ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 दोनों सूक्त विश्वकर्मा सूक्त हैं। इनमें प्रत्येक में सात-सात मंत्र हैं। इन सब मंत्रों के ऋषि भुवनपुत्र विश्वकर्मा हैं और देवता भी विश्वकर्मा हैं। ये ही चौदह मंत्र यजुर्वेद अध्याय 17 में मंत्र 17 से 32 तक आते हैं। वहां केवल दो मंत्र 24वां तथा 32वां अधिक हैं। प्रत्येक मांगलिक पर्व पर यज्ञ में गृह प्रवेश करते समय, किसी भी नवीन कार्य के शुभारम्भ पर विवाह आदि संस्कारों के समय इनका पाठ अवश्य करना चाहिए।
ऋग्वेद दशम मण्डल सूक्त 81 :-
य इमा विश्वाभुवनानि जुहुदृषिर्होता न्यसीदत् पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदबरां आ विवेश ||
(शु.य. १७/१७ = ऋ. १०।८१।१।।)
मङ्गल श्लोकाः
विश्वशृग्विश्वगोप्ता च विश्वभोक्ता च शाश्वतः।
विश्वेश्वरो विश्वमूर्ति विश्वात्मा विश्वभावनः।।
कर्ता धाता विधाता च सर्वेषां पतिरीश्वरः।
सहस्रमूर्तिर्विश्वात्मा विष्णुर्विश्वधृगव्ययः।।
गुणाकरो गुणश्रेष्ठः सच्चिदानन्दः विग्रहः।
अभिवाद्यो महाकायो विश्वकर्मा विशारदः।।
विश्वकर्ता महायज्ञो ज्योतिष्मान्पुरुषोत्तमः।
संसारतारको रामः सर्वदुःख विमोक्ष कृत्।
विद्वत्तमो विश्वकर्त्ता विश्वहर्त्ता च विश्वधृक् ।।
[ श्रीराम सहस्त्रनाम ]
वेद विज्ञान के अनुसार विश्व की सृष्टि यज्ञात्मक है। सृष्टि यज्ञ है। यज्ञ में होता घृतादि हवन सामग्री, समिध, अग्नि आदि उपकरण होते हैं। इस सृष्टि यज्ञ में हवनकर्ता ब्रह्म (विश्वकर्मा) है, अग्नि भी वही है। हवन सामग्री आदि भी वही है। विष्णु का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ को ही सम्पूर्ण जगत् की नाभि कहा गया है। इस लोक में भी इञ्जिनीयर (अभियन्ता) इञ्जिन के भठ्ठी में इधन (कोयला, पेट्रोल, डीझल, यूरेनियम, विद्युत) का हवन करता है तो उससे यन्त्र चालित होकर अभीष्ट कार्य सम्पादित होता है । इस सृष्टि यन्त्र के निर्माण एवं चालित होने के लिये भी ईंधनादि के हवन की आवश्यकता है। वसन्त को इस यज्ञ का घृत, ग्रीष्म को ईंधन और शरद को हवि कहा गया है । कविवर कालिदासजी ने अपने प्रसिद्ध अभिज्ञान शाकुन्तलम् के मङ्गलश्लोक में भी इस यज्ञात्मक सृष्टि का निरूपण किया है। यज्ञाग्नि से निर्गत धूम पर्जन्य बनकर वृष्टि करता है, जिससे अन्नादि की उत्पत्ति होती और प्राणियों की उत्पत्ति तथा पोषण होता है। यही सृष्टि चक्र हैं । यही सृष्टि यज्ञ में 'बसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः' में भी पर्जन्यादि की उत्पत्ति, अन्नादि की उत्पत्ति, प्राणियों की उत्पत्ति एवं उनके पोषणादि के तत्व है, जो वैज्ञानिक है । यज्ञ को ही पृथिवी को धारण करने वाला आधार कहा गया है। यज्ञ में अरणी मन्थन द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती है और वह अग्नि पूर्व से ही काष्ठ में वर्तमान रहती है। विश्वकर्मा भी वैसा ही है। वह सृष्टि यज्ञ में दारु गत अप्रकट, अग्नि से प्रकट, प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकट होता है तब सृष्टि चक्र प्रवर्तित होता है और जब प्रकट से अप्रकट हो जाता है तब सृष्टि चक्र विरमित हो जाता है।
