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महात्मा भूरी बाई

"महात्मा भूरी बाई अलख" का जन्म राजसमन्द जिले के लावा सरदारगढ़ गाँव में संवत् 1949 में आषाढ़ शुक्ला 14 को एक सुथार परिवार में हुआ। माता का नाम केसर बाई और पिता का नाम रूपा सुथार था।
रूपाजी अत्यंत कुशल कारीगर थे और बड़े ही सात्विक, धर्मात्मा और बुद्धिमानी होने से उनकी समाज में और तत्कालीन ठिकाने सरदारगढ़ में बड़ी प्रतिष्ठा थी। पिता जी बड़े ईश्वर भक्त और पुण्यात्मा थे। दयालु इतने थे कि एक दिन उनके मकान में एक चोर घुस गया व उनके घर के लोगों के जग जाने से उसे खाली हाथ भाग जाना पड़ा, जिसका भी उसको रंज हुआ। उन्होंने कहा कि भरे घर में से बेचारा यों का यों ही चला गया। सीढ़ियों पर रखे हुए कुछ बर्तन ही ले जाता तो उसके काम आते।
बाई भी बचपन से ही दयालु और धर्म प्रिय थी। संवत् 1956 के अकाल में पास-पड़ोस के बच्चे जो भूखे होते उनको घर से जाकर रोटी खिला देते थे और मवेशियों के साथ बहुत दया और स्नेह का बर्ताव रखते थे। इनका यह स्वभाव आजीवन रहा। इनके घर के मवेशी बाई के हाथ का कोमल स्पर्श और दिया हुआ चारा-दाना प्राप्त करने के लिए सदा उत्सुक रहते थे और उनको देखकर प्रेमपूर्वक रंभाते थे।
तेरह वर्ष की अल्पायु में भूरी बाई का विवाह नाथद्वारा के एक अधेड़ आयु के धनी चित्रकार फतहलाल सुधार के साथ कर दिया गया। इस बेमेल विवाह के नतीजे अच्छे नहीं हुए। विवाह के दो-तीन बरस बाद ही फतहलाल जी को श्वास का रोग हो गया जो बहुत इलाज कराने पर भी बढ़ता गया।
नाथद्वारा में घर के काम व पति की सेवा से निवृत्त होने पर योग अभ्यास भी करने लग गए। उनका शरीर बहुत स्वस्थ था, जिसे निर्बल करने के लिए उनकी थाली में जो कुछ भी बच जाता उसी को खा-पीकर दिन निकालने लगे। इससे कभी-कभी तो उनके पूर्णतया निराहार रह जाने की भी नौबत आती रही। पति के इलाज में बाई ने किसी प्रकार की कसर नहीं रखी। पैसे को पानी की तरह बहाकर जो भी औषधि बताई जाती उसका सेवन कराया और दान-पुण्य भी करते रहे।
कालान्तर में पति का बीमारी से देहान्त हो गया तो भूरीबाई के गृहस्थ जीवन में एक भूचाल आ गया और उनका मन धीरे-धीरे संसार से विरक्त होकर प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हो गया। साधना और भक्ति के क्षेत्र में उनमें एक ऐसी तीव्र लगन उत्पन्न हो गई कि कई धर्मपरायण लोग उनसे प्रभावित हुए तथा उनके पास सत्संग करने आने लगे। गृहस्थ जीवन में रहकर सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए भी दार्शनिक विचारों व भक्ति भावना के कारण वे महात्मा भूरीबाई के नाम से विख्यात हो गई। महात्मा भूरीबाई विचारों से अद्वैत की परम समर्थक थी। भूरीबाई दार्शनिक चर्चा में ज्यादा विश्वास नहीं करती थीं। उनका अपनी भक्त मंडली में एक ही निर्देश था-"चुप"। बस चुप रहो और मन ही मन उसे भजो, उसमें रमो। बोलो मत 'चुप' शब्द