स्वामी ब्रह्मानन्द जी सरस्वती
आपने गुरूकुलों में अनेकानेक तरह की शिक्षा प्राप्त करके सुसंस्कारित हो एवं एवं हिमालय की कन्दराओं में तपकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त लोक कल्याण के लिये अपने को समर्पित कर दिया। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद आयुर्वेद के निष्णात चिकित्सक के रूप में सेवा देते हुए ईमानदारी व परिश्रम की आय पर ही निर्भर रहकर अपने जीवन का उद्देश्य मात्र अपना या परिवार का निर्वाह करने तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि लोक कल्याणार्थ अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का अनुशासन के साथ परिपालन किया। अनेकों पुनीत कार्यों के अतिरिक्त असंख्य पीड़ित मानव की गत 48 वर्ष से अधिक समय से चिकित्सा द्वारा सेवा का उत्कृष्ट कार्य किया। अब योग एवं आयुर्वेद की चिकित्सा द्वारा असाध्य रोगों की निःशुल्क चिकित्सा प्रदान कर उनको नवजीवन प्रदान कर रहे हैं।
समाज को सन्मार्ग पर लाने के लिए वेदों के प्रभावशाली संदेश प्रदान कर सत्य के पथिक बन के लोगों के जीवन को संवारा समाज में व्याप्त अत्याचार अनाचार शोषण और उत्पीड़न जैसी कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष किया। वैदिक मान्यताओं एवं ऋषि दयानन्द के सच्चे अनुयायी होने के कारण 1977 में संन्यास की दीक्षा लेने के बाद आज भी वैदिक परम्पराओं के अनुसार जिस तरह से लोगों के जीवन को अलोकित कर रहे हैं।
आपका जन्म 1928 में गागड़वास ग्राम में हुआ जो कि पटियाला की रियायत थी। विश्वकर्मा वंशीय आपके माता-पिताओं के दिव्य संस्कारों से जन्में पुत्र रत्न का नाम रखा ब्रह्मदेव । अच्छे संस्कारों में पले-पोषे आप बाल्यकाल से ही आर्य समाज के कार्य कलापों से जुड़कर ऋषि दयानन्द के सच्चे अनुयायी बन गये। आर्य समाज के उत्सवों में प्रारम्भ से ही भाग लेते रहे।
गुरुकुलों में विद्याध्ययन :- दयानन्द के जीवन चरित्र को पढ़ा और उनसे प्रेरणा प्राप्त कर गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने चले गये। यहाँ पर शिक्षा प्राप्त करने जाने के लिये आपको बाल्यकाल में ही गृह त्याग करना पड़ा। आपने संस्कृत से शास्त्री की एवं हिन्दी से विशारद की शिक्षा प्राप्त की। दिशाहीन समाज को सही मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए आपने वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। आर्ष साहित्य की शिक्षा ग्रहण कर विद्या वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की।
आयुर्वेद वाचस्पति :- उपरोक्त शिक्षा प्राप्त करने के अतिरिक्त आपको लोक कल्याण के लिए ऐसी शिक्षा भी प्राप्त करनी थी जिसके द्वारा स्वस्थ समाज निर्माण की संरचना की जा सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य चारों पुरूषार्थ - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्राप्त करना है इनका मूल आधार भी निरोगता ही है, तभी व्यक्ति चारों पुरूषार्थ प्राप्त करने का सामर्थ्य रख सकता है। अतः आपने पीड़ित मानव का सुखमय जीवन बनाने के उद्देश्य से ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद विषय से 'आयुर्वेद वाचस्पति' की उपाधि प्राप्त कर शल्य चिकित्सा का भी अध्ययन करने आयुर्वेद युनिवर्सिटी बम्बई एवं झांसी गये। वहां पर शल्य चिकित्सा का आशातीत अभ्यास किया। आज तो आप देश में कल्पांग के निष्णात विद्वानों में अपनी विशिष्ट पहचान रखते है।
योग साधना- समाधियों से ईश्वर की अनुभूति आपने हिमालय की कन्दराओं में जाकर योग के आठों अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि) को ग्रहण कर योग्याभ्यास किया। ना तपस्विनों योगः सिध्यति- बिना तपस्या के योग सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती। अतः आध्यात्म क्षेत्र में दूरदर्शी विवेकशीलता प्राप्त करने के लिये वहां तप किया। यम (अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) नियमी (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) आदि का पालन करते हुए ध्यान योग का पूर्ण अभ्यास किया, और योग साधना के द्वारा आत्मा को परम् तत्व के साथ एकाकार करने के लिए समाधियां लगाकर ईश्वर की अनुभूति का एहसास किया। आत्मा के परम प्रकाश पर मन को केन्द्रित करके ईश्वर चिंतन के साथ ध्यान अवस्था में पहुंचाने के उपरांत अनेक तरह की आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त की।