प्रथम मन्त्र का संक्षिप्त अर्थ है कि हम सभी चराचर जगत् का पिता जो ऋषिः [ सर्वद्रष्टा ] हवन कर्ता है, सृष्टि यज्ञ कुण्ड में ईंधन डालने वाला इन अखिल भुवनों को हवन कर या हवन करते हुये बैठ गये, वह स्वेच्छा से पराक्रम करता हुआ अपने से भिन्न दूसरों को आच्छादित कर दिया, सभी को व्याप्त कर दिया और स्वयं उनमें प्रवेश कर गये वा उक्त यज्ञाग्नि में हुत हो गये ।
इस प्रकार इस मन्त्र में परात्पर ब्रह्म विश्वकर्मा यज्ञात्मक सृष्टि विज्ञान का निरूपण है। वे जगत् निर्माण कर उसमें व्याप्त हो जगत् रूप में प्रकट हुए।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत्।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा विद्यामौर्णौन्महिमा विश्व चक्षा
(शु. य. १७/१८ = १०।८१।२॥ )
अधिष्ठान वा कार्य का आधार या आश्रय क्या था ? कार्यारम्भ कहाँ और किस प्रकार किया। विश्वकर्मा ने जहाँ जगत को उत्पन्न करते हुये, विश्वद्रष्टा ने अपने तेज से पृथिवी और आकाश को आच्छादित किया।
इस मन्त्र में प्रश्न (जिज्ञासा) द्वारा विश्व के कारण वा सृष्टि कार्य का अनुसन्धान है । मन्त्र के रिक्त पद से युक्त्या अर्थ निर्णयो वितर्कः के द्वारा विषय निर्द्धारण की कांक्षा इङ्गित की गयी है। अधिष्ठान पर से मूल आधार के ज्ञापन की जिज्ञासा है । अधिष्ठान (अधिकरण) चार प्रकार का होता है-१ औप श्लेषिक (जिसके साथ आधेय का भौतिक संश्लेष हो यथा कटे आस्ते काकः) २. वैषयिक (जिसके साथ आधेय का बौद्धिक संश्लेष हो यथा मोक्षे इच्छा अस्ति) ३. अभिव्यापक (जिसके साथ आधेय का व्याप्य व्यापक सम्बन्ध हो तिलेषु तैलम् ) ४. सामीप्यक (जिसके साथ आधेय के सामीप्य का सम्बन्ध हो यथा गङ्गायां द्योषः) । विश्वकर्मा का विश्व (जगत् ) के साथ इनमें से कौन सा अधिष्ठानत्व है? द्वैत वेदान्त और न्याय वैशेषिक तथा सांख्य दर्शनों के अनुसार औप श्लेषिक अद्वैत वेदान्त के अनुसार वैषयिक तथा विशिष्टाद्वैत वेदान्त के अनुसार अभिव्यापक अधिष्ठानत्व है।
अतः उस विश्वकर्मा का जगत् के साथ अभिव्यापक अधिष्ठानत्व है । आदि श्रुतियों के अनुसार यह चितचिद् जगत् परात्पर ब्रह्म विश्वकर्मा का शरीर है। कर्तृत्व के लिये सभी दर्शन तीन बातों को अत्यन्त आवश्यक मानते है -१. ज्ञान, २. चिकीर्षा और ३. प्रयत्न। इनमें इन तीनों के लिये अधिष्ठान (अधिकरण, आश्रय या आधार) की आवश्यकता है।
ज्ञान का आश्रय आत्मा है। चिकीर्षा का आश्रय मन है। प्रयत्न का आश्रय शरीर है। बिना शरीर के आश्रय से चेष्टा (प्रयन्न) नहीं हो सकती। विशिष्टाद्वैत वेदान्त में अधिष्ठानं शरीरम्' कहा गया है । यह चिदचित् जगत् विश्वकर्मा का चेष्टाश्रय वा शरीर है। अतः विश्वकर्मा इस विश्व (जगत्) के साथ अभिव्यापक अधिष्ठानत्व है। इसी के विषय में प्रकृत मन्त्र में प्रश्न (जिज्ञासा) हैं कि इस विश्व का अधिष्ठान (आश्रय) क्या था? एवं अधिष्ठान का तात्पर्य : उपादानसे भी हो सकता है।
