श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी
शंकरावतार भगवान् श्रीशंकराचार्य के जन्म समय के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद है। कुछ लोगों के मतानुसार ईसा से पूर्व की छठी शताब्दी से लेकर नवम् शताब्दी पर्यन्त किसी समय इनका आविर्भाव हुआ था, जबकि कुछ लोग आचार्यपाद का जन्म समय ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व मानते हैं। मठों की परम्परा से भी यही बात प्रमाणित होती है। अस्तु, किसी भी समय हो, केरल प्रदेश के पूर्णा नदी के तटवर्ती कलान्दी नामक गाँव में बड़े विद्वान् और धर्मनिष्ठा ब्राह्मण श्री शिवगुरु की धर्मपत्नी श्री सुभद्रा माता के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन इन्होंने जन्म ग्रहण किया था। इनके जन्म के पूर्व वृद्धावस्था निकट आ जाने पर भी इनके माता-पिता सन्तानहीन ही थे। अतः उन्होंने बड़ी श्रद्धा भक्ति से भगवान शंकर की आराधना की। उनकी सच्ची और आन्तरिक आराधना से प्रसन्न होकर आशुतोष देवाधिदेव भगवान् शंकर प्रकट हुए और उन्हें एक सर्वगुण सम्पन्न पुत्र रत्न होने कावरदान दिया। इसी के फलस्वरूप न केवल एक सर्वगुण सम्पन्न पुत्र ही, बल्दि स्वयं भगवान् शंकर को ही इन्होंने पुत्र रूप में प्राप्त किया। नाम भी उनका शंकर ही रखा गया।
बालक शंकर के रूप में कोई महान् विभूति अवतरित हुई है, इसका प्रमाण बचपन से ही मिलने लगा। एक वर्ष की अवस्था होते होते बालक शंकर अपनी मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगे और दो वर्ष की अवस्था में माता से पुराणादि की कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगे। तीन वर्ष की अवस्था में उनका चूडाकर्म करके उनके पिता स्वर्गवासी हो गए। पाँच वर्ष में यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेज दिया गया और केवल सात वर्ष की अवस्था में ही वेद, वेदान्त और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके वे घर वापस आ गए। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन आश्चर्यचकित रह गए।
गुरुकुल निवास काल की बात है, बालक शंकर भिक्षाटन करते हुए एक निर्धन ब्राह्मणी के घर गए। उस बेचारी के घर अन्न का एक दाना भी नहीं था। कहीं से उसे एक आँवले का फल मिला था, उसी को उसने ब्रह्मचारी शंकर को दिया और घर में कुछ न होने के कारण अन्न देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। उस ब्राह्मणी की दशा देखकर बालक शंकर का मन करुणा से भर गया और इन्होंने 'कनक धारास्तोत्र' का प्रणयन कर उसी से भगवती महालक्ष्मी की स्तुति की। भगवती महालक्ष्मी ने प्रसन्न होकर ब्राह्मणी के घर को सोने के आँवलों से भर दिया।
विद्याध्ययन समाप्त कर शंकर ने संन्यास लेना चाहा; परंतु जब उन्होंने माता से आज्ञा माँगी तब उन्होंने मना कर दिया। शंकर माता के बड़े भक्त थे, वे उन्हें कष्ट देकर संन्यास लेना नहीं चाहते थे। एक दिन माता के साथ वे नदी में स्नान करने गए। उन्हें एक मगर ने पकड़ लिया। इस प्रकार पुत्र को संकट में देखकर माता के होश उड़ गए। वह बेचैन होकर हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माता से कहा-'मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे दो तो मगर मुझे छोड़ देगा।' माता ने तुरंत आज्ञा दे दी और मगर ने शंकर को छोड़ दिया। इस तरह माता की आज्ञा प्राप्त कर वे आठ वर्ष की उम्र में ही घर से निकल पड़े। जाते समय माता की इच्छा के अनुसार यह वचन देते गए कि 'तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा।'
घर से चलकर शंकर नर्मदा तट पर आए और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा ली। गुरु ने इनका नाम भगवत्पूज्यपादाचार्य रखा। इन्होंने गुरुपदिष्ट मार्ग से साधना आरम्भ कर दी और अल्पकाल में ही बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गए। इनकी सिद्धि से प्रसन्न होकर गुरु ने इन्हें काशी जाकर वेदान्त सूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी और तद्नुसार ये काशी चले गए। काशी आने पर इनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकर्षित होकर इनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे। इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए, जो पीछे पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी में शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ये ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं, एक दिन भगवान् विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में इन्हें दर्शन दिए, उस समय आप श्री गंगाजी से स्नानकर आ रहे थे। चाण्डाल रूप धारी भगवान् विश्वनाथ मार्ग में खड़े थे, आप सहज रूप से उनके स्पर्श से बचकर निकलने लगे तो उन्होंने कहा- गंगा गड़ही वारिमें चन्द्र बिम्ब दरसाय। उनमें ऊँचो नीच को यह मोहिं देहु बताय।।' इस पर अद्वैत सिद्धान्त को सुनते ही श्री शंकराचार्य जी ने तुरंत समझ लिया कि ये श्वपच नहीं परम ज्ञान निधान साक्षात् भगवान् शिव ही हैं, फिर तो ये श्री शिवजी के चरणों में पड़ गए। भगवान् शिव ने इन्हें ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म के प्रचार करने का आदेश दिया।
