पं. मूलचन्द शर्मा
पं० मूलचन्द शर्मा का व्यक्तित्व अखण्ड समाज सेवा, सफल व्यवसाय एवम् उन्नत जातीय साहित्य सृजन का अनुपम त्रिवेणी संगम था । इनका जन्म लाल कुआं दिल्ली में पं० यादराम शर्मा (गंगायचा वाले) के यहां २४ अप्रैल १९०५ को हुआ था । इन्होंने सर्वप्रथम तेलीवाड़ा दिल्ली के अधिवेशन के अवसर पर अपनी ओजस्वी कविता प्रस्तुत की एवम् उस समय से ही पत्र में लेख तथा कविता देने लगे । जातीय अभियोग में सफल होने पर अप्रैल १९३० को दिल्ली में आयोजित अधिवेशन के ये स्वागताध्यक्ष थे और उनकी सफलता में इनका प्रमुख हाथ था। उस समय से इनकी समाज सेवा का क्रम अखण्ड रूप से ३४ वर्ष तक चलता रहा जिसमें महासभा के कई पदों पर रहकर इन्होंने कार्य किया।
अप्रैल १९३० से अक्तूबर १९३४ तक लगभग साढे़ चार वर्ष महासभा के मन्त्री रहे हैं । १९३९ में नीमच अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए इन्होंने दस सूत्री योजना रखी जिससे अनेकों व्यक्तियों ने विभिन्न रूप से समाज सेवा कर उपाधियां प्राप्त कीं। सरदारशहर अधिवेशन (१९४७) की अध्यक्षता कर शेखावाटी के कार्य को आगे बढाया । लगभग ७ वर्ष तक महासभा के प्रधान, कई वर्ष उप-प्रधान एवम् उपमन्त्री रहे। ५ वर्ष दो महीने पत्र के सम्पादक रहे। अनेकों सभा सम्मेलनों की अध्यक्षता की। विश्वकर्मा मन्दिर नई दिल्ली के नवनिर्माण की आधारशिला रखी और उसका सब निर्माण इनके परामर्श से ही हुआ। नवयुवक मण्डल दिल्ली की स्थापना की । इनकी प्रेरणा से जांगिड बन्धु पत्र निकला। ये नेपाल वन विभाग के सफल एवं विख्यात ठेकेदार थे ।
कमला नगर दिल्ली में विशाल सम्पत्ति का निर्माण किया तथा मुक्तहस्त से महासभा, मन्दिर तथा अन्य संस्थाओं को दान दिया । विश्वकर्मा दिग्दर्शन, पुष्पक विमान, गीत गोविन्दम्, शर्मा गीताञ्जलि, हम कौन, डायरेक्टरी, मौसर और नुकता की भयानक प्रथा, श्रीकृष्ण सुदामा, यज्ञोपवीत पद्धति की रचना की । १९४७ में गुरुदेव के देहावसान के पश्चात् महासभा की बागडोर सम्भाली। विश्वकर्मा प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना में प्रमुख सहयोग दिया। ये जब भी कोई पारस्परिक विवाद उठता उसे अपनी सूझ-बूझ से निपटाने में माहिर थे । २२ फरवरी १९६४ को इनके निधन से समाज मानो अनाथ हो गया । अपने पीछे तीन भाई लक्ष्मीनारायण, बालमुकन्द एवम् देवदत्त तथा तीन पुत्र विदुर शर्मा, रमेश शर्मा एवम् सुरेश शर्मा को छोड़ गये।