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पं. जयकृष्ण मणिठिया

Jai Krishan Manithia


जन्म :
जयकृष्ण जी का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी (कृष्ण जन्माष्टमी) सन 1877 को इनके ननिहाल दिल्ली- नरेला के निकट बांकर्नर ग्राम में हुआ। कृष्ण जन्माष्टमी को जन्म लेने के कारण इनका नाम जयकृष्ण रखा गया। आपके पितामह श्री नत्थूसिंह जी के तीन पुत्र थे - श्री लेखराम छज्जूसिंह तथा रामदयाल जी। आप छज्जू सिंह जी के पुत्र थे तथा आपकी माता पार्वती कृष्ण भक्त थी। जयकृष्ण जी की शिक्षा दिल्ली में हुई जहाँ उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा से आपने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। वे बहुत तीक्ष्ण बुद्धि वाले, प्रतिभा सम्पन, संवेदनशील व खोजी प्रकति व्यक्ति थे। छात्र जीवन में आप ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्गों द्वारा शिल्पी जातियों एवं शिल्प वर्ग को घृणा से देखने की पीड़ा से मर्माहत हुए, जिससे आपके संवेदनशील हृदय को भारी आघात लगा। तभी से वर्ण व्यवस्था तथा जातिवर्ग का भेद का अन्वेषण कर वास्तविकता उजागर करने की आपकी लगन परवान चढ़ने लगी।

दाम्पत्य जीवन :
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था तथा तत्कालीन समाज सुधारक इस कुरीति से जूझ रहे थे। जयकृष्ण जी बाल विवाह की रुढ़ि को तोड़कर 19 वर्ष की आयु में नीमराना (तहसील बहरोड, जिला अलवर, राजस्थान) निवासी गंगाराम जी जो पहाड़ी धीरज में रहते थे, की पुत्री यमुना से विवाह किया। 1998 में आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम दौलतराम रखा गया। पुत्र दौलतराम का विवाह हापुड़ के श्री रामजीलाल की पुत्री ब्रह्मदेई के साथ हुआ।

जीविकोपार्जन :
मैट्रिक उत्तीर्ण करने के साथ आप रेल विभाग में स्टोर कीपर के पद पर कार्यरत हुए। कुछ समय पश्चात रेल सेवा छोड़ कर डाक विभाग की सेवा की और जब यह नौकरी भी जीवन कार्य में बाधक हुई तो जयकृष्ण जी ने पराधीनता का परित्याग कर दिया। शाखा सभा लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन सामाजिक कार्यकर्ता श्री पूर्णचन्द जी की सुप्रसिद्ध सीमल एण्ड कम्पनी से जयकृष्ण जी ने फोटोग्राफी की विधिवत शिक्षा की। कुछ समय लखनऊ में फोटोग्राफी करने के बाद आप दिल्ली आ गए और चावडी बाजार में अपना प्रतिष्ठान स्थापित किया। कुछ ही दिनों में आप बाबू जयकृष्ण फोटोग्राफर के नाम से प्रसिद्ध हो गए। समाज सेवा कार्य में बाधा समझ कर जयकृष्ण जी ने स्थापित प्रतिष्ठान को भी त्याग दिया तथा साहित्य रचनाधर्मी हो गये। पुस्तकें लिखना, शोधपूर्ण सामग्री प्रकाशित करना और उसकी आय से ही संतोष करना, आपकी समाज के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा का प्रमाण था। समाज सेवा सर्वोपरी मानने वाले जयकृष्ण जी ने अपना तन मन धन समाज को अर्पण कर दिया था।

भाषा ज्ञान :
