श्री श्री 108 श्री स्वामी भीष्म जी
स्वामी भीष्म जी महाराज का जन्म ७ मार्च १८५९ गांव घरौंडा (कुरुक्षेत्र) के सामान्य ग्रामीण पांचाल ब्राहाण परिवार में हुआ था। आपके माता पिता पांचाल दम्पति श्री बारु राम व श्रीमती पार्वती देवी के कोख से दो पुत्र व पुत्री का जन्म हुआ जिनमें से स्वामी सबसे बड़े थे। इनके बचपन का नाम लाल सिंह था। जो स्वामी भीष्म के नाम से विख्यात हुए।
बच्चे को रस्सी से बांधकर, एक चक्र बनाया गया और बीच में उसकी माँ बैठ गई। बच्चे को इस चक्र के चारों ओर घूमाया जाता था। बच्चे के थक जाने और खड़े हो जाने पर मां कहती कि और भागो, खूब भागो, मैं तुझे दूध और जलेबी दूँगी। इस प्रकार बच्चा और भागता तथा पूरे जोर से भागता। अच्छी प्रकार थक जाने पर उसको उबला दूध और उसमें जलेबी डाल कर दी जाती। बच्चा जी भर कर खाता और माँ की ओर देखकर मुस्कराता। माँ उस बच्चे को कहती मैं तुझे अखण्ड ब्रह्मचारी बनाऊंगी तथा तुझे ब्राह्मणों द्वारा दिये गये अपमान का बदला लेना होगा। यह सुनकर बच्चा तमतमाता और अपनी मां द्वारा कहे गये वाक्य को दोहराता।
इनकी माता की चाह थी कि लाल सिंह अपने जीवन में महान पुरूष बनें। बालक लाल सिंह के मन में भी कुछ ऐसे ही अंकुर फुटने लगे क्योंकि होनहार विरवान के होते चिकने पात। अतः बचपन से ही इन्हें दण्ड बैठक और कुश्ती करने का शौक लग गया। इन दिनों दो आने सेर की जलेबी और घर में रखी गई गौ का दूध पीकर बालक लाल सिंह ने अपना बचपन पूरा किया । जवानी के दिनों में लाल सिंह का एक समय का भोजन सामान्यतः एक थाली भर बाजरे की खिचड़ी, एक पाव घी तथा डेढ़ दो सेर दूध होता था।
इन्हें बचपन में पाठशाला में बिठाया जरूर किन्तु वह अधिक पढ़ न सके। जब इनकी आयु मात्र 12 वर्ष की ही थी इनके सिर से इनके पिताजी का साया उठ गया। तब परिवार के भरण पोषण के लिए इन्होंने अपना परंपरागत लोहा, लकड़ी व चिनाई का कार्य प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार इनके संघर्ष पूर्ण जीवन की शुरूआत हुई।
गांव वालों के झगड़े से तंग आकर इस परिवार को अन्ततः पैतृक गांव छोड़कर 1870 में जब आपकी आयु केवल 10-12 वर्ष थी, तो करनाल से 3 मील दूर पूण्डरक गांव में शरण लेनी पड़ी। यहीं चन्दन पांचाल नामक एक युवक ने इसनके परिवार की रक्षा की तथा दोनों भाईयों को चिनाई (भवन निर्माण) का काम सिखाया।
मात्र १७ वर्ष की आयु में कानपुर एक विशाल दंगल में एक अंग्रेज पहलवान डेविड को हराकर भारतीयों का मान बढ़ाया और 1100 रूपये का पुरूस्कार प्राप्त किया।
जिला करनाल के ही बड़ा नामक गांव के बख्तावर ने स्वामी दयानन्द से प्रभावित होकर, दोनों भाईयों (लाल सिंह तथा निहाल सिंह) का यज्ञोपवित संस्कार किया। यह गांव भी ब्राह्मण प्रमुख था। इस घटना से ब्राह्मणों की पंचायत में तूफान आ गया। मामला तहसीलदार तक पहुंच गया तथा आपको कमरे में बन्द कर दिया गया। इस घटना से तंग आकर आप कमरे की खिड़कियां तोड़कर, तहसीलदार को गालियां देते हुए ऐसे भागे कि उनके हाथ नहीं आये और कानपुर जाकर फ़ौज की 62वीं पलटन में भर्ती हो गये । परन्तु फौज में जाने से अभिप्रायः आपका उद्देश्य राजसेवा अर्थात् आजीविका नहीं था। आपका मुख्य उद्देश्य तो केवल हथियार (बन्दूक) हथियाना ही था। अंधेरे का लाभ उठाकर पहरेदार से बन्दूक छीन कर भागे और मेरठ आकर बन्दूक के बदले में पिस्तौल ले ली। गांव आकर दुश्मनों से गिन गिन कर बदला लिया, परन्तु भगौड़ा जीवन से तंग आकर साधु बनने की योजना बना ली।