श्वेताश्वेतरोपनिषद् में सृष्टि विज्ञान के विषय में जिज्ञासात्मक प्रश्न है, जिसका उत्तर अग्रिम मन्त्र में दिया गया है। इस मन्त्र में विश्व चक्षा पद से विश्वकर्मा को विश्व का देखभाल करने वाला विश्व द्रष्टा भी कहा गया है।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ।।
(शु. य. १७।१९ = ऋ. १०।८१।३ = अथर्व• १३।२।२६ = तै. सं. ४।६।२४ = श्वेताश्वर ३।३ = तै. आ. १०|१|३॥)
विश्वकर्मा के दृष्टि वचन या वक्त्र, दोनों हाथ (प्रयत्न करण) एवं चरण सभी जगह, सर्वव्यापक हैं । वे विश्वकर्मा अपनी दोनों भुजाओं से सम्यक् प्रकार से यज्ञाहुति करता है अर्थात् सृष्टि कार्य का प्रयत्न करता है। करण कारक और प्रयोज्यकर्त्ता रूप दोनों बाहू हैं। सम्यक प्रकार से देवः रामः स्वर्ग और भूमि दोनों को उत्पन्न कर उसकी रक्षा करते हैं । वे एक ही है। अद्वितीय, सर्वव्यापक, सर्व विलक्षण हैं ।
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आसयतो द्यावा पृथिवीनिष्ट तक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेयु तद्यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥
(शु. य. १७/२० ऋ. १०।८१।४॥ )
वह कौन सा वन था और कौन सा वृक्ष था जिस से संग्रहण निष्ठ विश्वकर्मा ने द्यावा और पृथिवी का निर्माण किया ? हे मनन करने वाले विचार शील विद्वानों, आप लोग अपने मनन साधनेन्द्रिय मनसे पूछे कि किस पर ऐश्वर्य भाव से (ईश्वर रूप से) नियम पूर्वक ऊपर स्थित होकर वह विश्वकर्मा सभी भुवनों (सम्पूर्ण विश्व) को धारण करता है? इस मन्त्र में विश्व का उपादान एवं निमित्त कारण तथा अधिकरण कारण के विषय में जिज्ञासा है ।
कहा गया कि पूर्व समय में असत से सत् पश्चात् दिशायें उत्पन्न हुई और उसके पश्चात् वृक्ष उत्पन्न हुआ ।वृक्षों से पृथिवी उत्पन्न हुई और पृथिवी से दिशायें उत्पन्न हुई।
ऋग्वेद के १०।३१।७।-८ में यही प्रकृत प्रश्न पूछकर उत्तर दिया गया है- वह कौन वन और वृक्ष है। जिसको उपादान लेकर विश्वकर्माने द्यू (स्वर्ग) और पृथिवी को बनाया। इसके उत्तर में कहा गया है कि तुम्हारा प्रश्न तो केवल द्युलोक और पृथिवी लोक विषयक है परन्तु केवल यही अन्तिम लोक नहीं हैं। इनके ऊपर भी और कुछ है। वह विश्वकर्मा प्रजा का निर्माता और स्वर्ग तथा पृथिवी को धारण करने वाला हैं । सूर्य ने अश्वों को धारण नहीं किया वहाँ वह अपने शरीर को धारण किया । विश्वकर्मा ही इस विश्व के निर्माता एवं धारक हैं और यह अखिल विश्व उस दिव्य लोक के आधार पर ही आधारित है । वेदों में परमात्मा और जीवात्मा को वृक्षस्थ कह वर्णन है। वृक्ष अपने पावर्ती को आच्छादित कर देता है। कहा जाता है कि प्रलय काल में परमात्मा वटवृक्ष के पत्ते पर सोया हुआ झूला झूलता रहता है। इस मन्त्र में विश्व के अधिष्ठान या उपादान के विषय में प्रश्न है अथवा विश्वकर्मा के धाम के विषय में प्रश्न है और इसका उत्तर अग्रिम मन्त्र में है।
