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पद्म भूषण स्वामी कल्याण देव जी

मानवता के उद्धारक एक महान् संत का 21 जून, 1876 को हुआ, आविर्भाव जब-जब भी हमारी स्मृति पटल पर आता है, तो उनके अनुकरणीय कार्यों से परिपूर्ण रही श्रेष्ठ प्रतिमूर्ति स्मृति में दृष्टिगोचर होने लगती है। ऐसी ही महान् विभूति थे स्वामी कल्याण देव जी महाराज, जिनका आलोकित दिव्य कर्मयोगी जीवन आज भी सूर्य के समान कल्याणकारी मार्ग का एक सेवी बनकर अनुसरण करने का संदेश देता आरहा है। क्योंकि स्वामी जी का ज्योतिर्मय दिव्य जीवन भी आमजन के लिए परोपकारार्थ ज्ञान ज्योति के साथ कर्मनिष्ठ एवं धर्मनिष्ठ बनकर समर्पित रहा। जिस तरह ज्योति ही सूर्य है, उसी तरह सूर्य भी ज्योति स्वरूप है। अत: उनका सम्पूर्ण जीवन भी हमेशा ज्योति स्वरूप बना रहा। वह कैसे रहा इस सन्दर्भ में हम उनके पावन जन्म दिवस के अवसर पर उच्च जीवन चरित्र से सम्बन्धित कुछ प्रसंगों पर यहाँ चर्चा करेंगे।
श्रीमती भोई देवी की कोख से एक परम तेजस्वी पुत्र रत्न का आविर्भाव जब बागपत जिला-उ.प्र. के ग्राम कोताना अर्थात् उनके ननिहाल में हुआ तो इनकी यह पावन जन्म भूमि भी कालान्तर में इतिहासकारों के लिए उल्लेख करने हेतु चिरस्मरणीय बन जाएगी, ऐसी विधाता की लीला का किसी को भान ही नहीं था। विश्वकर्मा कुल वंशीय इनके पिता श्री पं. फेरुदत्त जांगिड जो कि मुण्डभर ग्राम में निवास करते थे, वे एक सीधे-साधे, सरल स्वभाव के कृषक थे, फिर भी अनेकों गुणों की मिसाल थे। साधु-सन्तों के प्रति विशेष लगाव था। सत्संगी जीवन था। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती भोई देवी भी धर्म-कर्म में आस्था रखने वाली सुगृहिणी थी। उनका पारिवारिक जीवन सद्गृहस्थ का परिचायक बना रहा।
अति सुन्दर एवं सौम्य स्वरूप से आच्छादित स्वामी जी का बाल्यकाल अनेक खूबियों से भरा रहा। इनके सम्बोधन में सुहाने स्वरूप के विपरीत लगे ऐसा नाम 'कालूराम' रखकर बुरी नज़रों के प्रभाव से बचाव हेतु लोगों की कुदृष्टि पर आवरण बनकर प्रारम्भ से ही उनकी सुरक्षा का कवच बन गया। पूर्व जन्म के अच्छे संस्कारों का प्राकट्य इनमें बाल्यकाल से ही दिखाई देने लगे। माता-पिता की सेवा ने इन्हें जन सेवा के प्रति अच्छे संस्कार दिए। धर्म-कर्म से रहे ओतप्रोत इस परिवार से जब अच्छे संस्कार मिले तो धर्म की पालनार्थ परोपकार के कार्य के प्रति भविष्य में उद्यत हुए।
उस समय विद्याध्ययन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। ग्राम में संस्कृति से जुड़ी कथाओं का जब आयोजन होता तो उन्हें अवश्य श्रवन करते। ऐसे वातावरण से उनमें शास्त्रों के पढ़ने-लिखने की लालसा जागृत हुई तो पं. रामदास जी से शिक्षा ग्रहण की। गीता, उपनिषद, रामायण, पुराण इत्यादि अन्य सत् शास्त्रों का भी पठन किया। उसी दौरान युवा कालूराम के भावी जीवन की लीलाओं के अंकुर फूटने लगे। पूर्व जन्म के उच्च संस्कारों के फलस्वरूप विधाता मनुष्य को मानव कल्याणार्थ मसीहा बनने के लिए बाल्यकाल से ही व्यवहारिक जीवन की कुछ घटनाओं को मार्ग दर्शन स्वरूप माध्यम बनाकर एक दूरदर्शी सोच युक्त चिंतनशील व्यक्तित्व का बीजा रोपण करने लग जाता है। पूर्व काल से ही इनसे सम्बन्धित विभिन्न तरह की घटनाएं अक्सर सन्तों के जीवन में घटित होती आ रही है। जैसे स्वामी दयानन्द सरस्वती को ही