि के प्रथम आविष्कारक
अंगिरा ऋषि को हम अथर्वा, आंगिरस् या अथर्वागिरस के नाम से जानते हैं। इन्ही के विषय में कहा गया है कि इन्होनें कमल से मंथन करके पुरोहित विश्व के सिर से अग्नि का आविर्भाव किया-
पुरीष्योऽसि विश्वम्भराऽथर्वात्वा प्रथमो निरमंशदग्ने । (ऋ.6/16/13)
त्वामग्ने पुष्करादध्यधर्वा निरमंथत्त। मूर्धो विश्वस्य वाधतः ।। (यजु. 11/12)
और देखिए:-
अग्निर्जातो अथर्वणा विद्द विश्वानि काव्या । (ऋ.10/21/5)
अर्थ- अथर्वन ( अंगिरा) द्वारा आविर्भूत अग्नि आप सभी स्तवनों के ज्ञाता है।
इममु त्यमथर्व वदग्निं मंथन्ति वेधसः ।
यमङकू यन्तत्र मानयन्नमूरं श्याव्याभ्यः ।। (ऋ.6/15/17)
अर्थ- हे अग्नि! विद्वान आपका मन्थन करते हैं जैसा कि अथर्वन ने किया था। मनुष्य को यदि सचमुच ही किसी आविष्कार पर गर्व हो सकता है तो वह अग्नि का आविष्कार है। इस महत्त्वपूर्ण आविष्कार का आज मूल्यांकन कठिन है जबकि आज अग्नि को पैदा करने के साधन इतने आसान है। किन्तु जरा उन दिनों कि बात सोचिए जब इस धरती पर अग्नि का आविष्कार नही हुआ था और जबकि प्रकाश और ऊष्मा केवल सूर्य से ही प्राप्त होती थी ।
अथर्वा को ही अग्नि का आविष्कर्ता होने के कारण अंगिरा कहते है। अग्नि का मंथन करके यज्ञ में यग्न्याधान करने वाला अथर्ववेद का ज्ञाता पुरोहित ही यज्ञ की दक्षिण दिशा में ब्रह्मा का आसन ग्रहण करता था।
ऋचांत्व पोषमास्ते पुपुष्यान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु ।
ब्रह्मा त्यो वदति जातविद्यां यज्ञस्व मात्रां विमिमीत उत्वः ।। (ऋ. 10/72/11)
आश्चर्य कि बात है कि अंगिरा ऋषि को अग्नि का पुत्र कहा- उन्हें ही अग्नि का प्रथम आविष्कारक होने का श्रेय है।
विराट विश्वकर्मा - ऋग्वेद 8-3-2-3
ब्रह्मदेव - यजुर्वेद 4-6-2
नारद - मत्स्य पुराण, भागवत स्कन्द 3 अ. 12
वशिष्ट - मत्स्य पुराण, बोध महाप्रवराध्याय
धर्म ऋषि- मत्स्य पुराण, बोध महाप्रवराध्याय
मरीच- ऋग्वेद 8/3-178 भागवत स्कन्द अ. 62
अत्रि - मत्स्य पुराण
सनातन - स्कन्द पुराण, नागर खण्ड
प्रभास - महाभारत आदिपर्व अ. 6
कश्यप - शतपथ ब्राह्मण
नैर्ध्रवी - शतपथ ब्राह्मण
सूर्य - भारत वर्ष कोष
मनु - ऋग्वेद
नामानेदिष्ट - ऋग्वेद अ. 8 अ.2
विश्वकर्मा – वायुपुराण अध्याय 22, स्कन्द पुराण, नागर खण्ड
विश्वरूप — विश्व पुराण

यहाँ हम इन पाँचों मनु, मय, शिल्पी, त्वष्टा व दैवज्ञ के वंश में जो ऋषि हुए थे उनकी वंशावली तथा गोत्र प्रवर्तक ऋषियों की नामावली पृथक पृथक दिखाते हैं।

मनु वंश
इस वंश में 25 ऋषि प्रसिद्ध हुए है और उनका विवरण इस भांति है। मनु वंश के ऋषियों की वंशावली -
यजुर्वेद अष्टक 4, पन्न 3, अनुवाक 3, पन्नाक्षी 1-2 में इसका वर्णन मिलता है। इसे प्राची दिशा में अधिपति कहा है। यह लोह शिल्प कर्म का आचार्य है। यज्ञ कुण्ड और यज्ञ भूमि इत्यादि बनाने वाला है, इसने मन्त्र शक्ति द्वारा दैत्यों का नाश करने को देवताओं को हथियार (शस्त्र) बनाकर दिये यथा शंकर को त्रिशूल, विष्णु को चक्र और ब्रह्मदेव को खड़्ग बनाकर दिया। इसी कारण सब देवताओं ने प्रसन्न होकर वरदान दिया और कहा कि तुम जगत की रक्षा करने वाले हो, ब्राह्मणों, देवताओं और लोकों में सबसे श्रेष्ठ हो, भृगु वंश में उत्पन्न हुए हैं (देखो ब्रह्माण्ड पुराण भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष और वशिष्ठ पुराण का तीसरा कांड अध्याय 6) |

विभराज
ब्रह्माण्ड पुराण का लेख है कि यह त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा के पड़पोते के जनेऊ (यज्ञोपवीत संस्कार ) संस्कार के अवसर पर सप्त ऋषियों को निमंत्रण दिया गया था परन्तु किसी कारण वश अगस्त ऋषि को निमंत्रण नहीं पहुंच सका। जनेऊ संस्कार की बड़ी धूमधाम थी । सब ऋषिवृन्द बड़ा आनन्द मना रहा था, संस्कार हो रहा था कि एक ओर से अचानक अगस्त ऋषि आ धमके और धूमधाम देखकर आपने सोचा कि इन लोगों ने मेरा अपमान अथवा मानहानि की है। श्री विश्वकर्मा जी को नमस्कार करके अगस्त मुनि कहने लगे कि हे महाराज मैं आपका शिष्य हूँ, फिर भी मुझे निमंत्रण क्यों नहीं दिया गया। इसका कारण क्या हैं? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि आपके मन के भाव बदल गये है और मेरी ओर से कुछ और भाव उत्पन्न हो गये है। और इसी से आज से गुरु और शिष्य का नाता नही रहा । क्योंकि जान पड़ता है कि आपकी संतान को विद्या का घमंड हो गया है। इसलिये मैं श्राप देता हूं कि कलियुग में यह विद्याहीन होगें। श्राप सुनकर श्री विश्वकर्मा जी बोले- अरे तुम अकारण ही श्राप दे रहे हो। इसी क्षण से तू वृक्ष होगा और सर्वांग निर्जीव होगा, प्रेत के समान तेरा शरीर होगा। मांस के समान शस्त्रों से लोग तुझे काटेंगें, मेरे वंश का कोई भी तुझे नही छुवेगा जो कोई छू भी लेगा तो वह निर्वश हो जायेगा। तेरे वृक्ष का फूल, पत्ता, सब मांस के समान हैं जो कोई हाथ लगावेगा वह नीच होगा। तत्काल ही अगस्त ऋषि वृक्ष हो गया। इसी नाम का झाड़ अब भी मौजूद है।
ऋषि संतान इस वृक्ष को अपने दरवाजे पर लगाते है। ऋषि संतान ने चोरी से अगस्त ऋषि का फल खा लिया और जब विश्वकर्मा जी को यह पता लगा तो उन्होने ऋषि सन्तान को अपने पास से भगा दिया और कहा कि आज तक अपने पुत्रों के समान तुम्हारा पालन पोषण किया और प्रेमपूर्वक तुमसे व्यवहार किया, परन्तु तुम लोगों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इससे तुम गुरु द्रोही हो और इसी से तुम्हारे कुल को कलंक लग गया है। तुम नीच कुल में पैदा होंगे और तुम्हारे में वर्ण शंकर जन्म लेंगे। तुम लोग नीचों की सेवा करके पेट पालन करोगे। यह श्राप विश्वकर्मा जी ने सप्त ऋषि संतान को दिया और उसी के फलस्वरूप सप्त ऋषि संतान अनेक नीच योनियों में जन्म धारण करने लगी। इसी कारण यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि ऋषि के कुल का और नदी के मूल के विचार की आवश्यकता नहीं ।
बस उसी समय से विश्वकर्मा ब्राह्मणों और दूसरे ब्राह्मणों में शरीर सम्बन्ध टूट गया। खान पान अलग अलग हो गया तथा गोत्र भेद भी अलग अलग हो होकर अपनी अपनी शाखा में व्यवहार जारी हुआ ।