समस्त विधियों का निषेध है। बोलनेकहने से भ्रम पैदा होता है, बात उलझती है और अधूरी रह जाती है। इसीलिए ब्रह्मानन्द को अनिर्वचनीय माना गया है। उसे अनुभव तो किया जा सकता है पर कहा नहीं जा सकता। भूरी बाई सबको कहती "चुप"। बोले मत, उसे ध्याओ, उसमें रमो, उसको भजो। बाकी सब बेकार। महात्मा भूरीबाई कोई मामूली हस्ती नहीं थी। अध्यात्म जगत् में भूरीबाई के नाम, उनकी भक्ति और ज्ञान की प्रसिद्धि पाकर ओशो, रजनीश जैसे विश्व प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक भी उनसे मिलने आए थे और भूरीबाई की भक्ति व दर्शन की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। विख्यात सन्त सनातन देव जी और अनेक दार्शनिक, ज्ञानी, भक्त, महात्मा, कई रियासतों के ठाकुर, अन्य खास व आम लोग बिना बुलाए इस साधारण सी अल्प शिक्षित विधवा से बार-बार सान्निध्य पाकर मार्गदर्शन हेतु आते रहते थे।
मेवाड़ के महान् तत्त्वज्ञानी संत बावजी चतुरसिंह जी भी भूरीबाई से चर्चा हेतु आया करते थे। महात्मा भूरीबाई भजन पर जोर देती थी तथा सांसारिक बातों से बचने की सलाह देती, लेकिन संसार के सभी कर्तव्यों को पूरा करने का भी आग्रह करती। उनकी चर्चा का माध्यम प्राय: मेवाड़ी बोली ही रहती थी। मेवाड़ी में ही सहज बातचीत करते हुए ही वे ऊंचे से ऊँचे तत्त्व ज्ञान की बात कह देती थी।

सद्गुरु प्राप्ति व अज्ञान निवृत्ति

भूरीबाई भोजन व निद्रा में खूब संयम रखतीं। दिनों दिन उनकी भगवत्भक्ति बढ़ती गयी। साधना की सफलता अर्थात् भगवत्प्राप्ति हेतु जीवन में कोई समर्थ मार्गदर्शक न होने की उनके हृदय में गहरी पीड़ा थी। इससे वे सद्गुरु प्राप्ति की तड़प से व्याकुल होकर एकांत में बैठ के घंटों तक रुदन करती थीं। ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के बिना भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग कौन दिखा सकता है। संत टेऊँराम जी ने कहा है -
गुरु बिन रंग न लागहीं, गुरु बिन ज्ञान न होय।
कहें टेऊँ सतगुरु बिना, मुक्ति न पावे कोय।।
गुरु बिन प्रेम न उपजे, गुरु बिन जगे न भाग।
कहे टेऊँ तांते सदा, गुरु चरनों में लाग।।
सदगुरु का संग माँग और पूर्ति का प्रश्न है। अगर सच्चे हृदय की माँग हो तो पूर्ति होकर ही रहती है, यह अटल नियम है। हृदयपूर्वक पुकार के फलस्वरूप एक दिन भूरी बाई को ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष चतुरसिंह जी महाराज के बारे में मालूम हुआ। वे उनका दर्शन-सत्संग प्राप्त करने हेतु उदयपुर पहुँच गयीं। बाई को साधना करते-करते 9 वर्ष बीत गये थे। सद्गुरु ने उनकी साधना संबंधी सारी बातें सुनी व बताया कि "अभी आपको आत्मज्ञान नहीं हुआ है।" यह सुनकर भूरी बाई को तब इतना गहरा आघात लगा। उन्हें अब तक यह अभिमान था कि 'हम तो महात्मा, योगिनी हो गयी हैं' और गुरुजी ने तो हमें अज्ञानी बता दिया। वे सोचने लगी कि 9 वर्ष की साधना धूल हो गई।