लेवें, जब वे बालक थे तब शिवरात्रि के अवसर पर एक चूहे को शिवलिंग के ऊपर पूजन सामग्री को तितर-बितर कर उछल कूछ करते देखा तो उनको आश्चर्य हआ कि चूहा कैसे इन भगवान के ऊपर उछल-कूद कर रहा है-तब एक सच्चे शिव की तलाश के लिए उन्हें जागरूक किया। इसी तरह कालूराम के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जिससे वे किशोर अवस्था में ही वैराग्य के प्रति आसक्त होने लगे। उदाहरणार्थ जैसे कि एक बार किसी खेत में वृक्ष के नीचे बैठकर वे कुएँ पर रहट को चलते हुए देख रहे थे कि तभी इसकी गतिशीलता के प्रति चिन्तन मग्न हो गए और सोचने लगे कि क्या इसी तरह से कालचक्र भी चलता रहता है? कुएं से रहट द्वारा पानी का आना और खेतों में जाना, क्या यह दर्शा रहा है कि इसी प्रकार प्राणी भी संसार में पानी के प्रवाह की तरह आता/जाता है? रहट की माला के रिक्त पात्र कुएं में से भरकर आते हैं तो क्या इसी तरह जीवन रूपी पात्र भी बालपन से तरूणावस्था और प्रोढ़ावस्था से वृद्धावस्था से भरते हैं और अन्त में ये रिक्त हो जाते हैं। इस प्रकरण को अपने जीवन के साथ तुलनात्मक दृष्टि से जोड़कर वे सोचते थे कि क्या मैं भी मात्र सार्थक हीन संसारी प्राणी ही बनकर रह जाऊँगा। कदाचित ऐसा नहीं हो, जिस तरह से खेतों में हरियाली लाने के लिए रहट द्वारा भूमि को सींचा जा रहा है, उसी तरह मैं भी लोगों के जीवन को सींचू।
एक बार एक मित्र की स्मृति से विह्वल किशोर कालूराम गाँव से बहुत दूर एक वृक्ष के नीचे बैठकर चिंतन मुद्रा में अर्न्तलीन हो गए। एक ब्राह्मण के पूछने पर बताया कि मेरा प्रिय मित्र की मृत्यु क्यों हो गई। ब्राह्मण ने बताया कि यह तो भगवान और यम की मर्जी के ऊपर है। कालूराम ने कहा सावित्री तो यम महाराज से टक्कर लेकर अपने पति को मृत्यु के मुख से लौटा लाई थी। तब मैं भी ऐसा ही करूंगा तथा मृत्यु से टक्कर लूंगा।
इसी तरह चिंतनशील युक्त जीवन की एक और घटना का भी यहाँ उल्लेख करना समीचीन समझते हैं। वह है पीपल के वक्ष से सम्बन्धित एक बार इसकी छांव में विश्राम करते वक्त क्या देखा कि वृक्ष की पकी टहनी से हवा के झोंके से पत्ता इधर-उधर कुछ झूमने के उपरान्त टूट के गिर गया। इस मामूली-सी साधारण घटना ने भी उन्हें अपने दार्शनिक जीवन की ओर अग्रसर करने को झकझोरा। क्योंकि जब टहनी पर उत्पन्न हुई नन्ही-सी कोपल पत्ते का रूप ले लेती है और कुछ समय बाद पकने पर यही पत्ता टूटकर अलग भी हो जाता है। अत: स्पष्टत: जाहिर है कि प्रभु प्रदत्त मनुष्य की जीवन रूपी लीला भी कलिका (पत्ते) की तरह क्षण भंगुर है, अर्थात् नाशवान है। यहाँ उनका कहने का तात्पर्य यही रहा कि प्रकृति में सभी प्राणी और वनस्पतियाँ तक भी जीवन-मृत्यु के अटल सिद्धान्त के वशीभूत हैं। अत: करणी ऐसी करनी चाहिए कि प्रभु की कृपा मिले एवं जग हमेशा करणीय कर्मों के रूप में याद करे। किशोर अवस्था में ही उनके (कालूराम के) ऐसे सद्विचार साधुता के जीवन को अंगीकार करने को उन्मुख करने लगे गए, जिससे लोक कल्याणार्थ जीवन में कुछ परमार्थ के कार्य कर सकें। इनकी ऐसी भावनाओं से परिवार जन चिंतित हुए, इनके प्रति अगाध प्रेम होने के कारण माता-पिता का वात्सल्य जाग्रत हो गया, किन्तु इनकी सच्ची निष्ठा एवं साधुता ग्रहण करने की दृढ़ निश्चियता के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा। माता-पिता की चिन्ता भी बढ़ने लगी, क्योंकि बालक कालूराम अब किशोर अवस्था में प्रवेश कर रहे थे। बालक का रंग देखकर उसका व्यवहार देखकर माता-पिता को भी संदेह होने लगा और वे उसे समझाने लगे तो कालूराम ने सहज भाव में कह दिया कि हाँ मैं साधु बनना चाहता हूँ। माता-पिता के प्रयत्न से समझाने पर उन्होंने कहा कि मैं सहर्ष आपकी अनुमति के बिना साधुनहीं बनूंगा।