या ते द्यामानि परमाणि याबमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावः स्वयं यजस्व तन्वं वृधानः ।।
(शु.य. १७।२१ ऋ. १०।८१।५)
हे विश्वकर्मा ! तुम्हारा जो उत्तम मध्यम अधम शरीर (चेष्टाश्रय, गृह (निवास घर)) प्रकाश स्थान 'दिव्यलोक स्वर्गलोक भूलोक' अथवा भूआदि सप्तलोकोर्ध्व साकेत लोक, भूआदि सप्त मध्यलोक और पातालादि सप्तअन्धकारलोक, जन्म (पूर्णावतार, आवेशावतार, अर्चावतार), प्रभाव (सविगुण, रजोगुण, तमोगुण) धामों को बता दो। हे यज्ञग्राही विश्वकर्मा आप स्वयं यज्ञ कर अपने शरीर की वृद्धि या पोषण करते हैं।
इस मन्त्र में विश्वकर्मा के तीन प्रकार के शरीरों का प्रतिपादन है । यह कई प्रकार से निष्पन्न होता है ? उत्तम देह साकेत वा साकेतस्थ, मध्यम शरीर भूआदिसप्त ऊर्ध्वलोक वा ऊर्ध्वलोकस्थ, अधमशरीर अधोलोक वा अधोलोकस्थ। परमेश्वर केवल वेदादि वचन से ही शिक्षा नहीं देता है अपितु अवतार धारण कर स्वयं करके दिखाके भी शिक्षा देता है। वह न केवल जगत्स्रष्टा जगत् शिक्षक जगद्गुरु भी हैं। वह शिक्षक ही नहीं प्रत्युत सखाभाव (मित्रभाव) रखनेवाला शिक्षक है और वह स्नेह (हविष) प्रेम की शिक्षा देता है, हविः त्याग (त्याग) तथा अभ्युदय और निःश्रेयस की शिक्षा देता है और स्वयं त्याग की व्यवहारिक शिक्षा देता है। विश्वकर्मा लौकिक इंजीनियरिंग कालेज (अभियान्त्रि की महाविद्यालय) के प्रोफेसर के समान शिक्षा देनेवाला है। किसी फैक्टरी (कारखाना) के अभियन्ता के समान केवल निर्माता नहीं। उसका यह विश्व शाश्वत नियमों की व्यवस्था है । विश्वकर्मा विश्व में पृथिवी आदि ग्रहोपग्रह, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि की रचना कर इसमें प्राणी वर्ग (उद्भिज, उष्मज, अण्डज, पिण्डज अथवा थलचर जलचर, नभचर) की रचना की जो वायरस जैसे नेत्रों से नहीं दिख पड़ने वाले अत्यन्त सूक्ष्मजीवों से लेकर व्हेल जैसे महाविशालकाय शरीर यन्त्रो की रचना की जिनमें चक्षुरादि सभी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, जीवनोपयोगी अङ्ग प्रत्यङ्गों की यान्त्रिक एवं बौद्धिक संरचना देखकर मानव बुद्धि चकरती है और विश्वकर्मा ने यज्ञात्मक सृष्टि प्रक्रिया से अपने आप (ऑटोमेटिकली) विश्व की रचना कर उसका विस्तार एवं अभिवृद्धि की। आधुनिक वैज्ञानिक किसी भी संयन्त्र के चालन के लिये उसमें ईंधन (हविष) की आवश्यकता होती है। कोयला इंजिन में कोयला, पेट्रोल इंजिन में पेट्रोल, डीजल इंजिन में डीजल आदि ईंधन डाले जाते हैं। इस विश्व रचना के निर्माण हेतु प्रथम प्रकृति के संयन्त्र में हवनकुण्ड में हविष (ईंधन) की आहुति दी गई, जिससे पजन्यादि की उत्पत्ति होकर विश्व की रचना, संचालन एवं पोषणादि सम्पन्न हुआ।
विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुतद्याम्।
मुह्यन्त्वन्ये अभितः सपत्ना इहास्माकं मधवा सूरिरस्तु ।।
(शु. य. १७।२२ ऋ. १०।८१।६ साम० १५८९)
