पहला अध्याय मङ्गलाचरण
गजाननं भूतगणादि सेवितं, कपित्थ जम्बूफल चारुभक्षणम् ।
उमा सुतं शोक विनाशकारकं, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम् ॥
हाथी के तुल्य मुख वाले, भूतगणों से सेव्यमान, सुन्दर कैथा व जामुन के फलों को खाने वाले, पार्वती पुत्र जो कि दुःख शोकादि का विनाश करने वाले हैं, ऐसे श्री गणेशजी जो विघ्नों का विनाश करने वाले हैं, उनके चरण कमल की वन्दना करता हूँ।
श्रृणु वात्स्यायनन्वेद विश्वकर्मपुराणकम्।
कथानकं महत्पुण्यं सर्वार्थं सिद्धिदं नृणाम् ॥
हे वात्स्यायन जी ! महान् पुण्य को प्रदान करने वाले, सभी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष को देने वाले "श्री विश्वकर्मा पुराण" की कथा स्वस्थचित्त होकर सुनें -
भारत के दण्डकारण्य वन में शौनक आदि ऋषियों ने मिलकर एक महान यज्ञ किया। यह यज्ञ एक हजार वर्षों तक चलने वाला था। उस समय पुराणों के जानने वाले सूतजी भी वहाँ पहुँच गये।
वहाँ उपस्थित ऋषियों ने मिलकर सूतजी का सत्कार करने के बाद उन्हें उत्तम आसन पर बैठाया और उनसे नम्रतापूर्वक कहने लगे- हे सूतजी ! पूर्व में आपने हमें भगवान के गुणानुवादों से भरपूर कथायें सुनायी हैं। हम आपकी उस कृपा को कभी नहीं भूलने वाले हैं। आपकी उस उत्तम वाणी को सुनकर कौन सा व्यक्ति तृप्त नहीं होगा। इसलिये कृपा करके उसी अमृतमय वाणी का आज हमें श्रवण कराइये। आप प्रभु के सानिध्य में रहे हो क्योंकि आपकी जीभ पर प्रभु का नाम स्मरण है।
ऋषियों की इस वाणी से प्रसन्न होकर सूतजी ने कहा - जो वाणी सदैव प्रभु की अनेक लीलाओं का रटन करती है, उस पर माँ सरस्वती की कृपा बनी रहती है। उसमें वाणी उच्चारण करने वाले की कोई प्रभुता नहीं रहती बल्कि उसमें देवी सरस्वती तथा परम् तेज रूप परमात्मा विश्वकर्मा जी की प्रभुता समाई हुई है।
उस समय सूतजी के अहंकार रहित निर्मल वचन सुनकर शौनक आदि ऋषियों ने उनको मन ही मन नमस्कार किया तथा कहने लगे हे महाभाग ! प्रभु की लीलाओं को सुनने से भला कौन व्यक्ति तृप्त होगा ? अतः आप हमें प्रभु विश्वकर्मा की लीलाओं का श्रवण कराकर कृतकृत्य बनाइये, जिससे हमें सन्त समागम का फल प्राप्त हो तथा भक्ति के विषय में हमारी वृत्तियाँ अधिकाधिक प्रभुमय बनें।
ऋषियों की इस प्रकार की वाणी सुनकर जिसका मन प्रभु विश्वकर्मा की लीलाओं में रमण कर रहा है ऐसे सूतजी नेत्र बन्द करके अपने अन्तर्मन में ही प्रभु का दर्शन करने लगे और फिर गम्भीर वाणी से प्रभु के गुणानुवाद का वर्णन करने लगे।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण के सूतजी का अभिनन्दन नामक पहला अध्याय सम्पूर्ण || दूसरा अध्याय
(सूतजी और ऋषियों का वार्तालाप )
श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे सावधाना मयेरितम् ।
भगवद्भक्तिरता नित्यं तत्कथा श्रवणोत्सुकाः॥
सूतजी कहने लगे - हे ऋषिगण ! भगवान की भक्ति में जिनका चित्त लगा है और जो प्रभु कथा का श्रवण करने हेतु निरन्तर उत्सुक रहते हैं, ऐसे आप सब दत्त चित्त होकर मेरी वाणी को सुनें। जिसने सारे विश्व को एक तिनके के समान अपने मस्तक पर धारण किया है और जो युग-युग में अपने भक्तों को आनन्द देने तथा पापियों का नाश करने हेतु अवतार धारण करते हैं, ऐसे परम कृपालु परमात्मा की गति तथा उनके गुण-कर्म तथा ऐश्वर्य और रूप आदि जानने के लिये कौन समर्थ हो सकता है।
इस प्रकार भगवान के गुणों से जिनका चित्त परिपूर्ण तथा आकर्षित रहा है, ऐसे भक्त भगवान के गुण-कर्म तथा लीलाओं का अपनी यथाशक्ति गान करते हैं। अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिये प्रभु विश्वकर्मा ने अनेक सृष्टियों को रचा है और उसमें अनेक रूप धारण कर विचरण किया है। ऐसे अगाध शक्ति वाले परम ज्योति स्वरूप सच्चिदानन्द को मेरा कोटि-कोटि वन्दन है।
ऋषिगण इतना सुनकर बोले - सूतजी ! परमात्मा ने जिन-जिन लीलाओं को किया है, उनका वर्णन आपके श्रीमुख से कई बार सुन चुके हैं और बार बार उसके सुनने से प्रभु के साथ हमने तन्मयता का भी अनुभव किया है। फिर भी हमारे मन में शङ्का बनी हुई है, अत: आप कृपया उसका निवारण करें।
ऋषियों की यह बात सुनकर प्रभु के लीला गाने में ही जिनका जीवन व्यस्त रहा है, ऐसे सूतजी बोले - हे ऋषियों ! प्रभु के बारे में शङ्का करना बहुत अधर्म माना जाता है। अतः परमेश्वर की माया को जानने वाले भगवान के भक्त के पास से शङ्का व्यक्त कराकर उसका तत्क्षण समाधान करना उचित है। अतः आप अपनी शंका बताइये।
सूतजी के इन वचनों को सुनकर ऋषिगण बोले - हे सूतजी! प्रभु ने जो लीलायें की हैं, वे सीधे हमारे अन्तर्मन को आनन्द देने वाली हैं। कृपालु परमात्मा ने अपनी लीलाओं हेतु इस सृष्टि का जिस तरह निर्माण किया, वह पूरा इतिहास सुनने की हमारी इच्छा है। अतः आप दया करके उसके बारे में हमें बताने का कष्ट करें।
सूतजी बोले - हे ऋषियों ! अपनी माया के विस्तार द्वारा जिस प्रभु विश्वकर्मा ने इस सम्पूर्ण विश्व की रचना की, उसकी माया कौन नहीं पहचान सकता ? सृष्टि के लय के पश्चात् परमात्मा समुद्र के गर्भ में शेष नारायण के रूप में विराजमान होकर अकेले क्षीर सागर में विश्राम कर रहे थे कि कृत-युग प्रारम्भ होने का समय आ गया। उस समय प्रभु की ही माया प्रभु के नेत्रों से उठकर उनके सामने ही खड़ी हुयी। उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान जिनकी अँगुलियाँ हैं, ऐसे कमल में निवास करने वाले लक्ष्मी के पति ने कमलपत्र के समान धीरे-धीरे अपने नेत्रों को खोला।
उस समय अपनी ही योगमाया को सामने देखकर प्रभु को क्रीड़ा करने की इच्छा हुयी तत्पश्चात् प्रभु ने योगमाया को अपने ब्रह्म स्वरूप के साथ रहकर सृष्टि कार्य में सहायक रूप होने के लिये आज्ञा दी।
प्रभु विश्वकर्मा की आज्ञा होते ही योगमाया अन्तर्ध्यान हो गयी। आदि पुरुष प्रभु ने इच्छाशक्ति को उसका कार्य करने की आज्ञा दी। इच्छाशक्ति ने अपने स्वामी की आज्ञा मिलते ही प्रभु की शक्तियों का आश्रय लिया। इस तरह सत् चित् आनन्द स्वरूप ब्रह्म की नाभि में से हजारों पंखुड़ियों वाला एक कमल उत्पन्न हुआ। इस कमल में प्रभु स्वयं योगमाया का आश्रय लेकर सत्व गुण के संयोग से ब्रह्म-स्वरूप में प्रकट हुये।
उस समय ब्रह्माजी ने उत्पन्न होते ही चारों तरफ देखना प्रारम्भ किया। मैं कहाँ से आया हूँ ? किसके लिये आया हूँ ? क्या यहाँ मेरे सिवा और कोई दूसरा भी है ? ऐसे विचार आते ही उनके मन में घुटन होने लगी, तत्पश्चात् वे सोचने लगे यदि मेरा अस्तित्व सत्य है तो मुझे और कमल को उत्पन्न करने वाले किसी अन्य का अस्तित्व तो जरूर होना चाहिये । चारों ओर जल तथा ऊपर आकाश है, लेकिन बिना किसी आधार के कमल, मात्र जल में नहीं रह सकता। इसका निश्चित रूप से कहीं आधार होना चाहिये। ऐसा सोचते ही ब्रह्माजी कमल का आधार ढूँढ़ते हुये हजारों साल तक कमल की नाल में घूमते रहे किन्तु उसका कोई ओर-छोर न मिलने से वे थककर कमल के ऊपर आकर बैठ गये और सोचने लगे कि हमें उत्पन्न करने वाला कोई अगम्य तत्व होगा। इसी समय ब्रह्माजी को एक आकाशवाणी सुनाई दी - हे ब्रह्मन् ! आप तप का आश्रय लो।
अब ब्रह्माजी, जिस ओर से आवाज आयी थी, उसी दिशा की ओर देखने लगे। उसी समय एक चमत्कार हुआ। जैसे ही ब्रह्माजी ने उस दिशा की ओर मुख किया, वैसे ही एक नया मुख उत्पन्न हो गया। इस तरह चार बार तपश्चर्या की आज्ञा मिली और उन्होंने चार बार भिन्न-भिन्न दिशा में अपना मुख घुमाया। इससे उन्हें चार मुख प्राप्त हुये। तत्पश्चात् पाँच मुख वाले ब्रह्माजी काफी दिनों तक तप में लीन रहे। तब उस उग्र तपस्या के कारण प्रभु उन पर प्रसन्न हुये और ब्रह्माजी की जीभ से सरस्वती जी को प्रकट किया। फिर आकाश के आश्रय से आवाज जैसा गुण उत्पन्न हुआ और ब्रह्माजी की नाभि से आकाश के आश्रय से नाद के संयोग द्वारा नाद ब्रह्म प्रकट हुआ। यही नाद ब्रह्म प्रणव है, ओंकार है। तत्पश्चात् सरस्वती की कृपा से उत्पन्न हुई वाणी के मेल से ब्रह्माजी के मुख का आश्रय कर नाद ब्रह्म अनेक प्रकार की वाणी के रूप में प्रकट हुये, चार मुख से चार वेद निकले, किन्तु पाँचवें मुख से मलीन वाणी प्रकट हुयी और उससे प्रभु की निन्दा होने लगी। ऐसा होने से प्रभु ने खेल-खेल में पाचवाँ मुख नष्ट कर दिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि वेदों का उच्चारण करने वाले ब्रह्माजी के मुख से कोई असभ्य वाणी निकले।
इसके बाद आदि पुरुष ने ब्रह्माजी को सृष्टि रचने की आज्ञा दी। इस प्रकार ब्रह्माजी ने प्रभु की आज्ञा पाकर सृष्टि का निर्माण किया।
ऋषिगण इतना सुनकर बोले - हे सूतजी ! आपने प्रभु के जो उत्तम कर्म हमारे सम्मुख वर्णन किये उससे हमें परमानन्द की प्राप्ति हुई । हे महाभाग ! प्रभु की अद्भुत लीला को देखकर लक्ष्मीजी को भी अवश्य विस्मय हुआ होगा?
सूतजी बोले - हे ऋषिगण ! प्रत्येक युग में जब-जब प्रलय का समय आता है, उस समय समस्त देवगण और ब्रह्माजी प्रभु की सेवा में उपस्थित रहते हैं। उस समय लक्ष्मीजी भी प्रभु के साथ उपस्थित रहती हैं, किन्तु सृष्टि के पहले परब्रह्म अकेले ही योगमाया का आश्रय लेकर योग निद्रा में स्थित थे। अतएव लक्ष्मीजी का वहाँ विराजमान होना असंगत था, पर विश्व की रचना होने के बाद जब स्वर्ग की प्राप्ति के लिये देव-दानव युद्ध हुआ, तब देवताओं का जीवन बचाने के लिये प्रभु ने अमृत प्राप्त करने का विचार किया और देवताओं एवं दैत्यों से समुद्र मंथन कराया। तब सागर से ही लक्ष्मीजी प्रकट हुयीं।
ऋषियों ने फिर प्रश्न किया हे सूतजी ! लक्ष्मी जी की उत्पत्ति के बारे में हमारे अन्दर जो सन्देह था, उसका निवारण हो गया, किन्तु ब्रह्माजी ने किस प्रकार सृष्टि का निर्माण किया, उसे हम विस्तार से सुनना चाहते हैं। उस समय सूतजी उनकी जिज्ञासा देखकर बोले - हे ऋषि-गण ! प्रभु की लीला का वर्णन कर पाना बहुत कठिन है। फिर भी मैंने शुकदेवजी से जैसा सुना है, वही आप सबको सुनाता हूँ। इन लीलाओं के सुनने मात्र से मनुष्य के सारे बन्धन टूट जाते हैं और वह परम ज्योति को प्राप्त करता है। प्रभु ने जब ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का कार्य सौंपा, तब ब्रह्माजी को चारों ओर नजर घुमाने पर केवल जल और आकाश के सिवा कुछ भी नजर न आया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। प्रभु ने ब्रह्माजी की कठिनाई समझकर पृथ्वी की उत्पत्ति की और उसके साथ ही उसका गुण गन्ध भी पैदा हुआ। चारों ओर इससे एक विचित्र सुगन्ध-सी फैली जिससे ब्रह्माजी का अन्तर्मन अति प्रसन्न हो गया। फिर उसी जल से पृथ्वी और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुयी । इस प्रकार जल, पृथ्वी, वायु, आकाश और तेज के संयोग से ब्रह्माजी ने सारे विश्व की रचना की और जड़-चेतन की भी सृष्टि कर उसे पूर्ण बनाया।
उस सृष्टि के पूर्ण हो जाने के बाद ब्रह्माजी को उसे निभाने की चिन्ता होने लगी। इससे प्रभु ने रजोगुण को उत्पन्न किया और स्वयं श्रीविष्णु रूप में प्रकट होकर इसके पालन करने का दायित्व सम्भाला । तत्पश्चात् सृष्टि पर अधिक भार हो जाने से प्रभु ने तमोगुण उत्पन्न किया और श्रीशङ्कर का रूप धारण कर इस सृष्टि के अधिक भार का विनाश किया। इसके बाद उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का यही क्रम चलने लगा।
इस प्रकार सृष्टि के संचालन की सारी तैयारियाँ करने के बाद प्रभु क्षीरसागर में अपने स्थान पर आ गये और अपनी माया से अनेक रूप धारण कर भिन्न-भिन्न क्रीड़ा करने लगे। यह उसी प्रकार था जैसे कोई कठपुतली वाला अपनी ही पुतलियों को अपनी इच्छानुसार नचाता है और उसका तमाशा देखता है, लेकिन स्वयं उसमें से अलिप्त रहता है। इस प्रकार प्रभु अपना निराकार स्वरूप धारण कर सभी को देखने लगे।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण के सूतजी और ऋषियों का वार्तालाप नामक दूसरा अध्याय सम्पूर्ण || तीसरा अध्याय
(मैथुन सृष्टि )
कथ ब्रह्मा तु तत्वेभ्यः ससर्ज सचराचरम् ।
देवर्षिमानवोपेतं जलस्थलवनान्वितम् ॥
ऋषिगण बोले - हे सूतजी ! देवताओं और मनुष्यादि से पूर्ण जल-थल सम्पूर्ण विश्व की रचना ब्रह्माजी ने किस प्रकार की उसे आप हमें विस्तारपूर्वक बतायें । सृष्टि की उत्पत्ति किन कारणों से हुई । इसे आपके अतिरिक्त हमें बताने में कौन समर्थ हो सकता है यह तो स्पष्ट हो गया है कि अलौकिक शक्तियों वाले जगत्पिता द्वारा ही सचराचर विश्व की उत्पत्ति हुई है। अब उनकी लीलाओं का वर्णन सुनने को हम बड़े उत्सुक हैं।
ऋषियों की विनम्रता से भरी हुई वाणी सुनकर प्रसन्नचित्त हो सूतजी बोले -हे वन्दनीयों ! प्रभु की लीलाओं का बार-बार श्रवण करने से मनुष्य निश्चय ही जन्म-जन्मान्तरों तक जीवन मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। अब मैं आप सब लोगों को, प्रभु ने सृष्टि सृजन के लिये जिन लीलाओं को किया है, उनका वर्णन करता हूँ। आप सब उन्हें एकाग्रचित्त होकर सुनें।
आदिपुरुष की आज्ञा मिलते ही ब्रह्माजी ने सृष्टि निर्माण का कार्य आरम्भ किया। इसके लिये सबसे पहले ब्रह्माजी ने जल में एक अण्डा स्थापित किया। धीरे धीरे वह अण्डा बड़ा होने लगा और उससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुयी। उस समय ब्रह्माजी को यह चिन्ता होने लगी कि उस ब्रह्माण्ड को कहाँ पर स्थापित किया जाये। ब्रह्माजी को इसके लिये चिन्तित देखकर प्रभु ने ब्रह्माण्ड को शेषनाग के मस्तक पर स्थापित कर दिया। उनके मस्तक पर टिकी हुयी पृथ्वी उसी प्रकार दिखलाई पड़ने लगी जैसे मनुष्य की हथेली पर सरसों का दाना।
लेकिन शेषनाग के मस्तक पर स्थापित पृथ्वी बराबर अस्थिर रहती थी। वह बार-बार इधर-उधर हो जाती थी। उस समय ब्रह्माण्ड में ब्रह्माजी के द्वारा जिस-जिस की सृष्टि होती वह सब नष्ट होने लगे। अब ब्रह्माजी व्यग्र होकर उसे स्थिर करने का उपाय सोचने लगे पर उन्हें कोई उपाय न सूझा । लाचार होकर उन्होंने प्रभु की स्तुति करनी आरम्भ की।
उस समय प्रभु विश्वकर्मा जी ने प्रकट होकर विश्व के निर्माण का कार्य करने के लिये नवीन रूप धारण किया और ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड को स्थिर करने का उपाय बताया। उनके द्वारा बताये हुये सुझाव के अनुसार उन्होंने आठों दिशाओं में करोड़ों हाथियों के बल वाले आठ हाथी रख दिये। वे हाथी अपनी सूड़ों की सहायता से पृथ्वी को टिका कर रखने लगे। इस तरह अस्थिर रहने वाला ब्रह्माण्ड क्षण भर को स्थिर रहने लगा, लेकिन कभी-कभी हाथियों के दबाव के कारण पृथ्वी डांवाडोल हो जाती थी। इस नयी मुसीबत को देखकर प्रभु ने पृथ्वी पर मेरु पर्वत रखवा दिया। इस स्थिर हुई पृथ्वी पर ब्रह्माजी ने जिस प्रकार की रचना की उसे भी आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।
प्रभु विश्वकर्मा की आज्ञा से ब्रह्माजी ने जिस ब्रह्माण्ड की रचना की उन्हें चौदह भागों में बाँट दिया। इनमें से नीचे के सात भागों को सात पाताल के नाम दिये। इनके नाम हैं अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल तथा पाताल एवम् ऊपर सात लोकों के नाम इस प्रकार हैं-भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक । ब्रह्माण्ड की इस प्रकार रचना करने के बाद उन्होंने सात पातालों में नाग, राक्षस, यक्ष, दानव, पिशाच आदि का निवास कल्पित किया। भुर्लोक में मनुष्य निवास करते हैं। भुवर्लोक में पितृ रहते हैं। स्वर्लोक में देवता निवास करते हैं। महर्लोक में महर्षि निवास करते हैं। जनलोक में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर रहते हैं। तपलोक में प्रभु की समीपता पाने वाले अधिकारी रहते हैं। सत्यलोक में आनन्द स्वरूप पूर्ण काम पूर्ण तेजोमय परमब्रह्म निवास करते हैं। चौदह भुवन का इस तरह सृजन करने के बाद ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन आरम्भ किया। इनमें सबसे पहले इन्होंने देवताओं की उत्पत्ति की । इन देवताओं में जो आदि पुरुष के अंश से उत्पन्न हुये थे, इन्द्र नाम दिया और सभी राजाओं के राजा के रूप में इनका अभिषेक किया। तत्पश्चात् विभिन्न तत्वों का आश्रय लेकर ब्रह्माजी ने तैंतीस करोड़ देवता उत्पन्न किये। इनमें से इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर, इशान इन नाम के आठ देवताओं को आठ दिशाओं का अधिपति बनाकर उन आठ दिशाओं में उन्हें विराजमान किया तथा परब्रह्म को सृष्टि के ऊपर तथा अनन्त को सृष्टि के नीचे स्थापित किया। यह दस दिशाओं में रह कर सृष्टि का रक्षण करने लगे। अन्य देवताओं को उनके गुण धर्मों के आश्रय रूप कर्म तथा सत्ता सौंप दी।
तत्पश्चात् उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के लिये आदि पुरुष ने क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नियुक्त किया। ब्रह्माजी सृष्टि की उत्पत्ति करते, विष्णुजी पालन करते तथा शङ्करजी यथाकाल उसका विसर्जन करते। अपनी सृष्टि का विनाश होते देख ब्रह्माजी पुनः सृष्टि की उत्पत्ति करते, पर शङ्करजी फिर नाश कर डालते । बार-बार ऐसा होते देख ब्रह्माजी परेशान हो उठे और उसका कोई मार्ग न मिलने से वे तप में लीन हो गये।
ब्रह्माजी की तपस्या से आदि परमेश्वर ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया और उनकी विपत्ति को देखकर उन्हें मिथुन धर्म से उत्पन्न होने वाली सृष्टि रचना का आदेश दिया। इस तरह आदि प्रभु की आज्ञा पाकर ब्रह्माजी ने प्रजापतियों की उत्पत्ति की। उनमें से मिथुन धर्म से उत्पन्न होने वाली प्रजा का ब्रह्माजी ने सृजन किया। यह निर्माण ब्रह्माजी को बड़ा आनन्द देने वाला हुआ, क्योंकि मिथुन धर्म के द्वारा प्रजा में अपने आप वृद्धि होने लगी।
सूतजी ने आगे कहा - हे महाभाग ! इस प्रकार परमात्मा की एक मात्र क्रीड़ा करने की इच्छा से ऐसे अनेक प्रकार के जगत् की उत्पत्ति हुयी। हे ऋषिगण ! परमात्मा की इन लीलाओं को जो सुनता है, उसे इस जगत और उस जगत दोनों स्थान पर उत्तम सुख की प्राप्ति होती है।
सूतजी की इस वाणी को सुनकर शौनक आदि ऋषि परमेश्वर का ध्यान कर दोनों हाथ की अञ्जलि कर प्रभु वन्दन करने लगे। ऐसे कृपालु जगन्नियन्ता का सृष्टि सृजन तथा प्रलय के आश्रय के सभी कार्यों का वृत्तान्त सुनने से मनुष्य के कोटि-कोटि जन्मों के पाप जलकर भस्म हो जाते हैं।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण के मैथुन सृष्टि नामक तीसरा अध्याय सम्पूर्ण || चौथा अध्याय
(अन्य सृष्टियाँ )
ब्रह्मणोत्पादिता लोकाः तत्वचिन्तारता सदा।
द्वन्द्वादिजं कदा दुखं क्षुतृड्मृत्युं न लेभिरे ॥
सूतजी बोले - हे ऋषिगण ! जिनका मन तत्वचिन्तन में हमेशा मग्न रहने वाला है, उन लोगों को भूख प्यास या मृत्यु का भय उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार जिन लोगों को कभी किसी प्रकार के सुख दुःख आदि की परवाह नहीं रहती, वे लोग हमेशा अपने को उत्पन्न करने वाले एवम् सब का पालन करने वाले ऐसे परम कृपालु परब्रह्म की सदैव उपासना करते थे और मैथुन धर्म का धर्म की दृष्टि से पालन करते थे। इस प्रकार सृष्टि प्रवाह कितने युगों तक एक-सा चलता रहा। इसके बाद सृष्टि का वातावरण धीरे-धीरे बिगड़ने लगा। जो नित्य सेवन करने योग्य स्वयं का मुख्य धर्म था, उसके प्रति लोग उदासीन रहने लगे। प्रजा की उत्पत्ति के लिये मैथुन धर्म गौण था, वह केवल सृष्टि प्रजा की उत्पत्ति के प्रयोग में आता था, परन्तु बाद में वीर्य को क्षीण करने वाले मैथुन धर्म का लोग सतत् सेवन करने लगे।
इस तरह धीरे धीरे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ बिगड़ती गयी और इन्हीं के कारण धर्म का नाश होता गया। इससे मनुष्य को तृष्णा क्षुधा एवं मृत्यु आदि की अनुभूति होने लगी। इस तरह द्वन्द्व, पीड़ा आदि से त्रस्त मानवों को जब सही परिस्थिति का भान हुआ तो उन्होंने उनको उत्पन्न करने वाले विश्वकर्मा भगवान की आराधना में अपना मन लगाया। इस तरह सगुण उपासना का पथ लोगों ने अपना लिया।
अब इस उपासना से प्रसन्न होकर प्रभु ने स्वर्ग से कामधेनु, कल्पवृक्ष, कल्प लता और काया कल्प जैसे दैवीय पदार्थ मनुष्यों को दिये। वे सम्पत्ति मनुष्य को बिना किसी श्रम के मनवांछित चीजें देती थीं। मनपसन्द चीजें मिलने से मनुष्य उसका मनमाना प्रयोग करने लगा और भोग-विलास में लिप्त रहकर प्रभु को भूल कर उपासना धर्म का पूर्ण त्याग कर दिया।
तत्पश्चात् मनुष्यों के इन कुप्रवृत्तियों के कारण पृथ्वी से दैवी सम्पत्तियाँ अदृश्य होने लगी और पृथ्वी पर पीड़ा का साम्राज्य छा गया। दिन प्रतिदिन मनुष्यों की शक्तियाँ क्षीण होने लगी। फिर ऐसी आपदायें आयीं कि पृथ्वी पर हाहाकार मच गया। अब इस पीड़ा की पुकार ब्रह्मलोक तक पहुंची। इससे ब्रह्मा का आसन डोल उठा और वे अपनी तपस्या से जाग कर इस आसन डोलने का कारण खोजने लगे।
उस समय समाधि लगाने पर ब्रह्माजी ने मनुष्यों के कुकर्म तथा अनीति को इन सब आपदाओं की जड़ माना । अतः उन्होंने मानव के इस दुःख और दर्द को भी दूर करने का उपाय क्षण भर में खोज लिया। ब्रह्माजी ने कई ज्ञानी मनुष्यों को उनकी समाधि में दर्शन दिये तथा दैव वाणी में उन्होंने कहा कि पृथ्वी के सभी दुःखों को दूर करने का एक ही उपाय है, वेद का पठन-पाठन । तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने उन्हें अपने ही मुख से उत्पन्न वेदों का उपदेश दिया। ब्रह्माजी पुनः बोले - हे मुनियों ! वेद तो भगवान का नाद ब्रह्म स्वरूप है तथा यह स्वरूप समस्त आकाश मण्डल को व्याप्त हुआ है। परम ज्योति परमात्मा के इस स्वरूप का ध्यान तथा उपासना आदि करने से मनुष्यों के सभी दुख दूर होंगे और उनकी मनोकामनायें पूरी होंगी। अतः आप लोग इसी वेद धर्म का प्रचार करते हुये उनका यथेष्ट पालन करायें।
ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा सुनकर सारे मुनिगण वेद मन्त्रों को गाते हुये समस्त पृथ्वी पर विचरण करने लगे। उनके उपदेश सुन कर सारे मनुष्य वेद धर्म का पालन करने लगे। ऐसा करने से मनुष्यों को पुनः शान्ति मिल गयी। उनके सारे दुःख दूर हो गये और वेदों की उपासना से उन्हें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होने लगी।
इसके बाद मनुष्य भी अब वेदाङ्ग उपनिषद्, ब्राह्मण आरण्यक, पुराण, उप-पुराण, शास्त्र आदि अनेक प्रकार की रचनाओं में लग गये। इस प्रकार वेद के गूढ़ व गहरे रहस्य खोलकर किस प्रकार कौन सा सुख प्राप्त होता है, इस पर मन्थन करने लगे और अपनी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयास करने लगे। उस समय उसे अपनी सारी इच्छित वस्तुयें प्रयत्न से ही प्राप्त होने लगी। मनुष्य फिर अपने प्रभु को याद करने लगा।
ब्रह्माजी ने मनुष्यों के निर्वाह हेतु अनेक छोटे बड़े पशुओं को भी उत्पन्न किया। उनमें कुछ दूध जैसे खाद्य पदार्थ देते थे और कुछ सवारियों के काम आते थे। इसमें अनेक वृक्ष लताओं की उत्पत्ति की जिससे कन्द-मूल फल और सब्जियाँ प्राप्त होने लगी। इन सब चीजों से मनुष्य अपने लोगों का पालन-पोषण करता और समय निकाल कर प्रभु का भजन करता । इस प्रकार ईश्वर का स्मरण करने से उसे अनेक प्रकार के उत्तम फलों की प्राप्ति होने लगी।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषिगण ! इस प्रकार धीरे-धीरे कर्म युग का आरम्भ हुआ और मनुष्यों को कर्मों के आधार पर अच्छे बुरे कर्मों का फल प्राप्त होने लगा। फिर मनुष्य समूहों में रहकर बन्जारों की तरह जीवन व्यतीत करने लगा। उनका नेता राजा माना जाता था। प्रजा की रक्षा का भार राजा पर होता था और सारे लोग राजा का सम्मान करते थे।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में अन्य सृष्टियाँ नाम चौथा अध्याय सम्पूर्ण || पाँचवा अध्याय
(वेन की दुष्टता )
स्वयंभुव मनोवंशे ध्रुवस्यैव तथान्वये।
जाताऽङ्ग प्रतिपालश्च प्रजानां स यथा पिता ॥
सूतजी बोले-हे ऋषिगण ! मैंने सृष्टि के आरम्भ का थोड़ा परिचय दिया। इस सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयं भुव नामक मनु के वंश में उत्तानपाद नामक बड़ा ही पराक्रमशाली राजा हुआ। इनके पुत्र का नाम ध्रुव था। इन्हें अपने उत्तम तेज और भक्ति से बचपन में ही प्रभु के दर्शन हुये । इन्होंने अपनी सभी पीढ़ियों का उद्धार किया। इसी वंश में अङ्ग नामक एक राजा हुआ जो बहुत ही दयालु और प्रजा पालक था। उसके राज्य में प्रजा स्वर्ग के सभी सुख भोगती और निर्भय होकर जीवन यापन करती थी।
कालान्तर में इसी राजा के यहाँ वेन नामक एक पुत्र हुआ, जो बहुत ही दुराचारी और दुष्ट था। वह बराबर अनुचित आचरण करता तथा दुष्ट और पापियों को साथ रखता, लेकिन राजा का पुत्र होने से कोई उससे बोलता नहीं था, सारी प्रजा इससे दुःखी रहने लगी। धीरे-धीरे वेन ऋषि मुनियों को भी तङ्ग करने लगा।
अब वेन के दुष्टता की चर्चा राजा के कानों में पहुंची। उसकी प्रजा कष्ट में रहे यह उसे बर्दाश्त न था। उसने इसके लिये वेन को समझाना शुरू किया और उसे सुधरते हुये न देखकर आखिर उसे बाहर वन में भेज दिया, लेकिन वेन फिर भी न सुधरा और प्रजा को तरह-तरह से पीड़ित करने लगा। उस समय राजा से प्रजा का यह कष्ट देखा नहीं जाता था और वह इसी चिन्ता में दुर्बल होने लगा और एक दिन महल छोड़कर चला गया।
उसके जाते ही राज सिंहासन खाली हो गया। वेन की दुष्टता देखकर उसे सिंहासनारूढ़ करना अनुचित था, लेकिन फिर भी यह सोचकर कि राजा बनने के बाद वेन शायद सुधर जाये, उसे राजा बना दिया गया। लेकिन उसने राजा बनते ही अपनी दुष्टता और बढ़ा दी। राज्य मिलने से उसके पास लक्ष्मी भी आ गयी थी। इससे वह घोर दुराचारी हो गया और उसके दुष्टता की सीमा ही न रही। वह प्रजा को समझाता कि राजा ईश्वर का ही अंश होता है। अतएव राजा का पूजन ईश्वर की जगह होनी चाहिये। इसके अलावा प्रजा के पास जो हो उसे राजा को समर्पित कर देना चाहिये, क्योंकि राजा की सेवा ही प्रजा का सच्चा धर्म है। उसकी इस आज्ञा का पालन जो नहीं करता था उसे कठोर दण्ड दिया जाता था।
प्रजा पर इतना जुल्म ढाने के बाद भी वेन को सन्तोष नहीं था। उसकी दृष्टि अब ऋषि मुनियों पर पड़ी। इन ऋषियों को सारी प्रजाओं से कुछ न कुछ सम्पत्ति मिला करती थी, जिसका पूजन और याग यज्ञ में उपयोग होता तथा इससे अन्य परोपकार के काम किये जाते थे। राजा बेन सोचने लगा कि ऋषियों को मिलने वाली सारी सम्पत्ति यदि उसे ही मिल जाये तो कितना अच्छा हो । इस प्रकार सोचकर राजा वेन ने ऋषियों को आज्ञा दी कि वे प्रजा से मिलने वाली सारी सम्पत्ति राजा को सौंप दिया करें।
अब ऋषियों को परेशान करने से सारे राज्य में अधर्म फैलने लगा। लाज-मर्यादा, मान-अपमान, धर्म-अधर्म सारे भेद समाप्त हो गये। धार्मिक क्रियायें बन्द हो गयीं और प्रजा दुःखी हो गयी। तब सारे ऋषिगण मिलकर सोचने लगे कि अगर ऐसा ही होता रहा तो संसार से धर्म का नाम सदा के लिये मिट जायेगा। यह सोचकर उन्होंने राजा वेन को सुधारने और समझाने का प्रयत्न किया। उस पर साम, दाम, दण्ड, भेद सभी का प्रयोग किया गया, लेकिन वेन इसके बावजूद उद्दण्ड होता चला गया।
धीरे धीरे वेन की दुष्टता सभी को असह्य होने लगी। अतएव एक दिन क्रोधावेश में ऋषियों ने राजा वेन को मार डाला। उसका शव कभी काम में आयेगा। यह सोचकर उसके शव को एक कोठरी में बन्द कर दिया।
वेन का इस प्रकार नाश करने के बाद ऋषियों ने राज्य का कार्यभार मन्त्रियों को सौंप दिया। वे सब ऋषियों के परामर्श से राज्य का कार्य सुचारु रूप से चलाने लगे और फिर से सुख शान्ति लाने का प्रयत्न करने लगे।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में वेन की दुष्टता नामक पाँचवा अध्याय सम्पूर्ण || छठाँ अध्याय
(पृथु चरित्र )
वेने चोपरते तत्र पृथिव्यां दुष्ट मानवाः।
दुष्टकार्यरता नित्यं भयं कस्मान्न लेभिरे॥
सूतजी बोले - हे ऋषि ! वेन की मृत्यु के बाद दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता और बढ़ गयी। कारण कोई राजा न होने से वे एकदम निर्भय हो गये थे। वे प्रजाओं को पहले से अधिक परेशान करने लगे। इससे सारी प्रजा पहले से अधिक दुःखी हो गयी। लोग न शान्ति से रह सकते थे, न खा पी सकते थे । सर्वत्र अधर्म और अनीति का साम्राज्य था और जुल्मों को भोगते भोगते प्रजा मृत प्राय हो गयी।
उस समय प्रजा के सारे दुःखों को देखकर ऋषि मुनि काफी चिन्तित हो गये । प्रजा को इन कष्टों से कैसे बचाया जाये, इसके लिये उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। आखिर उन्हें एक उपाय मिल ही गया। उन्होंने कोठरी में बन्द पड़े राजा वेन के शव को बाहर निकाला और उसका मन्थन करने लगे।
सबसे पहले उन्होंने राजा वेन के बांये शरीर का मन्थन करना शुरू किया और अपनी मन्त्र शक्ति से उसके बाँये शरीर से सारी मलिनता को बाहर निकाला। ऐसा करने से उसके बाँये अङ्ग से एक अत्यन्त काला पुरुष उत्पन्न हुआ। यह पुरुष कलियुग था। यह व्यक्ति अनेक प्रकार के दुर्गुण और दुराचार से युक्त था। उसके काले शरीर में ताँबे के समान दो रक्तिम नेत्र थे। उसके शरीर के बाल खुरदुरे तथा खड़े हुये थे। वह बड़ा भयानक लगता था। उस समय उसकी सूरत से सारे ऋषि मुनि भी डर गये । वह व्यक्ति उत्पन्न होते ही दक्षिण दिशा की ओर चला गया।
इसके बाद ऋषियों ने उसके दाँयें अङ्ग को मथना शुरू किया, उसके दाँये अङ्ग से स्त्री-पुरुष का युगल जोड़ा निकला। पुरुष देखने में सुन्दर था तथा उसके हाथ पाँव के तलवे में शंख, चक्र आदि का निशान बना था। वह हाथ में धनुष बाण लिये हुए था तथा पीले वस्त्र तथा मुकुट धारण किये था। उसके साथ जो स्त्री थी वह भी उत्तम स्वरूप वाली थी और दिव्य अलङ्कारों से शोभित थी। उन दोनों के स्वरूप देखकर ऋषियों ने निश्चय किया कि ये भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी के अवतार हैं। ये उनके संकट दूर करने के लिये ही अवतरित हुये हैं। ऐसा सोचकर ऋषियों की प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने उस पुरुष का नाम पृथु रखा।
पृथु की उत्पत्ति के साथ आकाश में देवताओं की दुंदुभि बजने लगी। चारों ओर पुष्पों की वर्षा होने लगी। किन्नर तथा यक्ष पृथु के गुणों का वर्णन करने लगे। ऋषियों को पृथु के बारे में जानकारी मिलते ही वे पृथु के भावी पराक्रमों की यश गाथा को गाने लगे। सर्वत्र आनन्द छा गया। सभी पृथु के प्राकट्य महोत्सव मनाने में मग्न हो गये।
इसके बाद पृथु ने पत्नी सहित ऋषियों को प्रणाम किया और बोले - मैं आप लोगों का सेवक और सदैव आप सब की भलाई की कामना करता हूँ। आप लोग मेरा कर्तव्य निर्धारित करें ताकि उसके ही अनुसार मैं कार्य कर सकूँ।
पृथु की इस विनम्र वाणी को सुनकर ऋषिगणों ने पृथु को सारी परिस्थितियों की जानकारी दे दी। दुष्टों की दुष्टता से त्रस्त प्रजा की रक्षा हो ऐसी इच्छा प्रकट करते हुये कहा - हे पृथ्वी पालक ! आप समग्र प्रजा के राजा बनें और शान्ति तथा अभय का साम्राज्य स्थापित करें। तत्पश्चात् विधिपूर्वक वेद के मन्त्रोच्चार सहित उन्होंने पृथु जी का राज्याभिषेक कर दिया। उस समय अनेक प्रकार के मङ्गल वाद्य बजने लगे। चारों ओर जयनाद होने लगा। आकाश तथा समस्त दिशाओं में पृथुजी की जय-जयकार होने लगी।
राज्य सिंहासन पर बैठते ही पृथु जी अनेक प्रकार से प्रजा को सुखी करने का प्रयत्न करने लगे । सर्वप्रथम उन्होंने पापी मनुष्यों तथा दुष्टों को दण्ड देने का कार्य किया। उन्होंने समग्र पृथ्वी पर अनीति, अधर्म का नाश करते हुये दुष्टों का संहार किया। फिर वहाँ अकाल की स्थिति हो गयी और प्रजा भूखों मरने लगी, तब पृथुजी ने विचार किया कि निश्चित रूप से प्रजा का अन्न पृथ्वी निगल जाती है, इसलिये पृथ्वी को भी ठिकाने लगाना पड़ेगा।
उन्होंने अब पृथ्वी को दण्ड देने के लिये जैसे ही धनुष पर बाण चढ़ाया वैसे ही पृथ्वी गाय के रूप में उनके सामने आ खड़ी हुयी और पृथुजी से हाथ जोड़कर बोली-हे प्रजा पालक पृथु जी! यदि आप मेरा ही नाश कर देंगे तो मैंने जिस प्रजा को धारण कर रखा है, उसका क्या होगा? उसकी बात सुनकर पृथुजी बोले - हे पृथ्वी! दुष्टों के साथ रहकर तेरी भी मति बिगड़ गयी है। इस कारण, तूने समग्र वस्तुओं को अपने अन्दर छिपा लिया है और प्रजा को कुछ नहीं देती, इसलिये तेरा विनाश करना आवश्यक है। तू इस विनाश के लिये तैयार हो जा। राजा पृथु और पृथ्वी में यह वार्तालाप हो ही रहा था कि वहाँ वह काला पुरुष आ पहुँचा। अब पृथ्वी ने उसके बारे में बताते हुये कहा - हे महाराज ! यह दुष्ट मुझे अनेक प्रकार से दुःख देता हुआ मेरी सम्पत्तियों का दुर्व्यय करता है। इसी के कारण मैं इधर उधर भागती रहती हूँ। फिर भी यह मेरा पीछा नहीं छोड़ता। अत: आप मुझसे इसका पीछा छुड़ाइये, मैं फिर आपके कथनानुसार चलने को तैयार हूँ।
उस समय पृथ्वी की बात सुनकर पृथुजी धनुष बाण लेकर उस काले पुरुष को मारने दौड़े और कहने लगे - दुष्ट ठहर जा! तेरी दुष्टता से मेरी प्रजा को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। मैं आज तेरे प्राण हरण करके ही रहूँगा।
पृथुजी की बात सुनकर वह काला पुरुष एकदम काँपने लगा और हाथ जोड़कर पृथुजी से कहने लगा - हे राजन् ! आप मुझे क्षमा कर जीवित रहने दें। मुझे अपने चरणों में स्थान दें। मैं अब आपकी आज्ञानुसार कार्य करने का वचन देता हूँ।
उस दुष्ट की प्रार्थना सुनकर पृथुजी बोले - हे दुष्ट ! तुझे शायद नहीं मालूम कि पृथु के हाथों से कोई भी दुष्ट जीवित नहीं रह सकता। तू कौन है और मेरे राज्य में किस कारण घूम रहा है ?