वशिष्ठ और ब्रह्माण्ड पुराण
यह वृतान्त सत्य ही जान पड़ता है और विश्वकर्मा ब्राह्मणों से द्वेष - भाव रखने का यही कारण है कि यह लोग विश्वकर्मा के नाम से भागते है।
कश्यप - यह बड़ा उत्तम शिल्पकार था। तैतिरीय ब्राह्मण अध्याय 2 प्रश्न 7 अ. 15 दशक 3 ऋ. 7 में लिखा हैं कि आचार्य लोग इनकी प्रार्थना किया करते थे। क्योंकि इनका शिल्प बड़ा पराक्रम युक्त और विचित्र दिखाई पड़ता है।
नैध्रुव - शतपथ ब्राह्मण में इन्हें भी उत्तम शिल्पी लिखा है। वह सब शिल्प शास्त्र के आचार्य हुए है। धार्मिक ग्रन्थों में इनका उल्लेख है।
मन्यु पति - वशिष्ठ पुराण काण्ड तीन अ. 8 का लेख हैं कि यह सब देवताओ को मान्य था। सूर्य लोक वाले इन्हीं की पूजा करते थे। जिस भांति चन्द्रमा से सबको सुख प्राप्त होता हैं इसी भांति स्वर्ग में इसके द्वारा सुख और ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
विरूपाक्ष - यह भृगु कुलोत्पन्न विश्वकर्मा सन्तान ब्रह्म ऋषि हो गये।
सीमन्त - वशिष्ठ पुराण में उल्लेख है कि सभी शुभ कर्मों के आरम्भ में इसे विश्वकर्मा समझ पूजा करो तो कल्याण होगा।
शुचि - भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में इसे इन्द्र सावर्णि मन्वन्तर ऋषि लिखा है ।
वनज- वशिष्ठ पुराण का उल्लेख है कि इनको पत्नी के वनचा और सुशील नाम वाले पुत्र इनके साथ रहते थे। इन्होनें वानप्रस्थाश्रम धारण किया।
निभी- भा. वा. आ. ए. कोष में इन्हीं को स्वायंभुव मन्वन्तर का ऋषि कहा गया है।
सुमति - भागवत स्कन्द 10 अध्याय 14 में इसे युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ कराने वाले ऋषियों में अग्रगण्य ऋषि थे।
सत्यक- यह महान तपस्वी हुए यह सत्य व्रतधारी थे, इसी से इन्हें सत्यक कहा गया।
मनु - यह विश्वकर्मा का सबसे बड़ा पुत्र है, अंगिरस ऋषि की पुत्री कांचना इन्हें विवाही गई थी। इन्होनें मानव सृष्टि निर्माण की। स्कन्दपुराण और पद्म पुराण (मनु) सानग, कुल, विश्वकर्मा, ब्राह्मण गोत्र प्रवर्त्तक ऋषियों की वंशावली देखें।

सानग ऋषि कुल
1- सानग ऋषि, 2- विभ्राज, 3- काश्यप, 4- मनु विश्वकर्मा, 5- विश्वात्म, 6- मन्युपति, 7- मामन्यु, 8- भूबल, 9- संवर्त, 10- विश्ववेत्तु, 11- सीमन्त, 12- श्वेतांगद, 13- पुरंजय, 14- भानुमति, 15- जयत्कुमार, 16- बनज, 17- भास्वंत, 18- मधु ऋषि, 19- सर्व भद्र, 20- चित्र वसु, 21- सत्यक, 22- सुतप, 23- प्रबोधक, 24- सुलोचन, 25- चित्र धर्म|
इनमें सानग, कश्यप, अयत्सार, और मनु यह चार मंत्र द्रष्टा ऋषि हुए।
'मय' वंश के सनातन गोत्र प्रवर्तक ऋषियों की वंशावली इस 'मय' वंश में 16 प्रसिद्ध ऋषि हुए जिनका विवरण इस प्रकार है I

(मय) सनातन गण ऋषि कुल
1 - सनातन, ऋषि, 2- वामदेव, 3 – विश्व चक्षु, 4- प्रतितक्ष, 5- सुतक्ष, 6- मानुष, 7- धार्मिणिक, 8- विधातु, 9 - द्विधर्म, 10- वर्धक, 11- भाव बोध, 12- तक्षक, 13 - शांतमति, 14 – आदिसयन, 15- विश्वतोमुख, 16- विश्वदक्ष, 17- सनत्कुमार, 18- विश्रुत, 19- सुमेधा, 20- पन्नग, 21 - स्वतक, 22 – प्रहर्ष 23 - जयद, 24 - परिषग, 25 - विद्यत ।
इनमें सनातन और वामदेव यह दोनों वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि हुए।

सनातन कुल के प्रसिद्ध ऋषि
सनातन — ब्रह्माण्ड वशिष्ठ और स्कन्द पुराण सबमें इनका वृतांत मिलता है। यह वामदेव मुख दक्षिण दिशा का अधिपति है। क्षुधा और तृषा से रहित शान्तरूप है। हल, मन्दिर, रथ आदि सब काष्ठ सम्बन्धी शिल्प कर्म का उत्पन्न करने वाला है। देवताओं ने इन्हें नमस्कार किया और कहा कि तुम साक्षात विष्णु के समान जगत की रक्षा करने वाले होगें।
विष्णु - भा.व. ऐ. आ. कोष में भृगु कुलोत्पन्न ऋषि का वर्णन है।
वामदेव - उपनिषद में इनका बहुत वर्णन आया यह तत्ववेत्ता दार्शनिक ऋषि हुए।
वर्धन और मानुष- ये महान् शिल्पाचार्य हुए।
विश्वतोमुख- महान् पराक्रमी शिल्प विज्ञान के आविष्कारक ।
सुमेधा - इनके विषय में देवी भागवत स्कन्द अ. 32-35 में लिखा है कि देवी भगवती की शक्ति की उपासना की देवी प्रसन्न हो गई थी ।
रैवत- वशिष्ठ पुराण में इन्हें ब्रह्मऋषि लिखा है महान् तपस्वी हुए ।
मय - यह विश्वकर्मा का दूसरा पुत्र है। यह इन्द्रजाल सृष्टि करने वाला कहा गया है। इसे पराशर ऋषि की कन्या सुलोचना विवाही गई थी।