आध्यात्मिक संस्कृति में सद्गुण का बहुत बड़ा महत्त्व है। तथा 11-12 वर्ष की आयु में ही माता-पिता से विधिवत अनुमति मांगी की मैं सदगुरु की खोज करूं तथा उनके सान्निध्य में अध्यात्म-साधना प्रारंभ करके अपना और संसार का कल्याण करूं। तत्पश्चात् हारकर माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। और कालूराम गृह त्याग की इजाजत लेकर निकल पड़े एक सच्चे गुरु की खोज में।
एक दिन उनका स्वामी पूर्णानन्द से मिलाप हुआ। वहाँ अध्यात्म और कर्म योग पर वार्तालाप हुई। इनके सान्निध्य में असीम शांति महसूस करने पर वे समझ गए कि इनसे ही “जीवन की सार्थकता सिद्ध हो, ऐसी सही राह मिल सकती है।" तदोपरान्त इनके प्रति समर्पण की भावना जागृत हुई तो इन्होंने पूर्ण निष्ठा के साथ इनके चरणों का सेवक बनने का आग्रह किया, इसे स्वीकार कर पूज्य गुरुदेव ने आश्रय प्रदान किया और इन्हें साधु दीक्षा देकर अनुग्रहित किया। जन कल्याण के कार्यों के प्रति इनकी प्रगाढ़ भावना को देख गुरुदेव ने इनका नया नाम कालूराम से कल्याण देव रख दिया। दीक्षित होने के कुछ समय बाद उच्च शिक्षित हो विश्व कल्याण का आशीर्वाद लिया। गुरुदेव पूर्णानन्द ने आमजन में कल्याण देव जी को धर्म की स्थापना के निमित्त विभिन्न तरह के कार्यों के प्रति अभियान छेड़ने को कहा। इनके निर्देशन में स्वामी जी ने जगह-जगह परिभ्रमण किया। प्रचार-प्रसार का जोर बढ़ता गया। शुभ परिणाम मिलने लगे।
कल्याण देव जी व गुरुदेव पूर्णानन्द जी महाराज ने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। कल्याण देव जी इस प्रकार परिभ्रमण में सभी जगह अपनी छाप सबके हृदयों पर छोड़ते चले गए। धन-दौलत का परित्याग किया तथा भोजन भी भिक्षा करके ही किया। शीत ऋतु में भी दूसरी चादर कभी नहीं ली। ग्रीष्म ऋतु में भी स्वामी जी ने सूर्य की आतापना लेते हुए ही स्वाध्याय ध्यान और यात्रा में भी मग्न रहते थे। शरीर को विश्राम देने का तो काम ही नहीं दु:ख व शारीरिक पीड़ा का उनको कोई अनुभव ही नहीं होता। लोगों के हृदय में इनके प्रति जगह बनती चली गई। क्योंकि सर्द ऋतु रही या गर्मी में सूर्य की तपन इनके कार्यक्रमों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नित्य प्रति स्वाध्याय, ध्यान और यात्रा के क्रम को जीवन भर बदस्तूर जारी रखा। किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना, यह उनका शारीरिक बल के साथ उच्च अध्यात्म एवं मानसिक बलका ही परिणाम था।
इस दौरान कल्याण देव जी ने जन कल्याण के कई कार्य किए। बाल विद्या मन्दिर, मांटेसरी स्कूल, प्राथमिक पाठशालाएँ, हाई स्कूल, इन्टर कॉलेज, डिग्री कॉलेज, संस्कृत विद्यालय एवं गुरुकुल, अनुसंधान केन्द्र, आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज एवं नेत्र चिकित्सालय, कुष्ठ रोगी, अपंग, विकलांग, मूक बधिर एवं अंध विद्यालय, गौशाला एवं वृद्धशाला, मन्दिर, धर्मशाला एवं अन्न क्षेत्र भोजनालय, स्मारक, घाट, चौक, द्वार, समाधि, सेतु, पुस्तकालय, भोजनालय, वाचनालय एवं छात्रावास, सर्वोदय एवं नवोदय स्कूल, महिला कन्या विद्यालय, व्यवसायिक शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थाएं आदि कई सैंकड़ों संस्थाओं की स्थापनाएं आपने की।
