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संत शिरोमणि स्वामी रामसुखदास जी महाराज

समाज में समय-समय पर ऐसे तेजस्वी संत-महात्मा और अवतार पुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिन्होंने समग्र समाज को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के द्वारा नई दिशा व चेतना प्रदान की। इस श्रृंखला में स्वामी रामसुखदास जी महाराज का नाम सर्वोपरि माना जाता है। आप अत्यन्त उच्चकोटि के भारत विख्यात संन्यासी हैं। जिनके गीता प्रवचनों ने अनेकों व्यक्तियों का मुक्ति मार्ग प्रशस्त किया है। आपका जन्म पं. रूधाराम जी पिंडवा गाँव मांडपुरा जिला नागौर के यहाँ माघ सुदी 13 सम्वत् 1956 को हुआ। आपकी माता श्रीमती कुन्नी बाई गाँव करण्डू की थीं। उनके सहोदर भ्राता श्री सद्दाराम जी रामस्नेही सम्प्रदाय के साधु थे। सात वर्ष की अवस्था में ही माता जी ने आपको इन्हीं के चरणों में भेंट कराया। उसी समय गाँव चाढी के स्वामी कन्हींराम जी ने आजीवन शिष्य बनाने के लिए आपको मांग लिया तथा उसी समय से आप स्वामी कन्हीराम जी के शिष्य कहलाए। उन्होंने ही आपकी शिक्षा-दीक्षा करवाई। आपकी शिक्षा पहले बीकानेर, फिर नागौर और जोधपुर तत्पश्चात् काशी जी में हुई। श्री कन्हीराम जी के निधनोपरान्त आप सम्प्रदाय का मोह छोड़कर संन्यासी हो गए तथा अपने प्रवचनों की अथाह वर्षा करने लगे, जिसे सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। आप गीता, रामायण व श्रोत स्मार्त आदि के प्रकांड पंडित थे। आपने गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा संचारित समस्त गीता-रामायण पाठशालाओं के अनेक वर्षों तक निरीक्षक रहकर महान प्रचार का कार्य किया। वस्तुत: गीता प्रेस गोरखपुर के तीन कर्णधार श्री जयदयाल जी गोयन्दका, श्री हनुमान प्रसाद जी पौद्धार तथा तीसरे आप हैं। प्रथम दो के ब्रह्मलीन होने पर आपका दायित्व और भी बढ़ गया। आप अत्यन्त त्यागी निस्पृह संन्यासी थे, जिन्होंने प्राचीन ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित किया। आपके प्रवचन मनुष्य मात्र के अनुभव पमौज-आनन्द में हैं।
श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी महाराज मिति आषाढ़ कृष्ण 11 को रात्रि बिताकर दिनांक 3-7-2005 को प्रात: लगभग 3 बजकर 40 मिनिट पर परमधाम सिधार गए। अत: विश्वकर्मा समाज के इस रत्न से और आदर्श महात्मा से सम्पूर्ण विश्वकर्मा समाज गौरवान्वित हुआ है। हम सभी आपके ज्ञान, योग साधना और पांडित्य के समक्ष नतमस्तक हैं, आपको कोटिकोटि नमन करते हैं।

