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उदासीन निरंकार मुनि महाराज (1932-2000ई.)

नाथद्वारा के समीपस्थ कोठारिया में भूरालाल जी सीलक के घर श्रीमती रामी बाई की कोख से 5 दिसम्बर 1932 को जन्मे नरोत्तम बालक ने बचपन खेल कूद में बिताया। समझ आती गई, साधु वृत्ति बढ़ने लगी। विवाह के समय नरोत्तम जी को शादी बुजुर्गों के दबाव से करनी पड़ी किन्तु इन्हें तो दूसरी ही धुन सवार थी। अब इनका साधु सन्तों के साथ मिलना-बैठना बढ़ने लगा। वे सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो यात्रा पर निकल पड़े।
शिव राजपुर (गुजरात) से औंकारेश्वर (मध्यप्रदेश) तक की पदयात्रा की। इस यात्रा में उन्हें घोर कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। यहीं वे ऐसे साधुओं के सम्पर्क में आए जिन्होनें भोजन करवाया, एवं विदा किया। यात्रा से लौटकर आपने चित्तौड़ा (गुजरात) में आश्रम बनाया। यहाँ आपने एक विशाल भण्डारे का आयोजन भी करवाया। उस आश्रम की व्यवस्था अपने अनुयायियों पर छोड़कर आप कुछ समय बाद फिर यात्रा पर निकल पड़े। अब वे निरंकार मुनि के नाम से पहचाने जाने लगे। लगभग 12 वर्ष बाद मेवाड़ की ओर कदम बढ़ाया और फरारा महादेव जी में पधारे। सैंकड़ों परिचित एवं श्रद्धालु दर्शनार्थ उमड़े। जो उनकी शरण में गया उसे निरंकार मुनि ने अपनाया।
गुरू पूर्णिमा पर भंडारा उनका नियमित अनुष्ठान रहा। आपकी आध्यात्मिक प्रेरणा से अनुयायियों ने उदयपुर में आयड गंगू कुण्ड के पास, कोठारिया नदी किनारे समाधि-स्थल के पास, राजसमंद बाईपास पर रामेश्वर महादेव के निकट तथा सरदारगढ़ में भी आश्रम निर्मित किये। आपका राजसंमद आश्रम में दिनांक 17-6-2000 को देवलोक गमन हुआ। निरंकार मुनि जी अपने प्रवचन में सदैव कहते थे कंचन, कामिनी एवं कीर्ति से व्यवहार न रखकर किया गया कार्य ईश्वर का कार्य होता है, और वहीं कार्य ईश्वर को प्रिय होता है।