जयकृष्ण जी की शिक्षा उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा में हुई थी। महासभा का कार्य प्रारम्भ किया तो हिन्दी व संस्कृत भाषा सीखी। विश्वकर्मा पुराण गुजराती में उपलब्ध था, उसे जानने के लिए गुजराती भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और प्रसिद्ध पुस्तक विश्वकर्मा और उनकी संतान का गुजराती से हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। विश्व ब्रह्मा कुर्लात्साह नामक ग्रंथ को लिखने के लिए मराठी भाषा का भी पर्याप्त अध्ययन किया और इस ग्रन्थ के दस खण्डों में से दो खण्डो का मराठी भाषा से हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। महासभा के कार्य के विस्तार बंगाल और पंजाब में हो जाने के कारण बंगाली व गुरुमुखी भाषा को भी समझने योग्य ज्ञान अर्जित किया। अनेक भाषाविज्ञ होने से उनमें विलक्षण तार्किक योग्यता थी, फलतः समाज विरोधी भी उनके तेजस्वी व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक हो जाते थे। महासभा को उन दिनों कई न्यायिक लड़ाईयां लड़नी पड़ी थीं। उन के लिए जिरह तैयार करते-करते कानूनी भाषा का भी आपको जबरदस्त ज्ञान हो गया था। आप ज्योतिष विद्या के भी ज्ञाता थे।

विश्वकर्मा साहित्य का सृजन :
पं. जयकृष्ण जी ने विश्वकर्मा साहित्य सृजन करने में अपना सर्वस्व होम कर दिया। व्यवस्था पत्रों के आधार पर शास्त्रार्थ से और न्यायिक लड़ाई में प्रयुक्त साहित्य को एक जगह एकत्र कर उन्होंने प्रमाण संग्रह नाम पुस्तक दो खण्डों में प्रकाशित की। ढोल की पोल, भीमसेन शर्मा से दो-दो बातें, लोहकार वंश खण्डन प्रकाशित की । शिल्पाचार्य विश्वकर्मा, विश्वकर्मा देव की कथा, विश्वकर्मा कुल दीपक, विश्वकर्मा धर्म पत्रिका आदि विश्वकर्मा साहित्य सृजन में आपकी उपलब्धियाँ है।
जांगिड समाज के 18 गोत्रकार ऋषि व 1444 शासन खोज कर गोत्रावली का प्रकाशन किया। 'गागर में सागर' व 'महासभा ने क्या किया कार्य विवरण 1918' तथा महासभा की रूपरेखा आदि पुस्तकों का सृजन किया। ज्योतिष पाठमाला के दो भाग लिखकर ज्योतिष ज्ञान का भी परिचय दिया। ईश्वरोपासना भी लिखी। बिजली की रोशनी, बिजली मशीन मात्र, जोड़ने के मसाले, शिल्पज्ञान आदि आपकी टैक्नीकल प्रकाशित पुस्तकें हैं। भजनावली, लेखक शालिग्राम दीक्षित 1927, मोती की लड़ी, दिल्ली अदालत का फैसला, भैरवपोल प्रकाश, रोसडा शास्त्रार्थ का आपने प्रकाशन किया।

विश्वकर्मा समाज संगठन कार्य :
वैदिक धर्म के पालन पर आपका बहुत आग्रह था। अपने सामाजिक जीवन के 39 वर्षो तक जयकृष्ण जी कुरीति निवारण के लिए परिश्रम करते रहे। शिल्पकर्म को यज्ञकर्म कायम करने के लिए 1928 में अखिल भारतीय विश्वकर्मा महासम्मेलन समस्तीपुर (बिहार) की अध्यक्षता की। सन् 1940 में अ.भा. विश्वकर्मा ब्राह्मण बोर्ड की स्थापना की।

जांगिड ब्राह्मण समाज के केन्द्र बिन्दू :
जांगिड ब्राह्मण महासभा के प्रथम अधिवेशन 1909 पटीकरा में जयकृष्ण जी मन्त्री बने और अनेक अधिवेशनों के प्रधान बने। 