सद्गुरु चतुरसिंह जी ने संत ज्ञानेश्वर जी की 'अमृतानुभव' टीका दी, जिसे पड़ने पर बाई को स्वयं अनुभव होने लगा कि 'वास्तव में अब तक मैं अज्ञानी थी।' सद्गुरु ने कुछ सत्साहित्य भी उन्हें पढ़ने हेतु दिया। सद्गुरु द्वारा रचित सत्साहित्य का स्वाध्याय किया तो उनको सद्गुरु के वचनों का मर्म समझ में आने लगा।
भूरी बाई को सद्गुरु की कृपा व उनके उपदेश से तीसरे ही दिन आत्मज्ञान हो गया। कहीं भटकने की जरूरत नहीं, ठिकाने (अपने आप में) बैठ जाने की ही बात है। सब कल्पना तत्काल मिट गयी। जगत है, जैसा है, सार-असार कुछ भी नहीं। आत्मा का तीनों कालों में न कुछ बिगड़ा है न कुछ सुधारना है। इसलिए साधना-क्रम ही निरर्थक हो गया। अपार शांति अनुभव में आ गयी। आँख खुलते देर थोड़े ही लगती है। अब तक साधना पर बल और हठयोग अभिमान था, जो पलभर में सद्गुरु द्वारा ज्ञानयोग का महत्व समझ में आते ही हट गया। आत्मज्ञान हो गया।
आत्मज्ञान सन् 1928 के करीब हो जाने के बाद बाई ने लोगों से मिलना-जुलना जो अब तक कठोरतापूर्वक नियंत्रित कर रखा था, उसमें धीरे-धीरे ढील देना प्रारंभ कर दिया। इससे उनके ज्ञान और वैराग्य की ख्याति फैलने लगी और उनके जिज्ञास एवं सत्संगी लोग उनसे मिलने के लिए आने लगे। बाई ने अपने पति के जिस मकान में रहकर योग साधना की थी उसका वायुमंडल ही इतना शांतिप्रद हो गया था कि जो भी व्यक्ति उनसे मिलने जाता उसे उस शांति का अनुभव हुए बिना नहीं रहता था। व्यर्थ की बातचीत तो वहाँ हो ही नहीं पाती थी। बाई ने बैठने के स्थानों पर चुप लिखवा रखा था। हरे रंग के कांच से बनाकर दीवार में लगाए इन अक्षरों का प्रभाव और घर का वातावरण सभी आगंतुकों को सहज ही प्रभावित कर देता था। बाई का अध्ययन भी इस बीच काफी बढ़ गया था। कोई साधन प्रश्न करता तो बाई स्वयं उसका उत्तर न देकर उसको वह पुस्तक और उसका संबंधित अध्याय बताकर पढ़ने का निर्देश दे देती थी कि जिससे उस प्रश्न का उत्तर उसे बिना बातचीत के मिल जावे। फिर भी कभी-कभी बाई स्वयं भी उसको स्पष्ट करने के लिए कुछ वाक्य फरमा देती थीं। अपने को विद्वान मानने वाले महाशयों को बाई समर्थ गुरु रामदास का दासबोध पढ़ने के लिए देती थीं। अधिक पढ़े-लिखे साधकों से बाई उपनिषद और वेदांत, सांख्य, योग्य आदि के हिंदी ग्रंथ, उनके भाष्य, संत साहित्य, महर्षि रमण, समर्थ गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर, रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत, अष्टावक्र गीता आदि पड़वा कर सुनते रहते थे। अष्टावक्र गीता सुनना बाई को बहुत पसंद था।
एक बार उनको 6 दिन तक तेज बुखार रहा। उस समय उनकी उम्र 23 वर्ष की थी और विधवा अवस्था थी। वे एक ताँगे वाले चौधरी के यहाँ उसके घोड़ों के लिए अनाज दलने का कार्य करती थीं। वहाँ उन्हें एक मन अनाज दलने पर चार आने मिलते थे। बुखार में उन्होंने काम नहीं किया। सातवें दिन जब बुखार टूटा तो उन्हें भोजन करने की इच्छा हुई, परंतु घर में खाने-पीने को कुछ नहीं था।
