अजमेर में 26 दिसम्बर, 1907 में जो पं. धनीराम जी के निवास स्थान पर सभा हुई थी उसमें "जांगिडा समाचार" मासिक पत्र भी निकाले जाने का निश्चय हुआ जिसके प्रथम प्रकाशक पं. बृजलालजी शर्मा को और सम्पादक बाबू डालचंदजी शर्मा, मैनेजर श्री बलदेवप्रसाद जी ठेकेदार, संशोधक पं. पालारामजी को बनाया गया और यह भी तय हुआ कि इसे जनवरी, 1908 से निकालना आरंभ कर दिया जावें। जाति के इस पत्र को निकालने में कई उतार-चढ़ाव आये, किन्तु इसके बंद होने की नाजुक घड़ियों में अपीलें कर करके संभाला गया और इसे बराबर चलाये रखा गया।
"जांगिडा समाचार" का सबसे पहला अंक सन् 1908 के जनवरी मास से निकाला जाने वाला था, मगर उसका डिक्लेरेशन शीघ्र न होने के कारण वह और फरवरी का अंक मार्च माह में प्रकाशित हुआ। इसके निकालने के पीछे आशय यही था कि इससे जाति का उपकार करना और शिल्प विद्या का प्रचार करना है। इसमें वहीं लेख निकलेंगे जिनसे विद्या तथा शिल्प-विद्या की वृद्धि और जांगिडा जाति में वैदिक सिद्धांतों का प्रचार हो।
ऐसे उत्तम उपयोगी उद्देश्य के कारण जांगिडा समाचार के द्वारा जाति में चेतना की सुगबुगाहट होने लगी और उन्नति की ओर बढ़ने का उसका मानस बनने लगा। इसी उद्देश्य को सन्मुख रखकर महासभा चलने लगी तो जाति में सुधार होने की आकांक्षा बढ़ने लगी। उसके द्वारा प्रचार हुआ तो जाति को अपनी पहचान और अपने विस्तृत वर्ण का बोध होने लगा।
शुरू-शुरू में जांगिडा समाचार पत्र का सम्पादन कार्य बड़ी कुशलता और लगन के साथ तीन वर्ष तक बाबू डालचंदजी शर्मा ने किया। बाबू डालचंदजी एक नौजवान युवक थे और उत्तरप्रदेश के जहांगीराबाद के रहने वाले थे। वे अजमेर में आकर बस गये। जाति की सेवा करने में उनकी अगाध रूचि थी। वे आगे होकर सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जांगिडा समाचार पत्र का सम्पादन कार्य यह कहते हुए संभाला कि अपने समाज की दशा बड़ी विचित्र देखने में आती है। विद्या की ओर तो हमारे भ्राताओं की अरुचि सी प्रतीत होती है। यह देखकर ही मैंने समाचार पत्र के द्वारा अपने भाइयों की सेवा करने का भार अपने ऊपर लिया है।
तीन वर्ष पश्चात् इस उत्साही युवक संपादक को संपादक के भार से मुक्त होना पड़ा। उन पर एक वज्रपात हुआ। उनकी धर्मपत्नी का देहान्त 24 जून को हो गया जो अपनी निशानी 8 वर्ष की बालिका, डेढ़ वर्ष का पुत्र छोड़ गई।
जब बाबू डालचंदजी को सम्पादक के भार से मुक्त हुए तो अप्रेल 1911 से पं. बुद्धसिंह जी इसके सम्पादक बने। ये भी तीन चार महीने सम्पादन करते रहे, मगर फिर इनके अस्वस्थ हो जाने से यह कार्य नहीं चला तो चिंता हुई।
संपादक परिवर्तन के साथ प्रकाशक बदलने की बात जब आई तो बाबू डालचंदजी ने कहा कि ऐसा करने के लिये सरकारी कानून के मुताबिक पांच हजार रूपये की जमानत दाखिल करनी पड़ेगी इसलिए प्रकाशक पं. बृजलालजी ही रहेंगे। बाकी सम्पादक का काम पं. बुद्धसिंह करते रहेंगे। वे पत्र का सारा मजबून मुरादाबाद से बनाकर अजमेर प्रकाशक को भेज दिया करेंगे। जिसे वे छपाकर ग्राहकों के पास भेज दिया करेंगे। पत्र का मूल्य भी प्रकाशक ही प्राप्त किया करेंगे।
"जांगिडा समाचार" में लेखकों को हिदायतें दी गई हैं उनमें से मुख्य ये है :- लेख किसी उत्तम विषय पर शिक्षाप्रद और लाभदायक हो । लेख की भाषा सरल सर्वसाधारण के समझने लायक हों। किसी खास व्यक्ति व सभा पर वृथा आक्रमण न किया जाये और न अश्लील शब्द प्रयोग किये जायें।
"जांगिडा समाचार" पत्र के मुखपृष्ठ पर पत्र के मुख्य उद्देश्य को विस्तार से इस प्रकार स्पष्ट किया गया, जांगिड जाति का उपकार करना तथा शिल्प विद्या, कला-कौशल, विज्ञान, चित्रकला, कृषि विद्या, शिक्षा धर्म नीति और वेदों का प्रचार करना है।