त्वष्टा वंशज ऋषियों की वंशावली-
इस त्वष्टा कुल में 12 ऋषि प्रसिद्ध हुए है वह हम यहां लिखते है।
(त्वष्टा) अहभून ऋषि कुल के गोत्र प्रवर्तक ऋषि
1- अहभून ऋषि, 2- भदवत्त, 3- कांडव, 4- विश्वरूप, 5- मख, 6- संवर्त, 7- यशपाल, 8- प्रतिपक्ष, 9- कुशधर्म, 10- अविघात, 11 – लोकेश, 12- पद्यदक्ष, 13 - वितक्ष, 14 - मोदमति, 15- विश्वमय, 16 बोधायन, 17- जातरूप, 18 चित्रसेन, 19- जयसेन, 20 - विद्यनस, 21- प्रमोन्नत, 22 – देवल, 23 – विनय, 24 - ब्रह्मदिक्षित 25- हरीधर्म
इनमें अहभून और देवल यह दोनों वेद मन्त्र द्रष्टा हुए।
अहभून कुल के प्रसिद्ध ऋषि
अहभून- ब्रह्माण्ड और वशिष्ठ पुराण तथा शतपथ ब्रह्माण्ड में इसे अधोर मुख पश्चिम दिशा का अधिपति कहा है। यज्ञादिक कर्म, धर्म निर्माण करने वाला और सोने चांदी और तांबे इत्यादि धातुओं के यज्ञ पात्रादि तथा अनेक प्रचार के पात्र सम्बन्धी विश्वकर्म का अधिपति भी लिखा है । सब ऋषि, देव, दैत्य, गंदर्भ, यक्ष, विद्याधर, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि इसकी स्तुति करते हैं। इसे त्वष्टा नाम से भी पुकारते है । यह विश्वरूप का पुत्र और त्वष्टा का पोता है।
विश्वरूप- यजुर्वेद अ. 2 पन्न 5 अ. 1 वायुपुराण अ. 4 और श्रीमद्भगवत स्कन्द 6 अ. 7-8 में इसका वृतांत मिलता है। यह भृगु ऋषि का पड़पोता, त्वष्टा का पुत्र है। यह देवताओं का पुरोहित था। इसके विषय में यह कथा आती है कि एक समय इन्द्र को यह घमंड हो गया कि मैं तीनो लोको का अधिपति हूं। एक बार जब सभा हुई सब देवता और ऋषिगण सभा में पधारे तो बृहस्पति आचार्य भी पधारे। इन्द्र बृहस्पति जी के स्वागत को अपना सिंहासन छोड़ खड़ा नही हुआ। इस पर गुरु बृहस्पति जी क्रोधित हो वापस चले गये। इन्द्र यह देख पछताया और बृहस्पति जी को इस प्रार्थना के साथ बुलवाया की मुझे क्षमा करों। परन्तु गुरु बृहस्पति नहीं आये। कुछ समय पीछे देवताओं और दैत्यों में युद्ध छिड़ गया। दैत्यों ने देवताओं को मार भगाया तो इन्द्र घबराकर सब देवताओ के साथ ब्रह्मदेव के पास गये और कहा कि रक्षा करों नहीं तो राक्षस लोग सर्वनाश कर डालेंगें।
ब्रह्माजी ने कहा कि तुम्हारा कार्य त्वष्टा का पुत्र विश्वरूप करेगा क्योंकि वह तपस्वी और विद्वान ब्राह्मण है। उसकी शरण जाओं इस पर इन्द्र सब देवताओं सहित विश्वरूप के आश्रम में गये और बोले कि हे विश्वरूप महाराज! आप हमारे उपाध्याय होना स्वीकार करें क्योंकि आप ब्रह्मनिष्ट, गुरु और विद्वान हो। आपके तेज बल से हम अपने शत्रुओ को हरा सकेगें इत्यादि।
इस प्रार्थना पर महा तेजस्वी विश्वरूप ने पुरोहित होना स्वीकार कर लिया। समाधि बल से वैष्णव शक्ति बनाई और उस शक्ति द्वारा दैत्यों का नाश करने को उदार और बुद्धिमान विश्वरूप ने इन्द्र को विद्या सिखाई उसी विद्या के फलस्वरूप श्री नारायण कवच है।
संवर्त- भारत अनुशासन पर्व, वशिष्ठ पुराण और श्रीमद्भागवत में इसके विषय में लेख है। मरूत राजा ने एक बड़ा भारी यज्ञ किया था। इनको पुरोहिताई के लिए बुलाया था। इन्होनें अपने विद्या बल से सब यज्ञ पात्रों को सोने का कर दिया।
लोकेश- वशिष्ठ पुराण में इन्हे लोक उपकारी यज्ञ पात्र निर्माण करने वाला लिखा है।
बोधायन - वशिष्ठ पुराण का लेख है कि इनको वेदज्ञान शक्ति इतनी बड़ी हुई थी कि सब देवता इनकी स्तुति करते थे।
प्रभोन्नत – इनको बड़ा तेजस्वी, प्रसन्नमुख, बड़े डील-डौल वाला, माथे पर मुकुट, गले में हार और सब अलंकार धारी देवऋषि धर्म की रक्षा और दुष्टों का नाश करने वाला लिखा है।
त्वष्टा— यह विश्वकर्मा का तीसरा पुत्र था । इसे कौशिक ऋषि की पुत्री 'जयन्ती' विवाही गई थी। पदम् पुराण और स्कन्द पुराण में इन्हें विधिरूप सृष्टि निर्माण करने वाला लिखा है। इन्होनें कई महान पात्रों का निर्माण किया है। वेद उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थों में त्वष्टा को महान बुद्धिमान आचार्य लिखा है। आगे हम शिल्पी वंश के ऋषियों का वर्णन करेगें। ताकि विश्वकर्मा वंशी यह जान लेंवे की हमारा वंश कितना ऐश्वर्य युक्त समृद्धशाली है ।

शिल्पी वंशज ऋषियों की वंशावली
इस शिल्पी वंश में 14 प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं जिनकी वंशावली इस प्रकार है:-
1- प्रत्न ऋषि, 2- रुचिदत्त, 3- बास्तक, 4- इन्द्रसेन, 5-सनाभस् 6- प्रहर्षण, 7- लोकवेतु, 8- चित्रक, 9 - सहस्त्रबाहु 10 - देशिक, 11- वास्तुक, 12- इन्द्रदत्त, 13- गिरिधर्म, 14- वसुधर्म, 15- वज्रजित, 16- विश्वभद्र, 17 - देवभद्र, 18 – ज्ञानभद्र, 19 – व्यञ्जक, 20 - प्रबोध, 21 – शक्कर, 22- राजधर्म, 23 - वेदपाल, 24 - भोक्तव्यमुनि, 25- प्रज्ञामति ।
इनके केवल प्रत्न ही वेद मन्त्र द्रष्टा हुए हैं।
प्रत्न कुल के प्रसिद्ध ऋषि
प्रत्न - ब्रह्माण्ड और वशिष्ट पुराण तथा ऋग्वेद मं 1 अ. 14 सू. 88 में इसे तत्पुरूष मुख उत्तर दिशा का अधिपति कहा है। पाषाण सम्बन्धी मूर्ति इत्यादि शिल्प कर्म व द्विव्य रत्न इत्यादि उत्पन्न करने वाला बताया गया, वर्षा से बचने को देव मंदिर व मकान आदि की सब विद्याओं का यही प्रर्वतक और आचार्य है।
कौशिक व इन्द्र सेन- मा. प्रा. ए कोष में इसे सावर्ण मन्वन्तर का एक ब्रह्मऋषि लिखा है और इन्द्रसेन को धर्म ऋषि की भानु नामक स्त्री से उत्पन्न हुआ बताया गया है।
प्रहर्षण- वशिष्ठ पुराण में इसे इलावर्त खंड का अधिपति और उत्तम शिल्पी लिखा है। वास्तुक - यह सब ग्रहों का स्वामी हैं। पुराने समय में राजा महाराजा इनकी पूजा किया करते थे।
विश्वभद्र- इसे भद्र सुभद्र भी कहते हैं, यह बड़ा तेजस्वी था । इसका रथ गरुड़ पक्षी के समान पृथ्वी, समुद्र और आकाश में चलता था। इसे सातों समुद्रों का नायक करते थे।
शक्कर - इन्होनें प्रत्येक युग में सहस्त्र वर्ष तक वेदों की रक्षा की ।
शिल्पी - यह विश्वकर्मा का चौथा पुत्र था। इसे भृगु ऋषि की कन्या करूणा विवाही गई थी। ये काष्ठ पाषाण, मूर्ति निर्माण शिल्पाचार्य थे और महान् स्थापत्य विद्या के जनक थे और इनका शिल्प विश्वविख्यात था।