एक डिब्बे में उन्हें कुछ पैसे मिले, उनसे कद्दू खरीदकर उबालकर खाया। बाद में आधा मन अनाज दला, जिससे 2 आने मिले। उनसे जी का आटा लाकर दो रोटी सेंकी। बुखार के कारण एक तो मुंह का स्वाद जाता रहा, ऊपर से जौ की कोरी रोटी। गले से नीचे नहीं उतरी। भूरी बाई के मन में आया कि मिर्च-मसाला हो तो रोटी खायी जाये परंतु मिर्च-मसाला तो घर में था ही नहीं।
इस तरह तीन दिन तक मन में मिर्च मसाले का चिंतन चलता रहा। “आज मिर्च-साला चाहने वाले मन को मारना ही होगा।" ऐसा निश्चय कर चौथे दिन भूरी बाई जौ की रोटी खाने बैठीं, पर खाते ही उबकान आने लगी और पुन: मिर्च की इच्छा होने लगी। उस समय एक महिला उनके पास बैठी थी।
भूरीबाई ने उससे कहा – “कहीं से थोड़ा गोबर ले आ।" वह महिला गोबर ले आयी।
भूरी बाई ने रोटी पर गोबर रखकर उससे रोटी खानी शुरू कर दी। यह देख वह महिला रोने लगी। वह अपने घर से सब्जी लाकर देने की प्रार्थना करने लगी। भूरीबाई ने कहा-"कोरी सूखी रोटी गले नहीं उतर रही थी, गोबर से गले उतर जायेगी। मिर्च-मसाले के इच्छुक मन को आज यही खुराक खिलानी है। आप चिंतित न हों।"
मन पर विजय पाने में भूरीबाई का यह प्रयोग बड़ा सहायक सिद्ध हआ। मन में स्वाद की वासना मिटते ही आंतरिक स्वाद में मन को विश्रांति मिली, विश्रांति से सामर्थ्य का विकास हुआ। फिर तो उनके वचन से, दर्शन से बहुत लोग लाभान्वित हुए। क्या साधु, क्या संन्यासी, मंत्री और राजे-महाराजे भी भूरीबाई के दर्शन-सत्संग का लाभ ले उन्नत होने लगे।
जिसने अपने मन को वश में कर लिया, समझिये उसने बहुत बड़ा कार्य साध लिया। यह साधारण बात नहीं है। वश में किया हुआ मन हमारा मित्र है तो अवश मन घोर शत्रु। वश में किए हुए मन से व्यक्ति लौकिक व आध्यात्मिक दोनों मार्गों में सफल होता है, वहीं दूसरी ओर चंचल, उच्छृखल, अवश मन व्यक्ति को महान दुःख-कष्टों में धकेल देता है। अतः सत्संग से, साधन-भजन से, प्रयत्न व अभ्यास से तथा भगवद् समर्पण आदि से मन को वश कर लेना चाहिए।
भजन-कीर्तन में पास-पड़ोस की स्त्रियाँ और पुरुष तो आते ही थे पर कभी-कभी नाथद्वारा की दो मेहतरानियाँ भी आया करती थी। उनके गाए हुए निर्गुणी भजन बाई अन्य महिलाओं को याद करा देती थीं, जो उनकी अनुपस्थिति में भी गाए जाते थे। जीवन के अंतिम दिनों तक रामचरित मानस के सुंदरकांड का पाठ बाईस्वयं करते रहीं। सुबह और तीसरे पहर के समय बाई के दर्शन एवं भजन-कीर्तन के लिए आने वालों को बाई के यहाँ चाय पीना अनिवार्य-सा था। बाई की ख्याति बढ़ने के साथ-साथ उनके पास सत्संग की कामना से और संत के दर्शनमात्र से पुण्य लाभ करने की लालसा से लोगों का आना भी बढ़ता रहा। वे किसी का भूखा रहना सहन नहीं कर पाती थीं। खर्च अधिक होने के बाई को रत्ती भर भी चिंता नहीं करती थी। कर्ज बढ़ने पर भगवद् प्रेरणा से कोई एक