इसके साथ राष्ट्रीय स्तर पर महायज्ञों, धार्मिक उत्सवों, हिन्दू धर्म के प्रति जन चेतना पैदा की। अंध विश्वास और कुप्रथाओं पर समाज को जागृत किया।
स्वामी कल्याण देव जी महाराज से प्रभावित व्यक्तियों में महात्मा गाँधी, पं. नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. सम्पूर्णानन्द आदि कई महापुरुष थे।
* सन् 1982 में आपको देश, धर्म, समाज, संस्कृति, शिक्षा और मानव कल्याण के क्षेत्र में अद्वितीय सेवाओं के लिए “पद्मश्री" उपाधि से अलंकृत किया गया। जोकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवरेड्डी द्वारा प्रदान किया गया।
* सन् 1994 में गुलजारी लाल नन्दा फाउण्डेशन द्वारा "नन्दा नैतिक पुरस्कार" से डॉ. शंकर दयाल शर्मा महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया।
* सन् 2000 में आपको “पद्मभूषण' की उपाधि से अलंकृत किया गया।
* सन् 2003 में आपको "डी.लिट. उपाधि' से उत्तर प्रदेश के राज्यपाल चौ. चरण सिंह एवं कुलाधिपति आचार्य विष्णुकांत शास्त्री द्वारा प्रदान की गई।
स्वामी जी की एक खास बात यह भी थी कि वे एक बार जिससे मिल लेते उसे जल्दी से भूलते नहीं। स्वामी जी की एक खूबी यह भी थी कि कोई उनके द्वार से कभी खाली हाथ निराश नहीं लौटा, जो भी मदद उनसे बन पड़ती वे करते। वे सच्चाई के परम पुजारी थे। वे कहा करते थे कि सबमें प्रभु का वास है। लोक कल्याण ही परमात्मा की सच्ची उपासना है। वे कहा करते थे राम नाम भजना तब सार्थक होता है, जब राम के गुणों को अपने अन्दर धारण कर राम की भाँति लोक कल्याण में अपना जीवन अर्पित किया जाए। स्वामी जी के जब तक हाथ-पाँव सही काम करते रहे, उन्होंने कभी किसी से अपना काम नहीं कराया। वे गाँधी जी की भांति अपना कार्य स्वयं ही करते थे। वे कहा करते थे कि इस शरीर को आरामतलबी का आदि मत बनाओ, अपनी सुख-सुविधा के लिए दूसरों को कष्ट मत दो। शीतकाल में वे जल्दी उठते और अपनी कुटिया के आगे झाडू लगाते जो भी सूखी लकड़ी, सूखे पत्ते मिलते उनका ढेर बनाकर उसमें आग लगाकर अपना पानी गरम करते, जबकि स्वामी जी के कई भक्त उनकी सेवा करने के लिए हर समय तत्पर रहते थे। वे भ्रष्टाचार के काफी खिलाफ थे। समाज में फैले भ्रष्ट तंत्र पर स्वामी जी को बहुत पीड़ा होती थी।
स्वामी कल्याण देव जी महाराज अपनी आयु के 129 वर्ष पूर्ण करने के पश्चात् भी अपने शरीर एवं स्वास्थ्य की चिंता किए बिना भी समाज सेवा के पथ पर बराबर चलते ही गए। धीरे-धीरे उनकी प्रतिरोध शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पाचन शक्ति कमजोर हो गई थी। उनकी इच्छा अनुसार उनको अपोलो अस्पताल से शुकताल में शुकदेव आश्रम लाया गया।
13 जुलाई, 2004 मंगलवार की मध्य रात्रि 12 बजकर 20 मिनट पर कामदा एकादशी के दिन अभिजीत मुहूर्त (रोहिणी नक्षत्र) में अंतिम बार श्री शुकदेव मन्दिर में मूर्तियों को निहारा, हाथ जोड़े और अंतिम विदाई ली और ब्रह्मलीन हो गए। स्वामी कल्याण देव जी महाराज का यह जीवन दर्शन हमें व आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन प्रदान करता रहेगा।