दैवज्ञ (विश्वज्ञ) ऋषियों की वंशावली
दैवज्ञ या विश्वज्ञ वंश में 12 प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं जिनका विवरण इस प्रकार है।
1 - सुपर्ण ऋषि, 2 - विषयज्ञ, 3- परित, 4- सौरसेन, 5-सांख्यायन, 6 – मणिभद्र 7 - मुनि सुव्रत, 8- श्रुतिवर्धन, 9- याज्ञिक 10 - सांज्ञिक, 11 - आदित्य सेन 12 – अभ्वर्त, 13- अंचित, 14 – अच्युत, 15- कर्दम, 16 - मैत्रय, 17 – सुदर्शन, 18- उपगोप, 19- यज्ञ, 20 - सान्त्व, 21- बोधक, 22- देवसेन , 23- आदित्य, 24 - निगम, 25 - उपयज्ञ।
इस कुल में सुपर्ण, सांख्यायन और कर्दम यह तीन वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि हुए है।
सुपर्ण कुल के प्रसिद्ध ऋषि -
सुपर्ण- यह ईशान मुख उर्द्ध दिशा (मध्यम भाग) का अधिपति है। महान् तेजस्वी बहुत स्वरूप पावन जिसकी महिमा का आदि अंत नहीं। किरीट कुण्डल सारे सोने सम्बन्धी रत्नों और अलंकारिक शिल्प कर्म का अधिपति है । ब्रह्माण्ड और वशिष्ठ पुराण तथा महाभारत शान्ति पर्व अ. 348 में इस विषय में उल्लेख है कि एक समय गरूड़ की माता विनता ने सूर्य की उपासना की तो सूर्य ने कहा कि तू सुपर्ण ऋषि की आराधना कर तब विनता ने सुपर्ण ऋषि की पूजा की और इस ऋषि ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि हे विनते गरूड़ की कांति पंख सहित स्वर्ण समान हो जायेगी और वह विष्णु का वाहन बनेगा। इस वरदान से गरूड़ की कांति, सोने के समान हो गई। सुपर्ण ऋषि ने कहा कि यह हमारा वरद पुत्र है और इसे हमारा नाम प्राप्त होगा। यह केवल अंगिरस कुलोत्पन्न कन्व ऋषि का पुत्र है।
सांख्यायन- भागवत स्कन्द 3 अध्याय 8 में लिखा है कि यह सनकादिक का शिष्य और परमहंस धर्म का प्रवर्त्तक है।
मणिभद्र- वशिष्ठ पुराण का लेख है कि जब पृथ्वी ने रत्न उत्पन्न किये तो उन रत्नों का संस्कार मणिभद्र ने किया तो रत्न चमकने और जगमगाने लगे।
आदित्य सेन - यह सर्वलोक का उपकार करने वाला बड़ा ही तेजस्वी था।
कर्दम- वायु पुराण में लेख है इन्होंने बहुत प्रजा उत्पन्न की, कला का विकास किया।
मैत्रेयी- यह सब ऋषियों में प्रसिद्ध था। सारे राजा इनका सम्मान करते थे और सब ऋषियों में इनकी मित्रता थी। इसी कारण इनका नाम मैत्रेयी पड़ गया। मरूत राजा ने अपने यज्ञ में इनको अध्वर्यु (यजुर्वेदिका ऋत्विज) नियुक्त किया इन्होनें एक समय दुर्योधन को उपदेश दिया था कि पांडू वंशियों से बैर मत बढाओं। परन्तु दुर्योधन उन्मत्त था उसने उपदेश का निरादर किया, इस पर क्रोधित हो इन्होने श्राप दिया कि भीम की गदा से तेरा प्राण नष्ट होगा ।
बोधक- वशिष्ठ पुराण का लेख है कि यह महान बुद्धिशाली ऋषि थे और सबको बोध कराते थे इसी से बोधक नाम से प्रख्यात हुये ।
दैवज्ञ- यह विश्वकर्मा का पांचवा पुत्र है इन्हें विश्वज्ञ भी कहा गया है। इन्होनें मृतिका और धातु उपधातु की त्रिविध शिल्प की सृष्टि की रचना की। रत्नों, सुवर्णादि, अलंकार पात्रों की दृष्टि थी। इन्हें जैमिनी ऋषि की कन्या पुत्री चंद्रिका विवाही गई। देखिये स्कन्द पुराण और पद्म पुराण की व्याख्या अंगिरा से लगातार भौवन विश्वकर्मा और भी ऋषियों का वर्णन अंगिरा की वंशावली विश्वकर्मा की वंशावली, साथ ही विश्वकर्माजी के पांचों पुत्रों की वंशावली उनके गोत्र प्रवर्तक जो ऋषि हुए उनके जीवन की संक्षिप्त जानकारी दी गई है।
इस संदर्भ में, मैं प्रमाण संग्रह और भी जो ग्रन्थ मैंने देखे उनका स्वाध्याय किया, मनन किया उन लेखकों को भी धन्यवाद दूंगा जिन्होनें इतिहास की खोज की और विश्वकर्मा साहित्य की उन्नति की।

पं. इन्द्र देव शर्मा (बरवाडिया) विश्वकर्मा विजय प्रकाश लेखक।
वंशावली
Lord Vishwakarma Vanshawali

Angira Rishi Vanshawali

Bhrigu Rishi Vanshawali

Manu Vanshawali

May Vanshawali

Twashta Vanshawali

Shilpi Vanshawali

Daivagya Vanshawali
वेदों में विश्वकर्मा

पं. गंगाराम जांगिड द्वारा संकलित

॥ ॐ विश्वकर्मणे नमः ॥
ओउम् विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव यद्भद्रं तत्रsआसुव ॥
(यजु. अ. ३०- २-३)
भावार्थ :- हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्ध स्वरूप सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कीजिए जो कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्रदान कीजिए।
ओउम् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
(यजुः ३६-३)
भावार्थ :- वह प्रभु का मुख्य नाम है, वह प्राणों का प्राण, दुःख नाशक, सुख स्वरूप है, उस सकल जगत के उत्पादक प्रभु के ग्रहण करने योग्य, विशुद्ध, तेज को हम धारण करें जो प्रभु हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
न भूमिर्न जलं चैव, न तेजो न च वायवः ।
न चाकाशो न चितंञ्च, न बुद्धया घ्राण गोचराः ।
न च ब्रह्मा न च विष्णुश्च न च तारकाः ।
सर्व शून्यं निरावलम्बः स्वयंभू विश्वकर्मणः ।
भावार्थ:-उस समय पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, ज्ञान, इन्द्रियाँ, बुद्धि, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, तारे ये कुछ न था, आकाश था, शून्य था और केवल स्वयंभू विश्वकर्मा था।
सारा ब्रह्माण्ड उस समय सुप्त अवस्था में था न कहीं कोई स्पन्दन था, न हलचल थी और न कोई ध्वनि शब्द, न कहीं जीव या पदार्थ था। सभी ओर घनघोर अंधकार छाया था। अचानक उस निःस्तब्ध शांति में से एक ध्वनि उठनी शुरू हुई जिसकी प्रतिध्वनि से सभी दिशाएँ गुंजायमान हो उठी जो इस बात का संकेत था कि सृष्टि रचना का शुभारम्भ होने वाला है। अनवरत हो रही उस गूंज के बीच घनघोर अंधकार के एक छोर से अतिकमनीय गुलाबी आभा प्रकट हुई वह सृष्टि का सर्वप्रथम उषाकाल था । फिर उस आभा में से एक ओजस्वी आकृति धीरे-धीरे उभरने लगी जो अधिकाधिक चमकदार और स्पष्ट होती गई, इतनी प्रकाशमान कि हजारों सूर्य एक साथ चमक रहे हों। आकृति थी, स्वयंभू विश्वकर्माजी की अनादि अनंत, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक विधाता के सर्वप्रथम साकार स्वरूप की जो सृष्टि रचना हेतु प्रकट हुए थे।
वेदों में विश्वकर्मा की स्तुति है उन्हें परब्रह्म, सृष्टि रचयिता एवं अनंत पराक्रम वाला कहा गया है।