"जांगिडा समाचार" की उन्नति के लिये कई महाशयों ने अपने विचारों से समय-समय अवगत कराया। पं. जयकिशनदासजी ने कहा कि हर एक शहर में एक-एक शख्श मुकर्रर हो जो लोगों को इसके ग्राहक बनाने की कोशिश करें। इस पत्र में यह भी सूचना आनी चाहिये कि इस जाति के कितने-कितने आदमी कहां-कहां बसते हैं और उनमें कितनी तादाद में शिक्षित हैं।
डालचंदजी ने कहा कि इस पत्र के निकलने की बदौलत ही हम जान पाये है कि हमारे समाज के बहुत से प्रभावशाली विद्वान पुरूष समाज सुधार के काम में लगे हैं और वे जाति में प्रचलित अज्ञान व कुरीतियों को दूर करने कराने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन्हीं का चमत्कार है कि अब जाति में परोपकार एवं जाति हित की भावना पैदा हो गई है। परोपकारी सज्जनों ने इसे आर्थिक सहायता देकर इसे जन्म देने में सहयोग किया।
डालचंदजी ने सुझाव दिया कि इस पत्र को प्रकाशित करने के लिए जाति का ही एक छापाखाना होना चाहिये ताकि इसकी छपाई अच्छी हो और छपाई का खर्च भी कम पड़ेगा। जांगिडा (जोग) वंश अजमेर के प्रधान रामनारायण ने पत्र की उन्नति के बारे में विचार दिया कि जांगिडा समाचार रूपी सूर्य उदय हो गया है अतः अब अंधकार में पड़ा रहना उचित नहीं है। इस पत्र की वैदिक विद्यारूपी किरणें सर्वत्र फैलाओं ताकि समाजोन्नति का चमत्कार हो ।
नसीराबाद के पं. गंगारामजी ने कहा कि जाति की उन्नति का प्रधान कारण जांगिडा समाचार पत्र का निकलना ही है। कुछ लोग इसे लेने में अपनी गरीबी जाहिर करते हैं, मगर ये लोग तम्बाकू–धूंआ उड़ाना छोड़कर इसे ले सकते हैं और कुछ लोग यह कहते है कि इस पढ़ने के वास्ते हमारे पास समय नहीं तो फिर गप्पे लगाने व उड़ाने के लिय समय कहां से मिल जाता है। इसलिये इन्हें तथा अन्य लोगों को इसका ग्राहक बनना चाहिए।
प्रकाशक पं. बृजलालजी ने अपनी रिपोर्ट में जब बताया कि सम्पादन तथा प्रकाशन इत्यादि का कार्य अवैतनिक ही होता है, जिससे इसका बहुत सा खर्च बचा हुआ है और जहां तक हो सकता है इसका खर्च कम रखने की कोशिश की जाती है। इस जाति का यही एक मासिक पत्र निकल रहा है जो एक मात्र उन्नति का साधन है। इसने अपनी ताकत के बाहर कार्य किया है और बहुत कुछ करने की आशा है।
जब बाबू डालचंदजी ने अपने व्यक्तिगत स्थितियों के कारण सम्पादक पद से हटने की पेशकश की तो पं. धनीराम जी ने डॉ. इन्द्रमणीजी का नाम सुझाया, डॉ. साहब ने सम्पादक का कार्य स्वीकार कर लिया व 1912 के लिये पत्र निकाला।
प्रकाशक ने पत्र की नाजुक स्थिति को बताते हुए कहा कि इसके ग्राहकों की संख्या बहुत कम है जिससे मूल्य मात्र से प्राप्त होने वाले धन से इसका खार्च पूरा नहीं हो सकता। इसलिये यदि पत्र को चलाये रखना है तो भाई लोग इसके ग्राहकों की संख्या में वृद्धि कराने का प्रयास करें।
"जांगिडा समाचार" की ऐसी दशा देखकर अजमेर सभा के प्रधान पं. देवकीनन्दन ने कहा कि यह निहायत दुःख की बात है कि अगर जांगिडा समाचार बंद हो गया तो फिर उन्नति का कोई जरिया नहीं रहेगा, जांगिड ब्राह्मण समाज नाम मात्र से ब्राह्मण बन गया है, किन्तु अब तक भी समाज के अधिकांश जन उसी घोर अज्ञान की अंधकार में पड़े हुए हैं ।
डॉ. साहब ने अपना एक वर्ष पूरा करके संपादक के कार्य से मुक्त होने की इच्छा स्वास्थ्य न रहने के कारण व्यक्त की। उन्होंने कहा कि अब उनका शरीर अच्छा नहीं रहता और स्मरण शक्ति भी उनकी कम हो गई है, इसलिए यह काम किसी योग्य स्वजाति बंधु को 1913 से दे दिया जावें।