राजयोगी के अनूठे उदाहरण - तीस वर्ष ब्रह्मचर्य से रहते हुये गुरूकुलों में अध्ययन एवं तप के साथ व्यतीत करने के उपरान्त गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए आपने समान विचारधारा वाली ज्ञानवान सुलक्षणा कन्या डा. सन्तोष से विवाह किया। एक उच्च शिक्षित एवं योगी पुरूष होने पर भी आदर्श गृहस्थ का जीवन यापन करने के लिए गृहस्थाश्रम को अपना लिया। क्योंकि इतिहास भी इसका साक्षी है कि प्राचीन काल में ऐसे व्यक्ति भी थे जो आत्म विद्या व ब्रह्मविद्या के ज्ञाता थे, वे गृहस्थी थे और उन्होंने ब्रह्म प्राप्ति में इसे बाधक नहीं माना। ऐसे गृहस्थी समाज को सही रास्ते पर ले जाने का सहज अधिकार भी रखते हैं। स्वामीजी ने सच्चे गृहस्थ के साथ एक सच्चे योगी बनकर समाज के सम्मुख राजयोगी का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया।
श्रेष्ठतर सेवा का समर्पित :- विवाह के उपरान्त लोक कल्याणार्थ दोनों पति-पत्नी चिकित्सा के कार्य से जुड़कर श्रेष्ठतर सेवा करने के लिए प्रयत्नशील हो गये। "सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तुनिरामया" सभी लोग सुखी रहें और सभी कष्टों और रोगों से दूर रहें को चरितार्थ करने को समर्पित हुये। इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ ख्याति भी प्राप्त की। पीड़ित व्यक्तियों की बहुत सी जटिल बीमारियों को ठीक कर असाध्य रोगों से मुक्त कराया। इसके लिये आपने हिमालय व अरावली क्षेत्र में कई दिनों पैदल यात्रायें भी की और वहां इस तरह की अमोधकारी औषधियों की तलाश की, जिनका उपयोग असाध्य एवं भयंकर बीमारियों के उपचार हेतु आज भी कर रहे हैं और ये अमृत सिद्ध हुई। उपरोक्त चिकित्सा कार्य से ही ईमानदारी व परिश्रम से अर्जित अपनी आय में से पारिवारिक निर्वाह करने हेतु सीमित खर्च करे बची हुयी राशि को लोक कल्याण से कार्य में लगाते रहे। इसी दौरान में आपके दो संतान हुई, उनको उच्च शिक्षा दिलाने के साथ सुसंस्कारित कर सुयोग्य बनाया।
नवजागृति लाने में अहम भूमिका - आर्य समाज महेन्द्रगढ़ के 32 वर्ष तक प्रधान के पद पर श्रेष्ठतम् सेवा देकर लोगों को पतन से उठाकर उन्नति की ओर ले जाने के लिए आपने समाज में नव जागृति लाने में अहम् भूमिका निभाई । आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार किया। और आपने इसी उद्देश्य से दक्षिणी हरियाणा वैदिक विचार प्रचार प्रसार समिति महेन्द्रगढ़ की स्थापना की। मनुष्य को जिस ईश्वर प्रदत्त ज्ञान प्रदान करने की आवश्यकता है वह ऐहिक व पारलौकिक ज्ञान, भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण संपूर्ण ज्ञान वेदों में हैं। अतः वैदिक ज्ञान अर्जित करने हेतु एक ही स्थान पर वैदिक पुस्तकें उपलब्ध हों इसके लिए वहीं पर आर्य पुस्तकालय की स्थापना की। नित्य प्रति वेद विधि से यज्ञ किया जाए सभी जन भाग लेकर लाभान्वित हों एवं उनकी सभी सम्पदाएं सिद्ध हो इसके लिए यज्ञशाला का निर्माण कराके उनके जीवन में नव संचार उत्पन्न कराने का आधार तैयार किया।
परोपकाराय पुण्याय का सिद्धान्त अपनाकर अनेकों भलाई के पुण्यकार्य कर रहे हैं। आयुर्वेद चिकित्सा के अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से भी जटिल बीमारियों के उपचार के लिए प्राकृतिक एवं योग साधना की स्थापना करने के उपरान्त अनेकों को लाभान्वित किया जा रहा हैं, विभिन्न शिक्षा संस्थाओं गुरूकलों व वैदिक आश्रमों को मुक्तहस्त से दान देकर शिक्षा के प्रचार-प्रसार को तो बढ़ावा दे ही रहे हैं वहीं उनके विकास का मार्ग प्रबल बना प्रोत्साहित कर रहे हैं। गोवंश को बचाने के लिए गौ एवं गौशालाओं को संक्षण प्रदान करने के लिये आपका अतुलनीय सहयोग रहा है। वृद्धों के लिए वृद्ध आश्रम की स्थापना, कन्याओं के लिए कन्या पाठशाला की स्थापना आदि जनहित के अनेकों कार्य करवा चुके हैं। आमजन को आर्य संस्कृति से जोड़ने के लिए अपने जन्म स्थल गागड़वास ग्राम में आर्य समाज मंदिर का निर्माण कराकर चिरकाल तक सभी के लिए प्रेरणा स्थल बना दिया।
युवावस्था में देश के प्रति सेवाभावी भावनायें इतनी अटूट रही कि आपने अनेकों आंदोलनों में भाग लिया। जिनमें मुख्यतः फरीदकोट लोहारू, पटौदी, टुजाना, जींद व प्रजामंडल के थे।
आपने प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ चरित्र निर्माण एवं सद्गुणों का अभिवर्धन को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया। सदभावना, शालीनता एवं सुसंस्कारित जैसे गुणों से समाविष्ट हो देव तुल्य व्यक्तित्व को बनाया और योग से मोक्ष तक मार्ग के अनुगामी बने। वेदों व शास्त्रों के मूर्घन्य विद्वान के रूप में विशिष्ट पहचान बनाई। युवकों को श्रेष्ठ चरित्र निर्माण की शिक्षा देना और शिविर लगाकर योग्याभ्यास कराते। शारीरिक विकास हेतु ओज तेज, बल, स्मरणशक्ति, आत्मबल प्राप्त करने, आध्यात्मिक उन्नति एवं परमात्मा से संबंध स्थापित करने पर जोर दिया।