ऋग्वेद में विश्वकर्मा
यजुर्वेद में विश्वकर्मा
सामवेद में विश्वकर्मा
अथर्ववेद में विश्वकर्मा
विश्वकर्मा संतति
जिस प्रकार विश्वकर्मा भगवान के अस्तित्व, समय, काल, जन्म, शिक्षा आदि विषयों को लेखकों ने जटिल एवं अस्पष्ट बना दिया है ऐसे ही विश्वकर्मा जी की संतान के संबंध में विद्वानों के अलग-अलग मत है। विश्वकर्मा जी की संतान के संबंध में जिन प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा साधारण व्यक्ति के मन में उत्पन्न होती है वे हैं, विश्वकर्मा के कितने पुत्र थे? उनकी शिक्षा कैसे और कहाँ हुई? उन्होनें जीवन में क्या -2 उपलब्धियां हासिल की? उनके शादी विवाह कौन - कौन से परिवार में हुए? समाज में उनकी क्या प्रतिष्ठा रही होगी? वे क्या काम करते थे? आदि बहुत से प्रश्न हैं, जिनकी बाबत् आज का प्रबुद्ध व्यक्ति जानकारी प्राप्त करना चाहेगा। आज के युग में कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी के कुल और जाति की जानकारी बाद में चाहता है। पहले इस बात को जानना चाहेगा कि अमुक व्यक्ति ने संसार में आकर क्या प्राप्त किया और इस संसार को क्या दिया। अतः भ्रम पैदा करने वाले प्रश्नों को छोड़कर हम उपर्युक्त प्रश्नों की ओर अधिक ध्यान देगे। स्कन्द पुराण में लिखा है कि-
विश्वकर्मा जी के पांच पुत्र थे, जिनके नाम मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा दैवेज्ञ थे। विश्वकर्मा जी के पांचों पुत्र सृष्टि के प्रवर्तक थे। विश्वकर्मा जी के उपर्युक्त पांचों पुत्रों का नीचे अलग-अलग विवरण दिया जा रहा है। विश्वकर्मा जी के पांचों पुत्र पिता समान प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत एवं प्रवीण थे। तप, त्याग, तपस्या के कारण डी इनको महर्षि की उपाधि प्राप्त थी।
महाप्रभु विश्वकर्मा ने अपने सद्योत्जातादि पंच मुखों से मनु आदि पांच देवों को उत्पन्न किया, जिसका विवरण इस प्रकार है-
इनके पांच पुत्र थे मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ (विश्वज्ञ) भी कहते है । क्रमशः ये सानग, सनातन, अड़भून, प्रयत्न और सुपर्ण के नाम से भी जाने जाते हैं।

शिल्पाचार्य महर्षि मनु
शिल्पाचार्य महर्षि मनु विश्वकर्मा जी के सबसे बड़े पुत्र थे। ये महर्षि सानग के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्माण्ड पुराण पटल- 2 विश्व ब्रह्मकुलो आख्यान अध्याय- 1 में महर्षि मनु के संबंध लिखा है कि- महर्षि मनु का जन्म भगवान विश्वकर्मा के मुख से हुआ था, ये शिव स्वरूप थे और अनेक गुणों से सम्पन्न थे। महर्षि मनु सदैव पिता की सेवा में रत रहते थे। उनकी सेवा ही इनके जीवन का मात्र व्रत था। पिता के लिए ये सब कुछ त्याग सकते थे। अतः इनकी पितृभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विश्वकर्मा ने इनको पूर्ण शिल्पी का वरदान दिया था। आदि सृष्टि से जब कुछ भी साधन न थे, उस समय महर्षि मनु (सानग) का आर्विभाव हुआ था। ये लोह कला में प्रवीण थे। महर्षि मनु ने अपनी अद्भूत मंत्र शक्ति से असुरों का वध करने के लिए देवताओं को अनेक अस्त्र, शस्त्र, आदि प्रदान किये। ने शंकर को त्रिशूल, विष्णु को चक्र, और ब्रह्मा जी को परसा (कुठार) दिया। यही कारण हैं कि महर्षि मनु सभी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। इसमें सन्देह नहीं उनकी कृपा के बिना राजा, प्रजा और देवता गणादि भी अपना निर्वाह नहीं कर सकते हैं। महर्षि मनु सज्जनों के रक्षक और प्रजा पालक हैं। महर्षि मनु (सानग) के विवाह का उल्लेख स्कन्ध पुराण नागर खंड अध्याय-6 में मिलता है। महर्षि मनु का विवाह अंगिरा ऋषि की पुत्री कांचना से हुआ था।
महर्षि अंगिरा अत्यन्त तपस्वी और तेजस्वी थे, इनकी उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा भी अधिक बढ़ गया था। उस समय अग्नि देव भी जल में रहकर तपस्या करते थे। जब उन्होंने देखा कि मेरी तपस्या तो तुच्छ हो रही है, तब बड़े संताप और ग्लानि के साथ वे महर्षि अंगिरा के पास आये। महर्षि अंगिरा ने उनके विषाद का कारण अनुभव किया और कहा-
'आपके सन्तप्त होने का कोई कारण नहीं है, आप बड़ी प्रसन्नता के साथ लोगों का कल्याण करेगें।' अग्नि ने गिड़गिड़ा कर कहा - मेरी कीर्ति नष्ट हो रही है, अब मुझे कोई अग्नि कहकर सम्मान नहीं करेगा। आप प्रथम अग्नि है और मैं अग्नि द्वितीय हूं, उस समय महर्षि अंगिरा ने कहा – आप अग्नि के रूप में देवताओं को भोजन पहुंचायें और स्वर्ग चाहने वालों को उनका मार्ग दिखावें तथा अपनी ज्योति द्वारा मुमुक्षुओं का अन्तःकरण शुद्ध करें, मैं आपको पुत्र के रूप में वरण करता हूँ। अग्नि देव ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी बात स्वीकार की और बृहस्पति के नाम से उनके पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। ऐसे परिवार से थी मनु महाराज की पत्नी कांचना अर्थात् महर्षि अंगिरा की पुत्री और बृहस्पति की बहिन।
कांचना स्वयं भी अलौकिक प्रेम की मूर्ति थी। इनके जीवन में त्याग, सेवा, संयम, गम्भीतरा और प्रेम का अत्यन्त उत्कृष्ट सम्मिश्रण था।
विश्वब्रह्म पुराण अ. 28 के अनुसार महर्षि मनु और कांचना से पच्चीस पुत्र हुए। सभी ब्रह्मकुमार पिता के समान समस्त शिल्प विद्या में पारंगत, विनयी, वेदों के ज्ञाता, सत्यवादी सुशील और विद्वान थे। कालान्तर में ये सभी ऋषि, महर्षि, देवर्षि ओर प्रसिद्ध शिल्पाचार्य हुए। शिवागमे तथा ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तंड 51 के अनुसार महर्षि मनु का ऋग्वेद है। अर्थात् उनका ऋग्वेद पर पूर्ण अधिकार है।
महर्षि मनु तथा उनके पच्चीस पुत्र लोह कर्म में पारंगत है, आधुनिक इन्जीनियरी की मेकेनिकल, शीट मेटल, कृषि इन्जीनियरी आदि शाखाएं लोह शिल्प की ही शाखाएं है। विश्वब्रह्म पुराण के अनुसार महर्षि मनु ने 'मनुसूत्र ज्योर्तिज्ञान मंजूषा', ‘मनु तंत्र‘, ‘मनु शिल्प‘ आदि महान ग्रन्थों की रचना की। कुछ पुस्तकें, एवं महर्षि मनु द्वारा आधुनिक विज्ञान का मूलाधार है।