सन् 1913 से सम्पादक का काम पं. जयकिशनदासजी ने संभाल लिया। उन्होंने पत्र की खस्ता हालत पर अपनी चिंता जताते हुए कहा कि यदि इसकी मौत हुई तो उसके दोषी आप सब लोग ठहरेंगे, क्योंकि इसकी मौत इन कारणों से हो सकती है। धन की कमी, लेखों की कमी और आपस की फूट सो पत्र बंद होने की दशा में, वे दोषी नहीं। अतः आप लोग जल्दी-जल्दी समाजोन्नति विषयक लेख भेजते रहें।
जनवरी 1913 से दिसम्बर 1914 तक दो वर्ष पं. जयकिशन पत्र के सम्पादक रहे।
अक्टूबर 1913 को पत्र को एक भयानक झटका लगा। पीपुल्स बैंक जिसमें पत्र के रूपये 1100/- जमा थे, वह डूब गया फलतः नवम्बर दिसम्बर का एक ही अंक निकला। जनवरी 1915 से पं. डालचन्द शर्मा पुनः सम्पादक बनाए गए। पं. डालचन्द शर्मा का बम्बई स्थानान्तरण हो जाने के कारण नवम्बर 1915 से पं. जयकिशन जी को पुनः सम्पादक बना दिया तथा इन्होंने लगातार अप्रेल 1930 तक पत्र का सम्पादन किया।
जनवरी 1916 में पत्र की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई, ग्राहक संख्या भी घटकर 52 रह गई थी। अतः अप्रेल 1919 से पत्र को अजमेर से दिल्ली लाया गया। दिल्ली के जिला मजिस्ट्रेट ने बिना जमानत के ही इस निर्मित आज्ञा दे दी। पं. जयकिशन जी पत्र के सम्पादन के साथ-साथ इसके प्रकाशक भी बने। पं. जयकिशनदासजी ने जाति सेवा के लिये और जांगिडा समाचार को सुचारू रूप से चलाने के लिये अपना सारा समय देने का निश्चय कर लिया। यह उनका बड़ा त्याग था, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्हें आशा थी कि अब पत्र दिल्ली से समय पर निकलता रहेगा और उसमें लेखकों के लाभकारी उत्तम उत्तम लेख आया करेंगे जिससे समाज में छाये अज्ञान से भरी कुरीतियां दूर होती जावेंगी।
सन् 1917 में पं. भीमसेन शर्मा सम्पादक ब्राह्मण सर्वस्व से पं. जयकिशन जी की ब्राह्मणत्व को लेकर नोकझोंक शुरू हो गई, दोनों पत्रों में उत्तर- प्रत्युत्तर के कारण एक प्रकार का शास्त्रार्थ छिड़ गया और अन्त में दिग्गज पं. भीमसेन शर्मा को शास्त्रार्थ से पीछे हटना पड़ा। शास्त्रार्थ की इस नई विद्या के कारण पाठकों को एक महीने की लम्बी प्रतीक्षा से बचने के लिए संपादक ने जुलाई 1917 में पाक्षिक करने का सुझाव दिया तथा अधिकांश ग्राहकों की सहमति से 15 दिसम्बर 1917 से पत्र को मासिक के स्थान पर पाक्षिक कर दिया जो बारह वर्ष तक पाक्षिक रहा। सन् 1917 का वर्ष प्रथम है जिसमें पत्र के पूरे अंक प्रकाशित हुए ।
वर्ष 1922 में सम्पादक पं. जयकिशन शर्मा के बांकनेर पाठशाला के गवन बनवाने तथा छात्रों को परीक्षा में भेजने की तैयारी में अति व्यस्त रहने के कारण तथा आर्थिक सहायता न मिलने के कारण पहले 9 महीने पत्र का प्रकाशन नहीं हो सका तथा 15 सितम्बर 1922 को भी बड़ी कठिनाई से पुनः चालू किया।
जातीय मुकदमों में जीत के पश्चात् मई 1930 से पं. जयकिशन जी के स्थान पर पं. कृष्णलाल आयुर्वेद शास्त्री को सम्पादक बना दिया गया उन्होंने मई 1930 से जनवरी 1931 तक तथा 1932 के जून अंक का सम्पादन किया। जून 1932 के अंक को छोड़कर पं. मूलचन्द जी ने फरवरी 1931 से अक्टूबर 1934 तक पत्र का सम्पादन किया। सन् 1933 से पत्र का नाम जांगड़ा समाचार के स्थान पर जांगिड ब्राह्मण कर दिया गया। पं. अमीलाल शर्मा ने नवम्बर 1934 से जनवरी 1936 तक पत्र का सम्पादन किया। फरवरी 1936 से जनवरी 1937 तक पत्र का सम्पादन पं. नाथूराम एल.एल.बी. गुड़गांव द्वारा किया गया। फरवरी 1937 से मई 1937 तक चार महीने का सम्पादन कार्य पं. मूलचन्द शर्मा ने किया। जून 1937 से नवम्बर 1938 तक पं. कृष्णलाल शर्मा पत्र के सम्पादक रहे।