हे विश्वकर्मा, आप द्यावा पृथिवी देवलोकों एवं मनुष्य लोकों को दोनों में अपने आप यज्ञ करके उस हविष (स्नेह) से वर्द्धमान हो । विपक्षी सर्वतः मोहित ( चकित) हों । यहाँ हम लोगों को वह पूजनीय विश्वकर्मा ज्ञान प्रदाता हो।
वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजे आद्या हुवेम।
स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूखसे साधुकर्मा।।
(शु. य. १७।२३ - शु. यं. ८।४५ ऋ. १०।८१।७।)
तरह तरह के फल पुष्प पत्ते, पशुपक्षी, नदी, पहाड़, झरना, आदि सभी एक से एक सुन्दर विश्वकर्मा द्वारा साधुकर्म है। विश्वकर्मा साधुओं का परित्राण करने वाला हैं। अत: वह साधुओं का त्राता होने से साधुकर्मा है । साधुओं का (शिष्टजनों) के आचार को धर्म का मूल कहा गया है। वह आचार का आदर्श कर्म मूर्तिरूप होने से साधु कर्मी है। इस प्रकार वह न केवल आचार का उपदेश देनेवाला है अपितु स्वयं आचरण करने वाला होने से साधु (आचार्य) कर्मा है। साधु शब्द का अर्थ वैश्य भी होता है । उरु (हृदय या पेट) वैश्य (साधु) है और इस पेट और हृदय का कर्म साधु कर्म जिस प्रकार पेट आहार का पाचन कर उससे त्याज्य मलों (मल मूत्र स्वेद आदि) का वहिष्कार और पोषक तत्त्वों (रक्तादि) का निर्माण कर सम्पूर्ण शरीर के समस्त अङ्ग प्रत्यङ्गों का पोषण कार्य करता है उसी प्रकार विश्ववमी अखिल ब्रह्माण्ड का भरण पोषण करते हैं । अतः वह साधु (वैश्य उदर) कर्मा है।
पुनः सम्पूर्ण प्रेरणाका स्थान हृदय है और विश्वकर्मा हृदय में स्थित होकर शुभ प्रेरणा करता है। अतः उर प्रेरक होने से वह साधुकर्मा है। विश्वकर्मा का सभी कर्म स्वतः सिद्ध होने से वह साधु (सिद्ध) कर्मा है । वह परसिद्धि (मोक्ष) देने वाला होने से साधु कर्मा है। उसके सुगन्ध से सभी सुगन्धित होते हैं, उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित होते हैं, उसके प्रभाव से सभी प्रभावित होते हैं अतः वह साधुकर्मा है। इस प्रकार वह सर्व प्रकार से साधुकर्मा सिद्ध है ।
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सूक्त 82-
चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो धृतमेने अजनन्नम्न माने ।
यदे दन्ता अददृहन्त पूर्व आदिद् द्यावा पृथिवी अप्रयेताम् ॥
(शु. य. १७।२५ - ऋ. १०।८२।१)
धीर, विज्ञ पिता (उत्पादक चालक) चक्षुषः (महावैज्ञानिक) मनसा (मन के द्वारा) धृतम् (स्नेह जल) को उत्पन्न किया । पुनः द्यावा पृथिवी को बनाया। द्यावा पृथिवी के पूर्वापर भाग (विश्व के शेष भाग) को स्थित किया । तब यह प्रसिद्ध हुआ। न्याय वैशेषिक दर्शन के अनुसार चूर्णो को सटाकर पिण्डी भाव करने वाले गुण का नाम स्नेह है और उसकी वृत्ति जल में है। विश्व की सृष्टि परमाणु संयोग से हुई और उसका संयोग का उपादान कारण यह स्नेह है।
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक्
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन् पर एकमाहुः ||
(शु. य. १७।२६ = ॠ१०।८२।२ )