शिल्पाचार्य महर्षि मय
महर्षि मय विश्वकर्मा जी के दूसरे पुत्र थे। ये महर्षि सनातन के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनकी उत्पत्ति भगवान विश्वकर्मा जी के दक्षिण मुख से हुई थी। इनकी उत्पत्ति का उल्लेख स्कंध पुराण नागर खंड के अध्याय 7 में मिलता है। जो इस प्रकार है-
मय विष्णु स्वरूप हैं। ये वैसे तो मनु से छोटे थे परन्तु उनके समवयस्क थे। इनका वर्ण गौर और चित्ताकर्षण था, ये महान शूरवीर, धीर, दयालु, उदार, न्यायशील, निष्पाप, चतुर, दृठ प्रतिज्ञ, आचार्य, गुरूजनों और पिता के अनन्य भक्त थे। जिन महान विश्वकर्मा को सभी देवी देवता संकट के समय याद करते थे, महर्षि मय सदैव उस कलाधिपति शिल्पशिरोमणी विश्वकर्मा के चरण कमलों में ध्यानस्थ रहते थे। महर्षि मय ने जीवन भर अपने सद्गुणों को कभी नहीं छोड़ा। इनमें एक से एक बढ़कर आदर्श गुण थे । स्वयम् विष्णु स्वरूप होने के कारण ये अन्य सभी भाइयों के प्रिय थे। वास्तव में पिता-पुत्र में पूर्ण अभिन्नता थी। जो भी पिता श्री विश्वकर्मा इन्हें कुछ करने को कहते मय निःसन्देह वही सब करते थे। महात्मा मय पिता श्री के लिए दिव्य लोक का भी त्याग कर सकते है। महर्षि मय इतने तपस्वी और तेजस्वी थे कि उनका शरीर देदिप्यमान था और चक्र आदि अस्त्र, शस्त्र, शरीर धारण करके इनकी सेवा सेवा में लीन रहते थे। देवता, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, किन्नर और नाग इनकी आराधना करते थे। आकार प्रकार में मय, मनु की ही प्रति मूर्ति थे। घोर तपस्या के कारण ये सुधा तृषा से रहित अत्यन्त शांत स्वभाव और सौन्य मूर्ति थे। पिता श्री ने इनकी घोर तप से प्रसन्न होकर काष्ठ कला का वरदान दिया था। यही कारण है कि ये काष्ठ कला में निपुण थे। नगर आदि के निर्माण में पारंगत थे। रथ, गाड़ी, मकान, जलाशय, नई-नई सृष्टि तैयार करने में इन्हें अद्भुत योग्यता प्राप्त थी।
महर्षि मय का विवाह सुलोचना के साथ हुआ था। सुलोचना महर्षि पराशर की कन्या थी।
पराशर मुने पुत्री सौन्या देवी सुलोचना ।
विश्वकर्मा तनुजस्य मयस्यापि कुलांगना ।।
(स्कन्ध पुराण नागर खण्ड अ. 6)
महर्षि पराशर अत्यन्त तपस्वी ज्ञानी ध्यानी महात्मा थे। वे त्रिकालज्ञ थे, ज्योतिष गणित शास्त्रों के ज्ञाता और निर्माता थे। सुलोचना ऋषि कन्या होने के कारण द्रौपदी के समान दृढ़ प्रतिज्ञ, दयावती और वीर थी, वह पतिव्रता और अत्यन्त विनम्र थी।
महर्षि मय और सुलोचना से महर्षि मनु की तरह 25 पुत्र उत्पन्न हुए। कला और शिल्प के क्षेत्र में ये सभी युग पुरुष थे, सृष्टि के संरक्षण करने में इन्होंने विशेष भूमिका अदा की। ये मन से सृष्टि की रचना करने में समर्थ थे। महर्षि मय की सन्तानें तथा उनकी सामर्थ्य एवं रचना शक्ति का विवरण स्कन्द पुराण नागर खंड अध्याय 5 में मिलता है। जिस प्रकार महर्षि मनु ऋग्वेद के ज्ञाता थे। उसी प्रकार महर्षि मय को यजुर्वेद पर पूर्ण अधिकार था। वे यजुर्वेद में पूर्ण पारंगत थे। यजुर्वेद के ज्ञाता और मर्मज्ञ थे। वैसे तो महर्षि मय समस्त ज्ञान विज्ञान में पारंगत थे, परन्तु वे काष्ठकला के ही अधिष्ठाता देवता माने जाते हैं। आदि काल से लेकर आज तक काष्ठ कला के क्षेत्र में जो भी प्रगति हुई उसका श्रेय महर्षि मय को ही है। वास्तव में मानव जीवन के लिए जितनी महत्वपूर्ण लोहकला है उतनी ही महत्व पूर्ण काष्ठकला भी है।
महर्षि मय ने बहुत ग्रन्थों की रचना की, जिनका उल्लेख विश्व ब्रह्मपुराण में आया है। इनमें से कुछ रचनाएं लुप्त हो चुकी है और कुछ आज भी उपलब्ध है महर्षि मय द्वारा रचित कुछ प्रमुख एवं प्रसिद्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं-
1. मय शिल्प यह शिल्प शास्त्र विशेषकर काष्ठ शिल्प पर अद्वितीय ग्रन्थ है। 2. मय तन्त्र 3. मय दिपीका 4. मय जप 5. मय विद्याप्रकाश 6. मय रत्न 7. मय वास्तु आदि। महर्षि मय ने केवल काष्ठ कला के मर्मज्ञ थे, वे ज्योतिष, खगोल, गणित और आयुर्वेद शास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे।

त्वष्टा पुत्र विश्वरूप
इधर महर्षि त्वष्टा विश्वकर्मा को पता चला कि देवराज ने छल से उनके पुत्र को मार दिया हैं, तो उनको असहृय दुःख हुआ। उनको इन्द्र पर बहुत क्रोध आया। अपने योग बल एवं तप के प्रभाव से उन्होनें उसी समय इन्द्र को दंड देने की इच्छा से एक बड़े भारी बली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। त्वष्टा पुत्र वृत्रासुर के पराक्रम से सम्पूर्ण त्रैलोक्य भयभीत था, उसके ऐसे पराक्रम को देखकर स्वयं इन्द्र भी डर गये। वे दौड़े-दौड़े ब्रह्मा जी के पास गये और उनसे वृत्रासुर के कोप से बचने का उपाय पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा - देवराज! तुम किसी प्रकार वृत्रासुर से बच नहीं सकते। वह बड़ा बली, तपस्वी और तेजस्वी है। उसे मारने का एक ही उपाय है कि नैमिषारण्य में एक महर्षि दधीचि तपस्या कर रहे है। उग्रतप के कारण उनकी हड्डियां वज्र से भी अधिक मजबूत हो गई है। यदि परोपकारी इच्छा से वे अपनी हड्डियां दे दे और उनसे तुम अपना वज्र बनवाओ तो वृत्रासुर मर सकता है।
त्वष्टा पुत्र वृत्रासुर से देवराज इन्द्र बहुत भयभीत थे। केवल इन्द्र ही नहीं अपितु सभी देवता आतंकित थे। ब्रह्मा जी की सलाह पर देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित नैमिषारण्य में पहुंच, उग्र तपस्या में लीन महर्षि दधीचि की उन्होंने भांति - भांति से स्तुति की। तब ऋषि वर ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। इन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा 'त्रैलोक्य की मंगल कामना के निमित्त आप अपनी हड्डियां कृपया हमें दे दीजिए।' महर्षि दधीचि ने कहा 'देवराज! समस्त देहधारियों को अपना शरीर प्यारा होता है, स्वेच्छा से इस शरीर को जीवित अवस्था में छोड़ना बड़ा कठिन होता है, किन्तु त्रैलोक्य की मंगलकामना के निमित्त मैं इस काम को भी करूंगा। मेरी इच्छा तीर्थ करने की है।'
देवराज इन्द्र ने सभी तीर्थो को वहीं नैमिषारण्य में बुलाकर महर्षि दधीचि को स्नान कराया। स्नान आचमन आदि के पश्चात महर्षि दधीचि समाधि में बैठ गए। जंगली गौ ने अपनी कांटेदार जीभ से चाटना आरम्भ किया और इस प्रकार उनके शरीर की हड्डियां निकल आई। तब इन्द्र ने रीढ़ की हड्डी निकाल ली और उससे एक महान शक्तिशाली तेजों मय दिव्य वज्र बनवाया। कितने महान थे महर्षि दधीचि और कितना बलवान और अजेय होगा वृत्रासुर जिसके वध के लिए ये सबकुछ करना पड़ा। अतः महाबली वृत्रासुर का वर्णन करना भी यहां आवश्यक है।