उस समय वह काला पुरुष बोला - मैं कलियुग हूँ ! जहाँ अधर्म, अनीति और दुराचार रहता है, वहाँ मेरा राज्य चलता है। आपने चारों ओर अधर्म का नाश किया है, तो मेरे भी रहने का स्थान बतायें ताकि मैं इधर-उधर भटकता न रहूँ। फिर मैं आपके राज्य में अनीति की छाया न पड़ने दूंगा, किन्तु आज मुझे जीवित रहने दें। कलयुग की ऐसी वाणी सुनकर पृथु जी ने सोचा कलियुग में अनेक दुर्गुणों के होते हुये भी एक विशेष गुण भी है। दूसरे युगों में अनेक प्रकार के धर्म यज्ञ याग उपासना आदि करने पर भी जो फल नहीं मिलता वह कलियुग में अनजाने से भी भगवान का नाम लेने से मिल जाता है। इसलिये उसका विनाश करना उचित न होगा। तब पृथु ने कलियुग को अभयदान देते हुये उसे अपने राज्य से बाहर चले जाने का आदेश दिया। कलियुग फिर पृथु के राज्य को छोड़कर चला गया और राज्य के बाहर निवास किया।
उसके चले जाने के बाद पृथ्वी ने कहा - हे राजन् ! मेरे पास बहुत सम्पत्ति है, उस सम्पत्ति का भार उठाकर मैं बहुत थक गयी हूँ। इसलिये आप उस सम्पत्ति को ग्रहण कर मेरा भार हल्का कर दें, जिससे उस सम्पत्ति को आपकी प्रजा, सुख से उपभोग करे। उस समय पृथु ने योग्य बछड़ों की कल्पना कर सारे सम्पत्ति को योग्य पात्र में दुहा और उन सम्पत्तियों से प्रजा को सुख शान्ति मिले ऐसी व्यवस्था में लग गये।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में पृथु चरित्र नामक छठा अध्याय सम्पूर्ण || सातवाँ अध्याय
(विश्वकर्मा का आगमन )
पृथुः प्रजानां च कथं प्रियं नित्यं च शाश्वतम् ।
कृतवानति धर्मज्ञस्तत्त्वं कथय तत्वतः॥
ऋषि बोले - हे सूतजी! अनेक धर्मों के ज्ञाता महाराज पृथु ने प्रजा के हित के लिये कौन-कौन से कार्य किये, इसे आप विस्तार से बताने की कृपा करें और भगवत् भक्ति से प्रवाहित वाणी का हमें लाभ देकर कृतकृत्य करें।
सूतजी ऋषियों को प्रभु लीला को सुनने के लिये उत्सुक देखकर बोले - हे ऋषियों ! प्रभु की लीलायें अपरम्पार हैं। उनकी गाथा का कोई पार नहीं है। उनकी लीला का वर्णन करने के लिये सरस्वती जी भी असमर्थ हैं। वास्तव में अनेक अवतार धारण करके अपरम्पार लीला करने वाले प्रभु की महिमा केवल प्रभु भक्त ही समझ सकते हैं। प्रभु तो सदैव अपने दास के प्रति दासत्व की भावना ही रखते हैं। भक्तों की भलाई के लिये प्रभु लक्ष्मीजी को भी छोड़ने को तैयार रहते हैं। राजा पृथु ने इसी परमात्मा की आराधना में चित्त लगाये हुये प्रजा का अच्छी तरह पालन पोषण किया। अधर्म, पाखण्ड, दुराचार का नाश करते हुये प्रजा के सुख के लिये सदैव तत्पर रहे।
इसके पूर्व ही जब आदि नारायण की आज्ञा से ब्रह्माजी ने सृष्टि के निर्माण का कार्य आरम्भ किया तो अस्थिर हुई पृथ्वी को स्थिरता प्रदान करने के लिये उन्होंने प्रभु की प्रार्थना की थी। उस समय प्रभु विश्वकर्मा ने डगमगाती पृथ्वी को स्थिर करने में ब्रह्माजी की सहायता की थी। उन्होंने देवताओं का मन आनन्दित करने के लिये स्वर्ग की रचना की थी। अब इन बातों की जानकारी मिलते ही अपनी प्रजा को निर्भय बनाने के लिये राजा पृथु ने उन्हीं विश्वकर्मा जी का स्मरण किया। उस चार भुजा वाले देवता ने जिसके एक हाथ में गज (नापने वाला) दूसरे हाथ में डोरी, तीसरे हाथ में कमण्डल तथा चौथे हाथ में पुस्तक थी और शरीर पर यज्ञोपवीत था। राजा पृथु के ऐसे प्रभु का ध्यान करते ही असंख्य सूर्य के समान प्रकाश वाला तेज का गोला पृथ्वी की तरफ आने लगा। उस प्रकाश के गोले के निकट आते ही उसमें से हंसारूढ़ पुरुषोत्तम आदि नारायण स्वरूप भगवान विश्वकर्माजी के सब को दर्शन हुये।
धीरे-धीरे यह प्रकाश का गोला नीचे उतरा और धरती पर जहाँ राजा पृथु बैठे थे, वहाँ आ गया। उस समय सारी पृथ्वी आनन्दित हो उठी और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। सभी आनन्दमग्न होकर प्रभु के दर्शन करने लगे। वे गदगद् कण्ठों से प्रभु की प्रार्थना करते हुये अपना जीवन सफल मानने लगे। वे बोले - हे भगवन् ! हे विश्वकर्मन् ! हे देवाधिदेव ! आप हमारे पालक पिता हैं और आपके ही कारण यह पृथ्वी टिकी है। आप ज्ञान के रूप में जगत के अणु-अणु में व्याप्त हैं । पृथु आदि पंचभूतों के अन्दर आप ही व्याप्त हैं।
इस संसार की उत्पत्ति के पूर्व क्या था, या कौन था ? संसार की रचना के लिये पञ्चभूतों को किसने उत्पन्न किया ? आपने ही संसार को आश्रय रूपी भूमि को उत्पन्न किया। इन चौदह भुवनों की उत्पत्ति आपके ही कारण हुई है। हे प्रभो ! आप सबको देखने वाले जगत के प्रत्येक मनुष्यों को ज्ञान तथा गति प्रदान करने वाले आप ही हैं। आपने ही प्रवृत्ति मय संसार के अनेक परमाणुओं की रचना करके उसमें समस्त यन्त्रों की व्यवस्था भी कर दी है।
हे स्वामी ! इस जगत के वृक्ष का मूल आप ही हैं, इन समस्त तत्वों को लेकर उन सब के मुखिया होने से आप भक्ति करने योग्य हो। इस ब्रह्माण्ड को धारण करके उसे स्थिर रखने वाले आप ही हैं। हे परमात्मन् ! हे विश्वकर्मन् ! हे प्रभु ! किसी की सहायता लिये बिना ही आप अकेले इस संसार को धारण करते हो। आपके अनेक उत्तम कर्मों को जानने के लिये स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि देने वाले आप ही हैं। उस दृष्टि के उपयोग से जो कर्म हमें दिखायी देते हैं वे आप हम पर अनुग्रह रखने के लिये ही किये हैं। अन्नादि पदार्थों की उत्पत्ति के मुख्य कारण आप ही हो। आपकी ही दया से यह संसार चल रहा है, इसमें कोई शंका नहीं। हे ईश्वर ! हे देवाधिदेव ! आप समस्त जगत को अपने नियन्त्रण में रख कर अपनी ही शक्तियों से संसार को बढ़ाते हैं।
आकाश और पृथ्वी को एक दूसरे पर आश्रित रख कर धारण किये हैं। ईश्वरत्व को प्राप्त करने की इच्छा वाले व्यक्ति भी आपके इस माया के दर्शन करके तथा आपकी अलौकिक शक्तियों को देखकर मोह प्राप्त करते हैं। वे भी कहते हैं कि संसार में ज्ञान दाता या ईश्वर जो भी हैं केवल आप ही हैं।
हे जगन्नियन्ता ! वेद उपनिषद या समस्त महापुरुषों की वाणी आप ही हैं। अपनी रक्षा के लिये हम आप जैसे परमात्मा से ही प्रार्थना करते हैं। हे प्रभु! परम कृपालु होने से आप भक्तों की प्रार्थना सुनते हैं तथा विलम्ब किये बिना आप भक्तों का कल्याण एवम् उनकी रक्षा करते हैं। आपने जगत की रक्षा के लिये जगत के रक्षक को उत्तम कलागीरी और साधनों से सुसज्जित बनाया है तथा वे भी सम्पूर्ण रूपेण सुरक्षित हैं। हे दयालु ! इस प्रकार जगत के रक्षकों को उत्तम प्रकार की बुद्धि देने वाले साधन तथा उपाय आप ही हैं।
हे ईश ! सबको देखने वाले आप ही हैं तथा आपके संकेत से प्रकृति के परमाणु धन प्राप्त करते हैं। आपके ही प्रभाव से पृथ्वी में से जल की उत्पत्ति होती है। प्रखर तेजस्वी सूर्य के प्रभाव से इस पृथ्वी में से जल की गति है। हे देवाधिदेव ! इस सबके आधारभूत आप ही हैं। हे विश्वकर्मन ! आप अनेक प्रकार के ज्ञान विज्ञान से युक्त हैं सभी लोगों को अपने ही सामर्थ्य से धारण एवं पालन करते हैं। आप ही एक मात्र सबके कर्ता-धर्ता और हर्ता हैं तथा सब पर समान दृष्टि रखने वाले आप ही हैं। आपका ही आधार प्राप्त कर सभी जीव अन्न पान आदि प्राप्त कर अत्यन्त हर्षित होते हैं। जीवों के अच्छे बुरे कार्यों का फल देना आपके हाथ में ही है।
हे देव ! आप सप्तर्षियों के ऊपर रहते हो और आप ही अद्वितीय तत्व हो। आपके अतिरिक्त इस जगत में ऐसा कुछ नहीं है। आप अद्वितीय हैं और सबको धारण और पालन करने वाले हैं। आप ही ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने वाले सूर्य चन्द्र आदि में व्याप्त हैं और स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। ज्ञानी पुरुष अनेक तर्क-वितर्क से आपका ही चिन्तन कर आपको जानने के लिये लालायित रहते हैं।
प्राचीन ऋषि मुनि प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रजो गुण से युक्त सभी प्राणियों को योग्य मार्ग दिखाकर उन्हें इष्ट मार्ग बताते थे तथा इस प्रकार उन्हें सभी अनिष्टों से बचा कर ब्रह्म स्वरूप विश्वकर्मा के ध्यान के लिये उद्यत करते और ऐसा करके वे परम कृपाल परमात्मा के ध्यानावाहन पूजनादि के लिये द्रव्य संग्रह करके उससे आपका भजन पूजन करते थे। आप आकाश, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी तथा समस्त दैत्य दानव और मनुष्यों से परे सर्व शक्तिमान हो ।
हे देव! आपने अपनी शक्तियों के आश्रय में रहकर सबको धारण करने के लिये जल में अण्डा उत्पन्न किया। उसी अण्डे में देवताओं ने अपने साथ सचराचर विश्व का दर्शन किया था। हे सर्वश्रेष्ठ! आपके ही इस प्रकृतिमय गुणों का आश्रय करके परमाणु रूपी अपने गर्भ को धारण करते हो तथा शक्तियों के द्वारा उस गर्भ में अण्डा उत्पन्न होता है। उसमें से समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है। उसी विश्व के अन्दर सभी देव, दानव और मनुष्य समाये हुये हैं।
हे विश्वदेव ! साधारण मनुष्य परब्रह्म स्वरूप को पहचानने में असमर्थ रहता है। जैसे धुन्ध छा जाने से सामने पड़ा हुआ पदार्थ दिखायी नहीं पड़ता। इसी प्रकार अन्धकार रूपी सीढ़ियाँ चढ़ने से मनुष्य को सत्य नहीं दिखायी पड़ता। इसीलिये झूठे तर्क करते हुये अज्ञानी व्यक्ति आपको पहचान नहीं सकते।
हे विश्वकर्माजी ! इस सारे सृष्टि की शुरुआत होने से सबसे पहले आप ही रहते थे और पृथ्वी सूर्य रूपी आकाश आदि के रूपों में आप प्रकट हये। सभी औषधियों और वनस्पतियों को उत्पन्न करने वाले आप ही हैं।
सूतजी बोले - हे शौनक ! इस प्रकार ऋषियों द्वारा की गयी प्रार्थना से प्रसन्न होकर आदि नारायण श्री विश्वकर्मा जी ने राजा पृथु पर कृपा दृष्टि की और उनके द्वारा अर्पण किये हुए दिव्य सिंहासन पर आरूढ़ हुये । इसके बाद ऋषियों द्वारा अनेक मन्त्रोच्चार सहित राजा पृथु का पूजन किया और उत्तम प्रकार के फल-फूल तथा मेवा आदि से भगवान को भोजन कराया गया। उस समय जब प्रभु विश्राम कर रहे थे, तो उनका चरण दबाते हुये ऋषियों सहित पृथु ने उनके सामने अपनी कठिनाई रखी। उनकी प्रजा कैसे निर्भय बने और किस प्रकार उत्तम ढंग से उसका संरक्षण हो इसका उपाय जानना चाहा । पृथु की बात सुनकर प्रभु ने उन्हें वे सारी बातें बतायीं जिससे प्रजा में सुख शान्ति उत्पन्न हो सके।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! जिनसे पृथु ने भगवान की स्तुति की थी, वे वेद के कहे हुए सूक्त थे। उस सूक्त से जो मनुष्य निरन्तर विश्वकर्मा की स्तुति करता है, उस मनुष्य को कभी क्रोध नहीं आता । वह नित्य आनन्दित रहता हुआ सुख शान्ति का उपभोग करता है। उसे फिर जीवन मरण का चक्कर नहीं लगाना पड़ता । जिस व्यक्ति पर प्रभु विश्वकर्मा की कृपा होती है उसके वंश में निरन्तर वृद्धि होती है और वह बराबर एक राजा के समान उत्तम सुख का उपभोग करता है। उत्तम प्रकार के दैवी आवासों में निरन्तर सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करता है। उसका घर सदैव शुभ कार्यों से शोभायमान रहता है।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वकर्मा का आगमन नामक सप्तम अध्याय सम्पूर्ण || आठवाँ अध्याय
(नव निर्माण)
पृथुना प्रार्थितस्तत्र प्रजानां हितकाम्यया ।
पंचपुत्र समेताश्च विश्वकर्मा चकारकिम् ।।
ऋषि बोले - हे सूतजी! राजा पृथु की प्रार्थना से प्रसन्न हुए श्री विश्वकर्मा ने अपने पाँच पुत्रों तथा वास्तुदेव को बुलाकर क्या किया? पृथु राजा की प्रार्थना पर पधारे देवताओं ने क्या क्या किया इसका भी विस्तारपूर्वक वर्णन करें, कारण कि अलौकिक शक्ति वाले आदिदेव के कार्य अलौकिक होते हैं। कृपया इसके बारे में भी विस्तार से जानकारी दें।
सूतजी बोले - हे ऋषिगण ! मैं उसको भी बताने जा रहा हूँ, उसे भी ध्यान पूर्वक सुनिये । इसके पूर्व इन्द्रादि देवता तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि देवों ने जब प्रार्थना की थी, तब श्री विश्वकर्मा प्रभु ने उनके लिये सुन्दर आवास की रचना की थी। उनकी इस अलौकिक रचना से सभी देवतागण प्रसन्न हुये तथा विश्वकर्मा के पुत्रों को वरदान दिये। तत्पश्चात् पृथु राजा के कार्य को सिद्ध करने के लिये उन्होंने अपने पाँच पुत्रों को आज्ञा दी। उस समय पाँचों पुत्र तुरन्त पृथु के लिये उत्तम आवास की रचना कार्य में जुट गये। अनेक प्रकार की उत्तम रचनायें करके उन्होंने पृथु के मन को आनन्द देने वाले राजमार्ग तथा उपमार्गों से युक्त नगर की रचना की। झरोखे,मुंडेरे, खिड़की, दरवाजे, पताका, तोरण आदि से सुसजित भवनों का निर्माण किया। फिर उत्तम नगर की रचना करने के बाद कोट और किले बनाये जिससे प्रजा का रक्षण हो सके। इन उत्तम नगरों के निर्माण के बाद सुन्दर गांवों की भी रचना की।
ऋषियों ने कहा - हे सूतजी ! उत्तम ज्ञान तथा विज्ञान को जानने वाले प्रभु विश्वकर्मा की आज्ञा से उनके पाँचों पुत्रों ने जिस प्रकार की उत्तम रचनाओं को किया, उसे भी हमें बतायें क्योंकि उन्हें जानने की हमारी प्रबल इच्छा है।
सूतजी बोले - हे ऋषिगण! देवों के देव प्रभु विश्वकर्मा की आज्ञा से पृथ राजा का कार्य करने के लिये तत्पर उनके पाँच पुत्रों ने सर्वप्रथम पाँच भवनों का निर्माण किया। इसमें मुख्य भवन 108 हाथ के विस्तार वाला बनाया। बाकी चार भवन क्रम से सौ, बानवे, चौरासी तथा छिहत्तर हाथ के विस्तार वाला बनाया। प्रत्येक भवन के लिये विस्तार से अधिक लम्बाई रखी गयी। राजा के मुख्य भवन में नौ हाथ के विस्तार वाली कोठरी तथा उसके प्रमाण के लायक आलिन्द की रचना की। योन्य स्थान पर सीढ़ियों की व्यवस्था भी की गयी। भवन के बाहर चारों ओर तीन हाथ का चबूतरा बनाया। पहली मंजिल की ऊँचाई बारह हाथ की रखी और उसके ऊपर ग्यारह हाथ की ऊँचाई वाली दूसरी मंजिल बनायी। इस प्रकार उतरते क्रम के अनुसार मंजिलें बनवायी । इस प्रकार सात मंजिल का भवन बना । तत्पश्चात् साठ हाथ के विस्तार वाला मंत्री का मुख्य गृह तथा उसी के अनुसार अन्य चार गृहों की रचना की। इसके बाद अस्सी हाथ के विस्तार वाला राजकुमार का गृह तथा राजा के अन्य अधिकारियों का गृह अड़तालिस हाथ के विस्तार वाला बनाया। चालिस हाथ के विस्तार वाला राजवैद्यों और राज पुरोहितों का गृह बनाया । बत्तीस हाथ के विस्तार वाला ब्राह्मणों का गृह तथा क्रमश: क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये अट्ठाइस, चौबीस और बीस हाथ वाला मुख्य गृह बनाया। प्रत्येक के लिये अन्य चार-चार गृह बनाये गये। इस तरह वे सारे भवन उत्तम प्रकार के माप को लेकर बनाये गये।
तत्पश्चात् उन पुत्रों ने पशुओं के रहने के लिये स्थान, सन्यासियों के लिये आश्रम और अनाज की कोठरी, जलाशय, क्रीड़ास्थल आदि उत्तम स्थानों की रचना की और प्रत्येक गृह की रचना करने के बाद उन्हें उत्तम प्रकार के रङ्गों से सुशोभित किया गया। फिर अनेक देवालय और तीर्थ स्थानों की रचना की गयी। उसके अनुसार उत्तम मूर्तियाँ बनायी गयी । प्रत्येक गृहों में विधि पूर्वक पूजन महोत्सव मनाया गया। फिर शुभ मुहूर्त देखकर सारी प्रजा ने अपने-अपने निवास में प्रवेश किया। इस प्रकार सभी जगह आनन्द मङ्गल मनाया जाने लगा।
उस राजा पृथु ने अपनी सारी प्रजाओं की एक सभा बुलायी और सभा को सम्बोधित करते हुये कहा - प्रभु विश्वकर्मा की दया से हम पूर्णरूपेण निर्भय हो गये हैं। अत: मेरी इच्छा है कि उस परमात्मा की प्रेम पूर्वक पूजा करें। उस समय सभी प्रजा ने इसका समर्थन किया। फिर उन्होंने पुरोहितों को मुहूर्त ढूँढ़ने के लिये कहा। राजा की बात सुनकर पुरोहितों ने कहा - हे राजन् ! आज के सातवें दिन बाद माघ शुक्ल त्रयोदशी है। उसी दिन भगवान विश्वकर्मा प्रकट हुए। अत: हम इस शुभ काम के लिये यही दिन रखें तो अच्छा होगा। पुरोहित जी की यह बात सुनकर राजा ने हुक्म दिया कि यह बात सारी प्रजा में जाहिर कर दो कि उस दिन भगवान श्री विश्वकर्मा का महोत्सव सभी प्रजा जनों में प्रेम पूर्वक मनाया जाये।
राजा की यह आज्ञा सुनकर चारों ओर विश्वकर्मा जयन्ती मनाने का आयोजन किया जाने लगा। इसके लिये सभी राजमार्ग, उपमार्ग की सफाई होने लगी और मार्गों के दोनों ओर उत्तम प्रकार के तोरण, पताका, पल्लव आदि से सजाया जाने लगा।
उस समय सभी ओर मङ्गल वाद्य बजने लगे। घी तेल आदि के असंख्य दीपों से हर घर को आलोकित किया जाने लगा। स्त्रियाँ अपने घरों की शोभा बढ़ाने के लिये उन पर अपने ढङ्ग से सफेदी करा कर उन्हें स्वच्छ बनाने लगी तथा उन्हें हर तरह से शोभायमान करने का प्रयत्न करने में लग गयीं । प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपने कीमती वस्त्राभूषणों से अपने शरीर को सजाने लगे तथा अपनी गौशाला और अपने अस्तबलों को भी अच्छी तरह सजाकर अपने पशुओं को भी सजाने लगे।
अब धीरे-धीरे द्वादशी का दिन आ पहँचा। उस समय सभी मन्दिरों में देवताओं की पूजा होने लगी। स्त्रियाँ स्थान-स्थान पर नृत्य गीत करती हुयीं मङ्गलमय गीत गाने लगी । मन्दिरों में घन्टियाँ और शंख बजने लगे तथा ब्राह्मणों द्वारा वेद पाठ होने लगा। बन्दीजन प्रभु की स्तुति करते हुये उनका गुणानुवाद करने लगे। सारे राज्य में मानो उत्साह और आनन्द छा गया। अनेक प्रकार से प्रभु के स्वागत के पश्चात् सायंकाल का समय निकट आते ही राजा पृथु अपने मन्त्रियों तथा अधिकारियों सहित नगर के बाहर विराजमान प्रभु को पूजन ग्रहण करने के लिये निमंत्रण देने गये।
उस समय राजा पृथु ने देखा भगवान विश्वकर्मा वट वृक्ष के नीचे दिव्य सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके पाँच मस्तक दस हाथ हैं। प्रभु ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले हैं तथा उनका स्वरूप दिव्य काव्यमय सुडौल तथा अलमारों से जगमग करता दिखायी पड़ रहा है। अपने पाँच मस्तकों पर उन्होंने दिव्य मुकुट धारण कर रखा है। उनके पास ही मुनिगण अनेक वेद मन्त्रादिक से परमात्मा का स्तवन कर रहे थे।
अब उस स्थान पर जहाँ प्रभु विराजमान थे, पहुँचकर राजा पृथु ने साष्टांग दण्डवत किया। फिर अनेक उपहारों से प्रभु का पूजन किया। प्रभु की प्रार्थना करने के बाद राजा अपने मन्त्रियों सहित उचित स्थान पर बैठ गये। फिर राजा की आज्ञा से राज-पुरोहित ने प्रभु के समक्ष हाथ जोड़कर कहा - हे स्वामी! हे देवाधिदेव! आपने हम लोगों पर बड़ी कृपा की है। आपने हम सबको निर्भय बनाकर नया जीवन दिया। हे प्रभो ! हम आपको आपके द्वारा निर्मित आवास में पधारने की विनती करने आये हैं। आप उसे अपने चरणारविन्द से पवित्र करने के लिये कल हमारे नगर में पधारें।
राजा पृथु के राजपुरोहितों के इन वचनों को सुनकर प्रभु विश्वकर्मा ने उनका भाव जानकर उनकी विनती स्वीकार कर ली। इसके बाद योग्य भेंट आदि देकर राजा अपने मन्त्रियों और पुरोहितों सहित नगर की ओर रवाना हुए। तत्पश्चात उन लोगों ने सारी रात तैयारियों में बितायी और भोर का उजाला होते-होते सारे नगरवासी नगर के बाहर इकट्ठे होने लगे। नित्य कर्मों के अधिकारी पुरोहित ब्राह्मण इत्यादि भी तैयार होकर नगर के बाहर आ गये। इसके साथ ही वे नगर के बाहर निकले और प्रभु को लेने गये। एक कोस चलने के बाद वे उत्तम वन के एक बड़ के नीचे छाया में एकान्त में बैठे हुए प्रभु के सान्निध्य में सब आ गये।
तत्पश्चात् राजपुरोहित के निवेदन करने पर राजा ने प्रभु के चरण प्रक्षालित किये। फिर अपने साथ लायी हुई पालकी में प्रभु को बैठाकर मङ्गल नाद और जयघोष करते हुये वे नगर की ओर चले । उस समय राजा और युवराज ने उनकी पालकी उठा रखी थी। मार्ग में सारे नगरवासी भजन कीर्तन कर रहे थे। प्रभु के पीछे-पीछे ऋषि मुनि वेद मन्त्रों का गम्भीर स्वर से उच्चारण कर रहे थे। प्रभु के चारों ओर बन्दीजन प्रभु के यश गुण कर्म आदि का गान करते चले जा रहे थे। सबके पीछे स्त्रियाँ भी मङ्गलमय गीत गाती हई चल रही थीं। इस प्रकार नगर के सभी बाल, वृद्ध इस यात्रा में सम्मिलित थे और सबके मन में अपूर्व भाव भरे हुये थे।
धीरे-धीरे सभी लोग नगर के द्वार पर आ पहुँचे । सबसे पहले पृथु की पत्नी ने स्वादिष्ट फलों और सुगन्धित पुष्पों से प्रभु का स्वागत सत्कार किया। फिर नगरवासियों के स्वागत सत्कार करने के बाद प्रभु की पालकी राजमहल की ओर गयी । वहाँ रास्ते में प्रभु पर गुलाल आदि मङ्गल द्रव्य डाले गये । व्यापारी वर्ग तथा अन्य प्रजाजन अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रभु को अनुपम भेंट देने लगे। इस तरह प्रथम प्रहर बीतते ही प्रभु की सवारी राजमहल के पास पहुँची । वहाँ राजपुरोहित तथा अन्य कर्मचारियों ने पुन: भगवान का स्वागत कर उन्हें रत्नों तथा स्वर्ण से सुशोभित सिंहासन पर बैठाया। उसके बाद सुगन्धित जल से प्रभु का पद प्रक्षालन किया गया। फिर उस चरणामृत को राजा सहित सभी लोगों ने प्रेमपूर्वक पान किया।
इस स्वागत सत्कार के पश्चात् राजा ने प्रभु को पुष्प सहित सुवर्ण फल का अर्घ्य देते हये कहा-हे देव। मेरे कल के निरन्तर स्वामी स्वरूप आप मेरे इस अर्घ्य को स्वीकार करें। तत्पश्चात् प्रभु को वस्त्रालंकार अर्पण करते हुये उन्हें नैवेद्य अर्पित किया गया । नैवेद्य में अनेक प्रकार के पकवान तथा विविध प्रकार की रसोई थी। उस समय राजा उन पर चंवर डुलाने लगे तथा रानी उन्हें प्रेम पूर्वक खिलाने लगी। फिर प्रभु ने भोजन किया और उनके भोजन करने के साथ ही सबको लगा कि सारा संसार ही इस समय तृप्त हो गया है । तत्पश्चात् राजा और रानी ने प्रभु की आरती उतारी। सभी व्यक्तियों ने प्रभु की प्रदक्षिणा करके उन्हें उत्तम भेट अर्पित की। जब प्रभु के विदा होने का समय आया तो राजा तथा उनके समस्त नगरवासी प्रभु से प्रार्थना करने लगे। हे अनादि देव! आपको नमस्कार है। आप ही संसार में आत्म स्वरूप हये। अखिल विश्व को उत्पन्न और पालन करने वाले आप ही हो। आपके शौर्य, बल, कार्य,गति सभी कुछ अलौकिक है। आप पञ्चतत्व प्रकृति से परे हो जिसे पाने के लिये ऋषि मुनि भी असमर्थ हैं। आप साकार तथा निराकार दोनों रूप में विराजमान रहते हो तथा सब को अभय प्रदान करने वाले हो।
तत्पश्चात इस प्रकार की प्रार्थना से प्रसन्न होकर प्रभु ने राजा से वरदान माँगने को कहा। उस समय राजा ने कहा - आपकी हम पर कृपा ही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है। अत: हमें कुछ भी माँगने के लिये शेष नहीं रह गया।
राजा पृथु के स्वार्थ रहित वाणी को सुनकर प्रभु अत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर बोले-हे राजन! मैं तुम्हारे उच्च विचारों से प्रसन्न हुआ। फिर भी मेरी वाणी मिथ्या न हो तुम्हें इसके लिये कुछ माँगना ही चाहिये।
प्रभु को प्रसन्न हुआ जानकर राजा पृथु ने कहा-हे नाथ! यदि आपको मुझे वरदान देने की इच्छा ही है, तो मैं केवल इतना ही माँगता हूँ कि आपकी भक्ति से मैं लेशमात्र भी विचलित न होऊँ। उस समय प्रभु ने तथास्तु कहकर जन समुदाय की ओर देखा और कहा - आप लोगों ने जिन शब्दों से मेरी स्तुति की है, उन शब्दों से स्तुति करने वाला व्यक्ति कभी भी दु:खी न होगा तथा उसकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और वह मोक्ष का अधिकारी होगा।
प्रभु की ऐसी वाणी सुनकर सभी के आँखों में आनन्द के आँसू आ गये। उस समय सबने प्रभु को देखते हुये उनकी मूर्ति हृदय में स्थापित कर ली। उस समय बिजली की तरह एक चमक उठी और प्रभु अन्तान हो गये। प्रभु ने जाते-जाते अपने पाँच पुत्रों तथा उनके वंशजों को अण मात्र में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के लिये प्रेरित किया तथा पृथ्वी के निवासियों को कार्य करने की आज्ञा दी।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में नव निर्माण नामक आठवां अध्याय सम्पूर्ण || नवाँ अध्याय
(समुद्र मन्थन)
श्रुतं तदद्भुतं कर्म कृतं यद्विश्वकर्मणा ।
सूतं पप्रच्छतुः सर्वे समुद्रमंथनं वद ।।
ऋषि बोले - हे सूतजी! प्रभु विश्वकर्माजी ने राजा पृथु और उसकी प्रजा को निर्भय बनाने के लिये जो-जो कार्य किया था, उसे हम सबने सुन लिया। उसके पूर्व आपने समुद्र मन्थन में लक्ष्मीजी के उत्पत्ति होने की बात कही थी। अब उस प्रसङ्ग को हम सविस्तार सुनने को इच्छक है। प्रभु के समुद्र मन्थन करने का क्या कारण था? उस अथाह जल वाले समुद्र का किस तरह मन्थन किया गया। ये सब जानने के लिये हमारी जिज्ञासा बढ़ गई है।
अब प्रभु की लीला जानने के लिये उत्सुक हुये ऋषियों को देखकर सूतजी बोले हे ऋषिगण! प्रभु की लीला अपरम्पार है, उन्होंने साधु सन्त और भक्तों की रक्षा हेतु अनेक अवतार धारण किये हैं। इन लीलाओं का वर्णन करने का सामर्थ्य हर किसी में नहीं है । सरस्वती देवी स्वयम् वर्णन करने को तैयार हों तथा हजार मुख वाले शेष नाग प्रभु की लीलाओं का गान करें तो भी सन्तोष नहीं मिलता। ऐसे प्रभु अनन्त हैं। प्रभु अनेक गुण तथा आकार के आश्रय में रहकर अनेक स्वरूप को धारण करते है तथा समस्त विश्व उन स्वरूपों में ही विद्यमान है। इन्हीं प्रभु ने कृष्णावतार में माता यशोदा को अपने मुख में ही समस्त ब्रह्माण्ड का दर्शन कराया था। यही परमात्मा इस प्रकार सगुण तथा साकार ऐसे कोटि-कोटि विश्वों का मार्जन करते है तथा पुन: अपने में ही लीन करते हैं। इतना करने पर भी वे निर्गुण और निराकार ही रहते हैं। उन्होंने ही योगमाया का आश्रय लेकर तीन गुणों वाली प्रकृति का सृजन किया। इन्हीं निर्गण प्रकृति के साथ सत्व, रजस और तमस का आश्रय लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश को उत्पन्न किया। इन तीन स्वरूपों में प्रकट हुये प्रभु स्वयं विश्व को उत्पन्न करते है, उसका पालन करते है तथा विनाश करते हैं। प्रभु इस तरह स्वयं अनेक अवतार धारण कर धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करते हैं।
हे ऋषिगण ! मैंने पूर्व में ही कहा था कि मिथुन धर्म से चलने वाली सृष्टि का निर्माण करने के लिये प्रभु की आज्ञा मिलते ही ब्रह्माजी ने प्रजापतियों को उत्पन्न किया था। उन प्रजापतियों की प्रजा से ही समग्र सृष्टि भर गयी थी। मैंने पहले इन प्रजापतियों की बात आपसे कही थी । ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न इन प्रजापतियों में दक्ष नामक एक प्रजापति था। उसने अपनी तेरह पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप से कर दिया। इस महर्षि के दिति नामक पत्नी से दैत्य तथा अदिति नामक पत्नी से देवता पैदा हुये । कश्यप के सभी पुत्रों में देवता सबसे बड़े थे और उनमें सत्व गुण प्रधान था। उनमें तेज तत्व विद्यमान था और उनकी गति उच्च थी। परमात्मा ने उन्हें अपने निकट स्थान दिया और उनके निवास के लिये उत्तम स्थान की रचना की। वह स्थान ही स्वर्ग कहलाया। उन देवताओं का राजा, इन्द्र को बनाया गया। वही स्वर्ग लोक के राजा और शासक माने गये।
मनुष्यों में रजोगुण तत्व की अधिकता होने के कारण वे पार्थिव बने और उनके रहने की व्यवस्था पृथ्वी पर की गयी । जो मनुष्य यम, नियम, संयम, तप आदि गुणों को प्राप्त कर अपने रजोगुण पर विजय प्राप्त कर तथा सत्व गुणों को बढ़ाता है, वही मनुष्य स्वर्ग का अधिकारी बनता है तथा उसकी गति ऊपर जाती है। इसी के अनुसार पृथ्वी का राज्य मनुष्यों को मिला और उसके राजा मनु बनाये गये।
दैत्य तमोगुण वाले थे और उसमें वायु तत्व की प्रधानता थी। उनकी गति नीची होने के कारण उन्हें पाताल का राज्य मिला। तमोगुण की प्रधानता के कारण उनकी बुद्धि सदैव विपरीत दिशा की ओर चलने वाली हुयी । वे हमेशा बिना किसी प्रयत्न या श्रम किये फल प्राप्त करना चाहते थे। वे दुराचरण में लीन रहते और दूसरों के साथ अकारण ही तर्क किया करते । किसी की कोई सुन्दर चीज देखते तो उसे प्राप्त करने का लोभ उनके मन में आ जाता । अपनी नीच स्वभाव और मिथ्या आचरण के कारण वे पाताल में रहते हुये नर्क के समान जीवन व्यतीत करते ।
दैत्य-देवता और मनुष्य अपने-अपने ढङ्ग से प्रभु का पूजन किया करते । देवतागण ऊँचा स्थान व अधिकार को स्थायी रखने हेतु अगम्य तत्व रूपी भगवान परमब्रह्म की आराधना करते। वे अपने हृदय में स्वार्थ बुद्धि और लोलुपता नहीं रखते थे। आद्य पुरुष एवं देवताओं की आराधना करते । देव सदैव तमोगुणी होने के कारण शमर की आराधना करते । इसके साथ ही भोले स्वभाव वाले ब्रह्माजी की आराधना भी वे कभी-कभी किया करते, किन्तु रजोगुण वाले विष्णु से द्वेष रखा करते थे।
भगवान विष्णु से ईर्ष्या करने के लिये और भी बहुत से कारण थे। किन्तु भगवान का कार्य सृष्टि की रक्षा करना और पालन करना था। वे ये भी चाहते थे कि कर्म और काम पर आश्रित यह सृष्टि किसी पाप के कारण डूब न जाये । इसी कारण वे बराबर साधु सन्त और धार्मिक प्रजाओं के रक्षण को तत्पर रहा करते थे। यदि देवता भी धर्म के विपरीत कोई कार्य करते तो उन्हें भी वे उचित शिक्षा देने के लिये आगे बढ़ा करते थे। इसके साथ ही पाप कर्म करने वाले दैत्यों का विनाश हो वे ऐसी माया रचा करते । इसीलिये दैत्य विष्णु से बैर रखते हुये उन्हें कभी न भजते।
दैवयोग से एक बार राक्षसों ने विचार किया कि अगर हम देवताओं से युद्ध कर उन्हें पराजित कर दें तो स्वर्ग पर दैत्यों का अधिकार हो जायेगा। फिर क्या था? स्वर्ग का राज्य पाने के लिये उन्होंने देवताओं से घोर युद्ध करना प्रारम्भ किया। ये युद्ध काफी समय तक चला और इसमें दैत्यों की पराजय हुयी और उन्हें भयंकर क्षति पहुँची। अपनी संख्या को घटती हुई देखकर वे गुरु शुक्राचार्य के पास गये और अपनी सारी मुसीबत कह सुनायी। शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान था। इसलिये देवासुर युद्ध में जिन दैत्यों का नाश हुआ था उन्होंने उस विद्या के प्रभाव से उन्हें पुन: जीवित कर दिया। अब ऐसा बार-बार होने से यह लड़ाई काफी समय तक चलती रही। लेकिन कुछ समय पश्चात् स्थिति में बदलाव आया और देवताओं की हार होने लगी । इसका एक मात्र कारण था कि जिन देवताओं ने जिन दैत्यों को मारा था वे पुन: जीवित होकर युद्ध करने लगे। यह देखकर देवताओं का साहस छूटने लगा और उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर अपनी चिन्ता बतलायी।
देवताओं की मुसीबत के बारे में ब्रह्माजी भी चिन्तित हो उठे और देवताओं से बोले - हे देवगण ! मेरा कार्य तो सृजन करना है । रक्षण और जीवित रखने का कार्य भगवान विष्णु का है। इसलिये हे पुत्रों! आप अपने राजा इन्द्र को लेकर सबके राखनहार विष्णु के पास जाओ। वे बैकुण्ठ में ही विराजमान हैं। वे तुम्हारी व्यथा जानकर उसे दूर करने की कोशिश करेंगे। परम दयालु भगवान विष्णु के अतिरिक्त कोई और उस कार्य को कर सकेगा, इसमें सन्देह है।
ब्रह्माजी की ऐसी वाणी सुनकर सभी देवता अपने राजा इन्द्र को लेकर बैकुण्ठ धाम जा पहँचे । वहाँ चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पदम् धारण किये हुये श्याम वर्ण वाले भगवान विष्णु दिखाई दिये। उन्होंने गले में बैजयन्ती माला धारण कर रखी थी । शरीर पर उनके पीत वस्त्र शोभा दे रहे थे । वहाँ आदि प्रभु को मूर्छल आदि से हवा पहुँचा रहे थे और नारद समेत अनेक ऋषि मुनि उनकी स्तुति कर रहे थे। अब भगवान विष्णु के सम्मुख सभी देवता उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुये बोले - हे देवाधिदेव! आप निर्गुण और सगुण दोनों हैं तथा अनादि अनन्त सब कुछ आप ही हैं। आपने ही अपनी माया से यह सब कुछ सम्पन्न किया है। हे विश्वम्भर! हम आपको प्रणाम करते हैं।
देवताओं को इस तरह स्तुति करते देखकर प्रभु उन पर प्रसन्न होकर उनके आगमन का कारण पूछने लगे। उस समय देवताओं ने देव-दानव युद्ध में देवताओं की सारी मुसीबत जैसे दैत्यों के विनाश होने पर भी शुक्राचार्य के मृत्यु संजीवनी विद्या द्वारा उन्हें पुन: जीवित करना, इससे देवताओं की पराजय और स्वर्ग का राज्य देवताओं से दानवों के हाथ में चले जाने की सारी कथा उन्हें कह सुनायी। यह सुनकर भगवान विष्णु मुस्कराते हुये बोले - हे इन्द्र! सामान्य रूप से यह हार तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। आप दैत्यों से सन्धि करके उस युद्ध के बन्द कर दें और उनसे कहें कि समुद्र में अत्यन्त मूल्यवान सम्पत्ति और रत्नों के अलावा अमृत भी है । अतएव उसे बाहर निकालकर इनका उपभोग किया जाये । इस तरह दानवों से मित्रता कर उन्हें समुद्र मन्थन के लिये तैयार करो, कारण कि दोनों के पीड़ा पहुंचाने के कारण आपकी संख्या कम हो गयी है। समुद्र मन्थन करके अमृत प्राप्त करना, बिना उनकी सहायता के सम्भव नहीं। समुद्र मन्थन करके जब अमृत प्राप्त होगा तो उसका पान कर आप सदा के लिये अजर-अमर हो जाओगे । उस समय प्रभु की यह वाणी सुनकर देवगणों ने वहाँ से लौटकर दैत्यों से सन्धि कर ली।
अब समुद्र मन्थन की युक्ति सुनकर दैत्यगण प्रसन्न हो उठे और वे इस कार्य के लिये तैयार हो गये। फिर समुद्र मन्थन करने के लिये वे अनेक प्रकार की औषधियाँ समुद्र में डालने लगे। उन्होंने मेरु पर्वत को मथानी के रूप में शेष नारायण को रस्सी के रूप में उपयोग करने की प्रार्थना की। उस समय अमृत का भाग प्राप्त करने का वचन लेकर शेष -नारायण इसके लिये तैयार हो गये। इसके बाद मेरु को लाने के लिये दैत्य और दानव उसके निकट गये। उस काम के लिये सौ हाथियों के बल वाले दैत्य तथा कुछ विशेष बल वाले देवता काम में लग गये । काफी मेहनत के बाद वे लोग उस मेरु को उठा सके, लेकिन समुद्र तक ले जाने के बीच वह पर्वत काफी भारी होने के कारण उनके हाथों से छूट-छूटकर गिर गया । फलस्वरूप कई लोगों की हड्डियाँ टूटी। कितने के हाथ-पाँव टूटे और कितने बुरी तरह घायल हो गये। वे धीरे-धीरे इतने शिथिल हो गये कि उस पर्वत को समुद्र तक ले जाने की शक्ति उनमें रह ही नहीं गयी। इससे देवता चिन्ता में डूबे हुये अपने भाग्य को दोष देने लगे और अपना कार्य बनाने हेतु परम कृपालु भगवान विष्णु को याद करने लगे। देवताओं के इस विलाप को सुन गरुड़ पर सवार होकर भगवान विष्णु वहाँ आ पहुँचे । अब उनके इशारा मात्र से गरुड़ ने खेल-खेल में मेरु पर्वत को अपने पंख पर उठाकर समुद्र के किनारे पहुँचा दिया।
उस समय देव-दानव मिलकर मेरु को समुद्र में स्थित करने लगे तथा शेष नारायण को रस्सी के रूप में ग्रहण कर समुद्र मन्थन की तैयारी करने लगे। उस समय विष्णु ने चतुराई भरे स्वरों में कहा - हे देवताओं! हम शेष नारायण का मस्तक पकड़ेंगे और हमारे दूसरे छोटे भाई पूँछ पकड़ेंगे। दानव विष्णु की हर बात को सन्देह की नज़र से देखते थे। इसलिये उन लोगों ने कहा हे विष्णु! तुम्हें हर समय हम छोटे ही दिखायी देते हैं, किन्तु हम छोटे नहीं है। तुम हमें निम्न समझते हुए हमें पूंछ पकड़वा रहे हो, किन्तु हम मङ्गलकारी शेष नारायण का मुख पकड़ेगे और अमङ्गलकारी पूँछ आप देवताओं को पकड़ाइये। दानवों की यह बात सुनकर भगवान विष्णु ने मन्द-मन्द मुस्काते हुये शेष नारायण की पूंछ पकड़ ली और सभी देवताओं को पूंछ पकड़ने के लिये संकेत किया । दैत्यों ने अनेक फेन उगलने वाले शेषनाग का मुख पकड़ा। इस तरह उन लोगों ने समुद्र मन्थन की तैयारी की, किन्तु समुद्र का मन्थन आरम्भ करते ही अत्यन्त वजनी होने के कारण मेरु पर्वत धीरे-धीरे समुद्र की तलहटी में जाने लगा। उस समय प्रभु ने कछुवे का रूप धारण कर समुद्र के तल में जाकर मेरु पर्वत को अपनी पीठ पर रख लिया। अब मेरु पर्वत को नीचे जाने की जगह नहीं मिल पायी तो वह बार-बार उछलने लगा। तब प्रभु अपना दूसरा रूप धारण कर मेरु पर्वत की चोटी पर बैठ गये और उस पर अपना वजन देने लगे।
इस प्रकार की व्यवस्था होने पर समुद्र मन्थन में फिर कोई अड़चन उत्पन्न नहीं हुई। अब काफी समय तक मन्थन करते-करते शेष नाग का मुख चौड़ा हो गया तथा पीड़ा होने के कारण उसमें से गरम-गरम साँस निकलने लगी। उस समय शेष नाग की विषयुक्त फुफकार से सभी दानव जलने लगे, किन्तु उन्होंने तो स्वयं शेषनाग का मुख पकड़ने की जिद की थी। इसलिये इसकी शिकायत वे किसी से कर भी नहीं सकते थे। वे केवल मन्थन करते ही रहे।
इस तरह बहुत देर तक मन्थन होने के बाद भी समुद्र से कुछ न निकला तब सभी देव-दानव निराश हो गये और उन्होंने समुद्र मथना ही छोड़ दिया। यह देखकर भगवान विष्णु ने अकेले ही शेषनाग के दोनों छोर पकड़ कर मन्थन करना प्रारम्भ किया। फिर काफी जोर लगाकर अकेले प्रभु ने ही मन्थन किया। फिर तो समुद्र में से सारे रत्न एक-एक करके बाहर आने लगे । सबसे पहले लक्ष्मीजी बाहर निकली। फिर पारिजात नामक वृक्ष बाहर आया । इस तरह एक-एक करके कोस्तुभ मणि, मदिरा, धनवन्तरि वैद्य, चन्द्रमा, कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, रम्भा आदि अप्सरायें, सप्तमुखी घोड़े, धनुष, शंख, विष और अमृत आदि चौदह रत्न निकले । उस समय विष्णुजी लक्ष्मीजी से विवाह कर उन्हें अपने साथ ले गये। साथ ही मणि और शंख भी अपने पास रख लिया । दैत्यों ने मदिरा ले ली। इन्द्र ने हाथी, घोड़े, धनुष व अप्सरायें लीं। ऋषियों ने यज्ञ में सहायता देने वाली कामधेनु गाय ले ली। पारिजात का वृक्ष स्वर्ग में बोया गया। सारे विश्व की शोभा बढ़ाने के लिये चन्द्र को आकाश में स्थापित किया गया। विश्व का कल्याण करने वाले शिव ने हलाहल नामक विष का पान किया। धनवन्तरि वैद्य देवताओं के वैद्य बने।