विश्वकर्मा विविध प्रकार के सर्व प्रकार के ज्ञान वाला सर्वज्ञ एवं विज्ञान शिल्य (इजिनीयरिंग) जानने वाला सार्वभौम ज्ञानी है । लौकिक इंजिनियरों में कोई इलेक्ट्रीकल इंजिनीयर है, तो कोई मेकैनिकल, तो कोई मेटालर्जिकल, तो कोई सिविल आदि । परन्तु कोई भी व्यक्ति सभी प्रकार के इंजिनीयरिंग विज्ञान का ज्ञाता नहीं है । पुनः इलेक्ट्रिकल इञ्जिनीयर इलेक्ट्रीसीटी का पूर्ण ज्ञान रखने वाला है, उसका ज्ञान अल्प और त्रुटि पूर्ण है। भ्रान्त भी । यही दशा अन्य इञ्जिनीयरों की भी है, परन्तु विश्वकर्मा सभी विज्ञानों का पूर्ण ज्ञाता और अभ्रान्त ज्ञाता है। उसका ज्ञान नित्य और अभ्रान्त और पूर्ण है, उसको जानने के लिये कुछ भी बाकी (शेष) नहीं है । उसने सभी पूर्ण विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर विश्व का निर्माण किया है, जो आजतक पूर्ण रूप से ज्ञात नहीं हो सका है और न कभी भी पूर्ण रूप से ज्ञात हो ही और विश्वकर्मा सर्व शक्तिमान है, वह सब कुछ करने में समर्थ है। उसके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, वह समर्थ है । वह सर्व कर्ता और सर्व प्रेरक भी है। पुनः ये लौकिक इंजीनियर अल्पदेश व्यापक है और विश्वकर्मा सर्वदेश व्यापक है । वह अनन्त ब्रह्माण्ड व्यापक है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आवृत्त किये हुये है । इस प्रकार विश्वकर्मा का ज्ञान बृहत् है, उसकी शक्ति बृहत् है और उसकी व्याप्ति बृहत् है। वह सर्वद्रष्टा (सर्वनियामक ) है, वह सप्तर्षि से परवर्ती भी नियन्त्रण करते हैं और देख रेख करते हैं । वे एक है ।
योनः पिता जनिता यो विधाता द्यामानि वेद भुवन्नानिविश्वा।
यो देवानां नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवनायन्त्यन्या ।।
(शु. य. १७।२७ = ऋ० १०।८२।३= अथर्व० २।१३-१)
शुक्ल यजुर्वेद में इसी मन्त्र के अनुरूप एक मन्त्र है -
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता द्यामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ।।
(शु.य•३२।९।)
जो हम लोगों अखिल जगत् को उत्पन्न रक्षण और पोषण करने वाला है, जो विश्व का धारण करनेवाला कर्म और उसके फलों का विधान करने, जो तेज प्रभाव, जन्म, शक्ति, शरीर गृह और चतुर्दशभुवनादि को जानने वाला स्वभावतः समस्त तत्त्वार्थविद, जो देवताओं के प्रकाश, शक्ति, गुण महात्म्य आदि को धारण करनेवाला और उन नामों को अर्थवान करने वाला एक अद्वितीय, सर्वोत्तम विश्वकर्मा हैं। सभी प्राणी उन्हीं दिव्य लीलाकारक देव को प्राप्त करते हैं या उस ज्ञातव्य सम्प्रश्नरूप विश्वकर्मा के लिये जिज्ञासु होते हैं ।