संत की वसीयत

श्री भगवान की असीम, अहैतु की कृपा से जीव को मानव शरीर मिलता है। इसका एक मात्र उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति ही है। परंतु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूलकर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है। शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है। शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है। इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है। शरीर के नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है। वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो। वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता। इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवं नाम को बनाये रखने का भाव किसी महत्त्व का नहीं है। परंतु शरीर का मान-आदर एवं नाम की स्तुतिप्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत जो भगवदाज्ञा, महापुरुष वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति) में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबद्ध करते हैं एवं उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं। विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं। इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एक पक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते और प्रकाशित करवाते हैं। कहने को तो वे अपनी आपको उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही करते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं।
श्रद्धातत्त्व अविनाशी है। अत: उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में। नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं। परंतु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं। अत: भगवान् के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की पूजा तथा उनके अविनाशी नाम की स्मृति को छोड़कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्त्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान् धोखा भी होता है।
वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है। इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जायेगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जायेगा। जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है। वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है। इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता। चित्र लिया जाता है उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। इसलिये चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था। इसलिये चित्र की पूजा तो असत् (नहीं) की ही पूजा हुई। चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ।
हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वथा सम्बंध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बंध रहने के कारण। शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं। अत: महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना मल का आदर करना हुआ। क्या यह उचित है? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र की पूजा आदि होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र की भी पूजा आदि की जाय तो क्या आपत्ति है? तो यह कहना भी उचित नहीं है। कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवं अविनाशी होता है, जबकि महात्मा का कहा जाने वाला शरीर पांच भौतिक होने कारण जड़ एवं विनाशी होता है।
भगवान सर्वव्यापी हैं, अत: वे चित्र में भी हैं, परन्तु महात्मा की सर्वव्यापकता (शरीर से अलग) भगवान् की सर्वव्यापकता के ही अन्तर्गत होती है। एक भगवान् के अन्तर्गत समस्त महात्मा हैं, अत: भगवान की पूजा के अन्तर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वतः हो जाती है। यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम भगवान् की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धान्त से सर्वथा विपरीत है। महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान की ओर लगाने के लिये आते हैं. न कि अपनी ओर लगाने के लिये। जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है। वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं।
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो साङ्गोपाङ्ग हो अर्थात् जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण, दुर्गुण, सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। अपने जीवन की समस्त घटनाओं को यथार्थ रूप से मनुष्य स्वयं ही जान सकता है। दूसरे मनुष्य तो उसकी बाहरी क्रियाओं को देखकर अपनी बुद्धि के अनुसार उसके बारे में अनुमान मात्र कर सकते हैं, जो प्रायः यथार्थ नहीं होता। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्या रूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह साङ्गोपाङ्ग तथा पूर्ण रूप से सत्य होती ही नहीं। वास्तव में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिये और उसके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिये। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उसका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उसी के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिये।
उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित संतों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हैं। इसमें सभी बातें मैंने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है। मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा-इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है।
1. यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डॉक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गङ्गा जी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिये। उस समय किसी भी प्रकार की औषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गङ्गाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिये। उस समय अनवरत रूप से भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन और श्रीमद्भगवद्गीता, श्री विष्णुसहस्रनाम, श्री रामचरितमानस आदि पूज्य ग्रन्थों का श्रवण कराया जाना चाहिये।
2. इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसी माला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिये। निष्प्राण शरीर को साधु-परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिये न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में। जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूँ, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिये। इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अन्तिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूँ।
3. मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गाँव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गङ्गा जी के तट पर ले जाना चाहिये और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिये। यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गाँव में शरीर शान्त हो जाय, वहीं गायों के गाँव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग (गोवा) में अथवा नगर या गाँव से बाहर जहाँ गायें विश्राम आदि किया करती हैं, वहाँ इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिये। ___ इस शरीर के शान्त होने पर किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये। अन्तिम संस्कार पर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिये और अत्यन्त सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिये।
4. अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊँ, जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिये तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिलकुल नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये।
5. जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहाँ मेरी स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनना चाहिये, यहाँ तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूँ। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसे उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसे ही उपेक्षित रहना चाहिये। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गङ्गाजी में प्रवाहित कर देना चाहिये। मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गौशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएँ नहीं बननी चाहिये। अपने जीवनकला में भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये।
6. इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिल्कुल नहीं करना चाहिये और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं करनी चाहिये। साधु-संत जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहना चाहिये। अगर संतों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिये जिसमें कोई मिठी चीज न हो। अगर कोई साधु या सद्गृहस्थ बाहर से आ जायँ तो उनकी भोजन व्यवस्था में मिठाई बिलकुल नहीं बनानी चाहिये, प्रत्युत उनके लिये भी साधारण भोजन ही बनाना चाहिये।
7. इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करने चाहिये, प्रत्युत सत्रह दिन तक सत्सङ्ग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीतापाठ, श्री रामचरित मानस पाठ, संत वाणीपाठ, भागवत पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिये। सनातन हिन्दू संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गये हैं।
8. इस शरीर में शान्त होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि कोई वस्तु भेंट करना चाहें तो नहीं लेना चाहिये अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिलकुल नहीं लेनी चाहिये। यदि कोई कहे कि हम तो मन्दिर में भेंट चढ़ाते हैं तो इसको फालतू बात मानकर इसका विरोध करना चाहिये। बाहर से कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोई भेंट किसी भी माध्यम से भेजे तो उसको सर्वथा अस्वीकार कर देना चाहिये। किसी से भी भेंट न लेने के साथ-साथ यह सावधानी भी रखनी चाहिये कि किसी को कोई भेंट, चद्दर, किराया आदि नहीं दिया जाय। जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेधसमझना चाहिये।
9. इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बंधित घटनाओं को जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिये।
अन्त में मैं अपने परिचित सभी संतों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूँ कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिये। इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवांछनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिये, प्रत्युत अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तन पूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिये। जब और जहाँ भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बंध में दिये गये निर्देशों का पालन वहाँ उपस्थित प्रत्येक सम्बन्धित व्यक्ति को करना चाहिये।
मेरे जीवनकाल में मेरे द्वारा शरीर से, वाणी से, मन से, जान में, अनजान में किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट पहुँचा हो तो मैं उन सभी से विनम्र हृदय से करबद्ध क्षमा माँगता हूँ। आशा है, सभी उदारता पूर्वक मेरे को क्षमा प्रदान करेंगे।