लेकिन धनवन्तरि जो अपने हाथ में अमृत का कलश लाये थे. उसे पाने के लिये देवता और दानव सभी उस पर टूट पड़े और इनके हाथ से उस कुम्भ को अपनी ओर खींचने लगे। लेकिन जब देव-दानव उस कुम्भ के लिये झगड़ रहे थे, उस समय एक अत्यन्त रूपवती स्त्री वहाँ गेंद लिये हुए आ पहुँची । उस स्त्री के मोहक स्वरूप को देखकर दानव उसके मोहपाश में बंध गये और झगड़ा छोड़कर उसके पास जा पहुँचे। उधर देवता भी इस आश्चर्यजनक रहस्य को समझने के लिये पंक्तिबद्ध एक ओर खड़े हो गये । इसी समय दानव उस सुन्दरी से बोले - हे मृगनयनी! आप हमारे झगड़े का निबटारा करो और इस अमृत को सब में समान रूप से बाँट दो। दानवों की इस प्रार्थना को सुनकर वह मोहनी किञ्चित मुस्कराती हुई बोली - हे दानवों ! शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री और किसी अजनबी पर कभी भी विश्वास न करना चाहिये । मैं स्त्री भी हूँ और अजनबी भी, फिर भी यह गुरुतर कार्य आप मुझे सौंपने को तैयार हो । बाद में इसके लिये अपवाद भी मिल सकता है। अतएव मैं इस झगड़े में जरा भी पड़ना नहीं चाहती।
मोहिनी के मधुर वचन को सुनकर दैत्य उस पर और मोहित होकर बोले - हे कमलनयनी! हम लोगों को आप पर पूरा विश्वास है । आप जिस विधि से चाहें इस काम को निबटायें, हमें इसमें कोई आपत्ति न होगी।
दिति पुत्रों की यह बात सुनकर मोहिनी ने यह कार्य सम्हाला । सबसे पहले उसने अपने कटाक्ष और मोहक हाव-भाव से दैत्यों को मोहान्ध बनाया । फिर दैत्य और देवताओं की अलग-अलग पंक्तियाँ बनाकर सबसे पहले देवताओं को अमृत देना आरम्भ किया । यह देखकर दानव अत्यन्त दुःखी हुये, किन्तु वचनबद्ध होने के कारण वे कुछ बोल न सके। एक स्त्री के सामने वचन भङ्ग हो यह उन्हें अपमान जनक मालुम हुआ। निरुपाय होकर वे केवल शान्तिपूर्वक देखने लगे कि बँटवारा कैसे हो रहा है। ऐसा करते-करते सभी देवताओं में अमृत बँटने लगा। दैवयोग से सिंहिका के पुत्र राहु नामक दानव को शंका होने लगी कि हो न हो यह कोई मोहिनी रूप है । इसलिये हो सकता है कि सारा अमृत देवताओं को ही बाँट दे और हम देखते ही रह जायें। अत: वह ऐसा विचार करके उठा और किसी को भी न मालुम हो, इस तरह छुपते छुपते वह देवताओं की पंक्ति में जाकर सूर्य और चन्द्र के बीच बैठ गया। उसी समय अमृत बाँटते हुये जब मोहिनी ने राहु को अमृत दिया। तब सूर्य और चन्द्र ने इशारे से समझाया कि यह दैत्य है, लेकिन तब तक उसने अमृत पान करने के लिये उसे मुंह में लगा लिया था। अब क्या किया जाये? आखिर बहुत सोच-विचार कर प्रभु अपने असली रूप में आ गये और उसी समय अपने चक्र से राहु का मस्तक काट डाला । राहु का पीया हुआ अमृत गले के नीचे नहीं गया था। अत: उसका धड़ तो मृत हो गया, किन्तु मुख अमर हो गया। उस समय प्रभु बोले - इसने अमृत पान कर लिया है । अत: इसे देवताओं में स्थान मिलेगा और उसके धड़ की गणना ग्रहों में की जायेगी। इस तरह प्रभु की कृपा से राहु दानव को देवत्व प्राप्त हुआ। देवताओं को अमृत बाँटने के बाद जब कुम्भ खाली हो गया तो प्रभु तुरन्त अन्तर्ध्यान होकर वहाँ से बैकुण्ठ को चले गये।
प्रभु को संकेत देने वाले सुर्य तथा चन्द्र थे। इसलिये राहु को उन दोनों के प्रति अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हो गया। इसी क्रोध में वह चन्द्रमा को पकड़ने और निगलने के लिये दौड़ा और उसे निगलने भी लगा, तभी शूद्रों ने उनकी ऐसी हालत देखकर दयावश उसे निगले जाने से बचा लिया, लेकिन राहु का क्रोध इससे कम न हुआ। इसलिये प्रत्येक पर्वणी को वह उन्हें निगलने दौड़ता है और कभी-कभी इसी के कारण ग्रहण लगता है। ग्रहण के समय शूद्रों को इसीलिये दान देना पुण्यदायक माना गया है।
इधर अमृत बाँटने के बाद प्रभु जब अन्तर्ध्यान हो गये, तब दैत्यों को पता चला कि विष्णु ने ही मोहिनी का रूप धारण कर उनसे छल किया है। दानवों को इससे बड़ा क्रोध आया और वे देवताओं से इसका बदला लेने के लिये दौड़ पड़े। इस तरह देव और दानवों की यह लड़ाई कई दिनों तक चलती रही, किन्तु इस बार देवताओं के बल में अमृत पीने से कोई कमी नहीं आयी बल्कि दानवों की संख्या निरन्तर घटती रही। धीरे-धीरे उन्हें यह महसूस होने लगा कि अमृत पीने वाले देवताओं से जीत पाना कठिन है । अतः वे निराश होकर पाताल लोक में भाग गये।
सूतजी बोले हे ऋषिगण अपने भक्तों के कल्याण और धर्म के रक्षण के लिये प्रभु हरदम तैयार रहते हैं। जिन व्यक्तियों का चित्त परब्रह्म में लगा हआ है, उन व्यक्ति के प्रति प्रभु जरा भी उदासीन नहीं रहते और अपनी अनन्त शक्तियों से निरन्तर सृष्टि का कल्याण करते हैं । वे निरन्तर इसी तरह अपने भक्तों का दासत्व स्वीकार करते हैं।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में समुद्र मन्थन नामक नवम् अध्याय सम्पूर्ण || दसवां अध्याय
(वामनावतार)
सूत-सूत महाभाग! वदतो वदनांबर।
दासत्वं कस्य मक्तस्य कथं वै कृतवान्प्रभुः ।।
ऋषि बोले- हे सूतजी! हे महाभाग! आपने हमें बताया कि प्रभु भक्तों के कार्य में निरंतर तत्पर रहने वालों और अनेक मायाओं के रचयिता प्रभु ने कब और किसका दासत्व स्वीकार किया है। प्रभु की लीला हमारे मन में मोह उत्पन्न करती है।
ऋषियों के इस तरह पूछने पर सूतजी प्रसन्न होकर बोले- हे ऋषिगण ! प्रभु की लीलाओं का कोई पार नहीं पा सकता। प्रभु ने अनेक बार अनेक लीलाएं करते हुए अपने भक्तों को प्रसन्न कर उनकी इच्छाएं पूरी करने की कोशिश की है।
अपने कृष्णावतार के समय वे एक साधारण बालक की तरह माता यशोदा के प्रेमवश होकर एक ओखली के साथ रस्सी में बंधे थे। उसी समय उन्होंने अपने अनन्य भक्त अर्जुन को युद्ध जीतने के लिये उनका सारथी बनकर उनका दासत्व स्वीकार किया था। अपने एक अनन्य मित्र सुदामाजी के राज्य में पाँव रखते ही एक असाधारण अतिथि के समान उनका स्वागत सत्कार करते हुये उनके चरण दबाने बैठ गये। उस समय सुदामा जी ने उन्हें भेंट स्वरूप मुट्ठी भर चावल दिये। इसके बदले प्रभु ने उन्हें अत्यधिक धन सम्पत्ति देकर अनेक पीढ़ियों का दुःख दूर कर दिया। इस तरह अपने भक्तों और संतों का सारा कार्य सिद्ध कर दिया। इस तरह अपने भक्तों और संतो का सारा कार्य सिद्ध करने के लिये वे सदैव प्रयत्नशील रहते है। इसी तरह दानवों के कुल में भी उत्पन्न भक्तों के लिये भी उन्होंने बहुत कुछ किया।
ऋषि बोले - हे सूतजी! दैत्यों के कुल में भी प्रभु के भक्त उत्पन्न होते है? यह और भी आश्चर्य की बात है। अब आप उन भक्तों के बारे में भी कुछ कहें। ऋषियों की ऐसी बात सुनकर सूतजी बोले - हे ऋषिगण! बहुत पहले हिरण्यकश्यपु नाम का एक राक्षस राजा था। उसे ब्रह्माजी ने यह वरदान दे रखा था कि वह किसी से मारा नहीं जा सकता। उसने राज्य में हवन, यज्ञ, होम, पूजा-पाठ सब बंद करा दिया। उसने देवताओं से भी कई बार युद्ध किया और उन्हें परास्त किया। उसके भय से देवता इधर-उधर मागते फिरते थे।
उसी हिरण्यकश्यपु के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। वह भगवान का परम भक्त था। उसका नाम प्रहलाद था। हिरण्यकश्यपु ने अपने पुत्र का भगवान की भक्ति छोड़ देने के लिये बहुत दबाव डाला, परंतु प्रहलाद अपने ध्येय से विचलित न हुये। हिरण्यकशिपु इससे क्रोधित होकर अपने पुत्र को अनेक प्रकार से कष्ट पहुंचाने लगा, लेकिन प्रहलाद इससे भी टस से मस न हुआ। तब राक्षस राजा उसे मरवाने की कोशिश करने लगा।
अचानक एक दिन हिरण्यकश्यपु ने जब अपने बेटे को भगवान की भक्ति छोड़ने के लिये कहा तो उसी समय पुत्र प्रहलाद उसे प्रभु में चित्त लगाने की सलाह देने लगा। हिरण्यकशिपु भला इसे कैसे सहन कर सकता था। अतः उसने प्रहलाद से क्रोधित होकर पूछा- तेरा भगवान कहां है यदि है तो मुझे बता। इस पर प्रहलाद ने उत्तर दिया- पिताजी! वह तो घट-घट में व्याप्त है। जरूरत है, उसे सच्चे भाव से देखने की।
अपने पुत्र के मुख से ऐसी बात सुनकर हिरण्यकश्यपु के क्रोध की सीमा न रही। उस समय उसने एक गर्म किये हुये लोहे के खम्बे की ओर इशारा करते हुये कहा- रे मूर्ख! यदि तेरा भगवान सब जगह है तो इस गरम खम्बा में भी होगा। तू अब मुझे इसे छूकर दिखा। पिता जब ऐसी बात कर रहे थे, तभी प्रहलाद ने देखा कि उस खम्बे पर एक चींटी बड़े आराम से चल रही है। यह देखते ही उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि इस चींटी को इस गरम खम्बे पर जीवित रखने वाला मेरा प्रभु ही होगा। इस लिये इसे स्पर्श करने में मुझे कोई चिंता न करनी चाहिये। इतना सोचते ही वह उस गरम लोहे के खम्बे को छूने के लिये दौड़ पड़ा।
उस समय प्रभु अपने भक्त का यह अनुपम चरित्र देखकर विह्वल हो गये और उस दुष्ट पापी हिरण्यकश्यपु को दण्ड देने की तैयारी करने लगे। हिरण्यकश्यपु को ब्रह्माजी का यह वरदान था कि कोई पुरूष उसे मार नहीं सकता। वह न तो पृथ्वी पर मारा जा सकता है, न आकाश में। उसे त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु और महेश भी नहीं मार सकते है। इस वरदान के कारण सभी देवता हताश हो गये थे और प्रहलाद की स्थिति देखकर अत्यंत दुखी हो रहे थे। अब सारे देवताओं को असहाय देखकर प्रभु अपने भक्त की रक्षा करने के लिए तुरंत वहां आ पहुंचे और जैसे ही प्रहलाद खम्मे को स्पर्श करने लगे ठीक उसी समय भयंकर गर्जना सहित खम्मे को फाड़कर नृसिंह के रूप में प्रभु ने सबके सामने प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। तत्पश्चात् प्रहलाद को उसके पिता की गद्दी पर बैठकर उसे अनेक उत्तम वरदान दिये। वरदान था कि उसके वंश में आगे चलकर एक और परम भक्त बलि राजा उत्पन्न होगा। भगवान का वरदान सच निकला, उसने देवताओं को प्रसन्न किया था। उन्हें सभी देवताओं के वरदान प्राप्त थे। अतः देवताओं की ओर से वह पूर्ण निर्भय हो चुके थे। बलि राजा ने कई यज्ञ करके प्रभु को भी हर तरह से प्रसन्न किया। फिर उसे सौ यज्ञ करके इंद्र बनने की अभिलाषा हुयी।
इस यज्ञ को पूर्ण करने के लिये उन्होंने अपने कुल पुरोहित शुक्राचार्य को बुलाया तथा उनसे अपनी सारी इच्छा कह सुनायी। अब शुक्राचार्य द्वारा बताये मुहूर्त वाले दिन बलि राजा ने यज्ञकार्य का शुभारंभ किया। अपने शुद्ध भाव से यज्ञ करने हेतु बलि राजा ने भगवान यज्ञ नारायण की प्रसन्नता प्राप्त की, किंतु राजा के इस कार्य से समस्त देवता घबरा गये। वे बलि राजा के भय से जाकर कंदराओं में छिप गये। फिर तो वहां से देवताओं ने प्रभु से विनती की - हे स्वामी! हमें इस मुसीबत शीघ्र छुटकारा दिलायें। उस समय प्रभु ने उन्हें आश्वासन दिया तुम सब समय की प्रतीक्षा करो।
लेकिन देवता बलि राजा से इतना भयभीत हो उठे थे कि उन्होंने कंदराओं के बाहर निकलना छोड़ दिया। अपने पुत्रों की यह दुर्दशा देखकर देवता अदित्ति को बड़ी चिंता हुयी। वे इसी चिंता में सुखाने लगीं। उनकी यह हालत देखकर महर्षि कश्यप ने उनसे इस दुर्बल होने का कारण पूछा। उस समय माता अदिति ने कहा- हे नाथ! दैत्यों के दुःसाहस से मेरे पुत्रों पर काफी संकट आ गया है। मुझसे उनका दुःख नहीं देखा जाता। मेरे पुत्रों के ऊपर आये हुये इस संकट को देखकर मैं दुर्बल हो जाती हूँ। आप उन्हें संकट से मुक्ति दिलाये।
अपनी पत्नी के दुःखा निवारण हेतु महर्षि कश्यप ने उन्हें प्रदोष व्रत रखने की सलाह दी और उन्हें उसकी सारी विधि बताते हुए कहा - हे अदिति! प्रदोष व्रत से प्रसन्न हो भगवान उनकी सारी इच्छाओं को पूर्ण करते है। पति की वाणी सुनकर अदिति को संतोष मिला और वे प्रदोष व्रत रखने लगीं। उनके इस व्रत से प्रसन्न होकर भगवान प्रभु ने प्रत्यक्ष रूप में प्रगट होकर वरदान दिया और कहा कि वे स्वयं ही उनके पुत्र के रूप में अवतरित होकर उनके कष्ट का निवारण करेंगे। प्रभु के इस आश्वासन को सुनकर अदिति प्रसन्न होकर प्रभु की सेवा में लग गयी।
इधर राजा बलि के सौ यज्ञ पूरे हो जाने पर शुक्राचार्य ने उन्हें अखिल विश्व का अधिपति बनाने के लिये विश्वजीत यज्ञ करने की दीक्षा दी। उस दीक्षा को प्राप्त कर बलि राजा उस यज्ञ को पूर्ण करने लगे। इस यज्ञ की प्रशंसा सुनकर दूर-दूर से याचक आने लगे। बलि राजा उन याचकों को संतुष्ट करने में कोई कोर-कसर न करते थे। दूसरी ओर अदिति प्रभु की कृपा से गर्भवती हुई और शुभ मुहूर्त में एक बालक को जन्म दिया। यही बालक सभी देवताओं का रक्षक है यह जानकर ब्रह्मा तथा अन्य देवतागण वहां आ पहुंचे और उस बालक की अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे। अब वह बालक सबके सामने आश्चर्यजनक रूप से बढ़ने लगा और देखते ही देखते एक वामन का रूप धारण कर लिया। कश्यप ऋषि ने विधिवत सब संस्कार कर उसे ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी। उस शिक्षा के प्राप्त होने के पश्चात् प्रभु ने देवताओं के कार्य सिद्धि के लिये बलि राजा के यज्ञ में जाने का निश्चय किया। वे शरीर में कोपिन धारण कर हाथ में कमंडल ता ब्रह्मदण्ड लेकर बलि राजा के यज्ञ में जाने के लिये निकले। भगवान वामन जब मार्ग पर चलते थे तब उनके तेज को देखकर सभी समझने लगते थे कि यह सचमुच कोई अवतारी पुरूष है।
धीरे-धीरे प्रभु बलि राजा के मंडप में पहुंचे। भगवान के मुख का तेज और प्रतिमा देखकर शुक्राचार्य सहित ऋषिगण तथा राजा उन्हें प्रणाम करने दौड़े। उस समय भगवान के मुख पर ज्ञान-वृद्धा और तेजस्विता देखकर पता लगता था कि कोई अतिज्ञानी बाल ब्रह्मचारी है। अतिथि के रूप में आये भगवान वामन का उन्होंने पूजन किया। उनके ज्ञानयुक्त वाणी से बलि राजा का मन आनन्दित और निर्मल बन गया और वे सोचने लगे कि यह बाल ब्रह्मचारी अवश्य कोई अभिलाषा लेकर आया है। यह सोचकर वे वामन प्रभु से बोले - हे ब्राह्मण! आपकी कोई इच्छा हो तो मांग ले। आपको मैं सारा संसार दे सकता हूँ।
उस समय प्रभु ने राजा बलि से लोभ की निन्दा करते हुए केवल तीन पग धरती देने की याचना की। बलि राजा ने हाथ में पानी का अंजलि लेकर दान करने का संकल्प किया किन्तु प्रभु तो देवताओं के कार्य सिद्धि के लिए वामनरूप धारण किए हुए थे वह एकाएक बढ़ने लगे और अपने दो पग से समस्त ब्रह्माण्ड नाप लिया। तीसरा पांव रखने की जगह नहीं थी। इसलिए अनन्य भक्ति को देखकर प्रभु ने उन्हें पाताल का राज्य दे दिया। तत्पश्चात उनकी इच्छा पूरी करने के लिए उनके प्रेम के वश में होकर प्रभु ने चार महीना बलि राजा का द्वारपाल रहना स्वीकार किया।
सूतजी ने आगे कहा- हे ऋषि! अपने भक्तों की इच्छा के अधीन ही रहकर प्रभु ने बलि राजा का द्वारपाल रहना स्वीकार कर लिया। इससे बड़ा दासत्व और कौन सा हो सकता है। दास बनकर अपने भक्तों के पास रहने में प्रभु को आनन्द मिलता है। इस प्रकार सब भक्तों की इच्छाऐं वे हमेशा पूर्ण किया करते हैं।
|| इति श्री विश्वकर्मा महापुराण का वामनावतार नामक दसवां अध्याय सम्पूर्ण || ग्यारहवां अध्याय
(वंशोत्पत्ति वर्णन)
वास्तुः कस्य सुतः आसीत् कथं स बहु विश्रुतः ।
कथं स विश्वकर्माणं प्राप्तस्तन्नों निगद्यताम्।।
ऋषि ने कहा- हे सूतजी! हे ज्ञान के भण्डार! आपने पहले जिस वास्तु का वर्णन किया था, वह वास्तु कौन था? उसके पिता कौन थे और इतनी प्रसिद्धि कैसे मिली? इन सब बातों को आप विस्तार से बतायें।
सूतजी बोले - हे ऋषिगण ! वास्तु पुरुष की उत्पत्ति की कथा बहुत ही आनन्द देने वाली है। इस कथा को सुनने से कभी दैवी या आसुरी पीड़ा नहीं होती। यह सभी दुःख हरने वाली तथा सुख प्रदान करने वाली है। निर्धन-धनी को इस कथा के सुनने से आनन्द मिलता है।
ऋषि बोले- हे सूतजी परमात्मा की लीला की कोई परा नहीं है। अतः आप हमें प्रभु की लीला से भरपूर वास्तु पुरुष की उत्पत्ति की कथा सुनाइये।
ऋषियों की ऐसी वाणी को सुनकर सूतजी ने कहा - हे ऋषि! मैं आप लोगों को वास्तु पुरूष की उत्पत्ति और उसके पराक्रम की कथा कहता हूँ। आप ध्यान पूर्वक सुनिये। देवताओं को अमृत पान कराने हेतु ही प्रभु ने समुद्र मन्थन किया था।
इस समुद्र मंथन के पूर्व दुष्ट स्वभाव वाले राक्षस बार-बार स्वर्ग को जाते थे और देवताओ को तंग करते थे लेकिन समुद्र मंथन के बाद भी वे देवताओं को बराबर कष्ट देने लगे। आखिर राक्षसों द्वारा बार-बार कष्ट पहुंचाने पर देवता फिर आदिदेव विश्वकर्मा की शरण में आये और उनकी बारम्बार स्तुति करने लगे। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न हो प्रभु ने उनके आगमन का कारण जानना चाहा।
देवताओं ने कहा - हे सर्वव्यापी नाथ! आपसे कुछ भी छुपा नही है। फिर भी हमारी ओर से हमारे गुरू बृहस्पति आपको सब विस्तार से बतायेंगें। उनकी बात सुनकर आप हमारे लिए जो कुछ करने योग्य हो करें।
सुतजी बोले - हे ऋषिगण! दानवों द्वारा पहुंचाये हुए कष्ट से दुःखी देवताओं की वाणी सुनकर प्रभु ने अपने पुत्रों की ओर देखा और अपलक उन्हें देखते ही रहे। उस समय ऐसा लग रहा था मानों वे अपने नेत्रों से अमृत की वर्षा कर रहे हो। उस समय देवताओं के गुरु बृहस्पति जी बोलने लगे- हे जगतपालक! आपने उसके पूर्व भी हमें अपने मुसीबतों से बचाया है। फिर भी आपके द्वारा हमें जो कुछ भी मिलता है, वह हमसे नहीं सम्हलता। द्वेष और ईर्ष्या करने वाले दैत्य हमे निरंतर पीड़ित कर रहे है। आपने देवताओं को स्वर्ग देकर जो उन पर उपकार किया है, वह दैत्यों को किसी तरह सहन नहीं? वे बराबर स्वर्ग का सुख भोगने के लिये हमारे साथ युद्ध करने आ जाते है।
पहले भी दानवों ने स्वर्ग प्राप्ति के लिये युद्ध किया था। जिसमें कई दानव मारे गये थे, किन्तु शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या के कारण दैत्यों को पुनर्जीवन मिल जाता था और ऐसी अवस्था में देवताओं के समी हथियार व्यर्थ चले जाते थे। इससे देवों की हार होने लगी और दैत्यो की संख्या बढ़ने लगी। ऐसे दुर्दिन के समय सभी देवगणों ने मेरे पास आकर अपनी मुसीबतें सुनाते हुये कहा- हे गुरू बृहस्पति! आप हमारे पुरोहित है। युद्ध में मरे हुए दैत्यों को शुक्राचार्य ने अपने मृत संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इससे राक्षसों का अत्याचार बढ़ने लगा है। हे गुरू! हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है। अतः हम आपकी शरण में आये है कि आप हमारे लिए कुछ करें।
गुरू बृहस्पति आगे बोले- हे देवाधिदेव! देवताओं की रक्षा के लिए मेरे पास कोई उपाय नही है। शुक्राचार्य की तरह मृत संजीवनी विद्या भी मुझे नहीं मालूम। यदि मुझे वह मृत संजीवनी विद्या भी जानने को मिल जाये तो देवताओं का कार्य सिद्ध हो जाये। यदि इस आयु में मैं शुक्राचार्य से उस विद्या को सीखने जाऊँ तो मेरा उपहास होगा। अतएव देवताओं के कार्य सिद्धि के लिये अपने पुत्रों के शुक्राचार्य जी से मृत संजीवनी विद्या सीखने हेतु उनके पास भेजने का निश्चय किया। हे देव! यह निश्चय करके अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के घर विद्या प्राप्त करने के लिए भेजा। शुक्राचार्य के पास जाते समय मार्ग में दानवों ने उसे परेशान किया किन्तु देवताओं का कार्य साधने के लिए मेरा पुत्र उन सब कष्टों को सहन करते हुए शुक्राचार्य के घर पहुंचा। उस समय शुक्राचार्य उसे बड़े प्रेम से स्वीकार कर उसे सारी विद्या सिखाने लगे, लेकिन दैत्यों को ये सब कैसे सहन होता। इसलिए उन्होनें कच के विरूद्ध शुक्राचार्य के कान भरने लगे लेकिन शुक्राचार्य ने उस पर ध्यान नहीं दिया। यह देखकर सारे राक्षस इस बात पर विचार करने लगे कि कच का कैसे नाश किया जाये।
इधर कच की विद्या पूर्ण हो जाने पर शुक्राचार्य ने उसे प्रेमपूर्वक विदाई दी। गुरू के घर रहते हुये कच का दैत्यगण कुछ न बिगाड़ सके थे, किन्तु मार्ग में अवसर पाकर उन लागों ने कच को मार डाला। जब यह बात शुक्राचार्य को मालूम हुई तो उन्होनें अपनी विद्या से कच को पुनः जीवित कर दिया। इसके बाद जब कच गुरू को प्रणाम कर घर जा रहा था तो रास्ते में उसकी अपने गुरु की पुत्री से भेंट हुई। उसने कच के समक्ष अपने साथ विवाह का प्रस्ताव रखा, किन्तु कच ने उत्तर दिया- यदि वह गुरु की पुत्री के साथ विवाह करता है तो यह घोर अपराध होगा। इस पर उस लड़की ने कच को श्राप दे दिया। इस श्राप के फलस्वरूप कच की सारी विद्या नष्ट हो गयी और वह कुरूप बन गया। इसी समय उसने अपने गुरु शुक्राचार्य को याद किया। कच की यह हालत देखाकर शुक्राचार्य घबरा गये।
हे देव! तब मैंने और शुक्राचार्य ने एक साथ मिलकर आपका स्मरण किया। आपने उस समय हमारी सहायता की और कच का रूप पूर्ववत् कर दिया और उसे शुक्राचार्य की दी हुई विद्या भी याद आ गयी। इसके बाद देवता राक्षसों पर बराबर विजय प्राप्त करने लगे। सारे असुर यह देखकर घबरा उठे।
अब उन सारे दैत्यों ने कैलाश पर्वत पर जाकर शंकर का अति उग्र तप किया। उस तप के जोर से सारा विश्व ही जलने लगा। यह देखकर शंकर जी अति प्रसन्न होकर उनसे सारी आप बीती कह सुनाई और देवताओं द्वारा दिये हुये मुसीबतों से छुटकारा पाने के लिये उन्होनें शंकर जी की सहायता मांगी। शंकरजी दानवों के तप से प्रसन्न हो गये उन्होनें राक्षसों की मदद का वचन दिया। तत्पश्चात! देव दानव का युद्ध प्रारम्भ होने पर त्रिनेत्रधारी शंकर जी ने दानवों की ओर से ऐसा घोर युद्ध प्रारम्भ किया कि देवता धूल चाटने पर विवश हो गये।
गुरू बृहस्पति जी आगे बोले- हे प्रभु! अब उन देवों की मुसीबत आपके सिवा और कोई दूर नहीं कर सकता। मेरे शिष्यों को अब अधिक कष्ट सहने की शक्ति नही रह गई है। आप दुष्टों के संहार के लिये अनेक लीलायें करते हो। इस समय सत्य की राह पर चलने वाले अनाथ हो गये है। अब आप ही अपना आश्रय देकर उन्हें सनाथ बना सकते है।
उस समय बृहस्पति के दीनता से भरे हुये वचनों को सुनकर प्रभु ने कहा- हे देवताओं! अपने ऊपर आयी हुई मुसीबतों का हिम्मत से मुकाबला करना चाहिए। आप लोगों का मार्ग सत्य का मार्ग है तथा सत्य की सदैव विजय होती है। अतः विजय अन्त में आपकी होती है। अब समय की प्रतीक्षा करते हुये सारे दुःखों को सहन करते रहो अन्त में सबका भला होगा।
देवताओं को इतना आश्वासन देकर उन्होनें अन्धक जो सर्वश्रेष्ठ दैत्य होने के कारण प्रभु की सेवा में आ लगा था, की ओर देखा और कहा- हे अन्धक! मैं तुम्हे वज्र के समान पुष्ट बनाता हूं। अतः अब तू अब निर्भय होकर जा और युद्ध में शंकर जी का सामना कर। मेरी दया से शंकर के गण तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगें। मेरी आज्ञा से तू देवताओं का सहायक बन। उस समय प्रभु उसे ऐसी आज्ञा देकर स्वयं समाधिस्थ हो गये। अन्धक भी तुरंत उस जगह जा पहुंचा जहां देव- दानव युद्ध कर रहे थे। इस ओर देवताओं की हालत दयनीय हो गयी थी। कारण शंकर जी के सहायक बन जाने से राक्षस गण दुगुने मनोबल से युद्ध करने लगे थे। सदाशिव जिस ओर अपने क्रोधायमान नेत्रों से देखते उसी ओर त्राहि-त्राहि मच जाती। उन्होनें अपनी जटा खोल रखी थी और सारे शरीर पर भस्म मल रखी थी। इसके साथ ही अपने बदन पर व्याघ्रचर्म तथा कटि मेखाला धारण कर रखा था। ऐसे समय अन्धक वहाँ दाँत पीसता हुआ जा पहुंचा और दोनों हाथ चौड़े करके जो भी सामने आता उस पर मुट्ठियों द्वारा प्रहार करता और इस प्रकार कितनों के सिर फोड़ते हुए तथा कितनों की हड्डियां चूर करते हुये आगे बढ़ता जाता था। इस प्रकार सभी राक्षसों को कष्ट देता हुआ तथा उन्हें धूल चटाता हुआ आवेश में जहां शिवजी युद्ध कर रहे थे वहां पहुंच गया।
उस समय सहसा अन्धक के सामने आ जाने पर शिवजी क्रोधित हो उठे और बोल उठे - हे दुष्ट! तुझ पापी के साथ मेरी युद्ध करने की जरा भी इच्छा नहीं हो रही है। इसलिए तू मेरे सामने से हट जा मैं तेरा मुंह भी नहीं देखना चाहता।
शिवजी का यह वचन सुनकर क्रोध से कांपता हुआ अन्धक बोला- सारे जगत के सर्जनहार प्रभु विश्वकर्मा जिसे पवित्र मानते है, तो वह आपको अपवित्र लगता है। किन्तु इसमें मेरे लिये आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि आप निरन्तर श्मशान में रहने वाले और मुण्डों की माला पहनने वाले तथा चिता के भस्म बदन पर मलने वाले को सब कुछ अपवित्र ही लगता है, लेकिन हे शिवजी! अगर आप में युद्ध करने की हिम्मत न हो तो युद्ध भूमि को तज कर कैलाश पर्वत लौट जाओं। मुझे पहले ही सन्देह था कि आप युद्ध न करने के लिए कोई न कोई बहाना अवश्य ढूंढ निकालेंगे। अन्धक के इस वचन से शिवजी अत्यंत क्रोधित हो उठे और कहने लगे- हे पापी! तू अपनी जबान को लगाम दे। यदि मेरा क्रोध बढ़ गया तो तेरी जीभ एक क्षण में मुख से बाहर आ जायेगी। यदि तेरे अन्दर जरा भी जीने की अभिलाषा हो तो अब भी अच्छा है, सामने से चला जा अन्यथा तू अपने परिवार का दर्शन भी नहीं कर पायेगा।
शंकर जी की मर्म भेदी वाणी सुनकर अन्धक बोला - बोलने में तू बहुत अच्छा है, यह मैंने जान लिया, पर युद्ध करने की ताकत न हो तो वैसा बता, अन्यथा घर में चूडियां पहनकर बैठ, क्योंकि तेरे बकवास से कुछ होने वाला नहीं है। शूर वहीं है जो कुछ करके दिखाये। ऐसे अपमान भरे वचन सुनकर शंकर जी के क्रोध का पारा-वार न था। उस समय वह तेजी अन्धक को मारने दौड़े। अन्धक भी मदमस्त हाथी की तरह शंकर जी की ओर दौड़ पडा। अचानक हुए इस आक्रमण से शिवजी का त्रिशूल उनके हाथ से गिर पड़ा। यह देखकर अन्धक ने भी खड्ग जमीन पर फेंक दिया। इसके बाद वे दोनों अजेय योद्धा द्वन्द युद्ध करने लगे। वे एक दूसरे पर दांव लगाते और खुद बचने का प्रयास करते। इस तरह वे दोनों योद्धा काफी देर तक लड़ते रहे। उन दोनों में किसकी विजय होगी यह कहना कठिन था। सभी दानव सोचने लगे कि आखिर इस युद्ध का अन्त कब होगा।
इसी समय एक आश्चर्य जनक घटना घटी। शिवजी और अन्धक लड़ते-लड़ते पसीने से लतपथ हो गये थे और उनके पसीने की बूंद धरती पर गिर रही थी। इनके पसीने की बूंद एक समय एक ही जगह गिरने से उसमें से एक पुरूष पैदा हुआ और देखते ही देखते वह बढ़कर पहाड़ जैसा हो गया। उसे देखकर सभी दैत्य और दानव आश्चर्य में पड़ गये।
शिवजी तथा अन्धक उस अचानक उत्पन्न हुये पुरूष को देखकर एकदम विचार में पड़ गये। उस समय वे दोनों कुछ सोचते समझते कि वह पुरुष उन दोनों को मारने दौड़ा। तब उन दोनों ने उसे नीचा दिखलाना चाहा, किन्तु किसी की एक न चली। यह देखकर वे दोनों हैरान हो उठे। उसी समय हँस पर सवार हुए भगवान विश्वकर्मा वहां आ पहुंचे। सबने उन्हें प्रणाम किया। तब भगवान विश्वकर्मा सबकी हैरानी दूर करते हुए बोले- हे देवताओं और दानवो! शिव और अन्धक के पसीने से उत्पन्न हुआ यह पुरूष वास्तु देव के नाम से प्रसिद्ध होगा। आज से मैं इसे अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करता हूं। पृथ्वी, स्वर्ग या पाताल में जहां कहीं भी मकान, देवालय या जलाशय का निर्माण होगा। वहां सबसे पहले वास्तु पुरुष की पूजा होगी। इसका पूजन किये बिना कोई भी व्यक्ति नये मकान एवं भवन का उपभोग करेगा तो उसे अकथनीय दुःख होगा। उस समय प्रभु विश्वकर्मा के वचन सुन वास्तुदेव के विराट पुरूष रूप ने विश्वकर्मा को प्रणाम किया और उसके निकट आ गये। इसके बाद प्रभु ने अन्धक को भगवान शंकर की सेवा करने का कार्य सौपा और अन्तर्ध्यान हो गये।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में वंशोत्पत्ति नामक ग्यारहवां अध्याय सम्पूर्ण || बारहवाँ अध्याय
(पाँच पुत्र की उत्पत्ति)
पृथिव्यां सूत के पुत्रा स्थापिता विश्वकर्मणा ।
जनानां कार्यसिद्ध्यर्थं तन्नो विस्तराद् वद् ॥
ऋषिगण बोले - हे सूतजी ! प्रभु विश्वकर्मा ने पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों के कार्य सिद्ध करने हेतु अपने किन पुत्रों को नियुक्त किया ? इसे भी विस्तार से बताने की कृपा करें।
सूतजी कहने लगे - हे मुनिगण ! अन्तर्मन को निर्मल करने वाले तथा राक्षसों का विनाश कर मनुष्यों को उत्तम गति प्रदान करने वाले भगवान विश्वकर्मा की महिमा अभागे पुरुष जानने में असमर्थ रहते हैं। यह सत्य है कि उनके अलौकिक कार्यों का वर्णन सुनकर मनुष्य संसार के सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
प्रभु ऋषियों तथा अन्य प्राणियों का कल्याण करने वाली अनेक प्रकार की लीलायें करते हैं। एक समय वे वास्तुदेव को अपने साथ रखकर बद्रिकाश्रम में निवास कर रहे थे तथा तपश्चर्या में रात-दिन रहकर समस्त सृष्टि का पालन-पोषण कर रहे थे। वे उसका माया से विस्तार कर अपनी इच्छानुसार रचित विश्व को चला रहे थे। उसी बद्रिकाश्रम में एक बार इलाचल की पत्नी इलादेवी आयीं। वहाँ प्रभु विश्वकर्मा को वास्तुदेव के साथ तपश्चर्या में बैठे हुये देखकर इलादेवी को बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें योग में बैठे हुये प्रभु को बारम्बार देखने की इच्छा हुई। प्रभु को अनेक प्रकार के उपहार देकर इलादेवी ने उनका पूजन किया। इस समय इलादेवी का प्रेमयुक्त सम्मान का भाव देखकर प्रभु ने प्रसन्न होकर समाधि से धीरे-धीरे आँखें खोलकर इलादेवी की ओर देखा।
प्रभु को अपनी ओर देखते ही इलादेवी का अङ्ग-प्रत्यङ्ग रोमांचित हो उठा । वे आँखें बन्द कर तन्मयता का अनुभव करने लगीं। फिर उनके अलौकिक कार्यों का स्मरण कर एकाग्र चित्त से उनकी स्तुति करने लगी, हे देवाधिदेव ! जगत के नियन्ता ! सर्वाधार! आप सबके ऊपर कृपा करने वाले हो। जिस प्राणी पर आपकी कृपा न हो उसका जीवन व्यर्थ है। आप दीनानाथ, सर्व रक्षक हो। इस संसार में जिस प्राणी पर आपने कृपा की उसी का जीवन सफल है, क्योंकि आप अविनाशी आदि नारायण हैं। आपका पूजन तो देवता भी करते हैं और दया रूपी अमृत को पाने के लिये लालायित रहते हैं। जो योगी करोड़ों वर्षों तक तप कर चुके हैं। उनके लिये भी आपका परमधाम दुर्लभ है, परन्तु आपकी कृपा से मनुष्य क्षण भर में उस परमधाम को प्राप्त कर लेते हैं। अत: हे विश्वकर्मा ! नारायण ! मेरे देव ! आपकी कृपा के लिये हमेशा प्रार्थना करती इस पुत्री पर अपनी कृपा की वर्षा कीजिये।
इलादेवी के इस प्रार्थना पर प्रसन्न देवाधिदेव विश्वकर्मा ने बड़े ही गम्भीर स्वर में कहा - हे पुत्री ! तेरे इस अति प्रेममयी, निर्मल स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अतः जो भी तुम्हारी इच्छा हो, वह वर माँग लो। तेरे मन के सभी मनोरथ पूर्ण करने को मैं तत्पर हूँ।
भगवान विश्वकर्मा के वचन सुनकर इलादेवी की आँखों में हर्ष के आँसू आ गये और उनको प्रसन्न जानकर बोली-"हे पिताजी ! आप तो गुणों के भण्डार हैं। हे दयानिधे ! मैं आप से क्या माँगू ? आपने तो मुझे सब कुछ दिया है यथा-सुन्दर रूप अच्छे गुण, अच्छा पति, अच्छा घर, और सबसे बड़ी वस्तु है -आपकी भक्ति । ये सब वस्तुयें जिस स्त्री को प्राप्त हों उस स्त्री को जगत में और क्या चाहिये ? अतएव हे देव ! आपका ही दिया हुआ मेरे पास सब कुछ है। मुझे अब कुछ भी इष्ट नहीं है। फिर भी आप प्रसन्न होकर माँगने के लिये कहते हैं, तो मैं इतना ही चाहती हूँ कि आप बद्रिकाश्रम में इलाचल स्थल पर पधारो और हमारा स्थान पवित्र करो जिससे हम सदैव आपके दर्शन कर सकें तथा आपकी सेवा करें। हे प्रभो ! बस इतनी ही विनीत प्रार्थना है कि आप हमारे यहाँ निरन्तर निवास कीजिये।
इलादेवी के ऐसे वचन सुनकर उनके मनोरथ पूर्ण करने की इच्छा से विश्वकर्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उनको प्रसन्न किया। इलादेवी भी खुशी से परिपूर्ण हृदय के साथ आदिदेव श्री विश्वकर्माजी को प्रणाम कर अपने स्थान की ओर चल दीं। इला के विदा होने के बाद प्रभु विश्वकर्मा ने वास्तुदेव को बुलाया और कहा - हे वास्तु ! इला की इच्छा पूरी करने के लिये इलागढ़ में वास करूँगा, तुम वहाँ जाकर इलागढ़ की उजमणी दिशा में आधा गढ़ चल के सीधे हाथ की तरफ मुड़ना। वहाँ एकाध योजन चलने के बाद तुमको एक गुफा दिखेगी, गुफा के पास अनेक प्रकार के उत्तम पुष्प फलों से सुशोभित नव प्रदेश देखने में आयेगा। इस गुफा में इलाचल अपनी पत्नी इला के साथ निवास करते हैं। तुम उनसे मिलोगे तो वह तुम्हारी हर तरह से मदद करेंगे । गुफा के आगे जाने पर तुम्हें गढ़ के ऊपर पहुँचने का एक गुप्त मार्ग प्राप्त होगा। उसी मार्ग से तुम गढ़ के ऊपर जाना तथा वहाँ निवास करने योग्य भूमि पर आश्रम जलाशय आदि की रचना करना। यदि उसमें कोई बाधा आये तो मुझे याद करना । तब तुम्हारा सब कार्य सिद्ध हो जायेगा।
विश्वकर्मा की आज्ञा मिलते ही वास्तु इलागढ़ की ओर रवाना हुआ तथा वहाँ जाकर प्रभु की इच्छानुसार सब कार्य भी कर दिया। फिर प्रभु को आमन्त्रित करने के लिये इलाचल, इला तथा वास्तु ने प्रार्थना की। उस समय सबका मनोरथ पूरा करने वाले प्रभु विश्वकर्मा ने समाधि में ही सारी बातें जान लीं। वे इलागढ़ में सबको आनन्द देने के लिये तुरन्त प्रकट हुये। अब प्रभु को आया देखकर इला और इलाचल की आँखों में आनन्द के आँसू आ गये। उन्होंने गदगद वाणी से प्रभु की आराधना करते हुये उनका पूजन किया। उसके बाद से इलागढ़ में हर तरह से फूल हमेशा के लिये खिले रहने लगे। यही नहीं अनेक तरह के वृक्ष बारह मास उत्तम फल देने लगे। जब तक प्रभु ने इलागढ़ में निवास किया, तब तक वहाँ अकाल मृत्यु तथा भय शोक सब समाप्त हो गया।
प्रभु विश्वकर्मा ने इलागढ़ में लम्बे समय तक निवास किया। इसी बीच एक दिन वहाँ ब्रह्माजी आ पहुंचे। उन्होंने प्रभु की आराधना की। इससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हें यज्ञ करने की आज्ञा दी तथा वहाँ आये हुये समस्त ऋषि और देवताओं को सुनाते हुये कहा कि वे थोड़े समय पीछे स्वयं फिर स्वधाम पधारेंगे। यह सुनते ही ऋषि और देवता दुःखी हो उठे। वे अश्रु पूर्ण नेत्रों से भगवान से कहने लगे - हे शरणागत ! देवताओं का सारा काम करने हेतु आप यहाँ पधारे हो। आप यहाँ जब तक निवास करते हो हम निर्भय हैं। अतः हे नाथ ! दया करके आप निरन्तर यहीं निवास करें ऐसी हमारी इच्छा है। देवताओं के वचन से प्रसन्न होकर प्रभु बोले - हे देवताओं ! मेरे तपश्चर्या की अवधि अब पूरी होने को है। इससे मुझे स्वधाम तो जाना ही चाहिये, किन्तु तुम लोगों को निरन्तर मेरा स्मरण करते रहने से कोई व्याधि न सतायेगी। इसके अतिरिक्त भी तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ। उसे भी पूरा करने का उपचार करूँगा।
उस समय प्रभु के अमृतमय वाणी को सुनकर देवों का शोक कुछ कम हुआ और वे बोले - हे नाथ ! आप महान् हो, सब कर्ता-धर्ता हो, आपसे कुछ छिपा नहीं है। परन्तु हे स्वामी ! आपके स्वधाम जाने के बाद इस नाशवान सृष्टि के लिये मनुष्यों का नव-निर्माण तथा जीर्णोद्धार के कार्यों के पश्चात् ये सारे कार्य अटक जायेंगे।
निरन्तर देवों के कल्याण की कामना करने वाले प्रभु ने सृष्टि के कल्याण हेतु देवताओं की प्रार्थना सुनकर तुरन्त इसे मान कर अपने पाँच मुखों से पाँच पुत्र उत्पन्न किये, उनमें से भगवान के सद्योपांग नामक मुख से उत्पन्न हुआ पुत्र मनु के नाम से प्रख्यात हुआ। वामदेव नामक दूसरे मुख से उत्पन्न हुआ मय नामक पुत्र सनातन नाम से प्रसिद्ध हुआ। अहभून नाम से प्रसिद्ध हुआ त्वष्टा नाम का पुत्र प्रभु के अघोर नामक तीसरे मुख से उत्पन्न हुआ। चौथा तत्पुरुष नामक पुत्र अर्थात् शिल्पी की उत्पत्ति हुयी और पाँचवाँ ईशान नामक मुख से देवज्ञ अथवा सुपर्ण उत्पन्न हुआ। प्रभु के मुख से उत्पन्न हुये उनके ये पाँच पुत्र ब्राह्मण हुये तथा उन्होंने प्रभु विश्वकर्मा से सम्पूर्ण शिल्प का अभ्यास किया। विश्वकर्मा के इन पाँच पुत्रों से उत्पन्न हुई उनकी सारी प्रजा ब्राह्मण हुई तथा पाँच मुख से उत्पन्न हुये वे सब पंचाल नाम से विख्यात हुये । इसके बाद इन पाँच पुत्रों ने विश्वकर्मा से दीक्षा लेकर अनेक शिल्प कलाओं का सारा रहस्य सहित अभ्यास किया, तथा सृष्टि के सभी जीवों के हित के लिये उन्होंने विश्व में बहुत नव-निर्माण तथा जीर्णोद्धार की रचना की।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में पाँच पुत्रों की उत्पत्ति नामक बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण || तेरहवाँ अध्याय
( पाँच ब्रह्मर्षि )
किं कार्यं वंशवृद्धिश्च कथं भूता महात्मनाम् ।
सुज्ञानां विश्वपुत्राणाम् मयादीनां च नो वद ॥
ऋषि बोले-हे सूतजी ! प्रभु विश्वकर्मा के पाँचों पुत्र जो बहुत विद्वान और गुणी थे। इनका वंश किस तरह बढ़ा, कृपया यह भी हमें बताने का कष्ट करें। हे पुराण पुरुष ! आपकी प्रभाव-युक्त वाणी से मन की मलीनता दूर होती है। ऐसे ही निर्मल हुये हमारे अन्त:करण को आपकी वाणी प्रभु का साक्षात्कार कराती है।