सन् १८७७ में क्रान्तिकारियों से सम्पर्क हुआ। सन् १८७८ में कानपुर जाकर फौज में भर्ती हुए और कान्तिकारी साथियों की योजना के अनुसार ट्रेनिंग पूरी होने के बाद फौज से एक बन्दूक, एक पिस्टल और कुछ कारतूस लेकर भागे जो मेरठ के एक जंगल में उन्हीं क्रान्तिकारी साथियों को सौंपकर फरार हो गए।
उदासी साधु योगीराज से सम्पर्क किया तो उसने फटकार दिया कि जवान लड़कों का क्या भरोसा कि "किसी जवान औरत पर मर जाये और साधु-चौला को बदनाम कर बैठे।" परन्तु लाल सिंह ने तो साधु बनने की ठान ली थी, सो सन् १८८१ में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हुए गन्नौर के पास सतकुम्भा के तालाब पर गये और इन्द्रिय हनन कर दिया। इसी कार्य करने से लालसिंह 'भीष्म' और फिर 'स्वामी भीष्म' बना। तब इनको संन्यास की दीक्षा प्रदान हुई और इनका नाम आत्म प्रकाश रखा गया। इस प्रकार कठोर भीष्म कर्म करने के कारण जनता उन्हें भीष्म के नाम से पुकारने लगी। तब से स्वामी जी का तन, मन, धन सर्वस्य आर्य समाज व विश्वकर्मा समाज के मिशन के लिए पूर्णतया समर्पित रहा।
गुरु की आज्ञा थी कि आप 12 वर्ष तक किसी गांव में प्रवेश नहीं करेंगे और तीन दिन से अधिक किसी भी स्थान पर रात्रि विश्राम नहीं करेंगे। इस आज्ञा को आपने 12 वर्ष के स्थान पर 22 वर्ष तक पूरा किया।
1881 में दीक्षा लेने के पश्चात्, भ्रमण काल में ज्ञान स्वरूप नाम वेदान्ती साधु के पास विचार सागर, वृति प्रभाकर, पन्चदशी तथा वेदान्त सूत्रों पर शंकर भाष्य ग्रन्थ पढ़े। इस अध्ययन से भीष्म जी कट्टर वेदान्ती बन गये। हरियाणा में बलि नामक ब्राह्मण प्रधान ग्राम में पं. हरफूल ने आपकी कुटिया बनाई।
उन दिनों देश के आर्य समाज के युग प्रवर्तक स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों की धूम मची हुई थी तब उनका झुकाव आर्य समाज की ओर हुआ। सन् १८८६ में महर्षि दयानन्द जी के अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर आर्य समाजी बने। इसी गांव में आपको सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक पढ़ने को मिली। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपने अपने पिछले 37 वर्ष व्यर्थ गंवाये माने। इसके उपरान्त आपने शीघ्रताशीघ्र आर्य समाज में प्रवेश करके, अपना प्रथम उपदेश खानपुर ग्राम में दिया। इससे गांव वाले क्षुब्ध हो गये और इन पर पिस्तौल से हमला कर दिया। हमलावर को इन्होंने धर दबौचा। परन्तु साधु और झगड़े का मेल नहीं समझकर इस गांव को छोड़ दिया और यमुना किनारे पर देशाटन शुरू कर दिया। इसी बीच रोहतक जिले के एक गांव में हरद्वारीलाल मिस्तरी से 22 रूपये में एक हारमोनियम मोल ले लिया तथा भजनों के माध्यम से उपदेश देने लगे।
वेदादि शास्त्रों तथा देव दयानन्द कृत ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। स्वामी भीष्म जी महाराज ने ९६ वर्ष तक आर्य समाज का प्रचार किया। स्वामीजी ने लगभग २५० पुस्तकें लिखीं, जिनमें से १३५ पुस्तकें उपलब्ध हैं, ९० विद्वान आर्य भजनोपदेशक तैयार किये जो सम्पूर्ण भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन, समाज सुधार और वैदिक धर्म का प्रचार करते रहे। सन् 1907 में स्वामी जी ने एक भजन मण्डली, जिसमें ज्ञानेन्द्र, झण्डू तथा मजीद शेख सम्मिलित थे, तैयार की, जो यहीं आश्रम में ही अभ्यास करते थे तथा रात्री को स्थान-स्थान पर जाकर प्रचार उपदेश देते रहते थे। आज भी उनकी शिष्य परम्परा के हजारों शिष्य देश-विदेश में वैदिक धर्म के प्रचार व समाज सुधार के कार्य में संलग्न है।