विभिन्न देवताओं के नाम एक ही शक्ति के विभिन्न रूपों के धारक हैं। वर्तमान भौतिक विज्ञान के अनुसार छः प्रकार की भौतिक शक्तियां हैं- १) प्रकाश, २) ताप, ३) विद्युत, ४) चुम्बकत्व, ५) रसायनिक शक्ति और ६) यान्त्रिक शक्ति। देखने में ये छः प्रकार की हैं। परन्तु ये सभी एक प्रकार से किसी भी अन्य पञ्चप्रकारों में परिवर्तित की जा सकती हैं। ये शक्तियां न तो उत्पन्न की जा सकती है और न विनाश ही। केवल इन षड़्विध शक्तियों को एक रूप से किसी भी अन्य रूपों में परिवर्तन किया जा सकता है। अतः वस्तुतः ये षड्विध भौतिक शक्तियां एक ही हैं। इसी प्रकार ये एकादश द्युस्थानीय, एकादश अन्तरिक्ष स्थानीय और एकादश पृथिवी स्थानीय ३३ देवता वस्तुतः एक ही हैं। एक ही अग्नि देव पृथिवी स्थान में अग्नि, अन्तरिक्ष में विद्युत और द्युस्थान में सूर्य है । इसी प्रकार एकादश देवताओं के उक्त त्रिस्थानों में तीन रूप होने से ३३ प्रकार कहे गये हैं। ये सभी शक्तियां परमेश्वर की हैं और वे ही इन देवताओं को शक्ति प्रदाता हैं। अतः उन्हें देवताओं का नाम धारण करने वाला कहा जाता है।
त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारो न भूना ।
असूर्ते मूर्ते रजसि निद्यत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ।।
(शु. य. १७/२८ = ऋ. १०।८२।४॥)
विश्वकर्मा ने न केवल पृथिवी आदि को बनाया अपितु इसे धनों से परिपूर्ण कर इसे रत्नगर्भा और वसुन्धरा बनाया। नाना प्रकार के अन्न, फल, पुष्प, जल, रस, दुग्ध, मधु, घृत, वनस्पति आदि सर्वरस भोजनादि पोषक पदार्थों से परिपूर्ण किया। उन्होंने प्राचीन काल के ऋषियों को धनादि देकर यज्ञ कर्म प्रारम्भ किया ।
इस यज्ञ में केवल सृष्टि कार्य नहीं अपितु सर्व आनन्द पूर्ण सृष्टि का निरूपण है। सच्चिदानन्द की सृष्टि भी सत् चित् आनन्द रूपा है। चराचर विश्व के उत्पन्न होने पर ऋषियों, प्राणियों को बनाया, उनको वेदादि धन प्रदान कर स्तोता रूप से यज्ञानुष्ठान किया। विश्व को विश्वकर्मा ने बनाया।
परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति ।
किं स्विद् गर्भ प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समपश्यन्तपूर्बे ।।
(शु. य. १७/२९ = ऋ. १०।८२।५)
विश्वकर्मा का दिव्यलोक धाम इस पृथिवी लोक, असुर लोक और देवलोकों के दूर अकेले (अद्वितीय) ऊपर, इनसे भिन्न और श्रेष्ठ स्थित है । यह परलोक है । युक्ति पूर्वक अर्थ का निर्णय करें कि आप (भुवन) ने कौन गर्भ धारण किया है कि सभी देवता इसमें एकीभाव से दिखते हैं? यह मन्त्र प्रश्नात्मक है। इस मन्त्र का उत्तर आगे के मन्त्र में है ।
तमिद्गर्भ प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे ।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः ॥
(शु. यः १७।३०=ऋ. १०।८२।६॥)
उन्हीं विश्वकर्मा को जल ने गर्भ में धारण किया है। विश्वकर्मा में ही सभी देवता एकी भाव से रहते हैं। उनकी नाभि (चक्रमध्य) में ब्रह्माण्ड स्थित है । उस ब्रह्माण्ड में सभी प्राणी रहते है । इन मन्त्र में विश्वकर्मा को गर्भ में रखने वाला आप (स्नेह) कहा गया है। विश्वकर्मा स्नेह (प्रेम) के गर्भ में ही रहते हैं।
न तं विदाथ य इमा जजान्य द्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चातुतृप उक्थ शासश्चरन्ति ।।
(शु. य. १७।३१ - ऋ. १०।८२।७)