1947 तक निर्बाध गति से महासभा के सम्पूर्ण कार्यों को पूरी जिम्मेदारी से निभाया। यथार्थ में उक्त अवधि में ही जांगिड समाज के संघर्ष, उत्थान व सफलता की वास्तविक कहानी है, जिसमें संपन्न हुई समस्त गतिविधियों के केन्द्र बिन्दु पं. जयकृष्ण मणिठिया ही थे। इसी दौरान महासभा की शाखाओं का विस्तार संगठन का प्रसार जातीय श्रेष्ठता की स्थापना की लड़ाई, सामाजिक साहित्य की खोज व प्रकाशन अधिवेशनों का आयोजन, न्यायिक लड़ाई, समाज प्रतिष्ठानों का निर्माण आदि कार्य प्रमुखता से किये गये। आपके प्रयास से 4 अप्रेल 1919 को सरकार से महासभा का रजिस्ट्रेशन करवाया गया। आपके कार्यकाल में महासभा के 29 अधिवेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए। देश के कोने-कोने में संगठन की शाखाएं और प्रान्तों में सम्पन्न अधिवेशनों से समाज में आशातीत एकता बनी। महासभा के बीसवें हिण्डौन (राज.) अधिवेशन में समाज ने आपको गुरूदेव की सम्मानित उपाधि से अलंकृत किया।

उल्लेखनीय संघर्षो में नेतृत्व एवं सफलता :

1. स्वतन्त्रता आन्दोलन : 1930-31 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में संचालित स्वतन्त्रता संग्राम में सत्याग्रह, पिकेटिंग, धरने आदि में जयकृष्ण जी की प्रेरणा से अनेक जांगिड बन्धु / बहनें सम्मिलित हुए और जेल गये। दिल्ली कांग्रेस के 17वें डिक्टेटर होने पर जुलूस एवं सभाएं कर आन्दोलन को चलाया।
2. पं. भीमसेन शर्मा से संघर्ष: 1917 तक जातीय जागृति के सतत प्रयासों से महासभा के कार्या में वृद्धि हुई तो ब्राह्मण सर्वस्व के सम्पादक भीमसेन शर्मा ने जांगिड समाज पर आपत्तिजनक लेख लिखें। जयकृष्ण जी ने जांगिड पत्र के माध्यम से इन लेखों के उत्तर प्रत्युत्तर लिखे, जिससे एक प्रकार का शास्त्रार्थ छिड़ गया। इस लेखन संघर्ष में भीमसेन को हार माननी पड़ी।
3. खत्री सेवक पत्र से संघर्ष : 1918 में दिल्ली के खत्री सेवक नामक पत्र ने जांगिड समाज पर आक्षेप किए जिनका यथोचित उत्तर देकर उन्हें निरूत्तर कर दिया। जयकृष्ण जी ने सीतापुर से प्रकाशित सारस्वत खत्री सेवक को भी इसी प्रकार निरूत्तर कर दिया।
4. सोमानन्द मुल्तान वाले से संघर्ष : 1920 में शोभानन्द मुलतानवाले ने ट्रैक्ट प्रचार पत्र छपवाकर प. जयकृष्ण जी पर अनेक लांछन लगाये, जिससे बाध्य होकर शोभानन्द और प्रिंटींग प्रेस दोनों पर मानहानि का दावा किया। फौजदारी दावे में उलझने से दोनों ने लिखित क्षमा याचना कर जयकृष्ण जी से पश्चाताप का निवेदन किया।
5. जनगणना में ब्राह्मण लिखवाने का संघर्ष : 1921 में पं. जयकृष्ण जी के नेतृत्व में ग्यारह सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल ने लाहौर में जनगणना कमिश्नर से संघर्षपूर्ण तर्क करके जनगणना में जांगिड ब्राह्मण लिखे जाने का आदेश जारी करवाया। 1931, 1941 में भी यही क्रम दोहराया गया।
6. विश्वकर्मा मंदिर पहाडगंज को उठाने का संघर्ष : 1922 में सरकार का इस आशय का नोटिस आने पर जयकृष्ण जी ने जांगिड पत्र, अन्य पत्र- अखबार ज्ञापन व आन्दोलन के माध्यम से इस नोटिस का डटकर विरोध किया। डिप्टी कमिश्नर दिल्ली व चीफ इंजिनीयर रेलवे से संघर्ष कर मन्दिर यथावत रखने में सफलता प्राप्त की।
7. शास्त्रार्थ का चैलेन्ज : 1923 में नारौली ग्राम करौली में वहां के ब्राह्मणों ने विवाह संस्कार विधि को लेकर जांगिड समाज का विरोध किया। जयकृष्ण जी ने वहां पहुंचकर पण्डितों को शास्त्रार्थ करने का आहवान किया, किन्तु कोई सामने नहीं आया। करौली राजदरबार ने उन्हें पूरा सम्मान दिया और समाज का सहयोग किया।