1909 में फजलदीन नामक मुसलमान कई हिन्दू स्त्रियों को रोके हुए था, पता लगने पर स्वामी जी अपने शिष्यों सहित वहाँ पहुँच गये, उन अबलाओं को छुड़ा कर गाजियाबाद आर्य समाज में ले आये तथा वहाँ के प्रधान हरशरण दास के सहयोग से उनका विवाह हिन्दू युवकों से करा दिया ।
सन् १९११ में स्वामी श्रद्धानन्द जी से आपकी भेंट हुई, उनके द्वारा संचालित शुद्धि सभा में 3 वर्ष तक स्वामी भीष्म जी ने काम करते हुए, भटके हुए हजारों धर्मान्तरित हिन्दुओं को शुद्ध करके पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया। सन् १९१९ में अंग्रेजों के रोलेट एक्ट के विरुद्ध दिल्ली में स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ सत्याग्रह में ब्रहाचारी भीष्मजी ने भाग लिया। सन् १९१९ से १९३३ तक स्वामी भीष्म जी हिण्डन नदी के किनारे करैहडा गांव के जंगल में संस्कृत पाठशाला चलाते रहे जो वास्तव में क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल था, जहां चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, असफाकउल्ला खान, लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह और रामचन्द्र जी विकल आदि आकर अपनी गतिविधियों को गति देते और स्वामी जी से सहायता प्राप्त करते थे। सन् १९३५ में आपने घरौंडा में भीष्म भवन की स्थापना की। इस काल में अंग्रेज सरकार ने घर पर तिरंगा झण्डा लगाना अपराध घोषित किया हुआ था किन्तु ब्रिटिश सरकार के विरोध के बावजूद घरौंडा शहर में भीष्म भवन पर तिरंगा झण्डा १९४७ में देश आजाद होने तक शान से लहराता रहा। क्रांतिकारियों के लिये स्वामी जी का करेहड़ा ग्राम स्थित आश्रम बहुत सुरक्षित अड्डा था। जंगल में हिण्डन नदी के किनारे मां भारती के सपूत स्वामी जी के साथ अपनी अनेक लाभकारी योजनाऐं बनाते थे।
हैदराबाद निजाम के विरुद्ध हुए हैदराबाद सत्याग्रह में स्वामी भीष्म जी ने भूमिगत रहकर अद्वितीय कार्य किया। स्वामी जी की प्रेरणा से उत्तर भारत से हजारों आर्य वीरों ने दक्षिण हैदराबाद जाकर निजाम की जेलों को भर दिया था। स्वामी जी की प्रेरणा से ही हरियाणा में सर्वाधिक अकेले घरौंडा शहर से २२ स्वतंत्रता सैनानी हैदराबाद राज्य की जेलों में गए। १७ अप्रैल १९३९ में स्वामी भीष्म जी ने गुरूकुल घरौंडा की स्थापना की और अपने विद्वान शिष्य स्वामी रामेश्वरानन्द जी को सौंप दिया। इसी गुरूकुल में से हजारों वैदिक विद्वान तैयार होकर निकले जिन्होने देश-विदेश में देश और धर्म का काम किया।
सन् १९४० में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने दिल्ली के कम्पनी बाग में देश के नौजवानों की एक विशाल सभा की जिसमें स्वामी भीष्म जी ने सुभाष बाबू को सेना तैयार करके अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देते हुए अपनी एक कविता सुनाई:
कहने सुनने का जवानों जमाना नहीं।
जवानी सफल होगी किश्ती पार करने से।
जवानी सफल हो क्रांति का प्रचार करने से।
जवानी सफल हो सेना के तैयार करने से।
पैर पीछे वक्त पर हटाना नहीं।