त्वष्टा का पुत्र महाबली वृत्रासुर
इन्द्र द्वारा छल से मारे गए अपने पुत्र विश्वरूप की असामयिक मृत्यु से त्वष्टा अत्यन्त दुःखी हुए। वे पुत्र वियोग में दिन रात बिलबिलाते थे और छटपटाते थे। माता जयन्ती करूण क्रन्दन करती थी। एक ओर पुत्र वियोग और दूसरी ओर इस घोर अपराध के प्रतिशोध की अग्नि ने महर्षि त्वष्टा को चैन न लेने दिया।
इन्द्र को इस कर्म का दण्ड देने के लिए, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, त्वष्टा ने अपने योगबल और तपस्या के प्रभाव से यज्ञ द्वारा वृत्रासुर को उत्पन्न किया।
कहते है, वृत्रासुर ने वर्षों कठिन तप करने के पश्चात् अमित शक्ति प्राप्त की और सबको जीत कर वह निर्भय रूप से जगत में अपार ऐश्वर्य का भोग करने लगा। यद्यपि वह असुर था। उसका शरीर भी आसुरी चिन्हों वाला था, तथापि उसके हृदय में भगवान की ओर आकर्षण था। जगत् की नश्वरता को वह खूब जानता था, भगवान के प्रति उनके मन में भक्ति थी। इन्द्र के साथ शत्रुता करने के लिए उसे उत्पन्न किया गया था। असुर होते हुए भी वृत्रासुर ब्रह्मज्ञानी था। बातचीत के दौरान एक बार गुरू शुक्राचार्य से वृत्र ने कहा- 'भगवान्! मैं सत्य और तप के प्रभाव से जीवों के आने जाने और सुख दुःख के रहस्य को जान गया हूँ, इसलिए मुझे किसी भी अवस्था में हर्ष या शोक नहीं होता। जीव अपने अपने कर्मवश काल भगवान की प्रेरणा से नरक या स्वर्ग में जाकर नियत समय तक पाप या पुण्य का फल भोग कर फिर बचे हुए पाप-पुण्य के कारण मनुष्य, पशु या पक्षियों की योनी में जन्म लेते है और मरते है। मरकर पुनः नरक या स्वर्ग में जाते हैं, इस प्रकार उनका आवागमन हुआ करता है। मैनें भगवत् कृपा से अदृष्ट परमात्मा को देख लिया है। यही कारण है कि मुझे जीवों के आने जाने, और भोगों की प्राप्ति और अप्राप्ति में कोई विकार नहीं होता। अतःएव मैं अन्य किसी विषय की इच्छा न करके आपसे यह जानना चाहता हूँ कि किस कर्म से और किस ज्ञान से भगवान की प्राप्ति हो सकती है। आप कृपा करके मुझे इस प्रश्न का उत्तर दीजिए। वृत्र के इन असुर भावों को नष्ट करने वाले परमार्थप्रद वचनों को सुनकर तथा उसे सृष्टि स्थिति संहार के एक मात्र आश्रय श्री भगवान् के प्रति दृढ़ भक्ति परायण जानकर शुक्राचार्य ने उसको भगवान का महात्म्य सुनाया।
भगवान के महात्म्य को सुनकर वृत्रासुर को अत्यन्त आनन्द हुआ। उसको सब ओर, सर्वथा भगवान का आनन्द अनुभव होने लगा। उसकी धार्मिकता, उसकी भक्ति, उसका ज्ञान इतना पवित्र और महान हो गया कि उसकी तुलना ही नहीं की जा सकती थी। वह सभी वस्तुओं में अपनी आसक्ति छोड़ कर निर्भयतापूर्वक शत्रुओं में विचरण करने लगा।
इसी बीच में इन्द्र ने महर्षि दधीचि की अस्थियों से शक्तिशाली वज्र बनवा लिया और उसे लेकर इन्द्र ने देवताओं की विशाल सेना सहित अपने शत्रु वृत्रासुर पर चढ़ाई कर दी। तब युद्ध करते-करते वृत्रासुर ने कहा- 'इन्द्र! तुम घबराओं नहीं, अपने इस अमोघ वज्र का मुझ पर प्रहार करो। तुम्हारा यह वज्र खाली नहीं जायेगा और मैं भगवान को इस शरीर की बलि देकर कर्म बंधन से मुक्त होकर भगवान के परम पद को प्राप्त करूंगा। तुम्हारा ये वज्र श्री हरि के तेज और तपस्वी दधीचि ऋषि के तप से तीक्ष्ण हो रहा है, अतःएव इस वज्र से अपनी विजय होने में तुम संदेह न करो। क्योंकि जिधर श्री हरि होते हैं, उधर ही विजय श्री और समस्त गुण होते हैं- यतो हरिर्विजयः श्री गुणास्ततः, पर यह याद रखो कि भगवान का सच्चा कृपा पात्र तो मैं ही हूँ। तुम को तो विजय प्राप्त करके भौतिक सुख और अनित्य प्राप्त राज सिंहासन ही मिलेगा। परन्तु मैं तो अपने स्वामी भगवान के आदेशानुसार उनके पवित्र चरण कमलों में स्थित करके तुम्हारे इस वज्र के द्वारा विषय भोगरूपी पाश के कट जाने पर शरीर को त्याग कर मुनिजन दुर्लभ परमधाम को प्राप्त करूँगा। हे इन्द्र ! 'जिन भक्तों ने अपनी बुद्धि केवल प्रियतम भगवान में ही लगा दी हैं, उन अपने परायण भक्तों को भगवान स्वर्ग, पृथ्वी लोक और पाताल की सम्पत्तियाँ कभी नहीं देते, क्योंकि वे सम्पत्तियाँ रागद्वेष, उद्वेग - आवेग, आधि-व्याधि, मद-अभिमान, व्यसन-विवाद, परिश्रम - क्लेश आदि दोषों से भरी होती है। भला माता कभी अपने ऊपर निर्भर रहने वाले शिशु को अपने हाथों से जहर दे सकती हैं? इसी प्रकार मेरे प्रभु श्री नारायण अपने भक्त को विषय सम्पत्ति रूप विष न देकर उसके धर्म, अर्थ, और काम सम्बन्धी प्रयत्न का ही नाश कर देते हैं। जब भगवान ऐसा कर दे, तभी भगवान की मुझ पर कृपा हुई है। ऐसा अनुमान करना चाहिए। इसीलिए तुम वज्रहस्त होकर मुझे मारने के लिए सामने खड़े हुए हो। परन्तु तुम तो अभी धर्म-अर्थ-काम के ही प्रयत्न में लगे हो। इसलिए तुम इस कृपा के पात्र नहीं हो। इसी से तुम को स्वर्गादि सम्पत्तियाँ ही प्राप्त होगीं। भगवान की इस कृपा प्रसाद का रहस्य केवल उसके अकिंचन भक्त ही जानते है। इतना कहकर आप्त काम, अनन्य भक्त, शरणागत असुर राज, त्वष्टा पुत्र, वृत्रासुर विश्वकर्मा अपने स्वामी भक्त वत्सल भगवान से कहने लगा- हे हरे ! मैं मर कर भी तुम्हारे दासों का दास बनूं। हे प्राणनाथ। मेरा मन तुम्हारे गुणों का स्मरण करता रहे। मेरी वाणी तुम्हारे गुण कीर्तन में लगी रहे, मेरा शरीर तुम्हारी सेवा करता करता रहे। हे सर्व सौभाग्य निधे! मैं तुमको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम राज्य, पाताल का आधिपत्य, योग सिद्धि, अधिक क्या पुनर्जन्म का नाशक, साम्राज्य, मोक्ष भी नहीं चाहता। मैं आपको ही चाहता हूं। तुम्हारी माया भी नहीं चाहता।
वृत्रासुर के निष्कपट दिव्य भाषण को सुन कर इन्द्र मुक्त कंठ से वृत्रासुर की प्रसंशा करने लगे। वे हंसकर कहने लगे- "हे दानवेन्द्र! .. तुम्हारी इस प्रकार की निर्मल बुद्धि और पवित्र विचार सुन कर जान पड़ता है कि आप सिद्धावस्था को प्राप्त हो गये हो, इससे जान पड़ता है कि भगवान विष्णु की सबको मोहने वाली माया से तुम पार हो चुके हो। हे विश्वकर्मा नन्दन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुमने स्वभाव से ही रजोगुणी होकर भी बुद्धि को इस प्रकार दृढ़ता के साथ शुद्ध सत्वमय भगवान वासुदेव में लगा रखा है। क्योंकि जो पुरुष अधीश्वर भगवान श्री हरि का भक्त है, वह सदा ही आनन्द पूर्ण अमृत के सागर में विहार करता है, वह गड्ड़े में भरे हुए थोड़े से गन्दले जल के समान स्वर्गादि भोगों में क्यों आसक्त होगा।"
इस प्रकार बातचीत होने के पश्चात् शीघ्र युद्ध समाप्त करने की इच्छा से दोनों भीषण युद्ध करने लगे। अन्त में तीक्ष्ण वज्र से उसके मस्तक को शरीर से अलग कर दिया। देखते ही देखते वृत्र के शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली और वह भगवान के रूप में लीन हो गई। वज्र से विदीर्ण किये जाने के समय उस महायोगी महासुर वृत्र का चित्त भगवान में अनन्य भाव से लगा था। इससे वह अपार तेजोमय विष्णु भगवान के परमधाम को चला गया।
दारितश्च स वज्रेण महायोगी महा असुरः ।
जगाम परमं स्थानम् विष्णोरमित तेजसः ।। ( महाभारत शान्तिपर्व 283/60)
ऐसे थे त्वष्टा पुत्र महाबली दानवेन्द्र वृत्रासुर। यूं तो महर्षि त्वष्टा ने बहुत से बहुमूल्य ग्रन्थों की रचना की, परन्तु इन सब में 'त्वष्टा - तन्त्र' सर्व प्रसिद्ध है।