8. इन्तकाल एराजी एक्ट संशोधन का संघर्ष : लुधियाना में महासभा के 10 वें अधिवेशन में जयकृष्ण जी ने पंजाब अंचल के भाईयों की समस्या निवारण में युग प्रवर्तक प्रस्ताव पारित करवाया जिससे इन्तकाल एराजी एक्ट में संशोधन हुआ|
9. समाज के चौधरियों से संघर्ष : उच्च शिक्षा के लिए विदेश गये समाज बन्धुओं की वापसी पर जयकृष्ण जी ने उन बन्धुओं के प्रायश्चित करवाये इससे समाज के चौधरी नाराज हो गये। दिल्ली जांगिड ब्राह्मण पंचायत के माध्यम से जयकृष्ण जी व चौधरियों का मुकाबला हुआ जिसमें पंचायत की विजय हुई |
10. खुश हैसियती टैक्स का विरोध : 1924 में पंजाब सरकार ने दस्तकारों पर 20 रूपया सालाना टैक्स लगा दिया। जयकृष्ण जी के प्रयास से ग्राम बोदवाल (लुधियाना) में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें जगह-जगह आंदोलन करने का निश्चय हुआ। भारी विरोध की योजनाबद्ध क्रियान्विती के कारण पंजाब सरकार को यह टैक्स वापस लेना पड़ा।
11. जायदाद खरीद टैक्स से मुक्ति का संघर्ष : 1924 में बीकानेर रियासत में जमीन जायदाद खरीदने पर चौथाई टैक्स लगता था, किन्तु ब्राह्मण वर्ग को यह टैक्स देने में छूट थी। समाज बन्धुओं की पीड़ा को समझते हुए जयकृष्ण जी ने तहसीलदार की अदालत में अपने शास्त्र सम्मत तर्कों तथा धर्मशास्त्रियों के व्यवस्था पत्रों को प्रस्तुत किया, जिससे जांगिड बन्धुओं को टैक्स से मुक्ति मिली।
12. जाति पर भयंकर आपत्ति, कुओं से पानी लेना बंद करने का महत्त्वपूर्ण आर पार का संघर्ष : 1926 में मारवाड़ी ब्राह्मणों ने मिलकर एक षड्यंत्र के तहत सनातन धर्म परिषद् काशी नाम की सभा बनाई और उसके माध्यम से समाचार पत्रों में छपवाया कि जांगिड ब्राह्मणों ने काशी पण्डितों को प. परशुराम शास्त्री द्वारा धोखा देकर व्यवस्था पत्र लिखा लिया था। वस्तुतः ये लोग ब्राह्मण नहीं वरन शूद्र हैं। यह वृत्त एक साथ देहली के दैनिक हिन्दू संसार, बम्बई के श्री वैंकटेश्वर समाचार, लाहौर के ब्राह्मण समाचार तथा कलकत्ता के मारवाडी ब्राह्मण में प्रकाशित हुआ। इन लेखों से समस्त भारत में तथा विशेषत: राजपूताने में बड़ी खलबली मची। जाटों, गूर्जरों तथा राजपूत बाहुल्य अनेक ग्रामों में कुओं पर चढ़ना तथा उनसे पानी लेना जांगिड बन्धुओं के लिये बन्द कर दिया गया। कहीं-कहीं अमानुषिक अत्याचार भी हुए। जांगिडों का हर प्रकार से बहिष्कार कर दिया गया। महासभा को यह समाचार मिलते ही तुरन्त कानूनी लड़ाई व कार्यवाही शुरू कर दी, जिसका परिणाम हुआ कि अत्याचार करने वालों की जमानत मुचलके करा दिये गये। जयकृष्ण जी अपने संगी- सहयोगियों के साथ काशी गये। तथाकथित सनातन धर्म परिषद काशी की संस्था को शास्त्रार्थ का खुला चैलेन्ज दिया। अजमेर जांगिड सभा ने चेलेन्ज के बड़े-बड़े पोस्टर छपवाये और 11 हजार के पुरस्कार का चैलेन्ज़ देते हुए काशी की गली-गली में पोस्टर चस्पा कर दिए। समाज विरोधी लेख लिखने वाले चारों पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक प्रकाशक तथा परिषद को शास्त्रार्थ करने की खुली चुनौती दी। आश्चर्य कि कोई सामने नहीं आया और ना ही कोई उत्तर ही मिला। फलतः महासभा ने सभी के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने का निश्चय किया। ऐसे कठिन समय में जयकृष्ण जी का जीवटपूर्ण नेतृत्व समाज को मिला जिन्होंने अपनी संगठन क्षमता, विवेकशीलता, तार्किक शक्ति और दृढ़ आत्मिक बल से समाज का मनोबल गिरने नही दिया। उस समय का उत्साह वर्णनातीत है। कानूनी कार्यवाही के फलस्वरूप पानी बन्द के अपराध में हरनेरे ग्राम के सभी नम्बरदारों पर 25 रूपया प्रति नम्बरदार, बिरकरी ग्राम में 30 रूपये प्रति नम्बरदार जुर्माना हुआ। कुछ की नम्बरदारी छीन ली गई। कुओं से पानी लेना शुरू हो गया। कानूनी कार्यवाही के चलते हिन्दू संसार से संपादक बाबूराम मिश्र, वैंकटेश्वर समाचार (बम्बई), ब्राह्मण समाचार लाहौर के सम्पादक तथा सनातन धर्म परिषद के मन्त्री अनन्तराम डोगरे ने लिखकर माफीनामा अदालत में प्रस्तुत किए और क्षमायाचना की इन माफीनामों को अपने-अपने पत्र में यथावत प्रकाशित भी किया। इस आधार पर उनके विरूद्ध मुकदमा वापिस ले लिया गया। मारवाड़ी ब्राह्मण के सम्पादक हनुमानदत्त जोशी ने कोई क्षमायाचना नही की तो अदालत ने कमीश्नर भेज कर कलकत्ता, बम्बई, पूना, पुष्कर अजमेर, जयपुर तथा काशी से गवाहियां एकत्र की। इनके आधार पर अदालत के आदेशानुसार पुलिस कलकत्ता गई और वहां से हनुमानदत्त जोशी को गिरफ्तार कर दिल्ली लाई। जोशी पर दोषी होने का आरोप सिद्ध हुआ, उसे सजा सुनाई गई। कुछ समय के बाद हनुमानदत्त जोशी ने पुनः अपना विष-वमन शुरू कर दिया तो 1928 में महासभा के माध्यम से जयकृष्ण जी ने जोशी पर दुबारा मानहानि का दावा दायर किया। 1930 तक पैरवी करते हुए अनेक शास्त्र सम्मत लेखों, व्यवस्था पत्रकों, शिलालेखों के फोटो गवाहियों के आधार पर जोशी को पुनः अपराधी बनाया गया। उस पर 200 रूपया जुर्माना, दो मास की कैद की सजा हुई। जयकृष्ण जी व दीनदयाल जी के प्रयत्नों से समाज का अहम् जागृत हुआ। आज जिस गौरव, सम्मान व महानता का अनुभव जांगिड समाज पूरे देश में अधिकृत रूप से कर रहा है और भिन्न-भिन्न संगठनों, संस्थाओं की देखरेख में संगठित हो पाया है वह पं. जयकृष्ण मणिठिया के परिश्रम का प्रसाद ही है।
13. महासभा भवन की उपलब्धि : जयकृष्ण जी के प्रयासों से तथा विश्वास के कारण श्रीमती सुन्दर देवी ने हवेली हैदर कुली दिल्ली में स्थित अपने दो मकान 1929 में महासभा को दान कर रजिस्ट्री महासभा के नाम कर दी। कतिपय विरोध व दीवानी दावों के आन्तरिक संघर्ष में जयकृष्ण जी ने महासभा का कुशल नेतृत्व किया जिसके फलस्वरूप महासभा कार्यालय दिल्ली में स्थापित हो गया। जो आज भी महासभा का प्रधान कार्यालय है।
14. शुद्धिकरण का संघर्ष : अपने ही समाज के बन्धुओं द्वारा समाज परम्पराओं का विरोध करने के आधार पर जातीय बहिष्कृत किये गये समाज बन्धुओं को प्रायश्चित करने पर उनकी शुद्धि करने का कार्य पं. जयकृष्ण जी ने अपने दृढ़ निश्चय के बलबूते पर किया। अति संवेदनशील मानवीय दृष्टिकोण के प्रबल समर्थक व रूढ़ीवादिता से मुक्त कराने में उनका मानस स्पष्ट मत का रहता था। विरोधों के बावजूद समाजोत्थान के कार्यों को करने में जयकृष्ण जी सदैव संघर्षरत रहे ।
15. मेरठ में शास्त्रार्थ : 1930 में अजेरा ग्राम जिला मेरठ में जयकृष्ण जी व साथियों ने ऋषिराम नाम पण्डित से ब्राह्मणत्व पर तीन दिन तक शास्त्रार्थ किया। लगातार नोंकझोंक के बाद समाज की विजय हुई |
16. जांगिड ब्राह्मण लिखने का परिपत्र : 1932 में दो मुकदमों में विरोधियों से अदालत में माफीनामें लिखवाने और अजमेर स्टेट के एजेन्ट टू दी गवर्नर से जांगिड बन्धुओं के नाम के आगे जांगिड ब्राह्मण शब्द लिखने संबंधी परिपत्र / फरमान जारी करवाए। 1934 में जयकृष्ण जी के प्रयासों से एज्यूकेशन डायरेक्टर पंजाब ने इंस्पेक्टर ऑफ स्कूलस गुड़गावां को आदेश दिया कि जाति पूछने पर जांगिड ब्राह्मण लिखा जावे। रोहतक में माल ऑफिसर की अदालत में पैरवी कर जयकृष्ण जी ने आदेश जारी करवाया कि जमीन की खातेदारी में जांगिड ब्राह्मण लिखा जावे। 1944 में दुबारा गजट नोटिफिकेशन से आदेशों की अवहेलना करने वाले अधिकारियों के विरुद्ध सजा दिलाने का भी प्रावधान करवाया। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, अलवर, इन्दौर, पटियाला, जीन्द आदि रियासतों सरकारी रिकार्ड में जांगिड ब्राह्मण लिखने के आदेश करवाये।
17. जनेऊ धारण संघर्ष : पाटौटी रियासत के हीरासिंह जांगिड ने जब जनेऊ धारण किया तो जिलेदार रामचन्द्र को सहन नही हुआ। उसने नाना प्रकार से हीरासिंह जी को सताया पर उन्होनें ग्राम छोड़ना स्वीकार कर लिया पर जनेऊ नहीं छोड़ी। जयकृष्ण जी की प्रेरणा से उन्होंनें जिलेदार पर मुकदमा दायर कर दिया तथा नवाब से भी फरियाद की। आखिरकार जिलेदार रामचन्द्र को लिखित में हीरासिंह जी से माफी मांगनी पड़ी। समाज का इस वाकये से मनोबल मजबूत हुआ ।
18. सेना में भरती होने का संघर्ष : सैनिक जाति के व्यक्ति को ही सेना में भरती होने का अधिकार था। 1939 में जयकृष्ण जी ने पत्राचार किया और भारत सरकार से आग्रह किया कि जांगिड ब्राह्मण को भी सैनिक जाति की सूची में सम्मिलित कर उन्हें भारतीय सेना में भरती होने का अधिकार दिया जावे। इसे मान लिया गया और समाज के लिए सेना में भरती होने का मार्ग खुल गया ।
19. बिड़ला मन्दिर में विश्वकर्मा जी की मूर्ति : जयकृष्ण जी एक दिन बिड़ला मन्दिर गए, जहां आपने अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां देखी किन्तु श्री विश्वकर्मा जी की मूर्ति नहीं होने से उन्होंने सेठ बिडला जी से पत्राचार कर मिलने का आग्रह किया। व्यक्तिशः मिलने पर सेठ जी उनसे बहुत प्रभावित हुए फलतः बिड़ला मन्दिर में भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति की स्थापना की गई।
20. महिलाओं के नथ पहनने का संघर्ष : शेखावाटी क्षेत्र में महिलाओं के नथ पहनने को ब्राह्मणत्व का चिन्ह माना जाता था। समाज का ब्राह्मणत्व स्थापित हो जाने पर नथ पहनने और नथ नहीं पहनने का विवाद शेखावाटी में संघर्ष का रूप लेने लग गया। 1942 में दोनों पक्षों के चौधरियों में जयकृष्ण जी के प्रयासों से मेल-मिलाप हो गया, फलस्वरूप फतेहपुर शेखावाटी में महासभा का 28 वां अधिवेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। पं. जयकृष्ण जी ने फतेहपुर में जांगिड बगीची में विद्यालय खोलने के लिए महासभा के प्रतिनिधि के रूप में पं. हरिकेश दत्त शास्त्री को नियुक्त किया।
21. भैरवदत्त से संघर्ष : जयकृष्ण जी की 1945 में रालियावास के एक भैरवदत्त से ब्राह्मणत्व पर गहरी नोंक-झोंक हुई। 1948 में जयकृष्ण जी ने शास्त्रार्थ के लिए पांच हजार रूपए का चेलेन्ज दिया और भैरवदत्त को कानूनी नोटिस भी दिया। 1946 में ही पीथाराम शर्मा जेरठी ने ग्यारह हजार रूपयों का चैलेन्ज दिया। महासभा के उपदेशक पं. बसन्तराम अग्निहोत्री ने भैरवदत्त पर मानहानि का दावा किया। दो-तीन पेशियों में ही उसका दिमाग ठिकाने आ गया और न्यायालय में क्षमायाचना पेश कर मुक्ति पाई। जयकृष्ण जी ने इस संघर्ष को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जिसका नाम भैरवपोल प्रकाश है।
22. सर्वस्व का समर्पण : अपने सम्पूर्ण जीवन में जांगिड ब्राह्मण समाज के लिए भारी संघर्ष से जूझते हुए जयकृष्ण मणिठिया जी ने कभी चैन की सांस नहीं ली। अंतिम समय से पूर्व 18 से 18 फरवरी 1947 को महासभा के 29 वें सरदारशहर अधिवेशन के अवसर पर उनके अध्यक्षीय भाषण की निम्न पंक्तियां उनके हृदय की टीस और जातीय उत्थान के अधूरे सपने का मार्मिक दृश्य उपस्थित करती हैं। जिसमें उन्होनें कहा- हमने अपने जीवन में बहुत आरोह-अवरोह देखे हैं। लोगों की बहुत खरी-खोटी सुनी हैं, वर्षों तक अपने सिर पर अपने सामान की गठरी उठाई है, किन्तु अपने कार्यक्षेत्र से कभी पीछे नहीं हटे। महासभा ने 40 वर्षों से अपनी सारी शक्ति राजपूताना में लगाई है, परन्तु जितना सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। इसका कारण केवल यही है कि सुनने - सुनाने से कोई लाभ नहीं होगा। काम तो करने से होगा केवल बातों से कार्य नहीं हो जायेगा, अतः कमर कसकर कार्य में जुट जाओ।
भारत की आजादी के मात्र 8 माह पूर्व उनका यह उद्बोधन जांगिड ब्राह्मण समाज के लिए आजादी के 52 वें वर्ष में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। कथनी और करनी के भेद को मिटाकर समाज हित में अपना तन- मन- धन सम्पत्ति यहां तक कि अपना समय, श्रम, मस्तिष्क, ज्ञान और सम्पूर्ण जीवन सब कुछ समाज को अर्पण करने वाले इस तपोपूत समाज उद्धारक की महिमा क्या शब्दों में वर्णन की जा सकती है? कदापि नहीं।

निर्वाण
29 वें सरदारशहर अधिवेशन की समाप्ति पर गुरूदेव जयकृष्ण जी 20 फरवरी 1947 को चूरू पहुंचे थे। कुछ विरोधियों ने अधिवेशन में गुरूदेव का अपमान करने की धृष्टता की थी। कुछ कटु टिप्पणियां भी की थी जो असहनीय थी। कोई भी कर्मनिष्ठ सहन करने की सहिष्णुता किसी सीमा तक ही रख सकता है। सम्भवतः गुरूदेव की सहन करने की सीमा का बांध इस मर्माहत वातावरण से टूट गया और रात्रि विश्राम के समय उन्हें भारी हृदयाघात हुआ। फाल्गुन मास की अमावस्या के दिन शुक्रवार दिनांक 21 फरवरी 1947 को गुरूदेव पण्डित जयकृष्ण जी मणिठिया महाप्रयाण को अग्रसर हो गये। ठीक उसी प्रकार जैसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नाथूराम गोडसे की गोली लील गई, हमारे समाज के गुरूदेव को लोगों की बोली की गोली ने लील लिया।