सुभाष चन्द्र बोस ने स्वामी जी की इस कविता को अपने पास रखते हुए आश्वासन दिया कि स्वामी जी महाराज परमात्मा आपकी यह इच्छा अवश्य पूरी करेगा। सभी जानते हैं कि सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन कर अंग्रेज सरकार की जड़ों का हिला दिया था।
सन् 1959 में हिन्दी रक्षा आन्दोलन में भी स्वामी जी ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। अपने जत्थे का नेतृत्व करते हुए आप अम्बाला देहली और फिर वहां से 126 आदमियों के साथ चंडीगढ़ पहुँचे। वहाँ ला. जगत नारायण स्वामी जी से मिलकर हैरान हो गये, जिनके साथ केवल 10-11 ही आदमी थे। दूसरे दिन के सत्याग्रह में स्वामी जी को पकड़ कर जेल भेज दिया गया। वहाँ भी स्वामी जी रोज ही यज्ञ हवन करते उपदेश देते तथा भजनों के माध्यम से क्रांतिकारी विचार लोगों को देकर उनका मनोबल बनाये रखते ।
गौ रक्षा आन्दोलन में भी स्वामी भीष्यम जी ने सक्रिय भाग लिया। इनको तिहाड़ जेल भेज दिया गया, जहां जगतगुरू शंकराचार्य निरंजन देव पुरी वाले भी अपने जत्थे सहित पहिले से ही अन्दर थे। विचारों के मतभेद होने से वहां शंकराचार्य जी से काफी तनातनी रही।
स्वामी जी अपनी शिष्य मण्डली में प्रायः भजनोपदेशक ही रखा करते थे। आपने बहुत सारी भजन मण्डलियाँ तैयार कर उ. प्र., देहली, राजस्थान और हरियाणा में आर्य समाज के प्रचार का मार्ग प्रशस्त किया। उन दिनों देहातों में सांग का बहुत प्रचार था और देहातों में यह रंग मंच बनकर उभरा, परन्तु इसमें मनोरंजन और अश्लीलता के अतिरिक्त अन्य सामग्री कम ही होती थी। सांग का प्रभाव कम करने के लिये स्वामी जी ने भजन पुस्तकें लिखनी आरम्भ की।
स्वामी भीष्म जी के भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान व समाज सुधार के कार्यों को देखते हुए सन् १९६५ में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने तथा १९८१ में तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी जी ने स्वामी जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने निवास पर सम्मानित किया था। इसी क्रम में २३ - २४ मई १९८१ में १२१ वर्ष की आयु पूर्ण करने पर स्वामी भीष्म जी महाराज का कुरूक्षेत्र में सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया जिसमें भारत सरकार की ओर से तत्कालीन गृहमन्त्री ज्ञानी जैलसिंह जी अनेक केन्द्रीय मन्त्री सहित, हरियाणा सरकार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री चौ. भजनलाल जी अपने मन्त्रिमण्डल सहित, लाला जगत नारायण जी, पद्मश्री स्वामी कल्याण देव जी तथा शहीद भगत सिंह जी के छोटे भाई सरदार कुलतार सिंह जी आदि अनेक राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक नेताओं ने उपस्थित होकर स्वामी जी का अभिनन्दन किया था। २७ मार्च १९८३ को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी ने स्वामी जी के आश्रम (पांचाल ब्राह्मण धर्मशाला पाण्डू पिण्डारा) में उपस्थित होकर स्वामी भीष्म जी महाराज से आर्शीवाद लिया।
३१ जुलाई १९८३ को कोलकता में पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा राज्यों के आर्य प्रतिनिधी सभाओं व अन्य सामाजिक संस्थाओं के द्वारा समाज सुधार के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान के लिए १२४ वर्षीय स्वामी भीष्म जी महाराज का नागरिक अभिनन्दन किया गया। ८ जनवरी १९८४ को १२५ वर्ष की आयु में प्रातः ३ बजे स्वेच्छा से ईश्वर चिन्तन करते हुए प्राणायाम् द्वारा देह त्याग कर ब्रह्मलीन हो गये।