दो सज्जन ही ऐसे ही आकर इतनी राशि भेंटकर जाते थे कि सारा कर्ज साफ हो जाता था। ऐसे सज्जनों में सन् 1967 के पहले इंजीनियर मीठालालजी भेंट कर जाते थे। ये बाई के निर्धन एवं अनाथ महिलाओं व परिवारों की सहायता हेतु इतने गुप्त रूप से करते रहते थे कि किसी को नीचा न देखना पड़े। अपनी सेवा करने वाली महिलाओं में से भी जो आर्थिक सहायता की पात्र होती उनको भोजन, वस्त्र आदि प्रदान करते रहते थे। साधु-संतों की सेवा और आतिथ्य तो उच्च कोटि का होता ही रहता था। बाई के संपर्क से अनेक स्त्री-पुरुषों के जीवन वर्णनातीत सुधार होता रहा।
सबसे पहले भाई नाथूलाल जी जोशी बाई के पास आने लगे। वे नाथद्वारा में श्रीकृष्ण भंडार में लेखा विभाग में नौकरी करते थे और रहन-सहन एक छैले जैसा था। परंतु बाई ने उनमें भक्त बन जाने की संभावना को पहचान लिया और संभावित बदनामी की परवाह न कर उनको आते रहने की आज्ञा दे दी। धीरे-धीरे उनका जीवन क्रम सर्वथा बदल गया और वे रात-दिन बाई की शरण में ही निवास करने लगे। परंतु बाई उनका संपूर्ण वेतन उनके परिवार वालों को ही दिलवाती रही। नाथूलाल जी भाई भजन-कीर्तन में कुशल थे और कीर्तन के दैनिक कार्यक्रम के मुखिया थे। उनका हृदय अत्यंत पवित्र और व्यवहार अत्यंत स्नेहपूर्ण था। सन् 1967 के प्रारंभ में जब बाई पुष्कर विराजती थी, उनका नाथद्वारा में हृदय की गति रूकने से स्वर्गवास हो गया। नाथूलाल जी के संपर्क में आने के कुछ समय बाद ही बाई के साधनाकाल में ही भाई घासीरामजी मिस्त्री, उदयपुर वाले भी बाई के संपर्क में आ गए और आवागमन बढ़ते-बढ़ते के मुख्य पुरुष सेवकों में परिगणित हो गए। अंतिम समय तक उन्होंने बाई की सेवा रात-दिन दत्तचित्त होकर की। घासीरामजी के बाद भाई कालीदास जी भाटिया, नाथद्वारा वाले बाई के संपर्क में आए। वे वकालत कर रहे थे और अपनी प्रखर बुद्धि एवं निष्कपट व्यवहार के कारण वकालत में सफलता की ओर अग्रसर हो रहे थे। परंतु बाई के संपर्क में आने से अध्यात्म में रूचि हो गई और वकालत का काम शिथिल करते-करते छोड़ ही दिया। विवाहित पत्नी का सर्वधा त्याग कर गृहस्थी से पूर्ण रूप से मुख मोड़ लिया और पूरे समय बाई की सेवा में रहते हुए ध्यान और जप आदि में समय व्यतीत करने लगे। आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन गहन रूप से करते रहे। बाई के पुस्तकालय का संग्रह, संरक्षण और सदुपयोग कालीदास जी का विशिष्ट कार्य करता था, क्योंकि बाई की रसोई और शारीरिक सेवा तो अधिकतर उनके संरक्षण में दिन रात रहने वाली महिलाएं फूलाबाई और गोदावरी बाई व बाद में टमू बाई करती थी। बाई के उपदेशों और शास्त्रों का सार समझकर कालीदास जी ने सुजाण बावनी नामक दोहों का संग्रह लिखा जिससे उनका गहन ज्ञान प्रकट होता है।
बाई सभी को चुप रहने को कहती। उनका यह विचार एक दोहे के रूप में बहुत लोकप्रिय हो गया -
चुप साधन चुप साध्य है, चुप मा चुप समाय।