काशी में निवास करते समय की बात है, एक दिन आप मणिकर्णिका घाट पर स्नान कर रहे थे, उसी समय भगवान् वेदव्यास एक वयोवृद्ध ब्राह्मण के रूप में प्रकट होकर ब्रह्मसूत्र के किसी सूत्र पर विचार-विमर्श करने लगे परंतु होते-होते वह विचार-विमर्श शास्त्रार्थ के रूप में परिणत हो गया और आठ दिन तक लगातार गंगा तट पर ही शास्त्रार्थ होता रहा। अन्त में आपने सोचा कि सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है कि वह मुझसे इतने लम्बे समय तक शास्त्रार्थ कर सके, अत: ज्ञानदृष्टि से देखा तो ज्ञात हुआ कि ये ब्राह्मण देवता और कोई नहीं, साक्षात् नारायण के अवतार भगवान वेदव्यास हैं। उसी समय आपके शिष्य पद्यपादाचार्य ने भी आपको इस श्लोक के माध्यम से संकेत किया -
शंकरः शंकरः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम्।
तयोर्विवादे सम्प्राप्ते न जाने किं करोम्यहम्।।
यह सुनकर श्री व्यास जी ने प्रकट होकर दर्शन दिया और आपके वेदान्त भाष्य की भूरि-भूरि प्रशंसा कर अन्तर्धान हो गए।
इसके बाद इन्होंने काशी, कुरुक्षेत्र, बद्रिकाश्रम आदि की यात्रा की, विभिन्न मतवादियों को परास्त किया और बहुत से ग्रन्थ लिखे। प्रयाग आकर कुमारिल भट्ट से उनके अन्तिम समय में भेंट की और उनकी सलाह से माहिष्मती में मण्डन मिश्र के पास जाकर शास्त्रार्थ किया। शास्त्रार्थ में मण्डन की पत्नी भारती मध्यस्था थीं। शास्त्रार्थ में शंकराचार्य जी ने मिश्र जी को हरा दिया, तब भारती ने कहा कि मुझ अर्धांगिनी को हराए बिना आप विजयी नहीं हो सकते। तब आपने भारती से शास्त्रार्थ किया। उसने रतिशास्त्र-सम्बधी प्रश्न किए, उनके उत्तर के लिए इन्होंने छ: मास का समय मांगा और अपने शिष्यों से कहा कि मैं मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश कर श्रृंगार रस का अध्ययन करूँगा। तब तक मेरे भौतिक शरीर की रक्षा करना। यदि वहाँ से वापस लौटने में मुझे विलम्ब हो जाए तो मेरे पास आकर मुझे मोहमुद्गर के श्लोक सुनाना। उस राजा अमरुक के मृत शरीर में प्रवेश कर शंकराचार्य जी ने रतिशास्त्र का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उनके शिष्यों ने मोहमुद्गर के श्लोक उन्हें सुनाए और वे राजा अमरुक का शरीर छोड़कर पुन: अपने शरीर में आ गए तथा भारती के प्रश्नों का उत्तर दे उसे निरुत्तर किया। अन्त में मण्डन मिश्र ने शंकराचार्य शिष्यत्व ग्रहण किया और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा। इससे आपकी ख्याति बहुत फैल गई।
एक बार की बात है, शास्त्रार्थ आपने सेवड़ों (प्रतिपक्षियों) को परास्त किया, पराजित सेवड़ा लोग अपने राजा के पास पहुंचे। राजा ने सेवड़ों की बात नहीं मानी, तब सेवड़ों को यह भय सताने लगा कि कहीं हमारा राजा शंकराचार्य का शिष्य न बन जाए, अत: उन्होंने राजा तथा शंकराचार्य को मार डालने का एक षड्यन्त्र रचा। सेवड़ों का गुरु राजा एवं शंकराचार्य को लेकर एक ऊँची छत पर चढ़ गया और उसने तन्त्र बल से ऐसी माया रची कि चारों ओर जल ही जल हो गया। धीरे धीरे जल बढ़ता हुआ छत तक आ गया। सेवड़ों के गुरु ने माया की नाव भी बना दी और राजा से कहा कि इस पर चढ़ जाओ, नहीं तो जल में डूब जाओगे। राजा जैसे ही नाव पर चढ़ने लगे शंकराचार्य जी ने उन्हें नाव पर बैठने से मना कर दिया और पहले सेवड़ों को चढ़ाने को कहा। सेवड़े जैसे ही नाव पर चढ़े, माया की नाव और जल गायब हो गया और लोग छत से नीचे गिर गए। उन सेवड़ों के शरीर भग्न हो गए। राजा उनकी चाल और शंकराचार्य जी का प्रभाव समझ गए और उनके चरणों पर गिर पड़े।
आचार्य ने अनेक मन्दिर बनवाए, बहुत से लोगों को सन्मार्ग में लगाया और कुमार्ग का खण्डन करके भगवान् के वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया। आपने भारत वर्ष के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की और वहाँ अपने शिष्यों को नियुक्त किया। पूर्व में श्री जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में गोवर्धन मठ, दक्षिण में श्रृंगेरी मठ, पश्चिम में द्वारकापुरी में शारदामठ और उत्तर में ज्योतिर्मठ की आपने स्थापना की। इन मठों के मठाधीश आज भी श्रीमद् आद्य शंकराचार्य के नाम पर शंकराचार्य कहे जाते हैं।
यद्यपि आपका लौकिक जीवनकाल अत्यन्त अल्प मात्र 32 वर्ष ही रहा, परंतु इतने कम समय में ही आपने छोटे-बड़े 262 ग्रन्थों की रचना की, जिनमें प्रस्थानत्रय (ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता) पर भाष्य ही आपके यशको अमर रखने में पर्याप्त हैं।