उस समय ऋषियों के ये वचन सुनकर सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ऋषिगण ! विश्वकर्मा के पुत्रों का आधार लेकर तुमने जो प्रश्न किया है, उस विषय में मैं विस्तार पूर्वक बात करूँगा। विश्वकर्मा तथा उनके अङ्गभूत वास्तु सहित उनके पुत्रों के चरित्र को जो कोई मनुष्य सुनता अथवा सुनाता है वह संसार में सब जगह पूजा जाता है। इसके श्रवण मात्र से सारे रोग, शोक, क्षण भर में दूर हो जाते हैं। तीन बार श्रवण करने से सारे दुखों से मोक्ष मिलता है तथा सात बार श्रवण करने से सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। दस बार श्रवण करने से सारे विश्व में उस का यश फैलता है तथा सौ बार के श्रवण करने से मनुष्य दिव्य गति प्राप्त करता है।
हे ऋषियों ! विश्वकर्मा के ये पाँचों पुत्र बहुत समय तक भगवान् श्री विराट के पास रहे तथा उनके द्वारा पढ़ाये गये शिल्प शास्त्र तथा उसके अति गूढ़ रहस्यों को समझते रहे। फिर प्रभु ने उनको गुरु गृह भेजा। वहाँ थोड़े ही समय रहकर सारी विद्या हासिल करने के बाद अपने पिता के साथ ही ब्रह्माण्ड के स्थावर, जङ्गम जीवों के कल्याण के लिये अनेक उत्तम कार्य करते हुये नित्य इलाचल पर्वत में अपने पिता के साथ रहने लगे।
विश्वकर्मा से उत्पन्न हुये ये पाँच ब्रह्मर्षियों में जो मनु नामक ब्रह्मर्षि का गोत्र था वह सानग कहलाया, इनके पच्चीस उपगोत्र हुये। ऋग्वेद इनका मुख्य वेद कहलाया तथा उनका उपवेद आयुर्वेद था। ये महर्षि लोक संहिता का अभ्यास करके लोहे से सम्बन्धित सभी कार्य करते थे। इन महर्षि ने समस्त सृष्टि के उपयोग के लिये अनेक छोटे बड़े शिल्पों की रचना करके सभी जीवों के ऊपर असाधारण उपकार किया।
प्रभु के दक्षिण दिशा के मुख से उत्पन्न हुये वामदेव नामक ब्रह्मर्षि का गोत्र सनातन था। उनके उपगोत्र भी पच्चीस थे। यजुर्वेद इनका मुख्य वेद था और धनुर्वेद को उपवेद की तरह स्वीकार किया। यह मय ब्रह्मर्षि के वंशज और भगवान विष्णु को अपने आराध्य देव की भांति मानते तथा चौकोर आकृति वाले उत्तम कुण्ड में वह परमब्रह्म का निरन्तर पूजन करते । इनके वंशज सभी जीवों के लिये काठ से अनेक प्रकार के उत्तम साधन बनाये। इस तरह सृष्टि को सुखी करने के लिये बहुत उपकार किया।
ब्रह्मर्षि त्वष्टा, विश्वकर्मा भगवान के अघोर नामक मुख से उत्पन्न हुये थे। विराट का यह मुख पश्चिम दिशा की ओर का है। इस त्वष्टा का गोत्र अहभुन नाम से विख्यात हुआ। इनके गण गोत्रों की संख्या भी पच्चीस है। इनके गोत्र के पुरुष सामवेद का अध्ययन करते तथा उपवेद के रूप में ये गन्धर्व वेद को मानते थे। ये लोग ताम्रसंहिता को प्रमुखता देते थे और निरन्तर दाक्षायण सूत्र का अध्ययन करते थे तथा जगत के सृष्टा ब्रह्मा का यजन-याजन करते थे । षट्कर्म के लिये वर्टणाकार गोल कुण्ड की महानता स्वीकारते हुये ताम्रसंहिता के आधार से अपने उपयोग की बनती सभी चीजों से अपने पिता की प्रजा के ऊपर अनुग्रह किया।
प्रभु विश्वकर्मा के उत्तर दिशा की ओर से तत्पुरुष नाम से विख्यात मुख से शिल्पी की उत्पत्ति हुई। ये अथर्ववेद का अध्ययन करते। उन्होंने शिल्प वेद को उपवेद की तरह मान्यता दी। वे वेदायन सूत्र तथा शिल्प का निरन्तर अध्ययन करते और देवताओं के राजा इन्द्रदेव को अपना इष्टदेव मानते । षट्कोण कुण्ड में उनका निरन्तर यजन-याजन करते तथा मिट्टी और पत्थर आदि के शिल्पों से सृष्टि की शोभा बढ़ाते।
भगवान के ईशान नामक ऊर्ध्व मुख से दैवज्ञ नामक ब्रह्मर्षि सुपर्ण गोत्र से ख्याति प्राप्त किया तथा पच्चीस गोत्र वाले ये ऋषि सूक्ष्म वेद को मानते हैं। इतिहास पुराण वगैरह को उपवेद की तरह मानते हैं। कात्यायन सूत्र तथा सुवर्ण संहिता का यह अध्ययन करते तथा ये ब्रह्मर्षि आठ कोने वाले कुण्ड में अपने इष्टदेव की तरह जगत को प्रकाश देकर जीवित रखने वाले ऐसे अनन्त तेज स्वरूप सूर्य नारायण का यजन करते थे। इन ऋषि ने सुवर्ण के अलङ्कारादिक अनेक प्रकार के शिल्पों से देवताओं के लिये शोभाओं की रचना की।
इस सचराचर विश्व जीवों के लिये इन पाँच पुत्रों ने लोहा, काष्ठ, ताँबा, पत्थर और सुवर्ण से निर्मित उत्तम शिल्प कार्यो की रचना करके अलौकिक कार्य किया और उनके शिल्प के आधार पर वे यज्ञादि करके उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
भगवान विश्वकर्मा के पाँचों पुत्र एक समय उनके सामने हाथ जोड़कर बैठे थे। अपने पुत्रों को देखकर प्रभु ने उनके वंश की बढ़ोत्तरी के लिये अङ्गिरादि ऋषियों को प्रेरणा दी। अङ्गिरा, पाराशर, कौशिक, भृगु और जैमिनी प्रेरणा पाते ही इलाचल पर्वत पर आ गये और प्रभु को साष्टांग प्रणाम किया।
प्रभु विश्वकर्मा ने योग से निवृत्त होकर धीरे-धीरे अपने नेत्र खोले और प्रेम भरे नेत्रों से ऋषियों को देखा। एक बार प्रभु के पाँचों पुत्रों को देखकर मुग्ध हो गये और अपनी-अपनी कन्याओं का विवाह विश्वकर्मा भगवान के पुत्रों के साथ करने की ऋषियों ने अपनी इच्छा प्रकट की। वंश वृद्धि की इच्छा वाले प्रभु ने तुरन्त अपनी अनुमति दे दी।
प्रभु ने वास्तुदेव द्वारा देवताओं के पुरोहित बृहस्पति एवं कश्यप को बुलवा कर विवाह का मुहूर्त निकलवाया और शुभ दिन आने पर इलाचल पर्वत पर खूब धूम मच गयी और सजावट होने लगी। निमन्त्रित सभी देवता, यक्ष, गन्धर्व आदि तथा ऋषि मुनि सभी पधारे। सभी बारातियों को पाँच भाग में विभाजित करके प्रभु स्वयं पाँच रूप धारण करके पुत्रों का विवाह करने चल पड़े । प्रत्येक बारात सात दिन के अन्तराल से क्रमश: पाँच ऋषियों के आश्रम पर पहुंची और शुभ सायत में पाँचों पुत्रों का पाणिग्रहण संस्कार हुआ।
मनु महर्षि का अङ्गिरा की कन्या कांच से, मय महर्षि का पाराशर की कन्या सुलोचना से, त्वष्टा का कौशिक की कन्या जयन्ती से, शिल्पी का भृगु की कन्या करुणा से और दैवज्ञ का विवाह जैमिनी की कन्या चन्द्रिका के साथ सम्पन्न हुआ।
पाँचों पुत्र अपनी-अपनी पत्नियों को साथ ले, इलाचल पर्वत पर आये और प्रभु से आज्ञा लेकर अपना गृहस्थाश्रम शुरू किया। अनेक समय के बाद इन पाँचों ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके प्रभु के समीप ध्यानस्थ हो बैठ गये। इनके वंश में गोत्र प्रवर्तक ऋषि भी हो गये हैं। प्रत्येक ऋषि से २५-२५ गोत्र उत्पन्न हुये।
इन गोत्रों का नाम इस प्रकार है - मन्युपति, सीमन्त, उपस्तानग, लनज, सत्यक, मामन्यु, श्रेतांगद, विभ्राज, भास्वन्त, सुतप, भूबल, पुरञ्जय, कश्यप, मधु, प्रबोधक, सन्तत, भानुमति, मनुविश्वकर्मा, सर्वभद्र, सुलोचन, विश्वषेन्ट, जयत्कुमार, विश्वात्म, चित्रवसु और चित्रधर्म । ये सब सानग गोत्रों से उत्पन्न उपगोत्र हैं।
सनातन के उपगोत्र - मानुष, सनत्कुमार, धार्मिणक, विद्यातृ, द्विजधर्म वर्धक, भावबोध, तक्षक, शांतमति, आदिशयन, उपसनातन, वामदेव, विश्वचक्षु, प्रतितक्ष, सुतक्ष, विश्वतोमुख, विश्वदक्ष, विश्रुत, सुमेध, पन्नग, रैवत, प्रहर्ष, जयद, परिषंग और वितंत।
अहभून के उपगोत्र - संवर्त, यज्ञपाल, प्रतिवक्ष, कुशधर्म, अतिधातृ, लोकेश, पद्मपक्ष, वितक्ष, मोदमति, विश्वभय, उपाध्मून, भद्रदक्ष, कांडव, विश्वरूप, त्रिमुख, बौधायन, जातरूप, चित्रसेन, जयसेन, विधनस, प्रमोन्नत, देवल, विनय, ब्रह्मदीक्षित और हरीधर्मा।
प्रत्न के उपगोत्र - प्रहर्षण, वास्तुक, उपप्रत्न, विश्वभद्र, शक्कट, लोकवेत्ता, इन्द्रसेन, रुचिदत्त, क्षानभद्र, राजधर्म, चित्रक, गिरिधर्म, वास्तुक, देवभद्र, देवपाल, सहस्रबाहु, वसुधर्म, इन्द्रसेन, व्यंजक, भोक्तव्यमनु, देशिक, वज्रजीत, सनाभस, प्रबोधमनु और पज्ञोमति।
सुवर्ण के उपगोत्र - मणिभद्र, आदिस्यसेन, सुपर्ण, मैत्रय, बोधक, मनुसुव्रत, अर्वत, विश्वज्ञ, तेजोधर्म, देवसेन, तिवर्धन, अर्चित, परित, सुदर्शन, आदित्य, याज्ञिक, अच्युत, सौरसेन, उपगोप, निगम संज्ञिक, कर्दम सांख्यायन, सांत्क तथा उपयक्ष ।
यह सब शिल्प शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे तथा अनेक विद्याओं का अभ्यास किया था एवम् ब्रह्म के रहस्य को समझने और परम तत्व को पहचानने वाले थे।
सूतजी ने आगे कहा-हे ऋषिगण ! एक सौ पच्चीस (१२५) गोत्रों के अतिरिक्त अनेक गोत्र प्रवर्तक हो चुके हैं। जिन्होंने मनु आदि के वंश में उत्पन्न होकर नया गोत्र चलाया। इन ऋषियों की संख्या 80 है। वे भी अनेक प्रकार से ज्ञान-विज्ञान, षड्शास्त्र, वेद वेदाङ्ग और शिल्प विद्या में निपुण थे।
ये प्रभु विश्वकर्मा के मुख से उत्पन्न हुये हैं। इनकी विश्व ब्राह्मणों में गिनती है। ये षट्शास्त्र के जानने वाले तथा क्रिया काण्ड के करने वाले तथा समग्र वेदों का अङ्गोंपाङ्ग सहित अध्ययन करने वाले हैं। ये विश्व ब्राह्मण, आचार्य, पञ्चाल, स्थपति, रथकाट, तक्षा या तंकास, कर्मकार, अङ्गिरा अर्थात् जांगिड, कंसाली नाराशंस, अकसाल या अर्कयाली, कमालीयन धीमान, पंचशिल्पी, कोकास सौंधन्व, पौरुषेय तथा नाशंस इत्यादि अनेक जातियों के नाम से प्रसिद्ध हुये, और ये सब शिल्प तथा अन्य शास्त्रों में उत्तम ज्ञान वाले होने के कारण भिन्न-भिन्न स्थानों पर रहने लगे।
इस तरह प्रभु विश्वकर्मा ने अपने पाँचों पुत्रों के वंशज को समस्त पृथ्वी पर फैला दिया। यह सब प्रभु के दिये ज्ञान-विज्ञान से अनेक शिल्पों की रचना करके वे सृष्टि के जीवों पर अनेक उपकार करने लगे तथा इस तरह वे अपने जन्म-कर्म आदि का सार्थक्य करने लगे।
|| इति श्री विश्वकर्मा पुराण में पाँच ब्रह्मर्षि नामक तेरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण || चौदहवाँ अध्याय
( ईलाचल महात्म्य )
ईलाचलस्तु कुत्रास्ति कथं वै विश्वकर्मणा ।
स्वीकृतोऽसौ निवासार्थं वद नो वदतां वर ॥
ऋषियों ने पूछा कि-"हे सूतजी ! हे वक्ताओं में श्रेष्ठ ! हे सर्वज्ञ ! आपने जो ईलाचल पर्वत के विषय में सुनाया वह कहाँ पर है तथा कृपालु परमात्मा ने अपने निवास स्थान को यही पर्वत क्यों चुना। इसे आप हमें समझा कर कहें एवम् जो कुछ उस स्थान के बारे में जानने योग्य हो वह सब बताने का कष्ट करें।"
सूतजी बोले- “हे ऋषि ! प्रभु विश्वकर्मा की महिमा की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य ने जीवन काल में कितने ही पाप किये हो अगर वह सच्चे मन से भगवान् विश्वकर्मा के चरणों का आश्रय लेता है तो वह समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर उत्तम फल को प्राप्त करता है। प्रभु का निवास होने के कारण ईलाचल पर्वत की महिमा अलौकिक एवम् अत्यन्त पवित्र है। इसके विषय में मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ उसे श्रवण करें।"
भगवान् विश्वकर्मा के वंशजों में एक द्विजदेवा नाम के ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुये। वे प्रतिदिन षट्कर्म करते थे और उन्होंने रहस्य सहित वेदादि का गहन अध्ययन किया था। शिल्प शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे और आत्मतत्व को ब्रह्म के साथ जोड़कर समाधि में लीन रहा करते थे। एक समय वे वन-विहार के लिये चले कि अचानक मार्ग में एक बड़ वृक्ष पर से एक प्रेत उतरकर उनके चरणों में लेट गया।
ब्रह्मर्षि द्विजदेवा ने उसे उठाकर खड़ा किया। वह प्रेत हाथ जोड़कर बोला- “हे श्रेष्ठ ! आप ज्ञानी व तपस्वी हो। मैं अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप मरणोपरांत इस प्रेत योनि में आ गया हूँ और बहुत यातनायें भोग चुका हूँ। अब आपके अतिरिक्त कोई भी मेरा उद्धार नहीं कर सकता। अतः मैं आपकी शरण में आया हूँ। अब आप मुझे इस प्रेत योनि से छुटकारा दिलाइये और मेरी रक्षा करने की कृपा कीजिये।"
प्रेत के दुःख भरे वाक्य सुनकर वह अत्यन्त दुःखी हुये और कुछ विचार कर उसे ईलाचल पर्वत पर लिवा लाये तथा वहाँ बने हुये विश्व कुण्ड में स्नान कराया। उस विश्व कुण्ड में स्नान करते ही प्रेत का प्रेतत्व नष्ट हो गया और वह उत्तम स्वरूप धारण करके बाहर आया। आते ही उसने ब्रह्मर्षि को प्रणाम करके बोला - "हे दयानिधे ! आपकी कृपा से मैं मनुष्य बन गया। पहले मैं एक उत्तम ब्राह्मण था, किन्तु अपने दुष्ट कर्मों से प्रेत योनि को प्राप्त हो गया था। अब आपके प्रभाव से मुझे मुक्ति मिली।"
ब्रह्मर्षि बोले-“हे भाई ! इसमें मेरा कोई प्रभाव नहीं है, बल्कि जिसने हमें, तुम्हें और सारे संसार को उत्पन्न किया है, जो सारे संसार का पिता कहलाता है, यह उसी दयामय कृपालु प्रभु विश्वकर्मा की कृपा का फल है। प्रभु ने संसार के सभी प्राणियों के कल्याणार्थ इस कुण्ड का निर्माण किया है। अत: तू उनके प्रति अपनी भक्ति रख कर उनका अनवरत स्मरण कर । वे अपने भक्तों को कभी भी दुःखी देखना पसन्द नहीं करते, इसमें कोई सन्देह नहीं है।" ऐसा उपदेश देकर ऋषि उसे प्रेत बन्धन से मुक्त कराकर भगवान् विश्वकर्मा के दर्शन कराये।
बाद में उस ब्राह्मण को ईलाचल पर्वत की तलहटी में अपने आश्रम में ले गये। वहाँ उसका ब्राह्मण के योग्य सत्कार हुआ। ऋषि एक विशाल वटवृक्ष के नीचे विराजमान होकर ज्ञान-विज्ञान की चर्चा करने लगे। कुछ दिन के बाद प्रभु के अलौकिक चमत्कार से उसका मन चलायमान हुआ और वह ऋषि की ओर देखकर बोला- “हे महात्मन् ! मेरे हृदय में हो रहे उथल-पुथल को खत्म करें और मेरी मनोव्यथा को सुनकर स्पष्टीकरण कीजिये । हे ज्ञान के भण्डार, ब्रह्म श्रेष्ठ ! आपने मुझे विश्व-कुण्ड में स्नान करा कर मेरा प्रेतत्व नष्ट कर दिया। इस कुण्ड का प्रभाव किस कारण से है, इसे समझा कर कहें, क्योंकि मेरे मन में मन्थन हो रहा है तथा इस स्थान के महात्म्य के विषय में मेरी अज्ञानता को दूर करने की कृपा करें।"
द्विजदेवा ऋषि ने कहा-“हे ब्राह्मण ! तुम सावधान होकर सुनो। इस कुण्ड में स्नान करने वाला मनुष्य सभी पापों से छुटकारा पाकर, उत्तम सुखों को भोगता हुआ जीवन-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। प्रभु की सारी लीलायें मनुष्यों के कल्याण के लिये ही हैं।
आप जिस कुण्ड के विषय में पूछ रहे हैं ऐसे-ऐसे तीन कुण्ड इस प्रदेश में भगवान् ने बनाये हैं। उन तीनों कुण्डों का भी ऐसा ही महात्म्य है। दूर रहने वाला मनुष्य भी अगर अपने मन, वचन, कर्म से उनका हृदय से स्मरण करे तो वह भी सुखी होता है, जैसे चुम्बक के आकर्षण से लोहा पास आ जाता है, वैसे ही मनुष्य उसके पास आ जाते हैं। हे ब्राह्मण ! इन प्रदेशों का महत्व तुझे सुनाता हूँ तू ध्यान देकर सुन।"
जब सृष्टि का निर्माण हुआ उस समय पृथ्वी डोल रही थी, उसे स्थिर रखने के लिये प्रभु विश्वकर्मा ने आठ दिशाओं में बड़े-बड़े पर्वत की स्थापना की जिनके वजन के कारण पृथ्वी डांवाडोल नहीं हो रही थी। उनके नाम हैं-विन्ध्याचल, अर्बुदाचल, हिमाचल, मेरु इत्यादि । ऋषियों के मतानुसार (६०,०००) साठ हजार छोटे पर्वत भी हैं। कुछ समुद्र में और कुछ पृथ्वी पर हैं। इनमें कुछ रत्नगर्भा हैं व कुछ में कीमती पत्थर भी पाये जाते हैं।
इन पर्वतों में लोहकूट नामक पर्वत लोहे का था। समुद्र के मध्य भाग में स्थित होने से इसने समुद्र के जीव-जन्तुओं को आश्रय दे रखा था। इसे किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। यह पर्वत अकेला होने के कारण मस्त हाथी की तरह रहता था, लोहकूट और समुद्र दोनों आपस में गहरी प्रीति रखते थे। समुद्र ने अपना सारा खजाना उसे सौंप दिया था।
देव-दानव के युद्ध में जब देवता लोग हार रहे थे, उस समय उनके कष्ट को दूर करने के वास्ते प्रभु ने समुद्र मन्थन किया। तब लोहकूट पर्वत ने समुद्र के कहने से देवताओं को अमृत दिया था। इस कारण नारायण ने उससे प्रसन्न हो उसको महत्व देने के लिये उसे अनेक वरदान देकर प्रसन्न किया। तत्पश्चात् देवताओं को अमृत-पान कराकर युद्ध में विजय दिलायी।
पाताल में से पृथ्वी पर आते-जाते समय नाग मार्ग भूल जाया करते थे। इसलिये उन्हें पृथ्वी में ही छिप-छिपाकर रहना पड़ता था। कभी-कभी उनको अपनी जान को भी खतरा होता था। नागों की ओर से शेषजी ने प्रभु विश्वकर्मा के समक्ष उनकी करुण गाथा सुनायी। अपने भक्तों का कल्याण करने वाले प्रभु ने उनकी तकलीफों को दूर करने का विचार किया।
प्रभु लोहकूट को दिये हुये वरदान को लक्ष्य में रखकर शेषजी से बोले - आप लोग पर्वत को उठाकर पाताल के द्वार पर ले जावें। जिससे आपकी मुसीबतें दूर हो जायेंगी। बहुत ऊँचा होने से दूर से ही आप इसे देख सकोगे और पर्वतों से भिन्न होने से इसे तुरन्त पहचाना जायेगा। इस तरह मार्ग खोजने में आपको तरद्दुत का सामना नहीं करना पड़ेगा।
नारायण के वचन को सुनकर अनन्त, वासुकी, शेष, कम्बल, पद्मनाम, धृतराष्ट्र, शंखपाल, तक्षक, कालीय आदि नवों प्रकार के मणिधर नागों ने उस पर्वत को उठाकर पाताल के द्वार पर रख दिया। रास्ते में नागों के मस्तक के मणियों के बार-बार लोहकूट पर्वत में घर्षण होने से वह स्वर्णमय हो गया। प्रभु की वाणी सत्य हुई, क्योंकि उन्होंने उसे वरदान दिया था कि तेरी काया कञ्चन की हो जायेगी। इस प्रकार वह वरदान सफल हुआ।
लोहकूट बहुत ऊँचा पर्वत था। यह पर्वत दूर से देखा जा सकता था। ऐसा हो जाने पर सभी नागों को पृथ्वी पर से वापस पाताल में जाने के लिये जरा भी कठिनाई नहीं हुई। अब उन्हें अपना द्वार खोजने की चिन्ता नहीं थी। सोने की काया होने के कारण लोहकूट का नाम हेमकूट पड़ गया। ऐसा होने पर लोहकूट को बहुत आनन्द हुआ। हेमकूट कञ्चन शरीर धारण करके हेमकूट की एक गुफा में मनुष्य शरीर से रहने लगा और आनन्द करने लगा।
एक समय मनुष्य रूप में हेमकूट उपवन में विचर रहा था कि उस समय शेषनाग कुल की नाग कन्या नध देवी घूमते-घूमते वहाँ पहुँची और हेमकूट को देखकर उस पर मोहित हो गयी तथा उससे विवाह करने की अपनी इच्छा प्रकट की। दोनों कुल की सहमति से उन दोनों का विवाह हो गया। वे दोनों उस पर्वत की रमणीय गुफा में निवास करते हुये आनन्द से जीवन बिताने लगे। नध देवी का दूसरा नाम ईला था। ईला से विवाह करने के पश्चात् उसका नाम ईलाचल पड़ गया और प्रसिद्ध होकर अति रमणीय बना रहा।
हेमकूट प्रभु का अनन्य भक्त था। वरदानी होने के कारण उसकी भक्ति और भी बढ़-चढ़ गयी थी। नारायण का यज्ञ करना उसका प्रतिदिन का नियम था। उसकी धर्मपत्नी ईला उसकी सेवा में नित्य तैयार रहती थी। प्रभु के यज्ञ के निमित्त जो भी वस्तु की आवश्यकता पड़ती, उसे वह तुरन्त लाकर देती। उसकी पति भक्ति को देखकर ईलाचल बहुत प्रसन्न होता था। प्रभु के दूसरा वरदान को सफलीभूत देखकर प्रभु के प्रति पूर्ण शुद्ध भावना रखकर वह यज्ञ किया करता था।
ईलादेवी को पति-सेवा कार्य के लिये गुफा के बाहर जाना पड़ता था। एक बार उसे गुफा से बाहर निकलते समय कुछ राक्षसों ने देख लिया तथा उसके रूप को देखकर मोहान्ध हो उसकी ऐसी सुशोभित नितम्ब, उन्नत स्तन वाली रूप सुन्दरी जिसके भीगे हुये खुले केश उसके आधे शरीर को ढंके हुये हैं, ऐसी ईला का अपहरण करने का उपाय करने लगे। ऐसा बहुत समय तक चलता रहा। फिर दुष्ट राक्षस उसे तङ्ग करने लगे तो वह उनकी नियत को भांप गयी। पति को कोई दुःख न पहुँचे, इस वास्ते सारी उलझनें वह मूक होकर सहने लगी। उसके हृदय में भारी डर था कि कहीं ये दुष्ट राक्षस लोग किसी भी समय उसे भ्रष्ट कर देंगे तो क्या होगा?
एक समय उपवन के रास्ते से ईला जा रही थी तो उसे नारदजी के दर्शन हुये। उनके हाथ में तुम्बी पात्र और वीणा शोभायमान हो रही थी। उनकी शिखा ऊँची थी, वह खड़ाऊँ पहन कर सामने से आ रहे थे, तब ईला ने उनको प्रणाम किया । नारदजी ने उसे आशीर्वाद देकर उसका हाल-चाल पूछा, तो ईला ने अपनी परेशानियों को बतलाया। ईला की मनोदशा को जानकर नारदजी ने उसे विश्वकर्मा भगवान् के बीज-मन्त्र का उपदेश देकर उनके आराधना करने की विधि को समझाया।
नारदजी से मन्त्र की दीक्षा लेकर पतिव्रता ईला ने घर आकर अपने स्वामी ईलाचल से सारी बातें बतायीं और प्रभु विश्वकर्मा का यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। पति की अनुमति मिलने पर ईला ने नारदजी की बतायी हुयी विधि के अनुसार यज्ञ किया। इस तरह प्रभु की आराधना करने से प्रत्येक संजोगों में अपनी रक्षा के लिये निर्भय होकर आनन्द से दिन बिताने लगी तथा अनेक सुखों का उपभोग करने लगी।
अपने को भयमुक्त मानती ईला एक समय उपवन में विहार कर रही थी कि उस समय उसके अपहरण की इच्छा से एक राक्षस ईला को उठा ले गया (उस राक्षस का नाम गृध्रमुख था) और अपने निर्जन जङ्गल के निवास में ले आया । गृध्रमुख की पतिव्रता पत्नी ने ईला की रक्षा की और उसे अनेक प्रकार का सुख देने लगी तथा अपने पति को बहुत बुरा-भला कहकर उसे समझाया इससे उसकी बुद्धि ठीक हो गयी।
ईलादेवी ने अपने बीज-मन्त्र की आराधना करके कल्याणकारी भगवान् विश्वकर्मा का ध्यान किया और अपनी रक्षा के लिये अनेक प्रकार से प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर प्रभु हंस पर बैठकर तुरन्त वास्तुदेव के साथ वहाँ आये । वास्तुदेव सहित भगवान् को देखकर सबको अत्यन्त प्रसन्नता हुई । गृध्रमुख अपनी पत्नी की आज्ञानुसार उनके चरणों पर गिर पड़ा और त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कहने लगा। उसकी पतिव्रता पत्नी भी बारम्बार क्षमा माँग कर कृपा की याचना करने लगी।
ईला की प्रार्थना से प्रसन्न भगवान् विश्वकर्मा ने वास्तुदेव को गृध्रमुख का वध करने से रोका और अन्त में उसे अभयदान दिया। कुछ समय उसके यहाँ निवास करके प्रभु वास्तुदेव सहित नाग कन्या ईला को लेकर ईलाचल पर्वत पर आये। अपनी पत्नी के वियोग में भ्रमित चित्त हो व्याकुल बना हुआ ईलाचल पत्नी को वापस आयी देखकर अत्यन्त हर्षित होकर प्रभु के चरणों में अपना मस्तक नवाकर गदगद वाणी से प्रार्थना करने लगा। उन्होंने उसे उठाकर आलिंगन किया तथा अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर उत्तम वरदान देकर उसके मन को शान्ति प्रदान किया।
प्रभु, ईलाचल को उसकी पत्नी उसके सुपुर्द करके वापस जाने के लिये तैयार हो गये। प्रभु को वापस जाते देखकर दोनों प्राणी का हृदय प्रभु के विरह की कल्पना से भर उठा और उनके चरणों में गिर कर अश्रुपात करने लगे। कुछ समय बाद अपने हृदय को स्वस्थ करके ईला बोली-“हे दयामय ! हे देवाधिदेव ! आज आपने जो मुझ पर कृपा की है, उसका वर्णन हजार मुख से भी नहीं हो सकता । हे प्रभु ! मैं आपकी किन शब्दों से स्तुति करूँ यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। इस बियावान जङ्गल में दैत्य लोग मुझे निरन्तर सताते रहते हैं। आप इस तरह रक्षा करके चले जायें, यह मुझे प्रिय नहीं है। अतः आप दया करके मेरी अभिलाषा पूर्ण करने की कृपा करें।"
ऐसा निर्मल वचन सुनकर भगवान् विश्वकर्मा ने उसी पर्वत पर रहने का फैसला किया। अपनी दृष्टि को घुमाते ही प्रभु ने लीला की । ईलाचल पर्वत क्षण मात्र में ही (देवताओं को मोहित करने वाला) अति सुन्दर बन गया। प्रभु ने प्राणी मात्र के कल्याणार्थ सूर्य-कुण्ड, चन्द्र-कुण्ड तथा विश्व-कुण्ड नामक तीन कुण्ड बनाये, जिसकी बहुत बड़ी महिमा है। इस कुण्ड में स्नान करने वाले का समस्त दुःख-दारिद्र एवम् विडम्बनायें दूर हो जाती हैं और अनेक प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते हैं तथा रोगादि भी शान्त हो जाते हैं। जो मनुष्य इस कुण्ड में स्नान करता है, उसके इकहत्तर (७१) पीढ़ियों के पूर्वज सद्गति को प्राप्त हो जाते हैं। प्रेत बाधा से ग्रसित व्यक्ति भी प्रेत यातना से छूट जाता है।
ब्रह्मऋषि द्विजदेवा ने ब्राह्मण को इलोलगढ़ का महात्म्य सुनाया। ईलाचल (इलोलगढ़) की महिमा जानकर जिनका मन प्रसन्न हुआ है, ऐसा वह ब्राह्मण भी वहाँ से द्विजदेवा को प्रणाम करके अपने आपको धन्य मानता हुआ चला गया।
सूतजी कहने लगे "हे ऋषिगण ! इस प्रकार ईलाचल पर्वत का समस्त महात्म्य एवम् प्रेतत्व पाये हुये और मुक्त हुये ब्राह्मण के विषय को लेकर ब्रह्मर्षि द्विजदेवा ने कहा था, वह सब मैंने आप सभी को सुनाया। इस पर्वत पर प्रभु श्री विश्वकर्मा ने निवास किया था, जिससे इसका महत्व और भी बढ़ गया है। मनुष्य को अपने जीवन काल में एक दफा इस धाम की यात्रा करनी चाहिये। इस धाम की यात्रा करने से अनेकानेक पुण्यों तथा धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। भगवान् विश्वकर्मा के जो वंशज हैं, उन्हें तो यहाँ की यात्रा करना अनिवार्य होता है। जिसने भी यह यात्रा की उसके सभी पापों का क्षय हो जाता है तथा वह व्यक्ति सायुज्य को प्राप्त करता है।
हे विप्र! आपने जो प्रश्न मुझसे किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया। अब आप लोगों को क्या सुनने की अभिलाषा है सो मुझसे कहो।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में ईलाचल महात्म्य नामक चौदहवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। पन्द्रहवाँ अध्याय
(कन्यादान की महिमा )
भगवान् विश्वकर्मा के पुत्र द्विजदेवा के श्रीमुख से ईलाचल पर्वत की महिमा को सुनकर उस ब्राह्मण का मन प्रफुल्लित हुआ। प्रभु विश्वकर्माजी के चरणों में गिर कर अनेक प्रकार से प्रार्थना करने से प्रसन्न हो प्रभु उस ब्राह्मण के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले-“हे ब्राह्मण ! मैं तेरी विनम्र वाणी को सुनकर अति प्रसन्न हूँ एवम् मैं तुझे वरदान देने को उत्सुक हूँ, तेरी जो भी अभिलाषा हो बता दे।"
प्रभु के दयायुक्त वचन सुनकर वह ब्राह्मण बोला-"हे दयानिधे ! इस जगत् में क्या माँगना और क्या न माँगना इसका मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है, किन्तु मैं इतना जानता हूँ कि यदि मनुष्य पुण्य प्राप्त करने वाला कार्य करे तो उसे उसका उत्तम फल प्राप्त हो जाता है। यदि मेरे प्रश्न का आप स्पष्टीकरण करें तो मैं कुछ माँगू।" प्रभु बोले - पूछ ! क्या पूछना चाहता है ? आज्ञा मिलते ही ब्राह्मण ने पूछा-“हे नाथों के नाथ ! जगत् के पालनहार ! जगत् नियन्ता ! संसार में पुण्यों के अनेकानेक मार्ग हैं, उनमें से उत्तम एवम् अक्षय पुण्य का कौन-सा कार्य है ? आप मुझे कृपा करके समझाते हुये बतायें। उसके प्रश्न का उत्तर देते हुये प्रभु बोले-“हे विप्रवर ! कन्यादान का पुण्य अक्षय होता है तथा कन्यादान करने वाला व्यक्ति अपनी आगे और पीछे की दसों पीढ़ियों सहित उत्तम गति को प्राप्त होता है।"
भगवान विश्वकर्मा के ऐसे वचन सुनकर वह ब्राह्मण बोला - “हे प्रभु ! यदि ऐसा ही है तो आप मुझे एक रूपवती सर्वगुण सम्पन्न कन्या दो। जिससे मैं कन्या का विधिपूर्वक विवाह करके इस अक्षय फल को प्राप्त कर सकूँ।"
उसकी ऐसी इच्छा जानकर प्रभु ने कहा-“हे ब्राह्मण ! तूने तो अभी तक विवाह ही नहीं किया है तो मैं तुझे कन्या कैसे दूँ। हाँ अपने लिये तू एक सुघड़ पत्नी माँग ले।" तब ब्राह्मण ने जवाब दिया कि हे प्रभु! यदि मैं पत्नी की अभिलाषा करूँ तो मुझे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ेगा और एक-एक करके अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। मैं जान-बूझकर ऐसी माया में नहीं फँसना चाहता। अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसा कीजिये कि मुझे गृहस्थाश्रम में प्रवेश भी न करना पड़े और कन्यादान करने के लिये मुझे एक योग्य कन्या भी प्राप्त हो जाये।
विप्र के इस प्रकार का वचन सुनकर प्रभु ने 'तथास्तु' कहा और बोले-'हे ब्राह्मण ! तू इस विश्वकुण्ड के किनारे बैठकर मेरा चिन्तन करता हुआ तपस्या कर, समय आने पर तुझे इसी विश्वकुण्ड के पास एक कन्या प्राप्त होगी, उसे तू एक कुलीन ब्राह्मण के साथ विवाह करके (कन्यादान करके) मेरी इच्छा को पूर्ण करना।" इस तरह उसको वरदान देकर प्रभु ने वहाँ से प्रस्थान किया। तब वरदान पाकर वह बाह्मण विश्वकुण्ड के किनारे एक पर्णकुटी बना कर प्रभु का ध्यान करते हुये वरदान के समय की राह देखने लगा।
एक समय इन्द्र के सभा की एक नृत्यांगना को एक तपस्वी का श्राप लगा था, जिसके कारण वह घोड़ी बन गयी थी। एक समय भ्रमण करते-करते वह उस विश्वकुण्ड के पास आयी और उसमें उसने स्नान किया। स्नान करते ही वह एक रूपवती स्त्री बन गयी। उस समय उसके सौन्दर्य को देखकर सूर्य भगवान् मोहित हो गये और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। पृथ्वी पर वीर्य की बूंदें गिरने से उसमें से एक सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई। वह रूप और गुण दोनों में अति-श्रेष्ठ और मनोहर थी। पृथ्वी पर इस तरह उत्पन्न कन्या को देखकर ब्राह्मण आश्चर्य से चकित हो गया।
उस समय भगवान विश्वकर्मा ने वहाँ आकर कहा-"हे विप्रवर ! हे महाभाग ! तुम बड़े भाग्यशाली हो । तुम्हारी तपस्या आज पूर्ण हो गयी। तुम्हारी तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। सूर्य से उत्पन्न इस कन्या को ले जाओ और इस कन्या का लालन-पालन करो एवम् योग्य समय पर कन्या का विधि पूर्वक कुलीन ब्राह्मण को दान कर देना और अक्षय पुण्य को प्राप्त करना। तुमने मुझसे जो वरदान माँगा था उसके अनुसार मैंने यह कन्या दी है। कन्यादान की महिमा से तुम अनजान नहीं हो। इस तेजस्वी बालिका के योग्य ब्राह्मण तलाश करके विवाह करने के पश्चात् संसार से विरक्त होकर मेरे परमधाम में आना।
तदनन्तर प्रभु के अमृतमय वचन सुनकर विप्र पुलकायमान हो अश्रु पूरित नेत्रों से उनकी ओर देखता ही रह गया। तत्पश्चात् वह उठकर भगवान के चरणों पर साष्टांग प्रणाम किया तथा वेद मन्त्र एवम् ऋचा से उनकी स्तुति करने लगा। अपने मनोरथ को पूर्ण मानकर और प्रभु से आज्ञा लेकर कन्या को साथ ले ईलाचल पर्वत से अपने घर को चल दिया।
वह विप्र अपनी योग्य पुत्री को लेकर काशी नामक अपने नगर में आया और वहीं रहने लगा। वह भिक्षाटन करके भिक्षा लाता तथा वन में से फल-फूल, कन्दमूल इत्यादि लाकर अपनी एवं पुत्री की क्षुधा शांत करके उसका पालन-पोषण करता रहा। इस तरह दोनों आनन्द पूर्वक दिन व्यतीत करने लगे। कन्या शुक्ल पक्ष की तरह दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। सूर्य नारायण की तेज से उत्पन्न वह कन्या रूप और गुण में आगे बढ़ने लगी। उसके मधुर वचन एवम् उत्तम व्यवहार से वह ब्राह्मण अपना जन्म सार्थक मानने लगा तथा पुत्री की, एक माँ से भी अधिक देखभाल करके दिन बिताने लगा।
समय बीतते देर नहीं लगता। कन्या विवाह की अवस्था तक पहुँच गयी। उसे विवाह के योग्य देखकर ब्राह्मण उसके लिये एक सुयोग्य एवम् सुन्दर ब्राह्मण को खोज लाया और उसके साथ कन्या का वाग्दान दे दिया। तत्पश्चात् कन्यादान की तैयारी करने लगा। वह स्वयम् वन में जाकर लकड़ियाँ काट कर ले आया और मण्डप बनाकर बेल, पत्ते आदि से उसे आच्छादित कर दिया। इस तरह अपने हाथों से बनाये हुये मण्डप में उसने वेदोक्त रीति से कन्यादान किया। हृदय की अटूट श्रद्धा एवम् सच्ची भावना से किये गये दान से प्रभु अति प्रसन्न हुये। उस समय सब आश्चर्य करने लगे, यह देखकर कि जो मण्डप बना था वह सब स्वर्ण का हो गया और बेल-पत्ते आदि कीमती हीरे मोती और जवाहरात के रूप में परिवर्तित हो गये।
पाप या पुण्य का जब अतिरेक होता है, तब उसका फल मनुष्य को उसी समय मिल जाता है। इस ब्राह्मण के कन्यादान से प्रसन्न होकर प्रभु ने उसे तुरन्त फल दे दिया। तत्पश्चात् अपनी पुत्री तथा जामाता दोनों का यथायोग्य सत्कार कर सोना, गाय आदि अनेक वस्तुयें देकर दामाद को सन्तुष्ट करके ब्राह्मण ने विदाई की। उत्तम सत्कार पाकर दोनों (पुत्री और दामाद) उनके चरणों में शीश झुकाकर आज्ञा लेकर विदा हुये।
सूतजी ने कहा-"ऋषियों ! अपनी पुत्री का यथा-योग्य कन्यादान करके अपने मन को सन्तुष्ट किया और प्रभु की शरण में जाकर सब बातें बतायीं तथा परमात्मा से प्रार्थना करके वह ब्राह्मण तपस्या करने चला गया।"
ऋषि बोले-“हे सूतजी ! कन्यादान के इस उत्तम एवम् पुनीत माहात्म्य को सुनकर हमारा मन पुलकायमान हो गया। हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, विद्वान सूतजी महाराज! आपके मुखारविन्द से प्रभु के सामर्थ्य को प्रकाशित करने वाली कथायें सुनते हुये हम कभी तृप्त नहीं होते। आपके ऊपर प्रभु की अनन्त कृपा है। आपके समागम से थोड़ी देर के लिये भी दूर रहने की इच्छा नहीं होती । हे महाभाग ! कन्यादान करते ही ब्राह्मण को तुरन्त फल प्राप्त हुआ। इस बात ने हमारे मन को शङ्काकुल कर दिया है। अतः आप हमारी शङ्का का निवारण करें।"
सूतजी बोले - “हे ऋषि-श्रेष्ठ ! परमात्मा की महिमा अलौकिक है। जो गूंगे को वाणी तथा लँगड़े को पर्वत पर चढ़ा दे, ऐसे परम कृपालु भगवान की जिस पर कृपा दृष्टि हो जाय तो उस व्यक्ति को मुक्ति मिल जाती है। हे ऋषि ! एक दृष्टान्त मैं सुनाता हूँ उसे सुनो। एक पक्षीहार नामक व्याध था, वह निरन्तर अनेक पक्षियों को मार कर पाप करता था। एक समय परमात्मा की कृपा से उसे एक सन्त का समागम हुआ। सदैव सन्त तथा भगवद् भक्तों के सानिध्य से बिगड़े हुये व्यक्ति भी सुधर जाते हैं।
उस सन्त के साथ रहने से उक्त शिकारी की बुद्धि भी सुधर गयी। वह पशु-पक्षी का हनन करना छोड़कर भगवान् के चरणों में अपना मन देकर जीवन बिताने लगा। एक समय वह सन्तजी से ज्ञान की परिभाषा पूछ रहा था। तब सन्तजी ने शिकारी से कहा - "हे भाई ! जो व्यक्ति मन, कर्म और वचन से प्रभु को स्मरण करता है, उसे भगवान् निश्चित दर्शन देते हैं।"
ज्ञानी सन्तजी के मधुर वचन सुनकर बोला-“हे सन्तजी मेरी भी अभिलाषा है कि मैं भी प्रभु के दर्शन करूँ । जब से मेरा आपका साथ हुआ है तब से हमेशा थोड़ा समय प्रभु के नाम स्मरण में व्यतीत करता हूँ। अब आप बताइये कि किस प्रकार नाम का स्मरण करूँ कि उनके दर्शन मुझे मिले।"
शिकारी के ऐसे वचन सुन कर सन्तजी अति प्रसन्न हुये तथा प्रभु के प्रति उसका प्रेम भाव देखकर खुश हो गये। मन में उन्होंने विचार किया कि यह तो महान् पापी है, इसने अपने जीवन काल में बहुत से पशु-पक्षी मारे हैं ? इसको प्रभु कैसे दर्शन देंगे ? कुछ क्षण पश्चात् वह सोचकर बोले - “हे भाई! यदि तू लगातार दिन रात प्रभु के नाम का स्मरण करता रहे तो सौ वर्ष के अन्त में तुझे प्रभु निश्चित ही दर्शन देंगे।" इतना कहकर सन्तजी वहाँ से चले गये । इधर वह शिकारी भगवान के रटन में लवलीन होकर बैठ गया। उसके मन में ईश्वर के दर्शन की इतनी तीव्र आकांक्षा समायी कि प्रभु के नाम में ओत-प्रोत होकर उसे अपने शरीर की सुधि जाती रही तथा अपना होशोहवास न रहा । इधर ईलाचल पर्वत पर विराजमान पाँच मुख तथा दस हाथ वाले भगवान् विश्वकर्मा का आसन डगमगाने लगा। अपने भक्त की नि:श्चल भक्ति का कारण समाधि में से ही जान गये और प्रभु हंसारूढ़ होकर उसे दर्शन देने चले।
इधर सन्तजी ने विचार किया कि हो सकता है कि सौ वर्ष में भी प्रभु इसे दर्शन न दें तो मेरा वचन निष्फल हो जायेगा । इसलिये समस्त बातों का ज्ञान कराने के लिये ईलाचल पर्वत पर पहुँचे । किन्तु वहाँ प्रभु को न देखकर सोच रहे थे, कि इतने में नारदजी को आकाश मार्ग से जाते हुये देखा तो उन्हें रोक कर भगवान् के विषय में पूछा । नारदजी ने सन्तजी को सारी बातें बतायी और उन्हें भी साथ लेकर जहाँ प्रभु अपने भक्त के पास खड़े थे, वहाँ आ पहुंचे।
प्रभु ने उस शिकारी के हृदय में अपना स्वरूप दिखाया। वह इस चमत्कार को देखकर चिहुँक गया और समाधि से जागृत होकर तुरन्त अपनी आँखें खोली तो साक्षात् परम् तेज रूप परब्रह्म को अपने सामने देखकर हर्षोल्लास से हृदय भर गया और उससे कुछ बोला नहीं गया। उसने अपने आसन से उठकर चरणों में गिर कर साष्टाङ्ग प्रणाम किया। तत्पश्चात् भगवान ने उसे अनेक वरदान दिये तथा पुनर्जन्म में मोक्ष प्राप्त होने का वरदान दिया और बोले - "हे भक्त ! तुम मेरे में चित्त देकर मेरा ही भजन पूजन करते रहो इससे तुम्हें मुक्ति मिलेगी।"
भक्त और भगवान् का मिलन देखकर सन्तजी के मन में उथल-पुथल मचने लगी। उन्होंने प्रभु को प्रणाम करके सारा वृत्तान्त बताया और कहा - "हे प्रभु! मैंने इस शिकारी से कहा था कि तू सौ वर्ष के बाद ही प्रभु का दर्शन पावेगा, किन्तु उस समय भी तुझे दर्शन होगा या नहीं इसका मुझे सन्देह है, परन्तु यहाँ तो सब विपरीत हुआ और आपने जल्द ही उसे दर्शन दे दिये । यह देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। अब आप मेरे मन का समाधान करें।"
सन्तजी के ऐसे वचन सुनकर प्रभु ने उत्तर देते हुये कहा - “हे साधु ! आपने जो व्याध (शिकारी) से कहा वह सत्य था। जो सोचा विचारा था, वह भी सत्य था और जो आप देख रहे हैं वह भी सत्य है। अच्छे-अच्छे योगियों को वर्षों तपस्या करने के पश्चात् भी दर्शन दुर्लभ रहता है। इस व्याध ने सच्चे हृदय से मेरा स्मरण किया तथा आपके उपदेशों से उसे मेरे दर्शन की ऐसी लगन लगी कि वह पल-भर में समाधिस्थ हो गया। उस समाधि में मेरे साथ उसकी आत्मा मिल गयी। तब मुझे यहाँ आना पड़ा, क्योंकि पाप या पुण्य जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचते हैं, तब उसका फल तुरन्त मिल जाता है।
सूतजी ने कहा - “हे ऋषि ! इस प्रकार कन्यादान के माहात्म्य का मैंने आपके समक्ष वर्णन किया। अब और क्या सुनना चाहते हैं ?"