महर्षि शिल्पी
महर्षि शिल्पी विश्वकर्मा जी के चौथे पुत्र थे। यह महर्षि प्रयत्न, महर्षि वास्तुक, विश्वमद्रक और महर्षि इन्द्र के नाम से भी शास्त्रों में प्रख्यात है। इनके विषय में कहा गया है कि इनकी उत्पत्ति विश्वकर्मा के उत्तर मुख से हुई थी। महर्षि शिल्पी को यूं तो समस्त शिल्प का अधिष्ठाता देवता मानते हैं। पर मुख्य रूप से ये पाषाण वास्तुकला भवन निर्माण प्रासाद निर्माण, किला, बावड़ी, कुआं आदि निर्माण कला के अधिदेव है। युग युगान्तर से चली आ रही एवं आधुनिक वास्तु कला और सिविल इंजीनियरिंग ये आधुनिक गगन चुम्बी अटालिकाएं आकाश से बातें करते हुए भवन, मंदिर, आधुनिक युग की वास्तुकला के दुर्लभ नमूने, ये सब महर्षि शिल्पी की ही देन है। अजन्ता, एलौरा की गुफाएं वहां के पत्थरों पर दुर्लभ नक्काशी, दक्षिण भारत के आश्चर्य चकित कर देने वाले मंदिर, मूर्तिकला भव्य भवन, रहने के लिए सर्वसुविधा सम्पन्न आलीशान मकान और मुंह बोलते नमूने ये सभी महर्षि शिल्पी की देन का एक अंश मात्र है। तकनीकि दृष्टि से महर्षि शिल्पी जैसा कि नाम से ही पता चलता है, पूर्ण पारंगत थे। इसमें सन्देह नहीं कि यदि कोई वास्तुकला, स्थापत्य कला और मूर्तिकला में प्रवीणता प्राप्त करना चाहता हो तो उसको महर्षि शिल्पी की पूजा और आराधना करनी चाहिए।
वास्तव में शिल्पकला में अत्यन्त गहन साधना, अध्ययन, शुद्धता, पवित्रता और तपस्या की आवश्यकता है। कहा भी है 'योग कर्म सुकौशलं' अतः शिल्पकला किसी प्रकार के योग से कम नहीं है । अतः यही कारण है कि शिल्पी जन्म से योगी होता है और आदर और सत्कार का पात्र है। यही कारण है कि एक शिल्पी ब्राह्मण सदैव सभी कामों में पूज्य है। महर्षि शिल्पी अपने युग के जगत्गुरू थे। ये इन्द्र स्वरूप हैं। आकृति में ये अत्यंत सुन्दर गौर वर्ण, सुडौल शरीर धारण किए हुए है। अन्य भाईयों के समान महर्षि शिल्पी भी ज्ञानी, दृढ़ प्रतिज्ञ, धर्मविद सत्यवादी, विद्वान राजनीतिज्ञ, उदार, जितेन्द्रिय और अप्रतीम योद्धा होने के साथ ही भगवान के अनन्य भक्त भी थे। सभी यज्ञों, शुभ कार्यों में अग्रपूजा महर्षि शिल्पी की ही है। तेज, बल पराक्रम तथा अन्य सभी गुण में महर्षि शिल्पी सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्रों और धर्म ग्रन्थों में एक शिल्पी ब्राह्मण को अत्यन्त उदार और मान एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है। महर्षि शिल्पी का विवाह महर्षि भृगु की पुत्री करूणा से हुआ था।

शिल्पाचार्य महर्षि दैवज्ञ
शिल्पाधिपति देवाधिदेव विश्वकर्मा जी के पांचवे पुत्र शिल्पाचार्य महर्षि दैवज्ञ थे। ये विश्वज्ञ के नाम से भी प्रसिद्ध थे। ये सूर्य स्वरूप हैं, इसलिए इन्हें अर्क, मामन्यु, विरक्त, सहस्त्रांशु, अर्कशाली, हिरण्यमय, प्रभाकर, सूर्य, सूपर्ण आदि नामों से भी पुकारा जाता है। ब्रह्माण्ड पुराण पटल - 2 विश्व ब्रह्म कुलों आख्यानें अ. 1, ब्रह्मकुलोत्साह के अनुसार महात्मा दैवज्ञ की उत्पत्ति भगवान विश्वकर्मा के ईशान मुख से हुई थी। सूर्य स्वरूप होने के कारण ये अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी और बली थे। ब्रह्माण्ड पुराण पटल 2 के अनुसार सूर्य स्वरूप दैवज्ञ का विवरण इस प्रकार है-
महोन्नतो महापुरूषः पीतवक्षः ससुन्दर ।
अनादिनि धनः स्वर्ण सुपर्णस्य नामहि ।।
स्वर्णददाति लोकानां ब्रह्मण्योर्ध्व मुखोद्भवः ।
किरीट कुंडलादिनां भूषणानां प्रयोजकः ।।
(ब्रह्मांड पुराण पटल 2 विश्वब्रह्मकुले पाख्याने अ. 1 विश्व ब्रह्मकुलोत्साह से उद्धृत)
अर्थात् ये उग्र तेजस्वी, स्वस्थ, सुन्दर बड़ी महिमा वाले गौर वर्ण अर्थात् इनका स्वर्ण की तरह रंग था। ये स्वभाव से उग्र थे। अपने ज्येष्ठ माइयों और पिता के अनन्य भक्त थे। इतना बल और पराक्रम होते हुए भी ये पिता के समक्ष अत्यंत विनम्र थे। इनका शरीर वज्र का सा था, शत्रु इनके सामने ठहर नहीं सकते थे। अभिमान और अपमान की बात ये जरा भी सहन नहीं करते थे। इनका शरीर विशाल और स्वर्ण की कांति से युक्त था। वास्तव में दैवज्ञ के बल की थाह नहीं थी। इनके व्यक्तित्व में बल और बुद्धि, ज्ञान और शक्ति का अद्भुत मिश्रण था।
शारीरिक और मानसिक बल के साथ ये अपनी कला में पारंगत और पूर्ण पंडित थे। ये स्वर्ण, चांदी, रत्न, और अलंकारों के मर्मज्ञ और पारखी थे। किरीट कुंडल, रत्न स्वर्ण आदि के बहुमूल्य आभूषण तैयार करना इनका कार्य था। हमारे शास्त्रों और धर्म ग्रन्थों के अनुसार यह भी उच्च कोटि का देव कर्म है। राजों महाराजाओं के महलों, मोर मुकुटों और समृद्ध महलों की शान दैवज्ञ की कला से ही थी। ये सूक्ष्म वेद, इतिहास पुराणों, कल्प गाथाओं के मर्मज्ञ थे। इनका महर्षि जैमिनी की पुत्री चन्द्रिका से विवाह हुआ था।
कुमारी जैमिने साध्यीः चन्द्रिका नाम विश्रुता ।
विश्वकर्मा तनु जस्य दैवज्ञस्य तथैव च ।।
( स्कन्ध पुराण नागर खंड अ. 6 )
चन्द्रिका भी अत्यंत मधुर भाषी, कोमल एवं साध्वी स्त्री थी। चन्द्रिका और महर्षि दैवज्ञ के 25 पुत्र और पौत्रादि थे । यह विवरण वरिष्ट पुराणान्तर प्रवराध्याय विश्वकर्मा वंश भास्कर से उद्धृत किया गया है। वास्वत में आधुनिक युग की गोल्ड स्मिथी, ज्वैल कटिंग, अलंकार एवं आभूषण कला आदि मूल रूप से महर्षि दैवज्ञ की ही देन है। यह अपने आप में एक कला है जो परिपक्वता, साधना, मानसिक संतुलन और कठिन परिश्रम मांगती है। विश्व ब्राह्मण पुराण के अनुसार महर्षि दैवज्ञ ने रसायन विद्या, रसायन इंजीनियरी, मेटलर्जी पर खगोल शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे ।