आपका जन्म ग्राम खेडा जिला महेन्द्रगढ़ हरियाणा के एक साधारण परिवार में हुआ था। आपने अपने अथक परिश्रम, योग्यता और ईमानदारी के बल पर समाज में अपने लिए जो विशिष्ट स्थान बनाया वह एक अनुकरणीय प्रयास था। आपका प्रमुख व्यवसाय झांसी में ठेकेदारी का था वैसे पहाड़गंज दिल्ली मे श्री विश्वकर्मा फ्लोर मिल नाम से आपकी एक और आटे की मिल थी। आपकी कार्य दक्षता और योग्यता को देखते हुए सरकार की ओर से आपको रायबहादुर की उपाधि मिली थी और आप अनेक वर्षो तक आनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे। दीन दुःखियो की सेवा के लिए सदैव तत्पर, सरल स्वभाव के सीधे साधे व्यक्ति थे । अहं भाव रहित सादा जीवन उच्च विचार आपकी विशेषता थी ।
जाति के प्रति आपका अगाध प्रेम था विशेषकर पीड़ित और शोषित व्यक्तियों की प्रत्येक समय सहायता करते रहे। आप समाज के उन कुछ व्यक्तियों मे से एक थे जो स्वजाति हित के लिए किसी भी समय कोई त्याग करने में पीछे नहीं हटते थे। यह आपके स्वजाति प्रेम का ही परिणाम था कि महासमा ने आपको अपने 8वें, 12वें, 13वें और 18वें अधिवेशन के प्रधान पद के लिए चुना। पं. छज्जू सिंह समाज प्रेमी तो जन्म से थे ही किन्तु वे शिक्षा प्रेमी भी कम नहीं थे। अपने बच्चों (गणेशी लाल तथा प्रो. बनवारी लाल) को विलायत भेज कर उच्च शिक्षा दिलाई तथा दूसरे बालकों को जो विदेश जाना नहीं चाहते थे, कालेज की शिक्षा दिलाई। इनके परिवार में ठेकेदार, आफिसर, इंजीनियर हर विषय के स्नातक तथा दक्ष सदस्य विद्यमान है।
इनकी प्रमाणिकता, न्यायपरता तथा कार्य कुशलता पर मुग्ध होकर तत्कालीन राज्य ने 1 जनवरी 1920 को आपकी राय साहब की उपाधि से सम्मानित किया तथा पूरे 12 साल पश्चात 1 जनवरी 1932 को राय बहादुर बना दिया गया इतना ही नहीं झांसी के आजीवन आनरेरी मजिस्ट्रेट बना दिये गये ।
तत्कालीन विदेशी मिलिटरी हाकिम प्रायः उनसे पूछते थे कि आप हमारे दिये हुए शेड्युल (कार्यसूची) से अधिक कार्य क्यों कर देते हैं उनका उत्तर केवल इतना ही होता है कि मैं मुनाफे की अपेक्षा अपने नाम तथा ईमानदारी की कीमत कहीं अधिक आंकता हूं, पैसे तो मुझे और कहीं भी मिल जायेंगें किन्तु ईमानदारी और नाम चले गये तो फिर उपलब्ध नहीं हो सकते। अपने सहयोगियों तथा पारिवारिक जनों को वे सदा यही कहा करते थे कि परमात्मा के घर किसी वस्तु कमी नहीं, रात दिन केवल परिश्रम करो।
उन्होंने अपना जीवन बड़ी सादगी में बिताया। इतने साधन सम्पन्न होने पर भी केवल कमीज या पायजामा और भागलपुरी साफा यही प्रायः इनकी पोशाक होती थी, घर पर कार, तांगे, टमटम, गांव में रथ मझोली होते हुए भी इनकी सवारी केवल साईकिल थी, खाना भी इतना सादा केवल दाल, सब्जी और रोटी, कभी चाय। पान, बीड़ी सिगरेट को तो छूना भी नहीं, कभी होटल, ढाबा या लौज में पांव तक नहीं रखा। घी दूध के लिए घर पर सदा पशु पालते थे।
अनुशासन घर में इतना था जितना कि बाहर। लगभग 100 से अधिक सदस्यों के कुटुम्ब में शादी विवाह अथवा अन्य गृहस्थ के आवश्यक कार्य इनकी अनुमति के बिना नहीं होते थे, बड़े छोटे कोई भी इनकी उपस्थिति मे हुक्का या बीड़ी नहीं पीते थे व व्यर्थ की गप्पे बाजी नहीं होती थी। यूं वे बड़े प्रेमी थे। हर व्यस्क से उसके काम के बारे में पूछते थे तथा सलाह देते रहते थे और विद्यार्थी बच्चों से पढ़ाई के बारे में तथा परीक्षा परिणाम के विषय में पूछताछ करते रहते थे तात्पर्य यह है कि हर दिशा में उनका ध्यान होता था ।
उनका ध्येय धन बटोरने का नहीं था, अपितु प्रगतिशील युग के आविष्कारों में भी रूचि थी। पहाड़गंज दिल्ली में 4000 वर्ग गज भूखंड लेकर दो मंजिली इमारत बनवायी और उसमें स्टीम बॉयलर से चलने वाली 12 दाल तथा आटा पीसने की चक्कियां, 4 तेल निकालने के कोल्हू तथा निवार बुनने की मशीन लगवाई तथा कुछ समय पश्चात् आरा मशीन भी लगा दी थी, जिससे कि भावी संतान को मशीनों की ओर ध्यान आकर्षित हो और इनसे लाभ उठाये। यह मिल विश्वकर्मा फ्लोर मिल के नाम से चलता रहा। परन्तु अब निवास रूप मे ही है। झांसी में आज 10 बंगले बने हुए है। और कई पंक्तियां क्वाटर्स की है जो प्रायः गोदामों के रूप में काम आते हैं। 4 बंगलो मे स्वयं रहते तथा शेष मिलिट्री को किराये पर दिये ।
ज्यों ज्यों व्यवसाय में और कुटुम्ब में उन्नति और वृद्धि होती गई, गांव में भी बड़ी बड़ी तीन तीन मंजिली हवेलियां बनवाई और गांववासियों की सुविधा के लिए धर्मशाला कुनबे बनवाये ताकि उनकी उन्नति से औरो को भी लाभ पहुँचे तथा सामाजिक कार्यों मे निरन्तर सभी प्रकार का योगदान देते रहे है। आपके प्रत्येक रोम में समाज उत्थान का रक्त था, यही कारण है कि आपकी अध्यक्षता मे 1920 में जयपुर, 1925 में दिल्ली तथा 1934 में रेवाडी जांगिड ब्राह्मण महासभा के महाधिवेशन हुए।
आप केवल जांगिड एवं विश्वकर्मा समाज तक के ही कल्याण प्रद कार्यो मे संलग्न नही रहे अपितु मानव कल्याण ही आपके जीवन का एक मात्र ध्येय था । समयानुकूल समाज को आपकी अन्यतम सेवाएं मिलती रही। आपका स्वर्गवास झांसी में 21 अगस्त 1972 को हुआ।