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में कन्यादान की महिमा नामक पन्द्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। सोलहवाँ अध्याय
(सूर्य नारायण का विवाह)
कर्मणस्तु सुता ज्ञाता रन्नादेवीऽति विश्रुता।
कथं साऽभूत कथं दत्ता सूर्यायामिततेजसे ॥
ऋषियों ने पूछा- “हे सूतजी महाराज ! भगवान् विश्वकर्मा के रन्नादेवी नाम की एक सुविख्यात पुत्री थी यह हम जानते हैं। यह पुत्री किस प्रकार उत्पन्न हुई एवम् उसका विवाह सूर्य नारायण के साथ किस प्रकार हुआ? यह जानने की अत्यन्त अभिलाषा है। अतः हे श्रेष्ठ ! इस बात को हमें विस्तार से बताने की कृपा करें। समस्त जगत् को प्रकाशमान करने वाले अति तेजस्वी श्री सूर्यनारायण के विवाह का वर्णन कौन नहीं सुनना चाहेगा?"
ऋषियों के प्रेम भरे वचन को सुनकर सूत जी बोले-"हे निरन्तर तपश्चर्या रूपी धन संचय करने वाले ऋषि ध्यान देकर सुनें । सतयुग के आरम्भ के समय की एक कथा सुनाता हूँ। जब कश्यप महर्षि से उत्पन्न प्रजा द्वारा सारी सृष्टि भर गयी थी। उसी बीच एक नेवला अपनी काया को स्वर्णमय करने की अभिलाषा से इधर-उधर भटक रहा था। भटकते-भटकते उक्त नेवला वहाँ गया जिस जगह पर दक्ष प्रजापति ने अपनी 64 पुत्रियों का विवाह किया था। कन्यादान रूपी महान् पुण्य देने वाले यज्ञ की समाप्ति होने के पश्चात् दक्ष प्रजापति भोजन करके अपना हाथ धो रहे थे कि इतने में जूठे पत्तों के ढेर में खाना खोजते हुये नेवले के शरीर पर उनके हाथों के धोये हुये पानी के छीटे पड़ गये। उस पानी के छींटो के द्वारा उसका आधा शरीर सोने का हो गया और बाकी का आधा शरीर सोने का करने के लिये वह सारे जगत् में घूमता रहा, परन्तु उसका कार्य पूरा नहीं हुआ।
इधर-उधर घूमते हुये एक समय वह नेवला महर्षि कश्यप के आश्रम में पहुंच गया। वहाँ ध्यान लगाये मुनि जी बैठे थे। उन्हीं की ओर दैवयोग से चले आ रहे एक सर्प को उस नेवले ने मार डाला। इस बात को अपनी समाधि में ही कश्यपजी ने जान लिया और समाधि से बाहर आकर नेवले के इस परोपकार की प्रशंसा करने लगे। महर्षि को प्रसन्न देखकर नेवले ने 'अपना आधा शरीर स्वर्ण के होने की बात' उनसे कह सुनाया और शेष आधा शरीर स्वर्ण का करने के लिये उपाय पूछा ।
मुनि समाधिस्थ होकर सारी बात जान गये तथा अपने ऊपर उपकार करने वाले इस नेवले का कार्य सिद्ध करने के लिये नेवले से कहा कि अरे नेवले ! यद्यपि तू बहुत छोटा है, परन्तु आचार-विचार तथा बुद्धि से श्रेष्ठ है। तू अपने इच्छा की पूर्ति हेतु, जैसा मैं कहूँ वैसा कर। तेरी मनोकामना पूर्ण होगी और तेरा कार्य अवश्य ही सिद्ध होगा। यहाँ से पश्चिम दिशा में सौ कोस दूर पाताल का द्वार है, इस द्वार से गुजर कर सर्प पृथ्वी पर घूमने आते हैं। इस द्वार के पास ईलाचल नामक पर्वत पर श्री विश्वकर्माजी अपने परिवार सहित निवास करते हैं। तुम भी ईलाचल पर्वत पर जाकर निवास करो और भगवान् श्री विश्वकर्माजी के चरणों में मन लगा कर उनका व्रत धारण करो। सर्पों के साथ तुम्हारा जन्म-जन्म का बैर है, फिर भी तुम वहाँ रहकर एक भी सर्प को मत मारना। बस यही तेरा व्रत होगा। यदि इस व्रत के पालन करने में जरा भी चूकेगा तो तेरा कार्य सिद्ध नहीं होगा। कश्यप मुनि के ऐसे वचन सुनकर वह बोला - हे मुने ! आप मुझे सर्प को मारने के लिये मना कर रहे हैं तो ऐसा करने पर मेरी ही मृत्यु होगी, क्योंकि वे सर्प मुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। फिर जिस जगह मुझे रहना है, वहाँ हजारों सर्प हैं। ऐसी दशा में मेरा क्या होगा ?" नेवले के उपरोक्त वचन सुनकर महर्षि कश्यप ने हँसते हुये कहा कि वत्स! तुझे इस प्रकार घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। सर्पो से बचने के लिये उस पर्वत पर अनेक 'सर्प-विष को हरने वाली' वनस्पतियाँ हैं। इन वनस्पतियों के कारण तुझे सर्पों से जरा भी भय नहीं लगेगा। जब तक तुम ईलाचल पर्वत पर रहोगे, तब तक सर्प तो क्या कोई भी तुम्हें तंग न करेगा, क्योंकि उस पवित्र पर्वत पर भगवान् विश्वकर्मा जी निवास करते हैं। अत: वहाँ सब जीव चाहे पशु हों, पक्षी हों, मनुष्य हों अथवा कोई भी हों, वे सब अपना वैर भाव भूलकर निर्वैर होकर रहते हैं।
तब निर्भीक नेवला वहाँ जाकर ईलाचल पर्वत की गुफा में रहने लगा और महर्षि कश्यप के कथनानुसार अपना जीवन यापन करने लगा। मन में इच्छित अपनी काया को स्वर्ण-मय बनाने के लिये उसने तपश्चर्या प्रारम्भ कर दिया। वह नेवला प्रतिदिन भगवान विश्वकर्मा का दर्शन करता, किसी जीव की हिंसा नहीं करता और जो कुछ भी मिलता उसी से अपना गुजारा करता था। इस प्रकार नियम धारण कर आचरण करते हुये उसे दस वर्ष बीत गये। तब सब के मन की बात जानने वाले भगवान् विश्वकर्मा ने उस नेवले की इच्छा पूर्ण करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने दोनों हाथों से दो कन्यायें उत्पन्न किया।
इन दोनों कन्याओं में रन्ना देवी बड़ी थीं, जिनका विवाह सूर्य नारायणजी के साथ हुआ था।
इस बात को सुनकर ऋषियों ने पूछा-हे सूतजी ! भगवान् विश्वकर्माजी ने अपनी पुत्री रन्नादेवी का विवाह सूर्य नारायण जी के साथ कैसे किया ? क्योंकि वे तो धधकते हुये आग के गोले के समान हैं। जब विवाह के समय सूर्य नारायण वर बनकर आये होंगे, तब उनके भयङ्कर प्रकाश एवम् ताप से पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों की कैसी दशा हुई होगी? उस समय तेज से सभी प्रजाओं की आँखें चौंधिया गयी होंगी। सूर्य नारायण जब ईलाचल पर्वत पर पधारे होंगे, तब सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वत्र अन्धकार व्याप्त हो गया होगा। हे सूतजी ! इन सब बातों को आप हमसे विस्तार पूर्वक वर्णन करिये जिससे हमारे मन में उत्पन्न सभी शङ्काओं का समाधान हो जाए।
सूतजी बोले- “हे ऋषियों ! जिस प्रकार आपके मन का समाधान हो, उसी प्रकार मैं आप लोगों को श्री सूर्य नारायण के विवाह की बात सुनाता हूँ। आप लोग ध्यानपूर्वक सुनिये । श्री विश्वकर्माजी की दोनों कन्याएं उत्पन्न होते ही युवावस्था को प्राप्त हो गयीं। उन दोनों ने अपने पिता श्री विश्वकर्माजी को प्रणाम किया। उन पर प्रसन्न हो प्रभु विश्वकर्माजी ने उनके विवाह का निश्चय कर तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी। उनमें से छोटी पुत्री स्वयं अपने द्वारा पसन्द किये हुये युवक से विवाह करने के लिये तैयार हो गयी। रन्नादेवी ने अपना विवाह पिता श्रीविश्वकर्माजी के ऊपर छोड़ दिया। तब प्रभु ने उसका विवाह सूर्यनारायण के साथ एवम् छोटी पुत्री का उसके पसन्द किये हुये युवक के साथ कर दिया।"
हे ऋषिगण ! परब्रह्म परमात्मा ने अपनी बड़ी पुत्री रन्ना देवी का विवाह जिस प्रकार से किया वह मैं बतला रहा हूँ, उसे ध्यान पूर्वक सुनो । प्रभु ने अपने तीनों देव जो एक होते हुये भी अपने गुणों में भेद रखकर तीन रूप में रहते हैं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) उनको आमन्त्रित किया। तत्पश्चात् तीनों के आ जाने पर विश्वकर्माजी ने अपनी पुत्री रन्नादेवी के विवाह के लिये योग्य वर को ढूँढ़ने का कार्य उन तीनों को सौंपा । परब्रह्म की अनुमति मिलने पर तीनों देवताओं ने आपस में विचार-विमर्श करने के बाद यह निर्णय लिया कि कश्यप के पुत्र सूर्यनारायण से श्रेष्ठ वर दूसरा नहीं मिलेगा। अतः अपना मत उन तीनों देवताओं ने प्रभु पर प्रकट किया तथा सूर्यनारायण के साथ रन्नादेवी का पाणिग्रहण करने की विनम्र प्रार्थना की।
तीनों देवताओं के अभिप्राय को जान प्रसन्न होकर श्री विश्वकर्मा भगवान् ने देवताओं के पुरोहित श्री बृहस्पति जी महाराज का स्मरण किया। सन्देश मिलते ही बृहस्पति जी वहाँ उपस्थित हो गये । प्रभु ने उनसे समस्त बातों का उल्लेख किया और कहा कि आप वाग्दान की विधि करके शीघ्र आवें, जिससे विवाह के लिये सारी तैयारियाँ किया जाये, इसलिये आप वास्तुदेव को अपने साथ में ले जायें।
भगवान विश्वकर्मा के आदेश सुनकर गुरु बृहस्पतिजी वास्तुदेव को साथ में लेकर महर्षि कश्यपजी के यहाँ चल दिये। इधर विश्वकर्मा महाराज ने अपने पाँच मानस पुत्रों को बुला कर प्रत्येक को उनके योग्य कार्य भार सौंप दिया । पुत्रगण रन्नादेवी के विवाह के लिए आवश्यक सामग्री तैयार करने में जुट गये । वे प्रत्येक कार्य को सम्पूर्ण रूप से देखते थे एवम् किसी किस्म की कार्य में कोई त्रुटि न रह जाये, इन सबका ध्यान रखने लगे । इस प्रकार रन्नादेवी के शुभ लग्न की तैयारियाँ होने से समस्त ईलाचल पर्वत शोभायमान होने लगा। भगवान विश्वकर्मा की चारों ओर दिव्य दृष्टि होने से उनके पुत्र जो भी कार्य हाथ में लेते थे वह निर्विघ्न बिना परिश्रम के पूर्ण हो जाता था।
भगवान विश्वकर्मा की आज्ञानुसार गुरु बृहस्पति एवं वास्तुदेव महर्षि कश्यपजी के आश्रम में पहुँचे। उन दोनों के आने के पूर्व महर्षि तपस्या से निवृत्त होकर बैठे थे। उन दोनों ने ऋषि जी को प्रणाम किया। महाबली वास्तुदेव तथा बृहस्पतिजी को अपने यहाँ आया देखकर महर्षि आत्म विभोर हो उठे और दोनों का स्वागत सत्कार किया तथा देवताओं के पुरोहित बृहस्पति की पूजा अर्चना करने के पश्चात् महर्षि ने उनके आने का प्रयोजन पूछा ।
कश्यप जी बोले- "हे देवताओं के पुरोहित ! हे वृहस्पतिजी ! मेरे कुटिया में आपका आगमन देखकर मैं बहुत हर्षित हो रहा हूँ। प्रभु मुझे ऐसा भासित हो रहा है कि आज मेरी समस्त धार्मिक क्रियायें सफलीभूत हो गई हैं। आज मैं अपनी अग्नियों को अपने से तृप्त हुआ देख रहा हूँ। यह सत्य है कि उत्तम द्विज का शुभ-आगमन शुभ-सूचक होता है। अब आप लोगों का आगमन किस कारण से हुआ है, यह मुझे समझा कर कहें।"
महर्षि कश्यपजी के प्रश्न का उत्तर देने के लिये बृहस्पति जी ने वास्तुदेव को आज्ञा दी । वास्तुदेव बोले- “हे ऋषिवर्य ! आप जैसे तपस्वियों के लिये कोई भी बातें अनजानी नहीं है, किन्तु फिर भी लोक व्यवहार की दृष्टि से आपके प्रश्न का उत्तर मैं दे रहा हूँ उसे श्रवण करें। परम् कृपालु भगवान विश्वकर्मा अपनी मानस पुत्री रन्नादेवी का पाणिग्रहण संस्कार आपके पुत्र दिवाकर के साथ करने को उत्सुक हैं। इस विषय में आपकी सहमति जानने के लिये प्रभु ने मुझे आपके पास भेजा है। अतः आप योग्य उत्तर देने की कृपा करें।"
भगवान विश्वकर्मा की इस इच्छा को महर्षि कश्यपजी ने मन में मगन होकर शिरोधार्य किया। शुभ साइत में गुरु बृहस्पति जी ने सूर्यनारायण एवं रन्नादेवी का वाग्दान उत्तम विधि से किया। तत्पश्चात् कश्यप ऋषि को शुभ लग्न बताकर वापस ईलाचल के लिये चल पड़े। उनके जाने के बाद महर्षि कश्यप भी पुत्र के विवाह के लिये तैयारियाँ करने में उद्यत हो गये।
समस्त जगत् को प्रकाशमान बनाने वाले सूर्यनारायण अपनी किरणों से जल की गति के समान होते हैं। जल तथा प्रकाश के संयोग के कारण पृथ्वी उसे ग्रहण करती है और बोये हुए बीज के अन्न को भारी मात्रा में वापस कर देती है। ऐसे तेजस्वी प्रभाव वाले तथा जीव मात्र के जीवन का रूप और रात्रि तथा दिन रूपी मापों से गिने जाने वाले समय के प्रत्येक विभागों का नियन्त्रण रखने वाले श्री सूर्यनारायण के विवाह की चर्चा संसार के कोने-कोने में फैल गयी।
महर्षि कश्यप एवं विश्वकर्मा महाराज की ओर से विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। किसी को महर्षि का और किसी को विश्वकर्मा भगवान् का निमन्त्रण-पत्र मिला। आगन्तुक लोग इस अद्भुत समारोह में भाग लेने के वास्ते ईलाचल की ओर जाने लगे। प्रभु विश्वकर्मा ने अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि के समस्त प्राणियों को उक्त समारोह से वंचित नहीं रखा और उन्होंने समस्त जीव तथा ब्रह्म स्तम्भ पर्यन्त के सभी को निमन्त्रण भेजे। आमन्त्रित अतिथिगण विवाहोत्सव का आनन्द प्राप्त करने के लिये ईलाचल आने लगे।
अनगिनत जीवात्माओं का समूह रात-दिन आने लगा। ईलाचल की ओर आते इस जन-समूह को देखकर कभी-कभी प्रभु के पुत्रों को भारी चिन्ता होती, यह सोचकर कि इस छोटे से ईलाचल पर्वत पर इन सबका समावेश कैसे होगा? किन्तु जैसे-जैसे आगन्तुकों की संख्या में वृद्धि होती गयी, वैसे-वैसे ईलाचल पर्वत की भी वृद्धि होती गयी। भगवान् विश्वकर्मा की आज्ञा से ईलाचल में आये सभी की आव-भगत तथा उनके ठहरने की उत्तम व्यवस्था की गयी। वे किसी को कोई असुविधा नहीं होने देते थे। जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती थी, वह सब अविलम्ब प्राप्त हो जाता था, सभी प्राणी प्रसन्न थे।
देवता-मनुष्य, यक्ष-गन्धर्व, किन्नर-पन्नग, नाग-सुवर्ण, पिन्ट- अप्सरा, सिद्ध-चारण ऋषि-मुनि तथा अनेक पशु-पक्षी, कीटपतङ्ग, पर्वत-नदियाँ, समुद्र-तीर्थ, वनस्पतियाँ आदि स्थावर-जङ्गम के लिये अनेक छोटे बड़े निवास स्थान बनाये गये थे। प्रत्येक को योग्य स्थान में ले जाकर ठहराया जाता तथा योग्य सत्कार किया जाता था। प्रतिदिन नवीन मिष्ठान्न तथा उत्तम भोजन की व्यवस्था थी। उपहारों से अतिथियों का सेवा सत्कार किया जाता।
समस्त जगत् को प्रकाशमान बनाने वाले सूर्यनारायण ने अपने तेज स्वरूप को अपनी कला से धारण किया एवं माता-पिता को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ग्रहण कर विवाह की तैयारी करने लगे। सुगन्धित तेल-उबटन को अपने शरीर पर मल कर स्नान किया तथा उत्तम लाल रेशमी वस्त्र धारण किया और मस्तक पर लाल चन्दन का तिलक लगाकर उस पर अक्षत (चावल) लगाये । उनका इस समय का स्वरूप सबका मन हरने वाला लग रहा था। उनका स्वरूप इतना तेजोमय था कि लोगों की दृष्टि पड़ते ही वे चकाचौंध हो जाते थे और अपनी आँखें बन्द कर लेते थे।
विवाह में कुछ ही दिन शेष रह गये थे। अब महर्षि कश्यप अपने पुत्र का विवाह करने के लिये चल पड़े। उनके साथ बहुत बड़ी मात्रा में बाराती थे। देवताओं के दुंदुभि और उत्तम कोटि के वाद्यों का स्वर गूंज रहा था, सब ईलाचल पर्वत की ओर अग्रसर हुये । सूर्यनारायण जब आश्रम के बाहर आये तो उसी समय कामधेनु आयी और उनको सिर झुकाकर दाहिने ओर वाले आश्रम में चली गयी। तदोपरान्त मार्ग में भी अच्छे-अच्छे शकुन दाहिने तरफ होने लगे। अति मङ्गलकारी श्री सूर्यनारायण का मङ्गल चाहने वाले उनके सन्मुख आने लगे तथा अपना महत्त्व बढ़ाने की अभिलाषा से ही सब शकुन सामने आ रहे थे।
महर्षि कश्यपजी, ऋषियों एवम् देवताओं के साथ अपने पुत्र को लेकर ईलाचल पर्वत पर पहुंचे। प्रभु की आज्ञा से वहाँ पर वास्तुदेव तथा प्रभु विश्वकर्मा के पाँचों पुत्र, ईला और ईलाचल वर तथा बारातियों का स्वागत करने के लिये उपस्थित थे। महर्षि कश्यप एवम् बरातियों को देखकर सभी ने उन्हें प्रणाम किया और अनेकानेक प्रकार के मङ्गल वाद्य बजाये गये । मांगलिक सामग्री से उनका सत्कार किया। तत्पश्चात् उन लोगों को उचित निवास स्थान में ठहराया गया। स्नान करने के लिये पानी आदि का प्रबन्ध करके अच्छे-अच्छे वस्त्र अर्पण किये गये । सब व्यवस्था हो जाने पर वास्तुदेव आदि विवाह की तैयारियों में लग गये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में सूर्य विवाह-१ नामक सोलहवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। सत्रहवाँ अध्याय
(सूर्य विवाह-2)
प्रकल्प्य वासं सर्वेषां कृत्वा तेषा सुस्वागतम् ।
जग्मुस्ते कर्मणः पुत्रा कार्याण्यन्यानि साधितुम् ॥
सूतजी बोले- "महर्षि कश्यप तथा साथ में आये देवताओं, ऋषिओं आदि का योग्य सम्मान किया तथा उत्तम निवास स्थान की व्यवस्था पूर्ण करने के बाद वास्तुदेव सहित प्रभु के पाँचों पुत्र मण्डपाच्छादन आदि के कार्यों की व्यवस्था में जुट गये। ईलाचल में आकर उन लोगों ने विवाह के लिये अति सुन्दर एक मण्डप का निर्माण किया।
मण्डप के चारों तरफ बीच में केले के स्तम्भ लगाये गये, प्रत्येक स्तम्भ को अशोक के पत्तों से सजाया गया एवम् तोरण पताका आदि की रचना की गयी। तैयार किये गये मण्डप पर सुगन्धित पुष्पों की चाँदनी बिछा दी गयी थी। मण्डप में उत्तम मणियों से रचित पात्रों में घृत के असंख्य दीपक जलाये गये।
एवम् सुगन्धित धूप के धूम्र से वातावरण सुगन्धमय बन गया था। मण्डप में प्रत्येक आगन्तुक बैठ कर सूर्य नारायण एवम् रन्नादेवी के पाणिग्रहण संस्कार के विधि विधान को देख सकें ऐसी रचना की गयी थी।
मण्डप के स्तम्भों को चारों ओर से मनमोहक फूलों के बेल तथा लतर की रस्सी बटकर गाँठ लगायी गयी थी और आस-पास सुन्दर फल देने वाले पौधे भी लगाये गये थे, जो देखने में सुन्दर लग रहे थे । सुवर्ण और रजत के तारों में उत्तम रत्नों एवम् गजमुक्ताओं के हार से तोरणों को सजाकर मण्डप को शोभायमान बना दिया गया था। आगन्तुकों को बैठने के लिये भिन्न-भिन्न आसनों की व्यवस्था की गयी थी तथा वरकन्या, पुरोहित और विश्वकर्माजी का आसन आसमानी रङ्ग के मुलायम रुई के बने थे। वे ऐसे लग रहे थे, जैसे बादल को काट कर लगाया गया हो। ऐसे वे आसन कितने में बने होंगे उसकी कल्पना कठिन है।
उस समय महर्षि कश्यप का आसन सभी देवताओं सहित विविध प्रकार के रत्नों से बनाया गया। नागलोक का आसन मणियों से और देवर्षियों के आसन स्फटिक से बनाये गये। राजर्षियों के लिये हीरों से और दैत्यों के लिये प्रवाल से निर्मित हुये । नीलम से सर्पों के लिये तथा मनुष्यों के लिये धातु से और सिद्धों के लिये सुवर्ण से तथा क्षुद्र जीवों के लिये काष्ठ का आसन बनाने को सोचा गया। सारे ईलाचल में जगह-जगह पर कल्पवृक्ष उत्पन्न किये गये। ईलाचल पर उस समय जो आनन्द उत्पन्न हुआ उसका वर्णन तो नारायण भी करने में असमर्थ हैं।
इसके पश्चात् महर्षि कश्यप अपने पुत्र सूर्यनारायण को लेकर उस मण्डप में पधारे। देवताओं ने वाद्य वृन्द बजाया और स्त्रियाँ मांगलिक गीत गाने लगीं। जगह-जगह पर गन्धर्व गान कर रहे थे और अप्सरायें सबका मनोरंजन कर रही थीं। ऋषि मुनि ऋचाओं का उच्चारण कर रहे थे। चारों ओर आनन्द ही आनन्द का सागर लहरा रहा था।
प्रभु श्री विश्वकर्मा अपने ही स्वरूप में से भिन्न अपनी पत्नी रूपी प्रकृति को लेकर कन्यादान की विधि करने बैठे। पुरोहित मन्त्रोच्चार के द्वारा प्रभु को लग्न विधि करा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम गणेशजी की पूजा करने के बाद विवाह सम्बन्धी सारी विधियाँ प्रारम्भ हुयीं। वहाँ जिन देवताओं का स्मरण किया जाता वे प्रभु के हाथ में अर्पण करने के लिये आते और सभी सामग्री ग्रहण करने के लिये प्रत्यक्ष आकर उपस्थित होते । इस तरह प्रभु को अर्पित पूजा ग्रहण करके वह वर-कन्या को वरदान देकर वापस आसन पर बैठ जाते।
शुभ मुहूर्त में कन्या को मण्डप में लाया गया। पैरों में नपुर शोभायमान हो रहा था। प्रत्येक नाखूनों में उत्तम लेप लगाने से नाखूनों की चमक बढ़ गयी थी। दोनों हाथों में कङ्गन तथा बाजूबन्द, पाजेव, कड़ी नथनी हार कुण्डल आदि अलङ्कारों से सार शरीर शोभायमान हो रहा था। धोती तथा उत्तम मांगलिक वस्त्र आदि धारण करने वाली कन्या रन्नादेवी को जब मण्डप में लाया गया तब वह आकाश में विचरण करने वाले सूर्यनारायण की ही दीप्ति प्रतीत होती थी। इससे सभी ओर उत्तम प्रकाश फैल गया। विश्वकर्माजी की पुत्री को देखकर सभी ऋषियों देवताओं को अपूर्व आनन्द हुआ। वे उस उत्तम जोड़ी को आशीर्वाद देते हुये उनके निरन्तर मङ्गल की कामना करने लगे।
सूर्यनारायण और रन्नादेवी की लगन विधि आरम्भ होते ही स्त्रियों के अनेक मङ्गल गीतों ने वातावरण झनझना दिया। पुरोहितों के उत्तम मन्त्रोच्चारण के बीच में सूर्यनारायण ने रन्नादेवी का पाणिग्रहण किया। फिर लाजाहोम सप्तपदी आदि विधियाँ समाप्त कर वर-कन्या देवताओं की पूजा करके अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करने के लिये झुके । इसके बाद देव, द्विज तथा सभी ऋषियों का आशीर्वाद लिया।
इसके बाद महर्षि कश्यपजी के साथ आये सभी लोगों को योग्यतानुसार वस्तुयें प्रदान किये। तत्पश्चात् सूर्यनारायण को आकाश में भ्रमण करने के लिये शिशुमार चक्र सहित बारह रथ तथा प्रत्येक रथ के साथ सारथि और घोड़े दिये। उस सभा में उपस्थित अन्य लोगों को भी प्रभु को जो देना था दिया।
उस समय प्रभु के पाँच पुत्रों में से चार पुत्र सभी अतिथियों की सेवा में लगे थे। पाँचवाँ पुत्र प्रभु विश्वकर्मा की ही सेवा में लगा था। इस दरम्यान अन्धक को साथ रखकर वास्तुदेव ने रसोई की सारी तैयारियाँ कर डाली थी। सब कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद सभी को भोजन के लिये बुलाया गया। वास्तुदेव ने सबसे पहले देवताओं की पंक्ति बनाई। दूसरी पंक्ति में ऋषिगण, तीसरी में पिन्ट, चौथी पंक्ति में नाग, पाँचवीं पंक्ति में सर्प, छठी पंक्ति में असुर, सातवीं पंक्ति में यक्ष, ग्यारहवीं पंक्ति में ब्राह्मण तथा अन्य पंक्तियों में विश्वकर्मा के पुत्रों के पाँच वंशज, सत्रहवीं पंक्ति में क्षत्रिय, अठारहवीं पंक्ति में वैश्य, उन्नीसवीं पंक्ति में शूद्र, बीस से पच्चीस इन छः पंक्तियों में सभी चतुष्पाद पशु, छब्बीस से इक्तीस छः पंक्तियों में सभी पक्षी तथा बाकी अन्य पंक्तियों में कीट-पतंगे बैठाये गये।
उस समय उन्चास पवन चँवर डुलाने लगे। सरस्वती समेत नौ सौ निन्यानबे नदियाँ सबको जल देने लगी। सागर पैर धोने लगे तथा साठ हजार पर्वत सबको अनेक प्रकार की सामग्रियाँ परोसने लगे। हिमाचल उत्तम प्रकार की मिठाइयाँ तथा मेवे आदि देने लगे। विन्ध्याचल अपने अन्य साथियों सहित कन्दमूल फल तथा विविध प्रकार के शाक भाजी परोसने लगे। आलू, रतालू, घीया, बैंगन, सीता फल आदि के पकौड़े परोसने का काम ईलाचल ने अपने हाथों लिया। रायता, कढ़ी, अचार तथा चटनी आदि परोसने की जिम्मेदारी अर्बुदाचल पर्वत ने लिया। चलाचल पर्वत ने अनेक प्रकार के खट्टे-मीठे चावल तथा अन्य वस्तु परोसने का उत्तरदायित्व लिया। लोका-लोक पर्वत के नेतृत्व में सभी को मनोवांछित सामग्रियाँ परसी जाने लगी । मेरु तथा सुमेरु उन सबके कार्यों का ऊपर से बैठकर देख-भाल करने लगे। उस दिन सृष्टि में कोई भी ऐसा न बचा था, जिसने प्रभु विश्वकर्मा के आंगन में बैठकर खाना न खाया हो।
इस प्रकार सबको भोजन करा कर प्रभु ने सब का योग्य रूप से सत्कार कर विदा किया। कश्यपजी अपने पुत्र और पुत्र-वधू को लेकर आश्रम की ओर रवाना हुये।
रन्नादेवी एवम् उनकी छोटी बहिन की लग्न विधि समाप्त कर प्रभु स्वयम् खाने के लिये बैठे, किन्तु भोजन करने बैठे प्रभु ने जैसे ही पहला ग्रास हाथ में लिया, वैसे ही उनका हाथ रुक गया। यह देखकर वहाँ बचे हुये उपस्थित लोगों के हृदय एकाएक कांप उठे। वे समझ गये कि कहीं न कहीं कोई अनर्थ हो रहा है। वे सोचने लगे कि कहीं उनके हाथों ही कोई अनुचित कार्य न हो गया हो।
प्रभु थाली छोड़कर समाधि में बैठ गये । वास्तुदेव, पाँच पुत्र ईलाचल एवम् ईलादेवी प्रभु के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। सब का कल्याण करने वाले प्रभु इस तरह भोजन नहीं छोड़ते । इसलिये आज जरूर कोई बहुत बड़ा अनर्थ हुआ होगा। हो सकता है रन्नादेवी और सूर्यनारायण को लेकर जा रहे महर्षि कश्यप पर कोई मुसीबत आयी हो अथवा छोटी पुत्री के साथ जा रहे प्रियव्रत पर कोई सङ्कट आया हो। इस तरह तर्क-वितर्क करते हुये वे इस बात की प्रार्थना करने लगे कि कहीं प्रभु का क्रोध उन पर न उतरे।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में सूर्य विवाह- 2 नामक सत्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। अठारहवां अध्याय
(अग्निपान )
योगमास्थाय योगेशः योगीनां सिद्धिदायकः ।
दुर्वासाक्रोध संतप्तं विश्वं च सचराचरम्।।
विश्वामित्र तपोऽग्निना दगध्याने च दृष्टवान्।।
सूतजी ने कहा- उस समय परम कृपालु परमात्मा ने तुरंत योग धारण किया तथा योगेश्वर प्रभु ने दुर्वासा के क्रोधानल में जल रहे सारे संसार को देखा तथा विश्वामित्र के तप से उत्पन्न हुये अग्नि को देखा। ये दोनो अग्नियाँ आमने-सामने आकर एक दूसरे की परास्त करने हेतु भयंकर युद्ध कर रही थी और उनकी ज्वालाओं से सारे विश्व को जलते देखा। अब उस अग्नि से पीड़ित हुए विश्व को देखकर प्रभु ने अपने नेत्रों से दोनों अग्नियों का पान किया। ऐसा होते ही प्रभु की नासिका छिद्रों से दो जल बिन्दु पृथ्वी पर आ गिरे और उसमें से दो पुरूष उत्पन्न हुए। इस दोनों को ही प्रभु ने अपने पुत्रों के रूप में भोजन कराया और तत्पश्चात् हाथ धोये। तब महर्षि कश्यप की आज्ञा का पालन करने वाला वह नेवला अचानक वहाँ आ पहुंचा और जहाँ प्रभु हाथ धो रहे थे वहाँ पानी की धार के नीचे आकर खड़ा हो गया। उसका शरीर प्रभु के हाथ से धोये हुऐ पानी के पड़ते ही उसका बाकी शरीर भी कंचन का हो गया। इस चमत्कार से सभी लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। प्रभु ने इसे कन्यादान की महिमा बता कर उनकी शंका का समाधान किया।
सूतजी बोले- 'हे ऋषिगण! इस प्रकार कन्यादान की महिमा अद्वितीय है। कन्यादान का उत्तम फल प्राप्त होता है। बस फल की इच्छा करने वाले को केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वयं पर जो कुछ खर्च होता है, तो कन्यादान से उत्पन्न फल नष्ट हो जाता है। दान तो श्रद्धापूर्वक और यथाशक्ति किया जाता है। इसके दान लेने वाले को जिस प्रकार दान देने वाले को जिस प्रकार दान देने वाले दे उसी प्रकार दान लेना चाहिये। उसके लिए किसी प्रकार का बंधन भी नहीं होना चाहिए।
हे ऋषि! मैंने आप लोगों को कन्यादान के बारे में सारी बातें बता दी है। अब आपकी और कुछ सुनने की इच्छा हो तो कहें। ऋषिगण बोले- हे सूतजी! आपके द्वारा कन्यादान के संबंध में कही गई बातें सुनी और उसके पुण्य को समझा, किन्तु हे महामाग! दुर्वासा के क्रोध का क्या कारण था? विश्वामित्र के तपस्या से उत्पन्न हुई अग्नि ने किस लिये दुर्वासा के क्रोध का सामना किया? संसार का मंगल चाहने वाले प्रभु को किस कारण भोजन को छोड़कर उठना पड़ा। ये सारी बातें जानने की हमारी प्रबल उत्कण्ठा है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
ऋषियों की ऐसी बातें सुनकर सूतजी बोले - हे ऋषिगण! आपकी इन जिज्ञासाओं से मुझे बड़ा आनन्द हुआ। इस समय आपने जो बात पूछी है, वह सब में बताता हूं। प्रभु की माया प्रभु की आज्ञा से अनेक कार्य करती है। वे मनुष्यों के मन में मोह माया उत्पन्न करते हैं, किन्तु प्रभु स्वयं किसी माया में नहीं फँसते। प्रभु विश्वकर्मा ने इलाचल पर जब अपनी मानस कन्याओं का विवाह किया तब उसमें समस्त जड़ चेतन को आमंत्रित कर बुलाया था किन्तु शीघ्रतावश या हर्ष विभोर होकर वास्तुदेव देवताओं के खजांची कुबेर और क्रोध की मूर्ति दुर्वासाको निमंत्रण देना मूल गये।
उस समय सत्य को समझने वाले कुबेर ने निर्णय लिया कि प्रभु विश्वकर्मा सारी सृष्टि का कल्याण करने वाले है। उस परमात्मा से मुझे किसी प्रकार का वैर करना उचित न होगा। यदि ऐसा होता तो दैत्य मेरे पास पड़े हुये सारे खजाने को लूट ले जाते और मुझे अपनी जान भी गँवानी पड़ती। ऐसे प्रभु उस उत्सव में मुझे निमंत्रण न दें, ऐसा हो ही नहीं सकता। इसके लिये शायद निमंत्रण देने वाला ही मुझसे कहना भूल गया हो। फिर भी जहाँ स्नेह हो वहाँ बिना निमंत्रण के भी जाया जा सकता है। इस प्रकार अपने मन में सोच कर सूर्यनारायण के विवाह का आनन्द लेने के लिए ईलाचल पर्वत पर जा पहुंचे और विवाह में सम्मिलित हुये। किन्तु महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी थे। उन्हें जब इस बात का पता चला के सूर्यनारायण का विवाह हो रहा है और उसमें उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया है, तो उनके क्रोध की सीमा न रही। क्रोधवश वे इस अपमान का बदला लेने को तत्पर हुये। वे सोचने लगे मुझे इस महोत्सव से वंचित रखने वाले को यथोचित दण्ड मिलना ही चाहिये, अन्यथा इससे मेरी मर्यादा और महत्ता कम हो जायेगी। उन्होनें इसके लिए विश्वामित्र को ही दोषी माना, जो देवर्षि बनने का दावा करते थे। अतः इससे जो उनके मन में क्रोध हुआ उससे अग्नि उत्पन्न हो गई उन्होनें तत्काल उस अग्नि को आज्ञा दी कि वह विश्वामित्र को उसके आश्रम सहित जला कर राख कर दे। अब दुर्वासा की आज्ञा पाकर उनके क्रोध से उत्पन्न हुई अग्नि विश्वामित्र के आश्रम की ओर जाने लगी।
यह अग्नि रास्ते में पड़ने वाली सारी वस्तुओं को जलाती हुई भयंकर वेग से आगे बढ़ने लगी। इधर ध्यान में बैठे विश्वामित्र ने जब उस अग्नि को अपनी ओर आते देखा तो ध्यान लगाकर उन्होनें सारी बातें जान ली। अब उस अग्नि को शमन करने हेतु उन्होनें अपनी तपस्या के फलस्वरूप उत्पन्न की हुई अग्नि को भेजा। इस तरह दोनो अग्नियाँ आमने सामने आ गयी और उनके घर्षण से उत्पन्न होने वाली ज्वालायें लोक को जलाने लगी।
ऐसी परिस्थिति के आते ही समस्त विश्व में हाहाकार मच गया और सारे प्राणी प्रभु का स्मरण करने लगे। सच्चे मन से की गयी प्रार्थना से भोजन पर बैठे हुये प्रभु को उठना पड़ा और ध्यान लगाने पर सारी बातों की जानकारी होते ही उन्होनें दोनों अग्नियों को खींचकर अपने अंगों में समा लिया। फिर नासिका छिद्रों से दो पुरूष उत्पन्न कर उसे पुत्र के रूप में स्थापित किया। फिर दुर्वासा और विश्वामित्र को बुलवाया और उनका योग्य सत्कार करने के बाद प्रभु ने भोजन किया।
सूतजी ने आगे कहा- हे ऋषियों! आपके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर मैंने दे दिया। क्रोध अनेक प्रकार के अनर्थों का जड़ है। इस पर विजय प्राप्त करना चाहिए। अन्यथा विश्वामित्र के क्रोध की तरह वह अनर्थकारी हो सकता है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में अग्निपान नामक अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण।। उन्नीसवाँ अध्याय
(सृष्टि वर्णन )
सृष्टेस्तु वर्णनं सूत विस्तराद् ब्रूहि नो वर।
सप्तदीप समुद्रैश्च युक्ता पृथ्वी च वर्ण्यताम् ॥
ऋषि बोले- हे सूतजी! आपने इस समस्त सृष्टि के उत्पन्न होने की बात हमसे संक्षेप में कही, परन्तु हे श्रेष्ठ ! सात समुद्र तथा सात द्वीपों से युक्त इस पृथ्वी तथा सृष्टि का वर्णन विस्तार पूर्वक बतायें।
सूतजी ने कहा-हे ऋषिगण ! मैं प्रत्येक भूमण्डल का विस्तार से वर्णन करता हूँ। प्रभु ने अपनी छोटी पुत्री को स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत से परिणीत किया था। वे प्रियव्रत राजा अत्यन्त पराक्रमी थे। उन्होंने अपनी प्रजा के लिये अत्यन्त उत्तम कार्य किये। उन्हीं प्रियव्रत राजा ने एक बार सोचा कि मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते सूर्य जब मेरु के दूसरी ओर जाता है, तो उस ओर अन्धेरा छा जाता है। जब सूर्य इस ओर आता है, तब दूसरी ओर अन्धेरा अर्थात् रात्रि हो जाती है। इसलिये यदि आमने-सामने दो सूर्य रक्खे जायें तो सारी पृथ्वी पर चौबीस घन्टे का दिन बनता है। अत: मुझे पृथ्वी पर चौबीस घन्टे का दिन बनाना है।
इस प्रकार सोचकर प्रियव्रत ने सूर्य के जैसे गति वाले हजारों सूर्य की कान्ति जैसे तेजस्वी रथ तैयार किये और उस रथ पर विराजमान होकर सात दिन तक राजा ने सूर्य का पीछा किया। ऐसा होने से पृथ्वी पर चौबीस घन्टे दिन रहा। सात दिन तक रात हुई ही नहीं। प्रतापी राजा जब तीव्र गति से पृथ्वी पर घूम रहे थे। तब अधिक वजन वाले उनके रथ के पहियों के घर्षण से पृथ्वी पर बहुत गहरे और बड़े-बड़े गड्ढे पड़ गये थे। प्रियव्रत के रथ से सात खड्ढे पड़े जो सात समुद्र माने गये और उसी तरह सात उन्नत स्थल बने थे जो सात द्वीप के रूप में पहचाने गये।
उनमें से प्रत्येक द्वीपों का नाम विशाल वृक्ष के नाम पर रखे गये। प्रथम द्वीप का नाम जम्बु द्वीप रखा गया। इसका विस्तार चार लाख कोस का है और यह द्वीप पृथ्वी में गोलाकार रूप में है। इस द्वीप में जामुन के पेड़ का विस्तार से होने के कारण इसका नाम जम्बुद्वीप पड़ा। इसमें नौ हजार कोस के विस्तार वाले नौ भाग हैं। प्रत्येक भाग खण्ड कहलाता है तथा प्रत्येक खण्ड में एक बहुत बड़ा पर्वत है। जिसके फलस्वरूप ये नौ खण्ड एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। इसमें सबसे बीच में ईलाचल नामक खण्ड है। उस ईलावृत्त के बीच में मेरु पर्वत है।
मेरु पर्वत की चारों दिशाओं में मन्दर मेरु, मन्दर सुपार्श्व तथा कुमुद नामक चार बड़े-बड़े पर्वत हैं। उन चारों पर्वतों पर क्रमानुसार आम, जामुन, कदम्ब तथा बड़ के बड़े-बड़े पेड़ हैं। इन पर्वतों पर दूध, शहद, गन्ने के रस और पानी के बड़े-बड़े झरने हैं। नन्दन, चैत्ररथ, विभ्राजक तथा सर्वतोभद्र नामक उत्तम उपवनों से ये पर्वत सुशोभित हैं । मेरु के चारों ओर कुरङ्ग, कुरर, कुसंभ, वंकरू, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निपध, शिनिवास, कापिल, शंख, वैदूर्य, जारुधि, हंस आदि पर्वत हैं। इसके पूर्व में जठर तथा देवकूट पश्चिम में पवन तथा पारियाग, दक्षिण में कलवीर तथा कैलाश, उत्तर में मकर और निशुंग नामक पर्वत हैं। इन आठ पर्वतों के बीच में मेरु पर्वत विद्यमान है।