तुम लोग उस विश्वकर्मा को नहीं जानते हो जिस विश्वकर्मा ने इस चराचर विश्व को उत्पन्न किया हैं। यह जो अचर और चर तुम लोगों का विश्व है, वह विश्वकर्मा उससे भिन्न है । यदि अन्तर का अर्थ भीतर व्याप्त माने तो भी अर्थ होगा यह जो तुम लोगों का अचर (अचित्) घर (चित् ) विश्व है, उसके अन्तर्गत विश्वकर्मा व्याप्त है। हिम रूपी अज्ञानान्धकार से आच्छन्न हो कर तुम लोग नाना प्रकार का मिथ्या प्रलाप या मिथ्या कल्पना करते हो और वे तृप्त होने वाले अकटु वाणी वेद वाक्यों के द्वारा इस विश्व पर स्तुतियों से शासन करते हुये विचरण करते हैं। इस मन्त्र में विश्वकर्मा को चिदचित् से श्रेष्ठ तथा वेदानुशासन द्वारा विश्व का शासक बतलाया गया है एवं ज्ञान (वेद) द्वारा ज्ञेय बतलाया गया है ।
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उपरोक्त लिखित ऋग्वेद के यह चौदह मंत्र यजुर्वेद के 17 अध्याय के 17वें मंत्र से 23वें तक तथा 24वें मंत्र से 31वें मंत्र तक क्रमश. आते हैं। वहां केवल मंत्र 24 तथा मंत्र-32 ये निम्नलिखित दो मंत्र अधिक है-
विश्वकर्मन्हविषा बर्धनेन त्रातारमिन्द्रमकृणोरवध्यम् ।
तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्रो विहव्यो यथासत् ।।
(शु. य. १७।२४=८।४६)
विश्वकर्मा (ऐश्वर्य और दीप्तिमान शिल्पी (इञ्जिनीयर) सूर्य (जगदोत्पादक) हविष से छेदन और पूरण के द्वारा पालन पोषण करने वाले परमैश्वर्य शाली देवराज इन्द्र को अथवा जीवात्मा को अविनाशी बनाया । इस अनादि सर्व प्रकार से हवनीय उत्कट जिस प्रकार का था उसके लिये मनुष्य सर्व प्रकार से शरणागति ग्रहण करते हैं ।
विश्वकर्मा अजनिष्ट देव आदिद् गन्धर्वों अभवद् द्वितीयः
तृतीयः पिता जनितौषधीनामपां गर्भ व्यदधात् पुरत्रा ॥
(शु. य. १७।३२॥)
इस मन्त्र में विश्वकर्मा के क्रम रूप तीन रूपों वर्णन किया गया है कि प्रथम वह देव अर्थात् जगत्क्रीडा कर्ता रूप हुआ। दूसरे वह गन्धर्व अर्थात् गां (पृथिवीं) और गां (स्वर्ग) को धारण करने वाला अधिष्ठान, आश्रय, आधार अधिकरण वा स्तम्भ रूप हुआ और संचालक हुआ, तीसरे वह पिता पालक रूप हुआ। इस प्रकार जगत्सृष्टि क्रम में प्रथम सृष्टिकार्य, द्वितीय धारण और रक्षककार्य और तृतीय जीवोत्पादन, संस्कार, पोषणादि कार्य किया ।
इस प्रकार इस विश्वकर्मा सूक्त के षोड्श मन्त्रों में वैदिक प्रक्रिया से सृष्टि विज्ञान का निरूपण किया गया है । जिसमें विश्वकर्मा के चिदचिद् विशिष्ट शरीर वा रूप का भी प्रतिपादन है तथा चित्-अचित् ब्रह्म इन तत्त्वत्रय का भी दर्शन है। सृष्टि के विश्व के १-सृष्टिवाद, २- विकासवाद, ३- आविर्भाववाद एवं ४- यज्ञवाद-इन चतुविध प्रकारों का निरूपण एवं सामञ्जस है। इसमें बौद्ध दर्शन के सर्व दुःखम् के निराशा का निराश तथा सर्वानन्दवाद का दर्शन है। जगत् के लीला रूप का निरूपण है। इसमें सृष्टि, सृष्टि कर्ता, सृष्टि विज्ञान, सृष्टि प्रयोजन आदि का निरूपण है और विश्वकर्मा की महिमा का तात्पर्य है।