चुप साध्यां री समझ है समझियां चुप व्है जाय।।

भूरीबाई के चुप साधन का रहस्य :
भूरीबाई की भक्ति अभी तक की नवधा भक्ति में अलग ही थी। भूरीबाई सभी को चुप रहने को कहती थीं। वो कहती कि सभी पाप और अज्ञान की जड़ जीभ ही है। किसी को कुछ मत बोलो और मन ही मन शांत हो जाओ। एक सधे सब सधे, सब सधे 100 सधे। यानि भूरीबाई अपने अंदर की आत्मा को साधने को कहती। सूफी मत में एक किताब अति प्रसिद्ध है, जिसे कौरी किताब कहते हैं। कहा जाता है कि उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं होता। उस किताब के सारे पन्ने खाली होते हैं और देखते-देखते सूफी फकीर ईश्वर को उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी ही भूरीबाई की किताब थी उसका नाम था काली पौथी। बिल्कुल काली किताब। जो भी भक्ति के बारे में भूरीबाई को कुछ कहने के लिए कहता भूरीबाई उससे काली पौथी थमा देती। था उस किताब में कुछ भी नहीं मगर वो साधक को चुप सिखाती थी।
बाई का गिलहरी, पक्षियों, कुत्ते सहित अन्य जीव जानवरों से बहुत प्रेम था। उनके आश्रम में चाय हमेशा बनती ही रहती थी, लोग बड़े भक्ति भाव से उनके पास आते, बैठते थे। महात्मा भूरीबाई को 'अलख' नाम किसी महात्मा संत ने भाव से अभिभूत होकर दिया था। उन्हीं ने एक बार कहा -
बोलना का कहिए रे भाई, बोलत-बोलत तत्त नसाई।
बोलत-बोलत बढे विकारा, बिन बोले का करइ बिचारा।।
पाली जिले के मूंछाला महावीर स्थान पर ओशो शिविरार्थियों से चर्चा करने आते थे। गर्मियों के दिनों में लगे एक शिविर में तो बाई आम लेकर पहुंची। बाई ओशो को पके हुए आम प्रस्तुत करती। ओशो आम को चूसकर रख देते और बाई उनको दूसरा थमा देती। टोकरी भर आम थे। जब ओशो को ध्यान आया कि वे जो आम चूस रहे थे, वह गया कहाँ। कौन बताता भला। वे सारे के सारे आम बंटकर प्रसाद हो गए थे। एक बार ओशो ने बाई से कुछ लिखने के लिए कहा तो उन्होंने 'कालीपोथी' लिखी। बड़ी अनोखी थी यह पोथी। उन्होंने कुछ कागज मंगवाए और उनको पूरी तरह काजल से पोत दिया। कहीं कुछ दिखाई न दे ऐसा और मुखपृष्ठ पर बाई ने लिखवाया-राम। इस पोथी के महत्व को भाषा दी थी ओशो ने अपने प्रवचन में। भूरीबाई ने पूरा जीवन मौन के महत्व के साथ जीया। कोई कुछ पूछता, पत्र लिखकर जवाब भी मांगता तो बाई मौन का महत्व ही बताती। श्रीनाथ जी की नगरी नाथद्वारा में आज भी बाई की अपनी माँ जैसी पहचान है।
इस विभूति का देहावसान 3 मई, 1979 ई., वैशाख शुक्ल 7 संवत् 2036 को हुआ। अध्यात्म जगत् में वे आज भी लोकप्रिय है। उनके देहावसान के बाद भी नाथद्वारा स्थित उनके छोटे से आश्रम पर प्रति सप्ताह लोग सत्संग करने आया करते हैं। उनके नाम पर बहुत से जन सेवा हेतु संस्थाएं चल रही हैं, जिनमें से उदयपुर की "अलख नयन मंदिर नेत्र संस्थान" उल्लेखनीय है, ये संस्था ग्रामीण क्षेत्रों में नेत्र-चिकित्सा हेतु चिकित्सा शिविर आयोजित करती है व जनता की सेवा कर रही है।