मेरु पर्वत के शिखर पर परम कृपालु श्री परमात्मा ने चालीस हजार कोस के विस्तार वाली एक नगरी का निर्माण किया। उसे उन्होंने ब्रह्मा के निवास के लिये दे दिया। वह सारी नगरी सोने की बनी है। इसके आठों दिशाओं में दस-दस हजार कोस विस्तार वाले आठ नगरों की रचना की गयी। इन्हें इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान आदि दिक्पालों को दी गई। ब्रह्माजी की नगरी का नाम मनोवती रखा गया। इन्द्र की नगरी अमरावती हुई । यम की संयम, अग्नि की तेजोवती, निऋति की कृष्णांगना, वरुण की श्रद्धावती, वायु की गन्धवती, कुबेर की महोदया तथा ईशान की नगरी यशोवती के नाम से विख्यात हुई। इन सबके बीच में ब्रह्माजी की नगरी है। वे सब देवता अपनी-अपनी नगरियों में रहकर विश्व की रक्षा का कार्य करते हैं।
मेरु पर्वत के चारों ओर ईलावृत्त है। वह एक-एक समुद्र में लिपटा हुआ है। जम्बु द्वीप के बाद प्लक्ष द्वीप आता है। प्लक्ष द्वीप का विस्तार जम्बु द्वीप से भी दुगना है। उसके चारों ओर खारा समुद्र है। वहाँ पर प्लक्ष का बहुत बड़ा पेड़ है। प्लक्ष द्वीप के चारों ओर गन्ने के रस जैसा मीठा समुद्र है। उसके चारों ओर शाल्म द्वीप है। वहाँ शराब के रस जैसा समुद्र लिपटा हुआ है तथा उस पर शाल्मली वृक्ष है। उसके चारों ओर दूध से लिपटा कौंच द्वीप है। उस पर कौंच नामक बहुत बड़ा पर्वत है। कौंच द्वीप के चारों ओर दही के समुद्र का शाक द्वीप है। उस द्वीप पर शाक नामक वृक्ष है। यह वृक्ष सुगन्ध फैलाने वाला है।
ये सब द्वीप प्रत्येक द्वीप से दुगुने विस्तार वाले द्वीप हैं तथा उनके चारों ओर के समुद्र भी उनसे बड़े माने जाते हैं। प्रियव्रत राजा ने द्वीपों का राज्य अपने-अपने पुत्रों को अलग-अलग दे दिया। उनके पुत्रों ने भी अपने-अपने राज्यों के साथ विभाग करके अपने सात पुत्रों को दे दिया। इन द्वीपों तथा समुद्र के बाहर चौंसठ लाख कोस के विस्तार वाला शाक द्वीप से दुगुना पुष्कर द्वीप है। उसके चारों ओर मीठा सागर है, जिसमें तेजस्वी कमल सुशोभित होता रहता है। इसके मध्य में नानसोत्तर नामक पर्वत है और पर्वत के चार दिशाओं में चार लोकपालों का नगर है। इस द्वीप के ऊपर मेरु की ओर घूमते उत्तरायण तथा दक्षिणायन ऐसे दो विभाग वाला संवत्सर चक्र है।
पुष्कर द्वीप के चारों ओर मीठे जल वाला समुद्र है। उसके बाहर लोक तथा आलोक प्रदेश के मिले-जुले लोकालोक पर्वत हैं। इसके अतिरिक्त सोने की भूमि है। यह भूमि इतनी मुलायम है कि उस पर रखी वस्तु खिसक कर कहीं भी चली जाये उसका पाना मुश्किल होता है। इस भूमि को देवता ही क्रीड़ा के लिये उपभोग करते हैं। इन तीनों लोकों के बाद लोकालोक पर्वत आता है। यह पर्वत इतना ऊँचा है कि आकाश में भ्रमण कर रहे सूर्य आदि का प्रकाशित पदार्थ इस पर्वत के पीछे जा सकता है। वही प्रकाश तीन लोकों को प्रकाशित करता है। इस पर्वत पर चार दिग्गज हैं, जो सारे लोक को धारण किये हुये हैं।
लोकालोक पर्वत के पीछे आलोक प्रदेश आता है। उस प्रदेश के पीछे की ओर परमात्मा का आत्मपद देने वाला स्थान है। जिस परमपद को योगी एवं सिद्ध पुरुष अपने अनन्य योगबल के प्रभाव से प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा स्थान सामान्य मानव की कल्पना से बाहर है। विशुद्ध गति को पाने वाले सिद्धेश्वरों को यह स्थान प्राप्त होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह स्थान बताया था।
सूतजी ने आगे कहा- हे ऋषियों ! आपकी जिज्ञासा के अनुसार विद्वानों द्वारा बताया हुआ पृथ्वी का माप आपको बता दिया। इन सब को भूगोल के नाम से जाना जाता है। अब विद्वानों द्वारा निर्णय किया गया खगोल का माप आपको बताता हूँ उसे आप ध्यानपूर्वक सुनें। इस भूगोल और खगोल को जोड़ने वाला अन्तरिक्ष है। इस अन्तरिक्ष में सूर्यनारायण आकर अपनी उष्मा से तीनों लोकों को जीवन देते हैं। सूर्य की तीन गतियाँ हैं। उत्तरायण में तेज नाम की मन्दगति से दक्षिणायन में दक्षिणायन नामक तीव्र गति से तथा सन्धिकाल में बैषुवर्त नाम की समान गति से भ्रमण करते हैं। इस प्रकार उनकी तीन गतियों से रात-दिन छोटे लम्बे तथा समान होते हैं। सूर्य मानसोत्तर को पार करके मेरु पर्वत के चारों ओर परिक्रमा करते अनुक्रम से पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की नगरी में जाता है। जिसके कारण सूर्य जिन नगरों में सम्पूर्ण प्रकाशित होता है तथा सिर पर होता है, वहाँ मध्याह्न होता है। उसके सामने वाली दिशा में मध्य रात्रि होती है। उसके बाद तीसरी नगरी में प्रात:काल तथा उसके पहले की तीसरी नगरी में सांयकाल होता है। मेरु पर्वत की चोटी पर रहने वालों के लिये सदैव मध्याह्न होता है। सूर्य हमेशा नक्षत्रों के सामने गति करके मेरु की दायीं ओर जाता है । जबकि ज्योतिष चक्र की गति के कारण सूर्य हमेशा मेरु की बायीं ओर जाता है।
आठ लोकपालों की नगरी में भ्रमण करते सूर्य को एक नगरी से दूसरी नगरी में जाने में साढ़े सात घड़ी लगते हैं। प्रत्येक नगरी एक दूसरे से चार करोड़ पचहत्तर लाख पचास हजार कोस दूर है। सूर्य तीन घन्टे में इतना अन्तर समाप्त करता है। पृथ्वी की प्रदक्षिणा करते सूर्य के रथ के एक पहिये को संवत्सर चक्र कहते हैं। इसके बारह आरे हैं। प्रत्येक आरे को मास के रूप में गिना जाता है। उस चक्र के छः पाट छः ऋतुओं के रूप में गिने जाते हैं। तीन कुण्डली वाले इस चक्र की गति के कारण तीन ऋतुयें (वर्षा, गर्मी तथा शीत) होती है। रथ की धुरी मेरु पर है। धुरी का दूसरा छोर मानसोत्तर पर्वत पर है। सूर्य के रथ की बैठक छत्तीस लाख कोस लम्बी और नौ लाख कोस चौड़ी है। रथ के आगे के भाग में श्री सूर्यनारायण के सारथि अरुण देव विद्यमान हैं। रथ के बीच सबके जीवन-दाता सूर्य विद्यमान हैं।
सूर्यनारायण की दो गतियाँ हैं, जो विपरीत दिशाओं में है। सूर्यनारायण स्वयम् मेरु की बायीं ओर गति करते हैं। जब उन्हें राशिचक्र में भ्रमण करना होता है, तब वे राशिचक्र मेरु की दायीं ओर गति करते हैं। अपनी भिन्न-भिन्न गतियों के द्वारा भ्रमण करते श्री सूर्यनारायण के भिन्न-भिन्न बारह रूप हैं। प्रत्येक रूप में भिन्न-भिन्न मास के रूप में आकाश में भ्रमण करते हैं। प्रत्येक मास के भ्रमण से बारह संक्रान्तियाँ होती हैं और उन बारह संक्रान्तियों के कारण प्रभु का भिन्न-भिन्न बारह नाम है।
सूर्यनारायण की किरणों से भी ऊपर चार लाख कोस दूर चन्द्रमा स्थित है। वे उनके बारह गुना गति से भ्रमण करते हैं। चन्द्रमा से भी ऊपर एक सौ बीस लाख कोस दूर नक्षत्र गण विद्यमान हैं। कालचक्र की दायीं ओर स्थित नक्षत्रों की संख्या अट्ठाइस है। कुछ लोग उनकी संख्या सत्ताइस मानते हैं। इन नक्षत्रों से ऊपर आठ लाख कोस दूर शुक्र है। उनकी गति लगभग सूर्य की जितनी होने से वे ज्यादातर सूर्य के समीप ही भ्रमण करते हैं। शुक्र से ऊपर आठ लाख कोस दूर बुध है। जो शुक्र के समान गति वाले हैं। उनके आठ लाख कोस दूर मङ्गल है। उनकी गति सूर्य से धीमी है। सूर्य जो दूरी दो दिन में पूरा करते हैं। मङ्गल उसे तीन दिन में पूरा करते हैं। उनसे भी आठ लाख कोस दूर बृहस्पति हैं। उनकी गति सूर्य की गति का बारहवाँ भाग है। सूर्य जितनी दूरी एक मास में पूरा करते हैं बृहस्पति उतना एक साल में पूरा करते हैं। बृहस्पति से आठ लाख कोस दूर शनैश्चर है। उसकी गति बहुत धीमी है। सूर्य एक मास में जितना अन्तर पूरा करता है, शनैश्चर को उसे पूरा करने में तीस महीने लगते हैं। एक मास में चन्द्र जितनी दूरी तय करता है, शनैश्चर उसे तीस साल में पूरा करता है। शनैश्चर के चवालीस लाख कोस दूर सप्तिर्षि हैं। ये प्रभु के परम पद ध्रुव की प्रदक्षिणा करते हैं।
सूतजी बोले - हे ऋषिगण ! ध्रुव सप्तर्षियों के स्थान से बावन लाख कोस दूर है। यहीं से ध्रुव ने विश्वकर्मा को ग्राम की रचना के लिये पृथ्वी पर बुलाया था। ध्रुव प्रभु के अनन्य भक्त थे, इसलिये उन्हें ऐसा अचल ध्रुव पद मिला।
समस्त राशि, नक्षत्र, ग्रह सहित सब नारायण तथा सप्तर्षियों को लेकर प्रभु के परम पद समान ध्रुव पद की प्रदक्षिणा करता है। इस प्रकार हे ऋषियों ! मैंने आपको भूगोल-खगोल सहित सारी बातें विस्तार से सुना दी है। अब आप लोग और क्या सुनना चाहते हैं, बताइये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में सृष्टि वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। बीसवाँ अध्याय
(पाताल वर्णन )
पातालानि समस्तानि वर्ण्यतां वदतां वर ।
श्रुतं पूर्वाणि संक्षेप पादधुना विस्तराद्वद् ॥
ऋषि बोले-हे सूतजी ! हम लोग इसके पूर्व संक्षेप में पाताल का वर्णन जान चुके हैं। अब आप उसे विस्तार पूर्वक बताइये। उनकी संख्या, उनका विस्तार, उनकी स्थिति तथा वहाँ कौन लोग निवास करते हैं ? उस पाताल के बाद और क्या है। यह सब आप बताइये।
सूतजी बोले- हे ऋषिश्वर! आप लोगों में ज्ञान प्राप्ति की यह तीव्रता को देखकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ। आपको पाताल सम्बन्धी सारी बातें बताने के पूर्व मैं, सूर्य के नीचे पृथ्वी तक के प्रदेश का वर्णन करता हूँ आप लोग कृपा करके उसे ध्यानपूर्वक सुनें।
हे ऋषिगण ! परमात्मा की विभूतियाँ असंख्य हैं और उनकी लीलायें अनन्त हैं। बड़े-बड़े ज्ञानी उनका पार नहीं पा सकते। अतः उनकी लीलाओं को आप लोग ध्यान पूर्वक सुनिये।
मैंने आपको सूर्य के ऊपर ध्रुव-मण्डल तक का वर्णन बताया है। अब ध्रुव-मण्डल के ऊपर के लोक का वर्णन सुनिये । ध्रुव से चार करोड़ कोस दूर महर्लोक है। उसके आठ करोड़ कोस दूर जनलोक है। जनलोक से बत्तीस करोड़ कोस दूर तपलोक तथा तपलोक से अड़तालिस करोड़ कोस दूर सत्यलोक है। सत्यलोक से चार करोड़ कोस दूर बैकुण्ठ है। उसी बैकुण्ठ लोक में प्रभु विश्वकर्मा के विष्णु स्वरूप का निवास स्थान है। उसका नाम गोलोक भी है। प्रभु के अनन्य भक्तों को इसी बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है। विश्वकर्मा प्रभु के इस आलौकिक धाम का वर्णन करने के लिये हजार मुख वाले शेष नारायण भी असमर्थ हैं।
हे ऋषियों ! इस तरह मैंने आपको पृथ्वी लोक तथा उसके ऊपर के लोकों का वर्णन सुनाया। अब सूर्य लोक तथा पृथ्वी के बीच में स्थापित लोकों का वर्णन सुनिये।
सूर्य से चालीस हजार कोस नीचे राहु दैत्य का स्थान है। सिंहिका के पुत्र राहु के सौ छोटे भाई केतु के नाम से प्रसिद्ध हैं।
समुद्र मन्थन के समय देवताओं की पंक्ति में छिपकर अमृत पीने के कारण राहु को अमरत्व मिला। तब प्रभु की कृपा से उसे मण्डल में स्थान दिया गया। सूर्य और चन्द्र के साथ इस दैत्य का उस दिन से बैर था। जिसके कारण अब भी वह कई-कई बार सूर्य और चन्द्र को निगलने के लिये सामने आता है और उसकी छाया के कारण हम उसे ग्रहण मानते हैं। इस राहु से चालीस हजार कोस नीचे सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर तथा चारण का निवास स्थान आता है। इसके नीचे अन्तरिक्ष है और अन्तरिक्ष में भूत-प्रेत, पिशाच आदि का निवास है। अन्तरिक्ष के नीचे हमारी पृथ्वी है।
हे ऋषिगण ! अब आप पृथ्वी के नीचे के लोक का वर्णन सुनिये । पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पताल नामक सात पाताल हैं। इन पातालों में दैत्य दानव तथा नाग निवास करते हैं। जो स्वर्ग के देवताओं से भी अनेक वैभव का उपभोग करते हैं। मय दानव तथा उसके पुत्र बल दानव की अनेक प्रकार की मायाओं से इस लोक में नित्य नवीन रचनायें की जाती हैं। पाताल में सबसे पहले अतल पाताल आता है। उसमें मय दानव के वंशज अनेक प्रकार के सुख भोगा करते हैं। अतल के नीचे वितल है। वितल के नीचे सुतल है। यहाँ अनेक प्रकार के समृद्धियों के साथ बलि राजा रहते हैं। सुतल के नीचे तलातल है। जिसमें मय दानव रहा करते हैं तथा तलातल के नीचे महातल है। जहाँ भयानक साँप और नाग रहते हैं। महातल के नीचे रसातल है। इसमें देव-द्रोही दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। इन छ: पातालों के नीचे भी पाताल है। वहाँ नाग राजाओं का कुल रहता है। इन नाग लोकों की बस्ती से एक सौ बीस हजार कोस दूर प्रलय काल है। जहाँ भगवान् अनन्त अपने तमो-गुण स्वरूप अर्थात शेष नारायण के रूप में निवास करते हैं।
हे शौनक ! आप सब के मन में सृष्टि के बारे में जो प्रश्न थे, उन सबको मैंने विस्तार पूर्वक सुना दिया।
प्रभु इच्छा शक्ति और माया के आश्रय में रह कर विश्व की इस तरह उत्पत्ति करते हैं। फिर योग्य समय उसे स्थित रखकर उसे अपने में लीन कर लेते हैं। प्रभु की ऐसी लीलाओं का पार नहीं है। वे अपने भिन्न-भिन्न लोकों में भिन्न स्वरूप में विराजमान रहते हैं। जीवात्माओं को उनकी मृत्यु के बाद फिर जन्म देते हैं या योग बल के प्रभाव के कारण उन्हें अपना परम पद देते हैं। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार चलता रहता है।
सूतजी आगे बोले - इस प्रकार के चक्र में जीव स्वयं देह धारण करके आता है और अच्छे बुरे कर्मों को करता हुआ उसका फल भोगता है। इस प्रकार प्रभु की माया में जीव उसी प्रकार फंस जाता है, जैसे नदी में गिरकर मनुष्य । लेकिन यदि सत्य निष्ठा से जीवात्मा ईश्वर का अपने मन में सानिध्य करे और अच्छे कर्म करे और अहङ्कार रहित बनकर सभी कर्म ईश्वर को अर्पण करे तो उसके किये हुये कर्मों का फल उसे नहीं भोगना पड़ता। किन्तु जो जीवात्मा अहं के साथ कर्म में आसक्त रहता है तो उसे शुभा-शुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
हे ऋषिगण ! मैंने सारे लोकों का वर्णन और उनमें होने वाली जीवात्मा की गति आदि को सुना दिया।
अन्तकाल में अजामिल ने जब अपने पुत्र को बुलाने के लिये नारायण शब्द का प्रयोग किया तो वह सभी पापों से छूट गया। एक बार अनायास ही मुख से नारायण शब्द निकलने से जब इतना फल देता है तो सच्चे हृदय से जीवन भर उन्हें स्मरण करने से यदि उत्तम गति प्राप्त हो तो इसमें कैसी हैरानी? अब इसे भी सुन लो - अपने पूर्व जन्म में इकट्ठे हर फल भोगने के लिये ही जीवात्मा को अच्छे-बुरे का विवेक रखना चाहिये और सदैव इस बात का ध्यान रखें कि संसार के धमों के कारण बन्धन में रहा देह अपने धर्म का पालन करने के लिये अमुक कार्य करते हैं। उसे सदैव मैं कुछ करता नहीं, इस भावना से काम करना चाहिये। ऐसा करने से अहङ्कार का नाश होता है। इससे कर्मों का बन्धन आत्मा का बाधक नहीं होता। निष्कर्म होकर प्रभु में आसक्त रहे ऐसी मनोवृत्ति वाला जीवात्मा अन्तकाल में भी अपना चित्त प्रभु के चरण कमल में ही रखकर, कर्म बन्धन वाले नश्वर देह का त्याग करने पर पुनः किसी देह का आश्रय न लेकर प्रभु के अनन्य पद एवं मोक्ष को पाता है।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषिगण ! इस प्रकार अनेक कर्म बन्धनों में उलझी आत्मा जिस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्त हो कैवल्य रूपी मोक्ष को प्राप्त करती है। वह सब मैंने आपको बताया। योगी कैवल्य पद पाने के करोड़ों वर्ष तक योग धारण का आश्रय लेकर प्रभु के चरण कमल में अपनी चित्त वृत्ति की स्थापना करते हैं। फिर भी जो पद इतने वर्षों तक उन्हें मिलता वह कैवल्य पद में लीन रहकर भी निष्काम जीवात्मा एक ही जन्म में प्राप्त करता है। करोड़ों वर्षों तक तपश्चर्या करने के पश्चात् ऋषियों ने जिस पद को प्राप्त करने की इच्छा की है, वह पद जीवात्मा अपने धर्मों का पालन करते हुये अहङ्कार का त्याग करके ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति और उत्तम भाव रखकर उनमें चित्त को स्थापित कर एक क्षण में पा लेता है। प्रभु की लीलाओं और शक्तियों का आदर करके उनमें अनन्य भाव रखकर प्रभु की प्रीति के लिये सब कर्म करे और मैं करता हूँ, ऐसा न मानकर ईश्वर को अर्पण करे तो वह जीवात्मा संसार सागर को पार कर जाता है। अपने सत्त्व गुणी अच्छे कर्म के फलस्वरूप वह सात्विक सुख भोगता है। पृथ्वी के ऊपर जो लोक कहे हैं, उन लोकों में जीवात्मा अधूरे कर्मों के आधार पर पुनः जीवन धारण करता है।
रजो गुण के सहारे किये गये कर्म जो बाकी रह गये हों, उन कर्मों को भोगने के लिये मनुष्य सूर्य से पृथ्वी तक के जो प्रदेश बनाये हैं, उनमें जीवन धारण करता है। इस प्रकार अपने कर्मों का फल भोगता है। तमो गुण के सहारे किये सत्कर्म का फल भोगना बाकी रहता है। वह जीवात्मा पृथ्वी के नीचे सात पातालों में से किसी पाताल में जीवन धारण करता है तथा अपने कर्म में आधार प्राप्त किये हुये देह में रहकर जीवात्मा अपने सभी संचित कर्म का उपभोग करता है। हे ऋषियों ! इस प्रकार तीनों गुणों के आश्रय में रहकर अहङ्कार से जीवात्मा कोई सत्कर्म करे तो उसी के आधार पर उसकी उन लोकों में गति होती है। यदि जीवात्मा विविध अहङ्कार के आश्रय में गलत या निन्दित कर्म करे तो उसे भोगने के लिये उसकी गति बनाये गये लोकों के बाहर होती है। इस प्रकार के जीवात्मा की गति जिस स्थान में होती है, वही नर्क कहलाता है। अच्छे कर्मों के फलस्वरूप ऊपर के लोकों में गति करके जीवात्मा अनेक प्रकार के सुख वैभव का उपभोग करता है। बुरे कर्म करने वालों की अधोगति होती है। वे मानव नर्क के अधिकारी बनकर नर्क में निवास करते हैं, नर्क की दुःसह यातना भोगा करते हैं।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में पाताल वर्णन नामक बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। इक्कीसवाँ अध्याय
(नर्कों का वर्णन )
प्रकल्प्य वासं सर्वेषां कृत्वा तेषां सुस्वागमत् ।
जग्मुस्ते कर्मणः पुत्रा कार्याण्यन्यानि साधितुम् ॥
ऋषियों ने कहा - हे सूतजी! आपने जिस नर्क की बात कही है उसकी कितनी संख्या है। वह कहाँ स्थित है और वहाँ रहकर जीवात्मा किस प्रकार यातना भोगा करता है। वह अपने किन दुष्कर्मों के कारण नर्क जाता है ? इन सारी बातों को हमें विस्तार पूर्वक समझाइये।
महर्षि शौनक से ऐसी बातें सुनकर सूतजी बोले - हे ऋषियों! वहाँ जीवात्मा किस प्रकार के कर्मों द्वारा यातना भोगते हैं ? उन्हें अपनी समझ तथा ज्ञान के अनुसार आपको बताता हूँ। उसे ध्यान से सुनिये।
तीनों लोकों के मध्य नर्क प्रदेश दक्षिण दिशा में है। वह जल के ऊपर तथा पृथ्वी के नीचे स्थित है। यमराज यहाँ के अधिपति हैं। वे सारे पितृगणों के साथ संयम नामक नगरी में निवास करते हैं और अपने दूतों के साथ मिलकर इस नर्क का संचालन करते हैं। यम के भयङ्कर हथियार धारण करने वाले दूत मृत जीवात्मा को यमराज के पास लाते हैं। यमराज उसे उसके कर्मों के अनुसार उचित दण्ड देते हैं। उस दण्ड के अनुसार जीवात्मा को यमदूत विभिन्न नकों में ले जाते हैं । इस प्रकार यातना भोगने के लिये अट्ठाइस नर्क विद्यमान हैं उनके नाम निम्नवत हैं -
(१) तामिस्र, (२) अन्धतामिस्र, (३) रौरव, (४) महारौरव, (५) कुम्भीपाक, (६) कालसूत्र, (७) असिपत्रवन, (८) सूकर मुख, (६) अन्धकूप, (१०) कृमि भोजन, (११) संदश, (१२) तप्तसूर्मि (१३) वज्रकण्टक शाल्मली, (१४) वैतरणी, (१५) पूयोद, (१६) प्राण रोध, (१७) वैशस, (१८) लालाभक्ष, (१६) सारमेयादान, (२०) अवीचि, (२१) अयः पान, (२२) क्षार कर्दभ, (२३) रक्षो गण भोजन, (२४) शूलप्रोत, (२५) दन्दशूक, (२६) अवरनिरोधन, (२७) पर्यावर्त और (२८) सूचिमुख । इस प्रकार अट्ठाइस मुख्य नर्क हैं।
इन्हीं नो में जीवात्माओं को अपने कर्मों के अनुसार आना पड़ता है। जीवात्मा किन कर्मो के अनुसार किस नर्क में जाता है, इसका वर्णन सविस्तार कह रहा हूँ।
पहला तामिस्र नामक नर्क में वे प्राणी जाते हैं जो अपने जीवन में पर-स्त्री का संसर्ग करते हैं। उन पर बुरी नजर रखते हैं, उनका अपहरण करते हैं, इसके अलावा पराये का धन का उपभोग किया हो और उसका नाश किया हो। दूसरों के धन या बालक का अपहरण किया हो । दूसरे जीवों को दुःख दिया हो। इन्हें मृत्यु के बाद भयङ्कर यमराज उनके शरीर को यमपाश से बाँधकर नर्क प्रदेश में लाते हैं और इसी तामिस्र नर्क में डाल देते हैं । यहाँ उसे खाना नहीं दिया जाता और हथियारों से मार कर तरह-तरह की यातनायें दी जाती हैं। यह नर्क घोर अन्धकारमय है।
अन्धतामिस्र नामक दूसरा नर्क भयङ्कर अन्धकार से भरा है। इस नर्क में जिस जीवात्मा को डाला जाता है। वह यातना के कारण अन्धी दीवाल जैसा तथा मूर्ख बन जाता है। दूसरों के साथ विश्वासघात या धोखा धड़ी करने वाले को इस नर्क में लाया जाता है। वह व्यक्ति इस नर्क में भयङ्कर दुःख भोगा करते हैं तथा उन्हें भयङ्कर दुःख भोगना पड़ता है।
रौरव नामक तीसरे नर्क में जो जीव आता है, उसे रुरू पशु चारों ओर से घेर लेते हैं। वे जीवों को हर प्रकार से खोल कर खाते हैं तथा उन्हें दुःख पहुंचाते हैं। जो अत्यन्त अहंभाव धारण कर दूसरों को दुःखी करते हैं तथा अपने स्वार्थ हेतु दूसरों को क्षति पहुँचाते हैं, वे सारे लोग यहाँ आते हैं।
महारौरव नामक चौथे नर्क में वे व्यक्ति आते हैं, जो केवल अपना स्वार्थ देखते हैं और अपने ही स्वार्थ में अन्धे बने रहते हैं। जो हमेशा दूसरे प्राणियों की हिंसा करके उनके शरीर को खाकर अपने शरीर को हृष्ट पुष्ट बनाते हैं। ऐसे तुच्छ और नराधम इस नर्क में आकर अनेक यातनायें भोगते हैं। यहाँ रुरू नामक पशु उन्हें मारकर उनके माँस को खाया करते हैं।
पाँचवें नर्क कुम्भीपाक में जीवित व्यक्तियों को पका कर या सेंक कर खाने वाले जीव जिनका स्वभाव राक्षस से भी अधिक क्रूर होता है, उनको यहाँ लाकर उबलते तेल की कड़ाही में डालकर उन्हें यातना पहुँचायी जाती है। इस तरह उनके चीखते-चिल्लाते रहने पर भी जब तक उनके दुष्कर्मों का क्षय नहीं हो जाता उन्हें उबालते रहते हैं।
छठें कालसूत्र नामक नर्क का निर्माण ताम्बे के पत्ते से होता है। इसका निर्माण इस ढङ्ग से होता है कि इसकी दीवालें तथा जमीन सब भयङ्कर रूप से तपे हुये होते हैं। इस नर्क में आने वाला जीव दावानल के समान भयङ्कर आग से असह्य पीड़ा पाया करते हैं। पशु के शरीर में जितने रोयें होते हैं, उतने हजार वर्षों के बाद मनुष्य इन नर्क की यातना से छूटते हैं। वे लोग जो धर्म, बुजुर्ग या देवताओं और ब्राह्मणों का द्रोह या तिरस्कार करते हैं उन्हें इस नर्क की यातनायें भोगनी पड़ती हैं।
असिपत्रवन नामक सातवें नर्क में वे लोग जाते हैं। जो धर्म को त्याग कर पाखन्डियों जैसा आचरण करते हैं। यहाँ उन्हें यमदूत भयङ्कर रूप से मारते हैं। इस मार के कारण जीवात्मा इधर से उधर भागता है, तब यहाँ तलवार की धार जैसे पत्तों के कारण उसके शरीर पर चारों ओर खरोच लगती है और अत्यधित पीड़ा होती है।
सूकर मुख नामक आठवें नर्क में अनुचित कर्म करने वाले व्यक्ति लाये जाते हैं। जो मनुष्य अन्याय करता है या गलत ढङ्ग से दूसरे को सजा देता है। वह ब्रह्महत्या का भागीदार बनता है। उसे इसी नर्क में लाकर रखा जाता है। यहाँ उस व्यक्ति को खल में डालकर पीसा जाता है और निरपराध व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाने के कारण उसका फल भोगना पड़ता है।
अन्धकूप नामक नौवें नर्क में हर प्रकार के हिंसक प्राणियों की प्रकृति ने जिस प्रकार की आजीविका निर्मित की है, उन मनुष्यों को आजीविका का द्रोह करके जो मनुष्य उन प्राणियों का नाश करता है, उसे इसी नर्क में स्थान मिलता है। अपने जीवन काल में उसने जिस प्रकार प्राणियों को पीड़ा पहुँचायी है, वे प्राणी ही यहाँ उसी ढङ्ग से पीड़ा पहुँचाकर अपने ऊपर किये गये पीड़ा का बदला लेते हैं। उस समय भयङ्कर पीड़ा से त्रस्त होकर वे जीवात्मा फिर अपने पापों के लिये पछतावा करने लगते हैं।
कृमि भोजन नामक दसवें नर्क में आये प्राणियों को पेट भर भोजन नहीं दिया जाता। उन्हें यहाँ कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और खाने में भी उन्हें कीड़ा दिया जाता है। अन्य कीड़े भी अपना पेट भरने के लिये काटते रहते हैं। अपने जीवन-काल में जो केवल अपना ही पेट भरता है और साधु, सन्त, देव, ब्राह्मण का तिरस्कार करता है, उसे इस नर्क में डाला जाता है।
संदश नामक ग्यारहवें नर्क में अपने कर्मों का भोग भोगने के लिये जिन व्यक्तियों को लाया जाता है, उन्हें यमदूत लोहे की गर्म सड़सी तथा चिमटे में चूटियाँ भर कर उसकी चमड़ी में रगड़ लगाते हैं। जो किसी ब्राह्मण या किसी अन्य के गहने, रत्न आभूषण जैसी वस्तुओं को छीन ले अथवा उनकी चोरी कर ले उन्हें इसी नर्क में स्थान मिलता है।
तप्त सूभि नामक बारहवे नर्क में वे प्राणी लाये जाते हैं, जो काम वासना में अन्धे रहते हैं अथवा खराब आचरण करने वाली कुलटा स्त्रियों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। ऐसा आचरण करने वाले स्त्री पुरुष दोनों को यमदूत इसी नर्क में लाकर रखते हैं। उन व्यक्तियों को वहाँ रखकर यमदूत उन्हें चाबुक से मार-मार कर पीड़ा पहुँचाया करते हैं। पुरुष को गर्म लोहे की आकृति वाली स्त्री से और स्त्री को गर्म लोहे की आकृति वाले पुरुष से आलिङ्गन करने को कहा जाता है।
वज्रकंटक शाल्मली नामक तेरहवें नरक में शाल्मली के अनेक वृक्ष रहते हैं। इन वृक्षों पर बज्र के समान भयङ्कर कांटे लगे रहते हैं। इसी कारण इसका नाम वज्रकंटक शाल्मली पड़ा। इनमें वे व्यक्ति लाये जाते हैं, जो पशु आदि अन्य प्राणियों के साथ मैथुन करते हैं। यहाँ लाकर यमदूत उसे शाल्मली वृक्ष पर चढ़ाते हैं। फिर सबसे ऊपर चढ़ने पर उसे जोरों से खींचकर नीचे धकेला जाता है। नीचे गिरने पर वह पेड़ की डालियों से टकराता हुआ गिरता है। उस समय उसे असह्य पीड़ा होती है।
वैतरणी नामक चौदहवाँ नर्क एक नदी के रूप में है। इस नदी में जल के स्थान पर खून, मवाद, विष्टा, मूत्र आदि बहते हैं। इसमें हड्डियाँ, चमड़ियाँ, माँस आदि तैर रहे हैं। इसमें इन प्राणियों को डाला जाता है, जो अपने जीवन में जानबूझ कर अपने धर्म और कर्तव्य का त्याग करते हैं। उन्हें इस नदी में रहने वाले जीव फाड़ देते हैं। जिससे इन्हें असह्य पीड़ा हुआ करती है।
पूयोद नामक पन्द्रहवें नर्क में वे लोग लाये जाते हैं, जो उच्च कुल में जन्म लेकर निम्न स्त्रियों के साथ सम्बन्ध रखते हैं तथा मैथुन आदि व्यभिचार करते हैं। यह नर्क एक-एक समुद्र की तरह है। इसमें भी विष्टा, मूत्र, मांस, खून, गल्फा रेंट आदि अनेक वस्तुयें होती हैं। यमदूत उन्हें खाने के लिये इन्हीं वस्तुओं को दिया करते हैं। यदि वह नहीं खाता तो उसे जबर्दस्ती मार कर खिलाया जाता है।
प्राणरोध नामक सोलहवें नर्क में आने वाले लोगों को यमदूत रेत में आधा गाड़ देते हैं। इसके बाद दूत लोग उसके चारों ओर खड़े होकर उस पर तीर चलाते हैं। यहाँ लाये जाने वाले वे लोग होते हैं, जो आकाश के प्राणियों का शिकार करते हैं या अकारण ही पशु-पक्षियों को बन्धन में डाल देते हैं। इन लोगों को भयङ्कर रूप से पीड़ा पहुँचायी जाती है।
वैशस नामक सत्रहवें नर्क में दम्भी पुरुष लाये जाते हैं, जो व्यक्ति ढोंग और घमण्ड करते हुये यज्ञ करते हैं और उसमें पशुओं की बलि देते हैं, उन्हें यमदूत यहाँ लाकर राई के दाने जितने टुकड़े करते हैं।
लालाभक्ष नामक अट्ठारहवाँ नर्क वीर्य की नदी होती है। यमदूत उस व्यक्ति को जबर्दस्ती लाकर वीर्य पीने के लिये बाध्य करते हैं जो अपनी या पराई स्त्री को वीर्य पिलाता है।
सारमेयादान नामक उन्नीसवें नर्क में पराये को दुख पहुँचाने वाले, दूसरों का सामान लूटने वाले, दूसरों को विष देकर पीड़ा पहुँचाने वाले, आग लगाने वाले दुष्कर्मियों को यहाँ यमदूत पकड़ कर लाते हैं और उन्हें चीर-फाड़ कर खाते हैं और बुरी तरह पीड़ित करते रहते हैं।
अवीचि नामक बीसवें नर्क में वे लोग लाये जाते हैं जो अपने जीवन काल में झूठ का सहारा लेते हैं तथा गलत गवाही देते हैं। जिनका स्वभाव ही झूठ बोलने का हो गया हो, उन लोगों को यहाँ लाकर ऊँचे पर्वत पर ले जाया जाता है और नीचे पत्थर पर उल्टे सिर डाल दिया जाता है।
अय: पान नामक इक्कीसवें नरक में उस तरह के व्यक्ति लाये जाते हैं, जिसने सुरा और मदिरा आदि न सेवन करने वाले पदार्थों का सेवन किया है और भक्षा-भक्ष्य अखाद्य पदार्थों को खाया है। यहाँ यमदूत उन्हें जमीन पर सुलाते हैं और उनका मुँह खोल कर उसमें गरम लोहे के सीसे का रस डालते।
क्षारकर्दम नामक बाइसवें नरक में ऐसे व्यक्ति लाये जाते हैं, जो बड़ों के सामने अपनी विनम्रता खोकर उनका अपमान करते हैं। इस नरक में आये हुये प्राणी को दुःसह पीड़ा भोगनी होती है। वहाँ प्राणी इससे व्यथित होता हुआ निरन्तर रोया करता है।
रक्षोगण भोजन नामक तेइसवें नरक में वे लोग भेजे जाते हैं, जो अकारण निरीह प्राणियों का वध करते हैं। ऐसे लोग पुरुष मेध के नाम पर पुरुष बलि चढ़ाते हैं और ऐसी स्त्रियाँ भी वहाँ आती हैं जो अपनी वासना की तृप्ति हेतु पुरुष का वध करती हैं अथवा उनका जीवन नष्ट कर देती हैं। यहाँ खुद के द्वारा नाश किये पुरुष ही राक्षस बनकर आते हैं और शस्त्रों से उन्हें पीड़ा पहुँचाते हुये उनका मांस खाकर उनका खून पीते हैं।
शूलपोत नामक चौबीसवें नरक में इस प्रकार के व्यक्ति आते हैं, जो भोले-भाले प्राणियों का विश्वास जीत कर उनके साथ विश्वासघात करते हैं। उसका वध कर देते हैं अथवा उसे अकारण पीड़ा पहुँचाते हैं। वहाँ यमदूत उन्हें अपने भाले में माले की तरह पिरो लेते हैं। फिर उन्हें आकाश में उल्टा लटका देते हैं। आकाश में उन्हें भयङ्कर चोंच वाले पक्षी मार-मारकर परेशान कर देते हैं। इस प्रकार उन्हें घोर दुख उठाना पड़ता है।
दन्दशूक नामक पच्चीसवें नरक में वे प्राणी रखे जाते हैं, जो द्वेष के कारण निरन्तर व्यक्तियों को पीड़ा पहुँचाया करते हैं और उन्हें परेशान किया करते हैं। हे ऋषि ! यहाँ उन्हें भयङ्कर अजगर और सर्प निगलते हैं और फिर बाहर निकाल देते हैं।
अवरनिरोधन नामक छब्बीसवें नरक में यमदूत ऐसे व्यक्तियों को लाते हैं, जो किसी को गड्ढे में, गुफा में, कुयें में या मकान में कैद करते हैं। इस नरक में अन्धेरे बड़े-बड़े गड्ढे हैं। यहाँ पापियों को, गड्ढे में व्याप्त विषैली वायु उनका दम घोंट देती है।
पर्याबर्न नामक सत्ताइसवें नरक में वे व्यक्ति लाये जाते हैं जो "अतिथि देवो भव" धर्म सूत्र का उल्लंघन कर घर और आंगन में आये हुये व्यक्तियों का उचित सेवा सत्कार नहीं करते। उनका तिरस्कार करते हुये उन्हें कटु वचन कहते हैं। कठोर भयङ्कर चोंच वाले पक्षी ऐसे लोगों को खाते हैं और उन्हें बुरी तरह व्यथित करते हैं।
सूचिमुख नामक अट्ठाइसवें नरक में ऐसे धनवानों को लाया जाता है, जिनके अन्दर अधिक पाने की इच्छा और अभिमान भरा होता है। वे आडम्बर युक्त होकर दूसरों के प्रति शंकाशील और ईर्ष्या की दृष्टि रखते हैं। यहाँ उन्हें यमदूत दर्जी की तरह सुई तागा लेकर उन्हें सीते हैं। इस तरह बार-बार सुई चुभाने में उन्हें बहुत पीड़ा पहुँचती है।
सूतजी बोले हे ऋषियों! मैंने आप लोगों को अट्ठाइस नर्कों का वर्णन सुना दिया। इसके अलावा यम लोक में और छोटे बड़े नर्क विद्यमान हैं। इन नरकों में जाने वाले प्राणियों को छोटी बड़ी सभी तरह की पीड़ायें पहुँचायी जाती हैं। इस तरह प्राणी अपने कर्मों पर पछतावा करता हुआ वह पुन: चौरासी लाख योनियों में भटकता है। इन चौरासी लाख योनियों में दो पैर और चार पैर वाले जीवधारी भी सम्मिलित हैं। इसके अलावा पंख वाले, बिना पंख वाले, रेंगने वाले, पेड़-पौधे, फल-फूल सभी इसमें आते हैं।
जो प्राणी शरीर धारण करने के उपरान्त उत्तम कर्म करता रहता है और इन्द्रियों का निग्रह करता है, वह स्वर्ग का सुख भोग कर अपने से ऊँचे योनि में जन्म ग्रहण करता है। फिर उत्तरोत्तर ऊँचे जन्म पाता हुआ अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। किन्तु यदि वह अपने जीवन में निम्न कर्म अथवा पाप कर्म करता है तो उसे इन्हीं नरकों की यातना भोगनी पड़ती है और वह बार-बार जन्म लेता रहता है।
सूतजी ने आगे कहा- हे ऋषिगण ! प्रभु विश्वकर्मा ने इस प्रकार के नरकों की रचना की और उसका अधिकार यमराज को सौंपा। यमराज यहाँ लाये जाने वाले व्यक्तियों के साथ उचित न्याय करते हैं। उनके दरबार में आने के लिये चार दरवाजे हैं। उनमें से पहले दरवाजा से देवता, दूसरे से ऋषि-मुनि तथा तीसरे से पुण्यशाली पुरुष तथा चौथे से पापी मनुष्य आते हैं। देवताओं को यमराज देवता जैसे लगते हैं। ऋषियों को वह रूप, दिव्य पुरुष जैसा दिखलायी पड़ता है। वही रूप पुण्यशाली पुरुष को धर्मराज के रूप में दिखलायी पड़ता है। किन्तु पापियों को वह रूप अत्यन्त भयङ्कर दिखलायी पड़ता है।
यमराज की सभा में आये व्यक्तियों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा चित्रगुप्त रखा करते हैं और वही उनके कर्मों के अनुसार उन्हें सुख या दुख देते हैं। सत्कर्मी को देवदूत स्वर्ग ले जाते हैं और पापियों को रस्सी में बाँधकर घसीटते हुये नर्क ले जाते हैं तथा करोड़ों वर्ष तक पीड़ित करते रहते हैं।
हे ऋषिगण ! मैंने सृष्टि की सारी रचना और उनमें होने वाली मनुष्यों की गति का मैंने विस्तार से वर्णन कर दिया है। अतः उस विराट महापुरुष की इन अभूतपूर्व रचनाओं में प्रभु विश्वकर्मा की माया से परिचित होकर जो मनुष्य उत्तम कमों को करता है, वह निरन्तर उत्तम योनियों में जन्म लेता हुआ अन्त में प्रभु के परमधाम में जाकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मुनियों को इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर प्रभु के चरण-कमलों में भक्ति रखते हुये साधु-सन्त की सेवा करता रहे और सत्य वचन का आश्रय लेकर उत्तम पदार्थों का सेवन करे, इसी में मनुष्यों के जन्म की सार्थकता है और उसका संसार से उद्धार हो सकता है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में नर्क वर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। बाइसवाँ अध्याय
(विश्वकर्मा माहात्म्य )
श्रृणुध्वं मुनयः सर्वं विश्वकर्मात्मकं महत् ।
ज्ञानं सिद्धिप्रदं नित्यं पुराणं सर्व पावनम् ॥
सूतजी ने कहा- हे ऋषि ! इस जगत् तथा सारी सृष्टि की रचना करने वाले प्रभु विश्वकर्मा का अमोघ ज्ञान जो अनेक सिद्धियाँ देने वाला तथा तन-मन को पवित्र बनाने वाला है तथा जिनका यशोगान वेद पुराणों ने भी अच्छी तरह गाया है, उस ज्ञान के बारे में अब आप लोग विस्तार से सुनें।
प्रभु विश्वकर्माजी समस्त धर्मों के प्रवर्तक तथा सभी भक्तों के आधार रूप हैं। जिनके पाँच मुख हैं और पाँच ब्रह्मर्षि जिनकी सेवा में लगे रहते हैं। ऐसे प्रभु के बारे में वेद शास्त्रों ने जो कुछ कहा है, उन सबको मैं संग्रहीत करके अपनी बुद्धि के अनुसार संक्षेप में सुनाता हूँ। जिस तरह दधि को मथ कर सार रूप मक्खन को हम पा लेते हैं, उसी तरह सम्पूर्ण ज्ञान के सार रूप का वर्णन मैं आप लोगों के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। हे ऋषिगण ! आप लोग उसे ध्यान से सुनने की चेष्टा करें।
सम्पूर्ण सृष्टि तथा सारे विश्व के एक-मात्र रचनाकार प्रभु विश्वकर्मा ही हैं। समस्त पुराणों के अतिरिक्त वशिष्ठ पुराण में भी ऐसा ही कहा गया है कि प्रभु विश्वकर्मा के पाँच मुख हैं। पूर्व दिशा में सद्योजात, दक्षिण दिशा में कामदेव, पश्चिम दिशा में अघोर, उत्तर दिशा में तत्पुरुष तथा उर्ध्व दिशा में ईशान मुख है। परमात्मा के उन पाँच मुखों से पाँच दिशायें उत्पन्न हुयी। ईशान दिशा उनके ईशान नामक अन्तिम मुख की दिशा से प्रसिद्ध हुई। ऋषिगण उन्हें ॐकार अथवा प्रणव भी कहा करते हैं। उनके मुख से उत्पन्न पाँच दिशाओं से पाँच विदिशायें भी उत्पन्न हुई।
नाद ब्रह्म के उत्पत्तिकर्ता भी प्रभु विश्वकर्मा ही हैं। इस सम्बन्ध में पुराणों का कथन है कि सद्योजात नामक मुख से तारक, कामदेव मुख से दण्डक, अघोर मुख से विन्दु, तत्पुरुष मुख से कुण्डल और ईशान मुख से अर्द्धचन्द्र की उत्पत्ति हुयी। ऐसे ही उनके नाद ब्रह्म के मूल स्वरूप से ॐकार (प्रणव) की उत्पत्ति हुई।
सूतजी ने आगे कहा- हे ऋषिगण ! मूल स्तम्भ पुराण में भी यह बात कही गयी है कि प्रभु विश्वकर्मा समग्र के स्वामी हैं तथा सारे संसार के पूजा करने योग्य हैं। इस सृष्टि में जितने भी तेजस्वी पदार्थ हैं, उनमें उनका ही तेज समाया हुआ है। अतएव सारे विश्व के कर्ता-धर्ता एवम् हर्ता के विषय में सारा ज्ञान श्रुतियों द्वारा ही करना चाहिये। यदि पानी में शक्कर डाला जाये तो वह मधु (शहद) का स्वाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार अन्य तरह के ज्ञान अन्य देवताओं का पूजन करने से मनुष्य प्रभु के परम पद को नहीं पा सकता। उस प्रभु को छोड़कर जो इधर उधर भटकता है, वह सदा ही दिग्भ्रमित रहता है। इस तरह उसकी अधोगति होती है और वह नर्क को जाता है। इसलिये उत्तम गति चाहने वाले को सभी तरह से प्रयत्न करके प्रभु विश्वकर्मा से ही सम्बन्धित शास्त्रों का अभ्यास तथा पठन-पाठन करना चाहिये । यही उनके सद्गति का उत्तम उपाय है।
सारी सृष्टि की रचना करने के बाद इन्द्र की विशेष प्रार्थना करने पर प्रभु विश्वकर्मा ने उन्हें अमरावती नामक नगरी दे दी। भगवान् शंकर ने भी उनसे प्रार्थना करते हुये कहा- हे सृष्टिकर्ता ! नयी-नयी वस्तुओं के रचनाकार ! हे प्रभु विश्वकर्मा ! आप मेरी इच्छा पूरी करें तथा मेरे रहने के लिये कोई उत्तम स्थान दें और मुझे उत्तम आभूषण एवम् अलङ्कार प्राप्त करायें। मुझे आपके द्वारा रचित सभी सामग्रियाँ प्राप्त करने तथा परलोक भोगने की इच्छा है। अतएव हे प्रभु! आप मुझ पर कृपा करें। इस प्रकार हर एक देवताओं ने प्रभु विश्वकर्मा की अर्चना और पूजा की । इससे उन सभी को उनकी मनोवांछित इच्छायें प्रभु के द्वारा पूर्ण की गयी। इस तरह हे मुनियों ! प्रभु विश्वकर्मा की सेवा करने से मनुष्य हर प्रकार के भोग ऐश्वर्य एवम् सुख प्राप्त कर सकता है।
हे ऋषियों ! प्रभु विश्वकर्मा सर्व गुणों से सम्पन्न एवम् महान् ऐश्वर्यवान होने के साथ सभी विद्याओं और शिल्प कलाओं के प्रवर्तक और सर्जक हैं। देवताओं के आवश्यकतानुसार जब-जब किसी वस्तु की आवश्यकता पड़ी है, तब-तब प्रभु ने अनेक प्रकार की कलाओं का निर्माण किया है। उनके लिये आयुध, आभूषण, निवास स्थान, अलङ्कार, वाहन तथा विमान आदि का निर्माण किया । इसीलिये समस्त देवतागण प्रभु की शरण में आकर सभी मनोवांछित कामनाओं को पूर्ण कर लेते हैं। ऋषि तथा देव और समस्त प्राणियों के हित के लिये किये जाने वाले यज्ञ सामग्रियों को विश्वकर्मा ने ही तैयार किया है। उन्होंने इच्छा करके देवताओं की अनेक कलामय मूर्तियों की उत्पत्ति की है। एक बार अनेक प्रकार की समृद्धियों से युक्त होने के लिये देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की हे देवाधिदेव भगवान विष्णु ! आप हम पर प्रसन्न हों। सभी प्रकार के कल्याण और समृद्धियाँ प्रदान करने वाली लिङ्ग पूजा की महिमा हमने जानी है। इसी कारण हम अपने मनोरथ सिद्ध करते हैं।
देवताओं की इस वाणी को सुनकर विष्णु भगवान् ने कहा-हे देवताओं ! लिंग पूजा की महिमा का ज्ञान मुझे भी है। मैं तो सदैव लिंग की पूजा करता हूँ। किन्तु उस लिंग को प्राप्त करने के लिये आप सभी लोग ईलाचल पर्वत को जाओ तथा वहाँ पाँच ऋषियों की सेवा का आनन्द उठाते प्रभु विश्वकर्मा की आराधना करो। उनके प्रसन्न होने पर ही लिंग की प्राप्ति हो सकती है। भगवान् विष्णु के इस वचन को सुनकर सभी देवता ईलाचल पर्वत पर आये और भगवान विश्वकर्मा की स्तुति करने लगे। तब देवताओं को इस तरह स्तुति करते देखकर प्रभु ने उनके आने का कारण पूछा। उनका कारण जाने लेने पर प्रभु ने सबको सन्तुष्ट किया। इन्द्र को मणि का लिंग प्रदान किया। कुबेर ने सोने का लिंग दिया। इस तरह प्रत्येक देवताओं को उनके अधिकारों के अनुसार उत्तम लिंग दिये और सबके मनोरथ पूर्ण किये।
हे ऋषियों ! अब मैं प्रभु विश्वकर्मा के स्वरूप को पुराणों के आधार पर बता रहा हूँ। ये विश्वकर्मा सारी सृष्टि का सृजन करने वाले हैं। सूर्य के रूप में अपनी ही विभूति से प्रकाशमान होकर सारे विश्व को तेज और ताप देते हैं तथा उनका पोषण करते हैं। इन्होंने सारी सृष्टि में विद्यमान होकर सुन्दर भवनों की रचना की है तथा ये अपने असीमित सामर्थ्य के द्वारा समस्त भूमण्डल सहित ब्रह्माण्ड के कर्ता-धर्ता हैं। ये ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्कर का रूप धारण कर सभी सुप्रसिद्ध महान् शक्ति की उद्भव के मूल में स्थित हैं।
ऐसे प्रभु विश्वकर्मा के एक हाथ में गज तथा दूसरे हाथ में सूत्र, तीसरे हाथ में जल पात्र तथा चौथे हाथ में पुस्तक है। ये हंस पर आरूढ़ रहते हैं और उन त्रिनेत्रधारी प्रभु ने अपने शीश पर सुन्दर मुकुट धारण कर रखा है। उन्होंने ही विश्व का सर्जन करते हुये मन्दिर, राजकीय भवन तथा अनेक छोटे बड़े निवास स्थानों की रचना की है।
उन पुराण पुरुष विश्वकर्मा का स्वरूप उज्जवल है। वे अमाप, अरूप, अजेय तथा द्वन्द्वों से परे हैं। अलोक होते हुये भी वे लोकमय तथा जगन्नाथ हैं। उनके सहस्र मस्तक, सहस्र नेत्र तथा सहस्र चरण हैं। वे सभी देवों के पिता तथा लोकों के पितामह हैं। परम शिव स्वरूप होकर वे परम कल्याण की मूर्ति हैं। उन पर माया का आवरण नहीं है तथा उनके स्वरूप एवम् आकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे सबके आधार भूत तथा अनादि और दया के भण्डार हैं। वे त्रिलोकमय हैं और विश्व स्वरूप हैं। कारण वे ही विश्व का निर्माण करने वाले मांगलिक स्वरूप परमात्मा हैं। वे विश्व में आत्मरूप हैं और समस्त भूतों में व्याप्त हैं। विश्व निर्माण में ये निरन्तर अपनी लीला करते हैं। इनके मुख से ही अग्नि ज्वाला और शङ्कर उत्पन्न हुये हैं। इनके बाहों से विष्णु तथा जंघा से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुयी है। इन्हीं के चरण-कमल से ही स्वर्ग के राजा इन्द्र उत्पन्न हुये हैं।
प्रभु के मन से चन्द्रमा, नेत्र से सूर्य तथा प्राणों से वायु की उत्पत्ति हुई है। इनकी नाभि-कमल से आकाश तथा मस्तक से सभी देव उत्पन्न हुये हैं। पैर से पृथ्वी तथा कान से दिशाओं की उत्पत्ति हुई है । सृष्टि की रचना करने वाले तथा इसका आरम्भ करने वाले प्रभु जगत् के गुरु तुल्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि इनके ही अंश हैं। समस्त दैत्य दानव की उत्पत्ति भी इन्हीं से हुई है। ये शिव के रूप में ही प्राणियों में दया दिखलाते हैं। जिस प्रकार शिव विभिन्न प्रकार के पाँच स्वरूपों में सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रभु विश्वकर्मा भी पाँच स्वरूपों में शोभायमान हैं। जिस प्रकार सफेद प्रकाश अङ्क गुण वाला होते हुये भी सफेद दिखायी देता है, पर अगर उसे विभाजित किया जाये, तो भिन्न-भिन्न रङ्गों से शोभित हो जाता है। उसी प्रकार पूर्ण कला युक्त भगवान् विश्वकर्मा पाँच ऋषि स्वरूप अनुपम शोभा को धारण करते हैं।
हे ऋषि ! जो ज्ञान स्वरूप हैं तथा समस्त इच्छित वस्तुओं को देने वाले हैं, ऐसे प्रभु विश्वकर्मा हम सबके रक्षक हैं और स्वयम् ही समस्त लोकों में व्याप्त रहते हैं। वे विश्व की तथा विश्व में रहने वाले सारे पदार्थों की उत्पत्ति के कारण रूप हैं तथा सत्कर्म करने वाले मनुष्यों के मार्ग दर्शक एवं उत्तम महिमा वाले हैं।
हे मुनियों ! संसार का कल्याण करने वाले तथा अनेक प्रकार के उपदेश देने वाले अनेक ज्ञानों का प्रचार करने वाले अविद्या का नाश कर विद्या को बढ़ाने वाले, अनन्त पौरुष वाले तथा और किसी की सहायता लिये बिना आलौकिक कर्म के करने वाले सर्वत्र व्याप्त प्रभु प्रकाश-स्वरूप होकर परमाणु के माध्यम से सारे विश्व के गति-स्वरूप हैं। सभी सर्वोत्तम पदार्थ तथा उत्तम क्रियाओं में सब का कल्याण करने वाले प्रभु विश्वकर्मा व्याप्त हैं।
हे ऋषिगण ! भगवान् विश्वकर्मा के अद्भुत आख्यान को मैंने आपको विस्तारपूर्वक सुनाया। ऐसे पुराण पुरुष विश्वकर्मा का सामर्थ्य के अनुसार जो पूजन वन्दन करते हैं और उन्हीं की भक्ति में लीन रहते हैं, वे संसार के सभी बन्धनों से मुक्त होकर परमगति अथवा मोक्ष को पाते हैं। जो साधु सन्तों की सेवा में निरन्तर तन्मय रहते हैं, प्रभु उन्हें अपने चरणों में स्थान देकर उनकी सेवा दिन रात ग्रहण करते हुये उनकी सम्पूर्ण इच्छायें पूरी कर देते हैं।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वकर्मा माहात्म्य नामक बाईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। तेइसवां अध्याय
(विश्वकर्मा पूजन विधि)
हे शेष पन्नगश्रेष्ठ विश्वपूजां वद प्रभो ।
कदा केन प्रकारेण सविधिः कथ्यतां च मे।।
वात्स्यायनजी ने कहा- हे शेष नारायण! हे प्रभु! हे नागों में सर्वश्रेष्ठ स्थान ग्रहण करने वाले दण्डकारण्य में शौनक इत्यादि ऋषियों को सुतजी द्वारा कहे हुए प्रभु विश्वकर्मा जी का माहात्म्य मैंने जाना। हे देव! आदि पुरूष श्री विश्वकर्मा के पूजन से मिलने वाला उत्तम फल को भी जान लिया। इसलिए अब आप हमें उनके पूजन की विधि बताइए। प्रभु विश्वकर्मा का पूजन कब करें? पूजा स्थान की स्थापना किस प्रकार की जाए। ये सारी बातें मुझे विस्तार से जानने की इच्छा है। जिससे मेरे मन के सभी मनोरथ पूर्ण हों। उस अमोघ वाणी को सुनकर मन प्रफुल्लित हो और श्रवणेन्द्रिय पवित्र बने। प्रभु विश्वकर्मा के अगाध महात्म्य को समझने की शक्ति मिले, फिर भी मैंने बुद्धि के अनुसार थोड़ा बहुत समझ लिया। इसलिए मेरे मन में प्रभु के लिए असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। इसलिए हे शेष नारायण जी! आप मुझे उनके पूजन की विधि बताइए।
वात्स्यायनजी के इस युक्ति भरे वचन को सुनकर शेष नारायणजी ने कहा- हे वात्स्यायन! मैं उनकी पूजन विधि बता रहा हूँ, तुम ध्यान से सुनो। जिस समय ईला को राक्षस परेशान करने लगे। तब नैष्ठिक ब्रह्मचारी भगवान के परम भक्त नारदजी ने ईला को जो प्रभु के पूजन की विधि बतलायी थी, वही इस समय मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ। विधि से प्रभु का किया गया पूजन मनुष्यों को सभी दुःखों से मुक्ति प्रदान करता है। वे मनुष्य के सिर आए हुए सभी संकटों को दूर कर देते हैं। उस समय मनुष्य उत्तम सुख भोगता हुआ प्रभु के अनंत धाम को प्राप्त कर लेता है। प्रभु को न मानने वाला मनुष्य और उसके संतानों को दुःख देने वाला सदैव अधोगति को प्राप्त करता हुआ नर्क की भयंकर पीड़ा सहन करता है। उस पीड़ा का वर्णन करने से ही शरीर कांप उठता है। चार युगों में ये कलियुग एक ऐसा युग है, जिसमें कोई भी व्यक्ति भयंकर से भयंकर विपत्ति आने पर सच्चे मन से प्रभु विश्वकर्मा की थोड़ी देर के लिए भी भक्ति करेगा तो उसका संकट तो टल ही जाएगा, उसके साथ ही उसे अनेक प्रकार के सुख संपत्ति प्राप्त होगी। अक्षय दया के सागर भगवान विश्वकर्मा उस व्यक्ति का पल पल पर रक्षण करते रहेंगें।
शेष नारायण ने आगे कहा- हे वात्स्यायन! जिस समय ईला को राक्षस परेशान करने लगे. तब ईला की व्याकुलता बढ़ने लगी। कारण अपने पति की सेवा के लिए उसे बार-बार घर से बाहर निकलना पड़ता था। ऐसे समय में दुष्ट राक्षस उसको अकेले देखकर बेहद तंग किया करते, लेकिन पति परायणा ईला उस ओर कोई ध्यान न रखकर केवल पति सेवा में ही मन लगाती। देवयोग से एक बार वह उद्यान में फल लेने गई थी। उस समय वहां उसकी भेंट नारदजी से हो गई। नारदजी के द्वारा कुशलक्षेम पूछे जाने पर ईला ने आखों में आंसू भर उनसें सारी मुसीबत कह सुनाई। इसके साथ ही उनसे इस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय भी पूछा। उस समय ईला को घोर संकट में पड़ी हुई देखकर नारदजी बोले- हे सती! इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए तू भगवान विश्वकर्मा का पूजन कर। इसके साथ ही नारदजी ने प्रभु विश्वकर्मा के पूजन की सारी विधि कह सुनाई।
नारदजी ने उसे बताया- हे ईला! मैं तुझे प्रभु विश्वकर्मा के पूजन की सारी विधि बताता हूँ । तुम उसे ध्यान से सुनो। हर व्यक्ति को उन प्रभु की पूजा तो प्रतिदिन करनी ही चाहिए, यदि प्रतिदिन पूजन संभव न हो सके तो पर्वणी के दिन खास तौर से पूजन करना चाहिए। उस समय अपने हृदय में निरंतर प्रभु की मूर्ति धारण कर उनके नाम का उच्चारण करना चाहिए।
उस दिन प्रातःकाल ही उठकर शौचादि से निवृत्त होकर किसी उत्तम वृक्ष के नौ अंगुल लंबे दातून से दाँत साफ करना चाहिये। तत्पश्चात् तीर्थ क्षेत्रों में जाए और वहां यदि ठंडे पानी से स्नान न कर सके तो गरम पानी से ही स्नान करें। इस नित्य कर्म को निपटाने के बाद ही प्रभु विश्वकर्मा के पूजन की तैयारी करनी चाहिए। पूजन के पूर्व सभी को स्वच्छ किया हुआ उत्तम वस्त्र पहनना चाहिए। पीठा कर अथवा ऊन, बोरी एवं पवित्र चर्म का आसन बिछाकर उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। अपने सामने एक चौकी या आसन रखें। फिर उस पर चावल का ढेर रखकर चावल से कमल का आकार बनाए तथा कमल के बीच में प्रभु विश्वकर्मा का विग्रह रखकर उसके दोनों ओर दीप जलाएं। अपने दाएं हाथ की ओर तेल तथा बाएं हाथ की ओर घी का दीपक रखें। इतना करने के बाद ही पूजन आरंभ होना चाहिए।
पूजा के पूर्व निम्नलिखित मंत्र बोलकर तीन बार आमचन करें। मंत्र इस प्रकार है -
ॐ त्वष्ट्रे नमः। ॐ धाये नमः। ॐ विश्वकर्मणे नमः।
यह मंत्र बोल कर हर बार हाथ में जल लेकर पी लें। तत्पश्चात् ॐ विश्वरूपाय नमः कह कर हाथ धो डाले। इसके बाद आठ बार ॐ विश्वकर्मणे नमः का जाप करना चाहिए। इस मंत्र के जाप करने के पश्चात् निम्नलिखित मंत्र बोलकर तिलक करें।
स्वस्ति मेऽस्तुं द्विपादेभ्यः चतुष्पादेभ्य एव च।
स्वस्त्यस्त्व पादकेभ्यश्य सर्वेभ्यः स्वस्ति सर्वदा।।
इस प्रकार उपर्युक्त मंत्र पढ़कर अपने मस्तक में तिलक करें। फिर दोनों हाथ जोड़कर आगे कहे मंत्र बोलकर सभी देवताओं को नमस्कार करें।
ॐ गणेशाय नमः।
ॐ सरस्वत्यै नमः।
ॐ विश्वकर्मणे नमः।
ॐ सर्व देवोभ्यो नमः।
ॐ सर्व ब्रह्मणोभ्यो नमः।
इसके बाद दोनों हाथ जोड़कर गणपतिजी का मन में ध्यान करके प्रणाम करें।
लम्बोदर विरूपाक्षं त्रिनेत्रं च चतुर्भुजं।
गणेशं पार्वतीपुत्रं नमामि विघ्नोपशान्तये।।
गणपतिजी को प्रणाम कर हाथ मे जल संकल्प करें।
विश्वकर्मा, विश्वदेव, अथत्यादि मासोत्तसे उस मास का नाम, पक्ष तिथि वासरे, मम सकल दुःख शान्तिपूर्वक, उत्तम सकल सुख प्राप्ति अर्थ च चतुर्विध पुरूषार्थ सिद्धि अर्थ प्रभु श्री विश्वकर्मा पूजनमहं करिष्ये।
ऐसा कहकर जल गिरा दें। इसके पश्चात हाथ में चावल लेकर पृथ्वी माता का ध्यान करके नीचे वाला मंत्र पढ़ें।
पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनं।।
इस प्रकार बोलकर पृथ्वी पर चावल डालें। तदोपरांत जल से भरे पात्र पर निम्नलिखित मंत्र पढ़कर चावल डालें।
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिं कुरू।।
इसके बाद निम्न मंत्र पढ़कर दोनों दीपों का पूजन करें।
भो दीप! देव रूपस्त्वं कर्मसाक्षी प्रसीद मे।
यावत्कर्म करोम्यत्र तावत्वं सुस्थिरो भव।।
यह मंत्र बोलकर दीप पर चंदनयुक्त पुष्प तथा चावल डालें और फिर घंटी बजाकर घंटी का पूजन करें। उस समय नीचे लिखे मंत्र को पढ़ें।
आगमार्थ तु देववानां गमनार्थ तू रक्षसाम्।
घण्टानादं प्रकुर्वीत पश्चात् घण्टा प्रपूज्यते।।
इस प्रकार मंत्र पढ़कर पहले घंटी का नाद करें, फिर शुद्ध जल से घंटी को नहलाकर, स्वच्छ वस्त्र से साफ करें। फिर चंदन, पुष्प, चावल आदि से उस घंटी का विधिपूर्वक पूजन करके उसे उसके यथास्थान पर रखें।
इतना करने के बाद भगवान विश्वकर्मा का पूजन करें। जो व्यक्ति साधन संपन्न हो और भगवान का पूजन विस्तार से करने का इच्छुक हो उसे सबसे पहले गणेशजी, सोलह मातृका चौसठ भैरव, नवग्रह, वास्तु आदि सभी देवताओं का भिन्न भिन्न रूप से पूजन करना चाहिए। जो व्यक्ति साधन संपन्न न हो और विस्तार से भगवान का पूजन करने की क्षमता न रखता हो उसे देवताओं को मन ही मन नमस्कार करना चाहिए। फिर नीचे बताई हुई विधि से भगवान विश्वकर्मा का पूजन करना चाहिए।
अथ विश्वकर्मा पूजन
पूजन सामग्री -
मंडप, मृण्मय कलश, ताम्र कलश, हवन वेदी, नवग्रह वेदी तथा प्रधान वेदी, विश्वकर्माजी की प्रतिमा (धातुमयी, मृण्मयी या चित्रमयी) होनी चाहिए। होम-द्रव्य तथा पूजा-द्रव्य के लिए निम्नलिखित सामग्री आवश्यक है -
नारा, रोरी, सिंदूर, अबीर चंदन, कस्तूरी, केसर बुक्का, मेंहदी का चूर्ण, पीली सरसों, अक्षत, सुपारी, पान का पत्ता, पुष्प, माला, तुलसीदल, विल्वपत्र, धूपबत्ती, कच्चा सूत, रूई, कपूर, पेडा (मिठाई), बताशा या गुड या चीनी, ऋतुफल, नारियल, पंचामृत (दूध, दही, मधु, घृत, शर्करा) , पंचगव्य (गोबर, गोमूत्र, दही, दूध, घृत), गंगाजल, सप्तधान्य, यव, काला तिल आदि सर्वोषधि, सप्तमृत्तिका हवन सामग्नी, गो घृत, घृत पात्र (कटोरी), पंचपात्र, कुशासन, द्वार कलश, यज्ञोपवीत दीया, दियलिया, ढकनी, पुरवा, पत्तल, हंडिया, कदली-स्तम्म, अशोक की पत्ती, पंचपल्लव, कुश, समिधा वरण-द्रव्य, धोती, अंगौछा, चदर, आसनी, चौकी, जलपात्र, लोहे का निहाय, हथियार, विविध शस्त्र, इत्यादि।
सर्वप्रथम दोनों हाथ जोड़कर निम्नलिखित मंत्र को पढ़ें तथा भगवान के अलौकिक स्वरूप का ध्यान रखें।
कंवा सूत्रांबुपात्रं वहति कस्तले पुस्तकं ज्ञानसूत्र।
हंसारूढस्त्रिनेत्र शुभमुकुट शिर सर्वतो वृध्य कायः ।।
त्रैलोक्यं येन सृष्टिं सकल सुरगृहं राजहर्म्यादि हर्म्य।
देवौ सौ सूत्रधार जगदखिल हितः ध्यायते सर्वसत्वैः ।।
जिसने अपने एक हाथ में कांबी, दूसरे हाथ में सूत्र, तीसरे हाथ में कमण्डल तथा चौथे हाथ में सम्पूर्ण ज्ञान सूत्रों के भण्डार से परिपूर्ण पुस्तक धारण किया है, जो हंस पर विराजमान हैं एव त्रिनेत्रयुक्त हैं। जिनके मस्तक पर मुकुट सुशोभित हो रहा है तथा एक समान हृष्ट पुष्ट हैं। तीनो लोकों के निर्माणकर्ता, सभी देवताओं में श्रेष्ठ, राजा तथा सर्वमान्य प्रजा-जनों के निवास स्थान के रचयिता, समस्त जगत का कल्याण करने वाले सूत्रधार प्रभु विश्वकर्मा का सभी प्राणी प्रेमपूर्वक ध्यान किया करते हैं।
इस प्रकार विश्वकर्मा प्रभु के स्वरूप का ध्यान करके उनका आवाहन करने के लिए हाथ में चन्दन, पुष्प तथा चावल लेकर मंत्र पढ़ें।
आवाहयामि देवेश विश्वकर्मन् जगद्गुरो।
गृहीत्वा पूजनं नाथ मम सौख्यं विवर्धय।।
हे देवाधिदेव! हे जगद्गुरू! हे नाथ! हे विश्वकर्मा! मैं आपका आवाहन करता हूँ। यहाँ पधारकर तथा कृपा करके मेरा अर्पण किया यह पूजन आप स्वीकार करें तथा मेरे सुख और कल्याण को बढ़ावें।
ऐसा बोलते हुए देव का आवाहन करने की भावना से हाथ में लिए हुए चन्दन व पुष्प उन पर चढ़ाएं।
हाथ में चावल लेकर देव को आसन अर्पित करने की भावना से निम्न मंत्र पढ़ें।
रम्यं दृढं नवं दिव्यं चंदनाच्च विनिर्मितं।
आसनं देवदेवेश गृहाणत्वं प्रसीद मे।।
हे देवताओं के देवता! चन्दन की लकड़ी से बना अत्यंत सुंदर नवीन यह दिव्य आसन है। इसे आप स्वीकार करके मुझ पर प्रसन्न हों।
ऐसा कहकर प्रभु को आसन अर्पण करने की भावना से हाथ में रखे हुए चावल उन पर चढ़ाएं।
पाद्य का मंत्र -
उष्णशीत समोपेतं जलं पाद्यार्थमर्पितम्।
विश्वकर्मन् गृहाणत्वं मम सौख्यं सदा वह।।
हे विश्वकर्मा! मैनें समान रूप से गर्म तथा ठण्डे जल को मिलाकर आपके चरण धोने के लिए आपको अर्पित किया है। उस जल को आप ग्रहण करें और हमारे सुख-समृद्धि को बढ़ावें।
इस मंत्र से प्रभु के चरण धोने हेतु जल अर्पण करें। फिर निम्न मंत्र से अर्घ्य दें। अर्घ्य देने के लिए हाथ में जल लेकर उसमें चन्दन, पुष्प, चावल, फल, दक्षिणा आदि रख कर निम्न मंत्र का उच्चारण करें।
अर्घ्य गृहाण देवेश! सफलं परमं शुमम्।
तेन त्वं भव सुप्रीतो वरदः फलदः सदा।।
हे प्रभु! फल तथा जल युक्त परम शुभ अर्घ्य ग्रहण करें तथा उससे हम पर प्रसन्न होकर उत्तम फल तथा सदा वरदान देने वाले हों।
आचमन का मंत्र -
सुगन्धिद्रव्य संयुक्तं तीर्थान्नीतं शुभं जलम्।
आचम्यतां महादेव प्रसन्नो भव सर्वदा।।
हे महान देव! सभी तीर्थों में से लाया हुआ सुगन्धित पदार्थों से संयुक्त जल आचमन करने के लिए आप ग्रहण करें तथा हम पर प्रसन्न हों। ऐसा कहकर प्रभु को आचमन हेतु जल अर्पण करें।
स्नान के लिए नीचे लिखा गया मंत्र पढ़ें -
कोटितीर्थ समानीतं शतोष्णं सुखदयमा।
स्नानर्थ तव देवेश जलं त्व प्रतिगृह्यताम्।।
हे देवेश! आपके लिए मैं सभी तीर्थों से शीतोष्ण स्नान हेतु जल अत्यंत सुख देने वाला ले आया हूँ। आप इसे स्वीकार करें। यह मंत्र बोलकर प्रतिमा को स्नान कराएं।
पंचामृत का मंत्र -
कृष्णधेनुं समुद्भूतं दधिदुग्धयुतं घृतं।
शर्करा मधु संयुक्तं स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम्।।
हे देव! कपिला गाय से उत्पन्न दूध, दही तथा घृत से युक्त एवं शहद और शक्कर मिला यह पंचामृत मैं आपको स्नान के लिए अर्पित करता हूँ। इसे आप स्वीकार करें।
इस मंत्र से प्रभु की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराएं।
शुद्ध जल स्नान का मंत्र -
तीर्थोदमूतं महत्पुण्यं जलं स्फटिक सदृशम्।
शुद्धस्नानार्थमानीतं गृहाण जगदीश्वरं।।
हे जगदीश्वर! तीर्थस्थानों में उत्पन्न अत्यन्त पुण्यकारक स्फटिक तुल्य शुद्ध जल आपके स्नान के लिए मैं लाया हूँ। आप इसे स्वीकर करें। यह मंत्र बोलकर प्रभु का स्नान तब शुद्ध जल से कराना चाहिए।
गंधोदक मंत्र -
सर्व सौगन्ध संयुक्तं सर्व सौख्यकरं परम।
गंधोदकं गृहाणेदं मया प्रीत्या समर्पितम्।।
हे प्रभु! सभी सुगन्धित पदार्थों से युक्त और अनेक प्रकार के सुख देने वाले सुगन्धित जल को मैं आपके स्नान के लिए प्रेमपूर्वक अर्पित करता हूँ, आप स्वीकार करें। इस मंत्र से देव को सुगन्धित जल से स्नान कराना चाहिए। तत्पश्चात् शुद्ध जल से देव को स्नान कराकर चंदन, पुष्प आदि से पूजन करें।
तत्पश्चात् हाथ में जल लेकर -
"अनेन पंचामृत पूजनेन भगवान विश्वकर्मा प्रीयतां न मम।"
ऐसा कहकर जल गिरा दें। फिर भगवान को चढ़ाएं। तत्पश्चात् विश्वकर्मा उपनिषद का पाठ करें तथा पाठ करने तक भगवान की मूर्ति पर सुगन्धित जल से अभिषेक करने के बाद पूर्व में बताए शुद्ध जल मंत्र का उच्चारण करके देव को शुद्ध जल से स्नान कराएं। इसके पश्चात उत्तम वस्त्रों से प्रतिमा को साफ करके उसे यथा स्थान पर रख दें। फिर पहले बताए गए विधि अनुसार पूजन करें। उसमें सर्वप्रथम निम्नलिखित मंत्र से प्रभु को वस्त्र अर्पण करें।
बिसतन्तु मयं शुभ्रं काशेयं पीतवर्णकम्।। वस्त्रं गृहाणं देवेश मया मक्तया समर्पितम्।।
हे देवेश! बिसतन्तु से बनाया गया पीले रंग का स्वच्छ रेशमी वस्त्र मैं भक्तिपूर्वक आपको अर्पण करता हूँ। आप ग्रहण करें।
यज्ञोपवीत का मंत्र -
ब्रह्मसूत्रं परं पुण्यं धर्मकर्मविवर्धकम्।
धर्मकर्मार्थसिद्धयर्थ दत्तं ते प्रतिगृह्यताम्।।
हे देव! धर्म, कर्म तथा अर्थ की सिद्धि के लिए अत्यन्त पुण्यकारक धर्म और कर्म को बढ़ाने वाले ब्रह्मसूत्र रूपी यज्ञोपवीत (जनेऊ) मैं आपको अर्पित करता हूँ। आप ग्रहण करें। इस प्रकार मंत्र उच्चारण कर भगवान को उत्तम सूत का बना जनेऊ अर्पण करें।
चन्दन का मंत्र -
चन्दनं चारूगन्धं च मलयाचल संभवम्।
विलेपनार्थ ते दत्तं गृह्यतां परमेश्वरं।।
हे देव! मलयाचल से उत्पन्न अनेक प्रकार के सुगन्धित चंदन को आपके लेपन करने के लिए तैयार किया है, इसे हे परमेश्वर ग्रहण करें।
पुष्प का मंत्र -
उद्यानोभूत पुष्पाणि चित्राणि विविधानि च।
गृहाण परमेशान मालायं गुंफितानि वै।।
हे परमेश्वर! भिन्न भिन्न रंगों वाले पुष्प जो उद्यानों में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें आप ग्रहण करें। आपके लिए गूंथी पुष्पों की माला को भी आप ग्रहण करें। यह मंत्र पढ़कर माला समर्पण करें।
सौभाग्य द्रव्य मंत्र -
नानावर्ण समायुक्तं नृणां सौमाग्यदं परम।
मया प्रीत्या प्रदत्तं च तत्वं संगृह्यतां विभो।।
मनुष्य को उत्तम प्रकार का सौभाग्य अर्पण करने वाले अनेक रंगों से शोभायमान सौभाग्य द्रव्य को मैं अर्पण करता हूँ। हे विभो! आप इसे स्वीकारें। इस तरह मंत्र का उच्चारण करके अबीर, गुलाल, सिन्दूर हल्दी, कुमकुम आदि सौभाग्य द्रव्य अर्पित करें।
धूप का मंत्र -
तगरं च जटामांसी गुग्गुलागरू संयुतं।
धूपं गृहसण देवेश सौख्यं मे विवर्धय।।
हे देवेश! तगर, अगर, जटामांसी, गुग्गुल आदि से युक्त उत्तम प्रकार का धूप ग्रहण करके आप मेरे सुख को बढ़ावें। इस मंत्र से देव के समक्ष धूप रखें।
दीप का मंत्र -
कार्पासवर्तिना युक्तं घृततैल समन्वितं।
दीपं च देवदेवेश शांत्यर्थ प्रति गृह्यताम्।।
जिसमें रूई की बत्ती रखी है तथा घी एवं तेल भरा है, ऐसे दीप को ग्रहण कर हे देवाधिदेव! मेरे सुख को बढ़ावें।
नैवेद्यं का मंत्र -
नैवेद्यं विधिवहेव पाचितं पयास किल।
घृतशर्कस्या युक्तं गृह्यतां च प्रसीद मे।।
हे देवाधिदेव! विधिपूर्वक दूध, घी तथा शक्कर से बनाया गया नैवेद्य आप स्वीकार करें और मुझ पर प्रसन्न हों। ऐसा कहकर प्रभु को नैवेद्य दें। नैवेद्य के थाल में तुलसी पत्र डालें एवं प्रभु को खिलाने की भावना रखें।
ऊँ प्राणाय नमः। ऊँ अपानाय नमः। ऊँ व्यानाय नमः।
ॐ उदानाय नमः। ॐ समानाय नमः।
इन्हें बोलकर प्रभु को खिलाने के पश्चात् ' पानीयम् ' कहकर पानी एक बार रखने के बाद फिर उपयुक्त पाँच मंत्रों से प्रभु को पाँच बार खिलायें।
उत्तरापोषणम्। हस्त प्रक्षालनम्। मुख प्रक्षालनम्।
ऐसा बोलकर तीन बार पानी रखें। इतना करने के बाद हाथ स्वच्छ करने के लिए चंदन अर्पण करने के पश्चात् मुखावास अर्पण करना चाहिए।
मुखावास का मंत्र -
ऐला लवंग संयुक्तं कर्पूरादि समन्वितम्।
पुगीफल समायुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्।।
इलायची, लौंग, कपूर तथा सुपाड़ी आदि अनेक उत्तम पदार्थों से बनाए गए ताम्बूल को ग्रहण करें।
दक्षिणा का मंत्र -
सौवर्णी राजती वापि दक्षिणा फलहेतवे।
मया दत्ता गृहाणेनं प्रसन्नो भव सर्वदा।।
हे देव! आपको मैं स्वर्णमय एवं रजतमय दक्षिणा देता हूँ। इसे ग्रहण करें एवं मुझ पर सदा ही प्रसन्न रहें।
अलंकार का मंत्र -
कुण्डले मुकुटं मुद्रां पादुके व्यजनं तथा।
छत्रं आदर्शकं चैव मणिमाला प्रतिगृह्यताम्।।
हे नाथ! कुण्डल, मुकुट, मुद्रा, पादुका, तलवार, छत्र, माप के अनुसार शीशा तथा मणि की माला आदि उत्तम अलंकार ग्रहण करें। इस मंत्र से अलंकार दें।
आयुध मंत्र -
कुंवा परसु संयुक्तान्यायुधानि प्रतिग्रह्यताम्।
देव मानव कार्यार्थ विचित्र सृष्टि हेतवे।।
हे देव! देवता तथा मनुष्यों के कार्यों की सिद्धि के लिए अनेक प्रकार की विचित्र रचना उत्पन्न करने के लिए कांबी, परशु आदि उत्तम आयुध को आप स्वीकार करें।
प्रदक्षिणा मंत्र -
प्रदक्षिणा सदा कार्या पवित्रार्थस्य सिद्धये।
सर्वपापा मुच्यान्नरो मुच्यते कर्म बन्धनात्।।
हे देव! सदैव पवित्र अर्थ की सिद्धि के लिए प्रदक्षिणा करना अत्यंत आवश्यक है और आपकी प्रदक्षिणा से मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म बन्धनों एवं पाप से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार उच्चारण करके प्रभु की प्रदक्षिणा करें।
नीराजन मंत्र -
नीराजनमहं कुर्वे दीपेन कर्पूरेण वै।
सदास्मान्रक्ष देवेश प्रसीद परमेश्वर।।
हे देवेश! मैं दीप तथा कपूर से आपकी आरती उतारता हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न हों और हमेशा हमारी रक्षा करें। इस मंत्र से प्रभु की आरती उतारें।
तदुपरांत आरती के चारों ओर जल घुमाकर अपने हाथों से देव को आरती दें। फिर स्वयं आरती लें। इसके बाद हाथ धोकर हाथ में पुष्प लेकर पुष्पांजलि का मंत्र बोलें।
विश्वकर्मन् गृहाणेदं मंत्रपुष्पं मयार्पितम्।
मम मंत्रस्य सिध्यर्थ प्रसीद परमेश्वर।।
हे विश्वकर्मा जी! मेरे मंत्र की सिद्धि के लिए मेरे द्वारा अर्पित की गई पुष्पांजलि को आप ग्रहण करें तथा हम पर सदा प्रसन्न होकर हमारे कार्यों को सिद्ध करें। फिर दोनों हाथ जोड़कर प्रभु की प्रार्थना करें।
प्रार्थना का मंत्र -
निरंजनं निराकारं निर्विकल्पं निरूपकम्।
निराधारं निरालम्वं निर्विघ्नात्मन्नमो नमः।।
अनादि यत्प्रमाणं च अरूपं च दयास्पदम्।
त्रैलोक्यमय नामत्वं विश्वकर्मन्नमोस्तुते।।
मायादि अंजनविहीन अवयवों से रहित होने के कारण बिना किसी आकार के कल्पना से भी परे और रंग रूप विहीन, किसी भी आधार का सहारा लिए बिना, सबको सहारा देने वाले, विघ्नो को दूर करने वाले, सत्त्व स्वरूप आपको मेरा नमस्कार हो। जिस प्रमाण से अनादि हो, रूप विहीन हो, दया के सागर हो तथा तीनों लोकों में व्याप्त यश कीर्ति वाले हो, ऐसे प्रभु श्री विश्वकर्मा जी को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार प्रभु का पूजन वंदन करने के पश्चात उनके सामने उचित उपहार रखें फिर अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रभु विश्वकर्मा के अष्टाक्षर मंत्र का जप करें अथवा पांच ब्रह्म मंत्रों का जप करें। इस प्रकार भगवान श्री विश्वकर्मा की पूजन विधि सर्वोत्तम है।
नारदजी ने आगे कहा- हे सती ईला! तुझ पर जो मुसीबत आई है, उससे बचने का यही सीधा और सरल उपाय है। अतएव तू अपने पति की आज्ञा लेकर प्रभु विश्वकर्मा की पूजा की तैयारी कर कारण कि दैवज्ञ विश्वकर्मा अपने भक्तों के ऊपर परम दया का भाव रखते हुए दिन रात उनके कल्याण के लिए तैयार रहते हैं। उनकी पूजा से मनुष्यों की सभी मनोवांछित इच्छाएं पूरी होती हैं।
इसके बाद नारदजी उनके सामने से अंतर्ध्यान हो गए और ईला उस पूजन विधि को अच्छी तरह समझ लेने के बाद अपने घर लौटी। घर आकर उसने अपने पति की आज्ञा लेकर प्रभु विश्वकर्मा के पूजन में तत्पर हो गई।
इतना कहने के बाद शेष नारायण जी बोले- हे वात्स्यायन! आपने मुझसे जिस प्रकार का प्रश्न किया, मैनें उन सभी का उत्तर उसी प्रकार दे दिया। भगवान विश्वकर्मा अपने भक्तों पर सदैव कृपालु रहते है। वे दया के सागर है। जो मनुष्य सच्चे हृदय से उनकी आराधना करता है, उसे वे हर तरह का सुख वैभव प्रदान करते हैं। प्रभु विश्वकर्मा का इस प्रकार का पूजन मनुष्यों की यश कीर्ति, धन, वैभव बढ़ाती है। भवन की इच्छा रखने वाला व्यक्ति भवन प्राप्त करता है तथा कला की इच्छा रखने वाला कला पा लेता है। जो मनुष्य मुसीबत में होते हैं, उन्हें मुसीबतों से छुटकारा मिल जाता है। इस तरह से पुराण पुरूष विश्वकर्मा जीवों पर आए हुए सभी संकट को दूर करके उन्हे उत्तम फल प्रदान करते हैं।
हे वात्स्यायन! आपने यह भी जिज्ञासा की थी कि प्रभु का पूजन कब करें तो उसके समाधान के लिए यह उत्तर है कि प्रत्येक शास्त्रों और पुराणों जो बड़े बड़े महर्षियों के कथन है, उसके अनुसार धर्म कार्य करने में ढील न करें। मनुष्य के मन में जब भी भक्ति उत्पन्न हो, वह एक क्षण भी विलम्ब किए बिना प्रभु की पूजा में रत हो जाए। प्रभु का पूजन मनुष्य अपने ढंग से कर सकता है। उसके लिए कोई मुहूर्त आदि देखने की आवश्यकता नहीं है। इतना कर लेने पर भी पर्वणी के पुण्य दिन पर प्रभु का पूजन विशेष रूप से होना चाहिए। श्रावण महीने की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा एवं माघ मास की शुक्ल पक्ष पंचमी तथा इसके अलावा प्रत्येक महीने की अमावस्या प्रभु पूजन के निमित्त विशेष दिन माने जाते हैं। इन दिनों प्रभु का पूजन करने वाला हर व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक रह कर सुख वैभव को प्राप्त करता है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वकर्मा पूजन विधि नामक तेईसवां अध्याय संपूर्ण ।। चौबीसवाँ अध्याय
(विश्वकर्मोपनिषद्)
वद सूत महाविद्या विश्वकर्म स्वरूपिणि ।
येन स्वर्गं च धर्मं च प्राप्यते चात्र जंतुभिः॥
ऋषि ने कहा - हे सूतजी ! विराट प्रभु की महाविद्या ही प्रभु का स्वरूप माना जाता है। उसके स्तवन वन्दन से मनुष्य को सभी इच्छित फल प्राप्त होते हैं। लेकिन अब हमें यह बताने की कृपा करें कि स्वर्ग और धर्म कैसे प्राप्त होता है ? हे सूतजी ! इस उत्तम विद्या को सुनने की हमारी बड़ी अभिलाषा है। अतएव प्रभु श्री विश्वकर्मा के उस पवित्र एवम् गुप्त ज्ञान को हमें बतायें । उनके स्वरूप के समान ही विश्व कर्मोपनिषद् का ज्ञान सुनने की हमारी बड़ी इच्छा है।
सूतजी ने कहा - हे ऋषि ! पूर्व काल में जब देवताओं और ऋषियों के अनेक कार्यों को पूर्ण करने में परेशानी बढ़ने लगी तो प्रभु विश्वकर्मा ने एका-एक उनकी सारी परेशानियाँ जान लीं और फिर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होकर सृष्टि का कार्य पूर्ण करने हेतु सारा प्रबन्ध कर दिया । तब ऋषियों और देवताओं ने प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा को नमस्कार किया। उस समय ब्रह्मादि देवताओं के मुख से प्रभु विश्वकर्मा के बारे में जो स्तवन वचन निकले, वही विश्वकर्मोपनिषद् कहलाया। उन्हीं वचनों को मैं आप लोगों के समक्ष कहता हूँ।
विश्वकर्मोपनिषद्
प्रभु श्री विश्वकर्मा देव स्वयं देदीप्यमान तेज स्वरूप स्वयं प्रकाशित हैं। सर्वत्र शान्ति प्रदान करने में ही उनका ध्यान रहता है। समग्र विश्व में व्याप्त होने के कारण वे विश्व स्वरूप हैं। वे ही आदि हैं और वे ही अन्त हैं। ऐसे सारे जगत् के स्वामी भगवान् विश्वकर्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
हे सद्गुरु विश्वदेव आपको नमस्कार है ! हे विश्वकर्मन् ! हे सृष्टि के निर्माण करने वाले परब्रह्म एवम् परमात्मा आपको नमस्कार है। आप हमें हमारे ऊपर आने वाली सभी विपत्तियों से बचाइये । हमें कल्याण हेतु जो कुछ भी हमें प्राप्त होना है, वह सब हमें दिला दें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
प्रभु विश्वकर्मा जो परम कृपालु हैं, वे ही सभी दिशाओं के अधिपति हैं। उनका आधिपत्य हर स्थान पर रहता है। अतएव आप हमारा और हमारे पशु-धन का रक्षण करें। हे देवाधिदेव ! मैं आप को प्रणाम करता हूँ। आप ही प्रजागणों के अधिपति के रूप में व्याप्त होकर सारे सृष्टि का निर्माण करते हैं। आप ही रुद्र, वरुण और अग्नि के रूप में विद्यमान हैं। उस प्रभु की सहायता से हम अपना तथा अपने पशु-धन की रक्षा करने में समर्थ होते हैं।
जब उस विराट पुरुष विश्वकर्मा ने प्रजाओं के सर्जन की अभिलाषा की तो सबसे पहले उसने प्राण वायु को उत्पन्न किया उसके बाद, मन वाणी तथा समस्त इन्द्रियाँ उत्पन्न किया। इस तरह आकाश, वायु, अग्नि, जल व सारा सचराचर विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी उसी प्रभु के स्वरूप से उत्पन्न हुई।
उन्हीं प्रभु से ब्रह्मा, रुद्र, नारायण तथा अन्य प्रजापतियों की उत्पत्ति हुयी। भगवान् विश्वकर्मा से बारह सूर्य, ग्यारह रुद्र, आठ वसु तथा सभी ऋषि उत्पन्न हुये । वे सारे देवता विश्वकर्मा के रूप में रह कर वृद्धि पाते हैं तथा सदैव ब्रह्म में लीन रहते हैं।
वही एक विश्वकर्मा प्रणव स्वरूप शाश्वत रहने वाले हैं। अनेक नामधारी देवता विश्वकर्मा की ही विभूतियाँ हैं तथा विराट प्रभु विश्वकर्मा का ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ व्याप्त न हों। वे तीनों लोकों के अधिपति तथा सात लोकों सहित सारी सष्टि को ही अपने अन्दर समा लेने वाले सम्राट, स्वयं प्रभु विश्वकर्मा ही हैं।
विराट प्रभु विश्वकर्मा ही रुद्र, ब्रह्मा तथा विष्णु हैं। वही इन्द्र हैं। उन्हीं का स्वरूप पृथ्वी तथा आकाश है। वे हर विभागों में व्याप्त रहते हैं। दिशा विदिशा एवं अग्नि सब कुछ स्वयं विश्वकर्मा हैं। सबसे ऊपर सबसे नीचे रहने वाले वे ही प्रभु विश्वकर्मा हैं। उनका न कोई आकार है न रूप ।
सारा विश्व ही विश्वकर्मा का स्वरूप है। जो अभी तक उत्पन्न हुआ और जिसे उत्पन्न होना है वे सब विश्वकर्मा के ही स्वरूप हैं। न उनमें किसी प्रकार का कलङ्क है न दोष । वे कीर्ति रहित होकर भी कीर्ति को पाने वाले हैं। वे शुद्ध अद्वैत स्वरूप वाले हैं। उनके अलावा कोई अद्वितीय नहीं है। जो उनके स्वरूप को जान लेना समझा जाता है, समझ लेना चाहिये उसने उनके स्वरूप को पाया है।
सबसे पहले ॐकार का उच्चारण करें और उसके बीच नमः पद का उच्चारण करें सब के अन्त में विश्वकर्मा पद बोले । ॐ एक अक्षर है, नमः पद के दो, विश्वकर्मणे पद पाँच अक्षर का है। ॐ विश्वकर्मण , छः अक्षर का मन्त्र है। जब कि ॐ नमो विश्वकर्मणे अष्टाक्षर मन्त्र है।
जो व्यक्ति ॐ नमो विश्वकर्मणे इस अष्टाक्षर मन्त्र से प्रभु विश्वकर्मा का ध्यान करता है तथा उसका अनुष्ठान करता है। वह ब्रह्म वर्चस्व को पाता है। वह प्रजापति धन्य-धान्य तथा गायों का अधिपति होता है और मन्त्र की साधना करने वाला अमरत्व को प्राप्त कर देव तुल्य हो जाता है।
ॐकार रूप प्रभु विश्वकर्मा असीम आनन्द का भण्डार हैं। यह स्वरूप आकार, उकार तथा मकार तीन अक्षरों से बना है। इस ॐकार अथवा प्रणव का जप करने वाला संसार के सभी जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति पा जाता है।
ॐ नमो विश्वकर्मणे मन्त्र को जो निरन्तर जप करता है, वह प्रभु विश्वकर्मा की समीपता प्राप्त करता है। इस तरह प्रभु का स्वरूप परम विज्ञान स्वरूप है। अतएव प्रणव स्वरूप विश्वकर्मा का रूप ब्रह्म स्वरूप है।
जो प्राणी विश्वकर्मा के कलङ्क रहित स्वरूप को जान लेता है, उसे परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है। प्रभु के इस उपनिषद् का पाठ करने वाले को प्रभु विश्वकर्मा के परमधाम की प्राप्ति होती है।
प्रभु के इस उपनिषद् का पाठ करने वाले सभी व्यक्ति पापों से छुटकारा पा लेते हैं। इस उपनिषद को जानने वाला ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है। प्रभु विश्वकर्मा के इस उपनिषद् का महत्व अद्वितीय है।
सूतजी आगे बोले - हे शौनकादि ऋषि ! जब इस प्रकार देवों और ऋषियों ने प्रभु विश्वकर्मा की स्तुति की तब उससे प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा ने देवता, ऋषियों तथा मनुष्यों के सभी कार्य सिद्ध करने के लिये अनेक प्रकार की लीला करते हुये अनेक उत्तम रचनायें की तथा देवताओं को प्रसन्न करने वाले प्रभु विश्वकर्मा उत्तम आयुधों से सुशोभित हो उनके सामने ही ध्यानस्थ हो गये।
हे मुनियों ! इस परम पवित्र उपनिषद् का जो व्यक्ति पाठ करता है। वह सभी प्रकार के पापों से छुटकारा पा लेता है। प्रतिदिन जो इस उपनिषद् का पाठ करता है । वह समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है और उसकी सभी अभिलाषायें पूर्ण होती हैं। वह इसके पठन मात्र से सारी सिद्धियों को पा लेता है। प्रभु विश्वकर्मा से प्रीति करने वाले के अनेक जन्मों के पाप धुल जाते हैं। वह स्वर्ग के परम ऐश्वर्य को भोग कर अन्त में उत्तम गति को प्राप्त होता है।
जो स्वतः प्रकाशमान, शान्तिदाता और समस्त विश्व को उत्पन्न करने वाला और धारण करने वाला है। ऐसे प्रभु श्री विश्वकर्मा आदि और अन्त रहित होकर एकमात्र सारी सृष्टि के सृजनहार और पालनहार हैं। ऐसे परम दयालु परमात्मा की आराधना से सभी देवताओं की आराधना का फल मिलता है। एकनिष्ठ भाव से प्रभु विश्वकर्मा का पूजन करने वाले सभी धर्म कार्यों में सफल होते हैं और उसे सभी यज्ञों का फल मिलता है। विश्व में जितनी भी पुण्य प्रदायक क्रियायें हैं, उससे भी अधिक फलदायक प्रभु की आराधना से कौन व्यक्ति वंचित होना चाहेगा। जो व्यक्ति प्रभु की आराधना से परे रहते हैं, वे नर्कगामी होते हैं। उन्हें इतनी यातनायें और पीड़ा झेलनी पड़ती है कि उसे देखकर पाषाण हृदय भी पसीज उठे।
ऋषि यह सुनकर बोले - हे सूतजी! आपने हम लोगों को परम कल्याणकारी प्रभु विश्वकर्मा के बारे में जो कुछ बताया है, उसे जानकर हम लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। परम दयालु परमात्मा विश्वकर्मा की आराधना वास्तव में धर्म कार्य से भी विशेष है। इसलिये हम उनकी आराधना करने की इच्छा रखते हैं। अतः आप उन परमात्मा की आराधना के लिये मन्त्र आदि बताइये।
सूतजी ने कहा - परम कृपालु विश्वकर्मा जी तो स्वयं प्रकाशमान हैं तथा सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं इस लिये पण्डित गण उस प्रभु को प्रकाशमान परब्रह्म के रूप से जानते हैं।
प्रभु विश्वकर्मा के महामन्त्र के ऋषि, सानग, सनातन, अहभून, प्रत्न तथा सुपर्ण हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इस मन्त्र के छन्द हैं। ये भाग देवता श्री विश्वकर्मा ही हैं। इस मन्त्र का बीज ॐ परब्रह्म कीलकः और परब्रह्म श्री विश्वकर्मा प्रीत्यर्थे धर्म, अर्थ, ऐश्वर्य, काम, मोक्ष पाँच पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये प्रभु के अष्टाक्षर मन्त्र का जप करने के लिये संकल्प किया जाता है।
इस प्रकार संकल्प करने के पश्चात् अष्टाक्षर मन्त्र का न्यास करना चाहिये। इसके लिये यहाँ बताये गये निम्न मन्त्र बोलकर जल वाले हाथ का स्पर्श करना चाहिये।
ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः - ऐसा कहकर अंगूठे का स्पर्श करें।
ॐ तर्जनीभ्यां नमः - ऐसा कहकर तर्जनी अंगुली का स्पर्श करें।
ॐ परब्रह्मणे मध्यमाभ्यां नमः - ऐसा कहकर बीच वाली अंगुली का स्पर्श करें।
ॐ अनामिकाभ्यां नमः - ऐसा कहकर अनामिका अंगुली का स्पर्श करें।
ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः - ऐसा कहकर सबसे छोटी अंगुली का स्पर्श करें।
ॐ परब्रह्मणे करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः - ऐसा बोलकर हाथ की हथेली तथा तलवे का स्पर्श करें।
इस प्रकार करन्यास करें। तत्पश्चात् हृदयादि षडन्यास करें।
ॐ हृदयाय नमः - हृदय को स्पर्श करें।
ॐ नमः शिरसे स्वाहा- सिर को हाथ से स्पर्श करें।
ॐ परब्रह्मणे शिखायै वषट् - शिखा को स्पर्श करें।
ॐ नमः कवचाय हुम् - दोनों कन्धों का हाथ से स्पर्श करें।
ॐ नमः नेत्र त्रयाय वौषट् - आखों को स्पर्श करें।
ॐ परब्रह्मणे अस्त्राय फट - ऐसा कहकर मस्तक के चारों ओर चुटकी बजाकर हाथ गोल करके फिर तीन बार ताली बजाइये।
ॐ भूर्भुव: स्व: मार्जन: ॐ - ऐसा बोलकर सभी दिशाओं में चावल डालकर दिशाओं का बन्धन करने की भावना रखें। तदुपरान्त परब्रह्म स्वरूप प्रभु श्री विश्वकर्मा का निम्न मन्त्र से ध्यान करें।
सत्य ज्ञान सुख स्वरूपमल पंचानन पावनम् ।
वेदांते प्रतिपाद्यमान विभवं विश्वैक निर्मातरम् ॥
सर्वप्राणी मनोतरस्त प्रसवं सर्वात्मकं सर्वदा।
वंदे देवमहर्निशं हृदिमुदा श्री विश्वकर्माभिदं ॥
सच्चिदानन्द स्वरूप प्रभु जिनका स्वरूप सत्य, ज्ञान तथा सुखमय है एवम् जो पाँच मुख वाले हैं, जिनके वैभव का वर्णन वेदांतों से सिद्ध है, ऐसे समस्त जगत् के एकमात्र निर्माता तथा सभी प्राणियों के हृदय में रहने वाले और जिनसे ये सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, ऐसे विश्वकर्मा देव को सर्वदा प्रसन्न-चित्त से मैं प्रणाम करता हूँ।
इस प्रकार प्रभु का ध्यान करके मानसिक उपचारों से आगे बताये गये अनुसार पूजन करने की भावना करें। दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोलें -
श्री विश्वकर्मा को नमस्कार हो। मैं आपको पृथ्वी रूपी चन्दन अर्पण करता हूँ।
श्री विश्वकर्मा को मैं नमस्कार करता हूँ, मैं आपको आकाश रूपी पुष्प अर्पण करता हूँ।
श्री विश्वकर्मा को नमस्कार हो। मैं आपको वायु रूपी धूप अर्पण करता हूँ।
श्री विश्वकर्मा को नमस्कार हो। मैं आपको तेज रूपी दीप अर्पण करता हूँ।
श्री विश्वकर्मा को नमस्कार हो। मैं आपको अमृत रूपी नैवेद्य अर्पण करता हूँ।
श्री विश्वकर्मा को नमस्कार हो। मैं आपको सोमात्मक ताम्बूलादि अर्पण करता हूँ।
इस प्रकार प्रभु का पूजन करके महामन्त्र का १०८ बार जप करें।
ॐ नमः परब्रह्मणे।
जप पूर्ण होने के बाद किया गया कर्म प्रभु को अर्पण करें। तत्पश्चात् पुनः बताये गये अनुसार प्रभु की मानसिक पूजा करें तथा न्यास भी पुन: करें। तदुपरान्त जिस प्रकार दिशाओं का बन्धन करने के लिये चावल डाले थे, उसी प्रकार फिर से चावल डालकर बन्धन छुड़ा डालें। परम्परा के अनुसार मस्तक पर तिलक करें।
हे ऋषि ! इस प्रकार विश्वकर्मा प्रभु के अष्टाक्षर महामन्त्र का जो मनुष्य सेवन करते हैं। वे अनेक प्रकार के सुख की प्राप्ति करते हैं और विश्वकर्मा का अनुग्रह प्राप्त कर सभी पापों से मुक्त होकर जीवन का ऐश्वर्य भोगने के बाद प्रभु के परम पद को पाते हैं। इस अष्टाक्षर मन्त्र के पुरश्चरण के लिये इसके जप की संख्या आठ लाख मन्त्र की है। जप करने के बाद अस्सी हजार मन्त्र की घृत तथा पायस से अग्नि में आहुति दें। आठ हजार मन्त्र से मार्जन करें और आठ सौ मन्त्र से तर्पण करें तथा अस्सी ब्राह्मणों को भोजन करायें या यथाशक्ति भोजन के बदले दान दें। ऐसा करने से इस महामंत्र की सिद्धि होती है। जो व्यक्ति इस महामंत्र को सिद्ध करते हैं, उन्हें इस सृष्टि में सर्व सुख एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
सिद्ध महामन्त्र से व्यक्ति शान्ति पौष्टिक आदि छः कर्मों की साधना कर सकता है। वह व्यक्ति अनेक प्रकार के अलौकिक भोग-वैभव आदि भी प्राप्त करता है और अनेक प्रकार के सुख भोगकर प्रभु में अन्तत: लीन हो जाता है। इस प्रकार इस महामन्त्र को सिद्ध करने वाले साधक धर्म, अर्थ, काम, ऐश्वर्य तथा मोक्ष पाँच पुरुषार्थों की सिद्धि को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। हे ऋषि ! छः शास्त्रों का अध्ययन करने वाले, षटकर्म करने में कुशल आप लोगों को और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु संक्षेप में इस महामन्त्र को जानने वाले व्यक्ति इस जगत में साक्षात् परब्रह्म स्वरूप ही हैं। इसे ऐसा समझना चाहिये।
सूतजी आगे बोले - हे ऋषि ! मैंने आपको प्रभु विश्वकर्मा के अष्टाक्षर महामन्त्र की विधि बतायी । अब आप विश्वकर्मा गायत्री का श्रवण करें। शास्त्रों में जिनका उल्लेख है। ऐसे विश्वकर्मा गायत्री मन्त्र मनुष्य को अनेक प्रकार की सिद्धि, सुख तथा वैभव देने वाला है। इस मन्त्र को सिद्ध करने वाले भी इस मन्त्र से अनेक कर्म सिद्ध करके इस संसार में परम सिद्ध की पदवी को प्राप्त होता है और वह प्रभु के परम पद को भी प्राप्त करता है।
ॐ सर्वरूपाय विद्महे विश्वकर्मणे धीमहि तन्नो परब्रह्म प्रचोदयात्।
इस प्रकार का श्री विश्वकर्मा गायत्री मन्त्र पुरश्चरण से सिद्ध करने वाले मनुष्य सिद्ध बनते हैं। प्रत्येक विश्वकर्मा भक्त को प्रतिदिन नियमित विश्वकर्मा गायत्री का जप करना चाहिये। विश्वकर्मा के अनुयायी तथा परम भक्तों के लिये विश्वकर्मा गायत्री परम तेज स्वरूप तथा आयुष्य, यश, बल और धन की वृद्धि करने वाला तथा विश्व में अनेक प्रकार के सुख वैभव देकर मनुष्य को प्रभु के परम पद का अधिकारी बनाने वाला होता है।
श्री विश्वकर्मा प्रभु के गायत्री मन्त्र की सारी विधि मैंने आपसे कही। आपको मनुष्यादि पाँच ब्रह्मर्षि की प्रसन्नता के लिये पाँच मन्त्रों कि विधि अब मैं सुनाता हूँ। उसमें सर्वप्रथम प्रभु श्री विश्वकर्मा के मन्त्र की विधि बतायी जाती है।
विश्वकर्मा मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि, पंक्ति छन्द, शिल्पाचार्य महेश्वर, विश्वकर्मा देवता, भारती बीज, स्वाहा शक्ति इष्ट कर्म की सिद्धि के लिये विनोयोग करें। फिर न्यास करें।
ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः - ऐसा कहकर दोनों हाथ के अंगूठों का स्पर्श करें।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः - ऐसा बोलकर दोनों हाथों की तर्जनी उङ्गलियों का स्पर्श करें।
ॐ श्री मध्यमाभ्यां नमः - ऐसा कहकर दोनों हाथों की बीच वाली उङ्गलियों का स्पर्श करें।
ॐ क्लीं अनामिकाभ्यां नमः - ऐसा कहकर दोनों हाथों की अनामिका उङ्गलियों का स्पर्श करें।
ॐ आं कनिष्ठिकाभ्यां नमः - ऐसा बोलकर दोनों हाथों की अन्तिम उङ्गलियों का स्पर्श करें।
ॐ क्रों करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः - ऐसा कहकर दोनों हाथों की हथेलियाँ तथा पीछे के भाग का स्पर्श करें।
इस प्रकार कर-न्यास करने के बाद हृदयादि न्यास करें।
ॐ ऐं नमो भगवते विश्वकर्मणे हृदयाय नमः - हृदय को स्पर्श करें।
ॐ ह्रीं नमो भगवते मनवे शिर से स्वाहा - सिर का स्पर्श करें।
ॐ श्रीं नमो भगवते मयाय शिखायै वषट् - शिखा का स्पर्श करें।
ॐ क्लीं नमो भगवते त्वष्ट्रे कवचाय हुम् - दोनों कन्धों का स्पर्श करें।
ॐ नमो भगवते तक्ष्णे नेत्र त्रायय वौषट् - इससे तीनों नेत्रों का स्पर्श करें।
ॐ क्रों नमो भगवते शिल्पिने अस्त्राय फट - इससे दिशाओं का बन्धन करें।
तथा ॐ भूर्भुवः स्वरोम् इस मन्त्र से भी दिशा बांधे। इसके बाद प्रभु विश्वकर्मा का नीचे के मन्त्र से ध्यान करें।
चिन्तये द्विश्वकर्माणं शिवं वटतरोरधः।
दिव्य सिंहासनासीनं मुनिवृंद निसेवितम् ॥
उपास्यमानममरैः स्तूयमानं महर्षिभिः।
पंचवक्त्रं दशभुजं ब्रह्मचारी व्रते स्थितम् ॥
बड़ पेड़ के नीचे दिव्य सिंहासन पर विराजमान तथा मुनियों का समूह जिनकी सेवा कर रहा है, ऐसे कल्याणकारी प्रभु विश्वकर्मा की देवता भी आराधना करते हैं। महर्षि जिनकी निरन्तर स्तुति करते हैं, ऐसे ब्रह्मचर्य ब्रत को धारण करने वाले पाँच मुख तथा दस हाथ वाले प्रभु का ध्यान करना चाहिये।
लक्ष्मी सरस्वतीभ्यां च संक्षालित पदद्वयम् ।
वक्षःस्थले च विभ्राणं ब्रह्मविद्यामुमातनुम् ॥
हारकेयूर कटकं कुंडलाद्यैः सुशोभितम् ।
भस्मांगरागं देवेशं वरदं सिस्मिताननम् ॥
लक्ष्मी तथा सरस्वती जिनके दोनों पाँव धो रही हैं। जिन्होंने अपने वक्षःस्थल में ब्रह्मविद्या को धारण किया है। हार, केयूर, कटक, कुण्डल आदि से जो सुशोभित हैं, ऐसे देवताओं के ईश्वर और स्मित आनन सहित जिन प्रभु ने अपने शरीर पर भस्म का अङ्गराग लगाया हैं, ऐसे प्रभु श्रीविश्वकर्मा का ध्यान करना चाहिये।
कुंदालं करणी वास्यमियंत्रं कमंडलुं ।
विभ्राणं दक्षिणैहस्तैरवरोह क्रमात्प्रभु॥
मेरुटंकं स्वनं भूषां वह्निना च धृतं करं।
अवरोह क्रमेणैव वामैर्शुभ विलोचनम् ॥
कुदाली, करणी, वास्य, अभियन्त्र, कमण्डल आदि आयुधों के अवरोह क्रमेण दायें हाथ में तथा मेरू, बखिया, घण्टा, भूषा तथा अग्नि के अवरोह क्रम से बायें हाथ में धारण करने वाले, शुभ नेत्रों वाले कृपालु परमात्मा विश्वकर्मा का ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार प्रभु की छवि मन में उतार हृदय में धारण करनी चाहिये । प्रभु को मन में ध्यान करने के बाद पहले कहे गये मानसिक उपचारों से प्रभु की भावना पूर्वक पूजा करनी चाहिये। तदुपरान्त निम्नानुसार प्रभु विश्वकर्मा तथा पाँच ब्रह्मर्षियों के मन्त्रों का जप करना चाहिये।
विश्वकर्मा मन्त्र - ऐं ॐ नमो भगवते विश्वकर्मणे मेधां मे देहि स्वाहा ॐ ऐं।
मनु ब्रह्मर्षि मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ओं क्रों ॐ नमो भगवते विश्वकर्मणे मनवे भयाय त्वष्ट्रे तक्ष्णे शिल्पिने मेधां में देहि स्वाहा ॐ ।
मय ब्रह्मर्षि मन्त्र - श्री ॐ नमो भगवते भयाय मेधां में देहि स्वाहा ॐ श्री।
त्वष्ट्रा ब्रह्मर्षि मन्त्र - क्लीं ॐ नमो भगवते त्वष्ट्रे मेधां मे देहि स्वाहा ॐ क्लीं।
शिल्पि ब्रह्मर्षि मन्त्र - क्रों ॐ नमो भगवते शिल्पिने मेधां मे देहि स्वाहा ॐ क्रों।
तक्षा ब्रह्मर्षि मन्त्र - आं ॐ नमो भगवते तक्ष्णे मेधां मे देहि स्वाहा ॐ आं।
इस प्रकार इन मन्त्रों के आठ हजार जप करें तथा उसके बाद पूर्ण कथनानुसार न्यास करें। इस तरह इन मन्त्रों के अनुष्ठान की विधि मानी जाती है। हे ऋषि ! ये छः मन्त्र भी पहले कहे अनुसार फल देते हैं। इसमें कोई शङ्का नहीं है। इन मन्त्रों के उपासक सिद्ध की कक्ष तक पहुंचते हैं।
सूतजी ने आगे कहा-हे ऋषिगण ! परम दयालु प्रभु श्री विश्वकर्मा का रहस्य मैंने आप लोगों को विस्तार पूर्वक सुना दिया । इस रहस्यों को पूर्ण रूप से जानकर जो इस प्रभु का पूजन अर्चन एवम् आराधना करता है, उसे हर प्रकार का सुख प्राप्त होता है। प्रभु की आराधना केवल कल्याणकारी ही नहीं बल्कि हर प्रकार की समृद्धियाँ देने वाली है। इससे सारी सम्पत्तियों की बढ़ोत्तरी होती है और हर जगह हर क्षण वह कल्याणकारी प्रदायक होती है। विश्वकर्मा का महामन्त्र के अतिरिक्त गायत्री तथा पाँच ब्रह्मर्षियों के मन्त्र सब प्रकार से सिद्धियाँ देने वाले हैं। यही नहीं इन मन्त्रों के पाठ करने से मनुष्य मोक्ष का अधिकारी होता है।
प्रभु जगत के कर्ता, धर्ता और हर्ता हैं अर्थात् वे ही हमें उत्पन्न करने वाले, पालन करने वाले तथा नाश करने वाले हैं। इस सृष्टि में जो कुछ गोचर अथवा अगोचर है उन सभी को प्रभु विश्वकर्मा द्वारा ही निर्माण किया हुआ समझें। यदि प्रभु प्रसन्न हों तो मनुष्य की सभी अभिलाषित वस्तु पूर्ण हो सकती है। उसके लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जायेगा । वेद भी निरन्तर जिसका यश गाया करते हैं। ऋचायें जिनके गीत गाते हैं तथा जिनका ऋषि-मुनि सदैव ध्यान किया करते हैं। वे प्रभु बार-बार अनेक रूप धारण करके अनेक विधि से अपने भक्तों की मनोकामनायें पूर्ण करते हैं। इनका पूजन सद्गति को प्रदान करने वाला है।
जो प्रभु का पूजन स्वर्ण के आयुधों से करता है। उसे उत्तम आवास मिलता है। वस्त्रों से उनका पूजन करने वाले को उत्तम वस्त्र मिलता है। पायस अथवा खीर से पूजन करने वाले को परम पद की प्राप्ति होती है। घृत से पूजन करने वाले को यश मिला करता है। आभूषण से पूजने वाले को उत्तम सम्पत्ति मिला करती है। जो सफेद फूलों से पूजा करते हैं उन्हें की भक्ति मिलती है। पीले पुष्पों से पूजने वाले को धन-धान्य मिलता है, जिन्हें युद्ध या विवाद में विजय प्राप्त करने की कामना होती है वे प्रभु को लाल पुष्षों से पूजते हैं। इस तरह पूजन करने वाले की हर कामनाओं को प्रभु पूर्ण कर दिया करते हैं। यह पूर्ण रूपेण सत्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है।
प्रभु श्री विश्वकर्मा की महिमा बहुत विशाल है। शेष नारायण यदि साक्षात् रूप से अपने हजार मुख से उनकी महिमा गाते रहें तो भी वह समाप्त होने वाला नहीं। ऐसे अगाध महिमा वाले प्रभु विश्वकर्मा भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले हैं। उसी प्रभु की प्रसन्नता के अलावा मनुष्य को और चाहिये ही क्या ? ऐसे प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त कर लेने को किसी प्रकार की धर्म क्रिया नहीं करनी पड़ती। उन्हें दूसरे देवताओं की पूजा आराधना के लिये भटकना नहीं पड़ता।
हे मुनियों! प्रभु विश्वकर्मा के समान अन्य तेज नहीं है। उनके समान दूसरा कोई देवता नहीं। न तो उनके सिवाय और कोई दूसरा स्थान है। उनके अलावा कोई धर्म भी नहीं । वे सभी जगह व्याप्त और विश्व के सर्जक हैं। उनके अतिरिक्त कोई और ऐसा साधन नहीं जिससे संसार सागर पार किया जा सके । इसीलिये इस महासागर को तैर कर पार करने की इच्छा जो मनुष्य रखते हैं, उन्हें सच्चे मन से पूजना चाहिये यही सबसे उत्तम मार्ग है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वकर्मोपनिषद् नामक चौबीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। पच्चीसवाँ अध्याय
(वज्र रचना)
वृत्रासुर वधार्थाय वज्रनिर्माण हेतवे।
विश्वकर्मा किमकरोत् तत्त्वं कथयनो द्विज ॥
ऋषि ने कहा - हे सूतजी ! हमने सुना है वृत्रासुर नामक एक भयङ्कर राक्षस था। उसकी शक्ति के आगे इन्द्रादि सभी देवता घबराते थे। इस दैत्य को मारने के लिये प्रभु विश्वकर्मा ने वज्र नामक एक हजार दाँत वाले हथियार को बनाकर दिया था तो हे सूतजी ! इस वज्र के निर्माण के लिए विश्वकर्मा ने क्या किया था ? यह जानने की हमारी प्रबल उत्कण्ठा है। यह वृत्रासुर कौन था? वह इतना प्रबल और प्रतापी किस ढङ्ग से हो सका । इसका क्या कारण था ? कृपा करके यह सब हमें विस्तार से बतायें।
सूतजी बोले - हे ऋषि ! पहले व्यासजी को यह बात नारद जी ने जिस तरह बतलायी थी, उसी बात को मैं आप लोगों को सुना रहा हूँ। यही बात शुकदेवजी ने पाण्डु-वन्शी राजा परीक्षित को भी सुनायी थी। यह कथा बहुत ही पुण्य देने वाली तथा यश को बढ़ाने वाली और प्रभु से भक्ति की भावना दृढ़ करने वाली है, इसे आप लोग ध्यान से सुनें।
बहुत ही प्राचीन समय में चित्रकेतु नामक राजा शूरसेन नगर में रहता था। वह बहुत शक्तिशाली और प्रतापवान् था। वह अत्यन्त धार्मिक और सदैव प्रभु का गुणगान करने और सुनने में आनन्द पाता था। वह अपनी प्रजा का पालन अपने बच्चों की तरह करता था और सदैव दुष्टों को दण्ड देने में तत्पर रहता था। इसलिये राज्य की प्रजा को दुष्टों का भय नहीं था। उसके राज्य में हत्या, लूटपाट, चोरी इत्यादि नहीं होती थी। वह राजा अत्यन्त दयालु तथा अपार सम्पत्ति वाला था। रूप में वह अद्वितीय एवम् विद्वान तथा ऐश्वर्य वाला था । सब प्रकार से सुखी एवं सम्पन्न इस राजा के अनेक रानियाँ भी थीं, लेकिन उसे एक दुःख था। उसके कोई सन्तान न थी। इस एक कमी के कारण उसे सारे सुख निरर्थक लगते थे। वह हरदम ही इससे बहुत दुःखी रहता और सभी कामों में उदासीन रहने लगा।
हठात् एक दिन उसके दरबार में अङ्गिरा मुनि आ पहुँचे । चित्रकेतु ने उनसे अपनी सारी व्यथा कह सुनायी तथा निवेदन किया-“हे महातपस्वी मुनि ! आप मुझे पूयोद नामक नरक से पार कराने वाले पुत्र प्राप्त करने का कोई मार्ग बताइये।"
चित्रकेतु के ऐसे दुःख भरे वचन सुनकर अङ्गिरा मुनि ने उन्हें विश्वकर्मा का उत्तम यज्ञ करने का सुझाव दिया। तब राजा ने ऐसा ही किया। उस यज्ञ के करने से त्वष्टा देव ने उसे एक पुत्र दिया। उस समय अपनी मनोकामना पूर्ण हो जाने से राजा के सुख की सीमा न रही। वह प्रेम से उसका लालन-पालन करता और उसकी मीठी-मीठी बातों में अपनी सुध-बुध खो देता । पुत्र प्रेम में वह अपना सारा राज-काज ही भूल जाता । अब राजा का सारा दिन इसी तरह बीतने लगा।
चित्रकेतु की जब एक रानी ने पुत्र को जन्म दिया तब राजा दूसरी रानियों की अनदेखी करने लगा। अब रानियों ने अपना मान घटते हये देखकर उन्हीं लोगों ने उस पुत्र को विष दे दिया। फिर क्या था ? देखते ही देखते बालक के सारे शरीर में जहर फैलने लगा और क्षण भर में ही उसकी मृत्यु हो गयी। इससे राजा शोक सागर में डूब गया और व्याकुल होकर रुदन करने लगा। उसे किसी चीज का भान न रह गया। उस समय राजा को सान्त्वना देने के लिये राज्य के सभी प्रधान और प्रमुख ब्राह्मणादि राजा के पास पहुंचे, लेकिन इससे राजा का शोक कम होने वाला नहीं था।
अन्त में राजा को ज्ञान देने के लिये अङ्गिरा मुनि को आना पड़ा। इससे राजा का शोक कुछ कम हो गया। अब पुत्र की क्रिया करने के बाद राजा जब एकदम शोक से निवृत्त हुये तब अङ्गिरा मुनि ने कहा-हे नृप श्रेष्ठ ! मृतकों के लिये शोक करना व्यर्थ है, क्योंकि अपने-अपने कर्मों के अनुसार जब प्राणियों का जन्म किसी स्थान पर होता है, तो उसी कर्म के अनुसार उसे दूसरे ही सम्बन्ध जोड़ने पड़ते हैं। मनुष्य ही नहीं सभी पशु-पक्षी, जड़-चेतन आदि का सम्बन्ध अनित्य है। हे राजन् ! तुझे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि सारा संसार ही इसी तरह परिभ्रमण किया करता है। इसी क्रम में इसे अच्छी तरह जान लो कि एक दूसरे के सम्बन्धों में जाति वाले शत्रु, मित्र, सगे सम्बन्धी आदि हैं, वे अगले जन्म में यही नहीं रहते। वे बराबर बदलते रहते हैं।
उदाहरण के तौर पर एक वस्तु बेचने वाला व्यापारी या लेने वाला ग्राहक अपने धन्धों के कारण इधर-उधर घूमता है। उसी तरह जीवात्मा भी अपने कर्मों का फल भोगने के लिये तथा अपने लेन-देन का हिसाब करने के लिये एक योनि से दूसरी योनि में भटका करता है। यह सारा सम्बन्ध देह तक ही सीमित रहता है। देह के नष्ट होते ही जीवात्मा का किसी से कोई लेन-देन नहीं होता। कारण अविकारी एवम् शाश्वत है। उसका नाश नहीं है। वह अजर अमर तथा स्वयम् प्रकाशमान है। अतः वह प्रभुमय है। वह शिवमय है। इस तथ्य को समझने वाले इस संसार के जन्म मरण के बन्धनों से छूट जाते हैं और प्रभु विश्वकर्मा के परम धाम अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। अतएव हे राजन्! आप अपना शोक त्याग दीजिये और ईश्वर में अपना ध्यान लगायें इससे ही आपके जीवन की सार्थकता होगी।
अङ्गिरा मुनि के वचन सुनकर राजा को बड़ी शान्ति मिली। राजा चित्रकेतु अङ्गिरा मुनि से बोले-“हे महामुनि ! आपकी ज्ञान से भरी हुयी वाणी सुनकर मेरा मन निर्मल हो गया है।
अब मुझे पुत्र की मृत्यु का शोक नहीं रह गया । संसार रूपी इस अन्धे कुयें का मुझे कोई मोह नहीं रहा। अतएव हे मुनि श्रेष्ठ ! मेरा जीवन जिस प्रकार से सार्थक हो, उस सम्बन्ध में कोई उपाय बताइये। जिसके कारण मैं संसार के सभी बन्धनों से छुटकारा पा सकूँ। यह संसार माया रूपी अन्धकार से व्याप्त है, जिसने मुझ जैसे व्यक्ति को अन्धा बना दिया है। इसलिये आप मुझे ज्ञान का प्रकाश देकर सही मार्ग दिखायें।
राजा चित्रकेतु की ऐसी वाणी सुनकर महर्षि अङ्गिरा ने राजा को निरन्तर श्री प्रभु विश्वकर्मा की भक्ति करने को कहा। उन्हें इसके लिये सारी विधियाँ बताते हुये अष्टाक्षर मन्त्र का जप करने का उपदेश देते हुये अपने आश्रम में चले गये।
मुनि से उपदेश ग्रहण कर राजा ने अपना चित्त प्रभु विश्वकर्मा में लगा लिया और उन्हें संसार के बन्धनों से बिल्कुल मोह न रहा । वे घोर जङ्गल में जाकर प्रभु विश्वकर्मा का हृदय में ध्यान रखकर अष्टाक्षर मन्त्र का जप करने लगे। वहाँ वे अपने इन्द्रियों पर संयम रखते हुये केवल जङ्गल में उगने वाले कन्द-मूल का आहार करते और उपासना में लीन रहते । उस समय राजा को अपनी भक्ति में तल्लीन हुआ देखकर प्रभु विश्वकर्मा ने उन पर कृपा करने के विचार से नारद जी को उनके पास भेज दिया।
जब नारदजी राजा के पास पहुंचे तो राजा अपने आसन से उठकर खड़े हुये और उन्हें अपने आश्रम में ले जाकर योग्य विधि से सत्कार करते हुये उनका पूजन वन्दन किया। इसके बाद वन के कन्द-मूल उनके सामने खाने को रख दिया और बोला-हे ब्रह्मा के मानस पुत्र ! हे मुनीश्वर ! आपके यहाँ आने बड़ी प्रसन्नता हुई। आज मुझे ऐसा लगा कि मेरी तपस्या फलीभूत हुयी। यहाँ पधार कर आपने सचमुच मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया। इसके लिये मैं आपका ऋणी हूँ। आपके पावन चरण मेरे आश्रम में पड़े इससे मैं धन्य हो गया और मेरी कुटिया पवित्र हो गयी। जहाँ पर ऋषि, मुनि, ब्राह्मण और देवता बिना बुलाये जाते हैं उस स्थान में रहने वाले प्राणी सचमुच बहुत ही भाग्यशाली होते हैं। महर्षि अङ्गिरा की वाणी सुनकर मैं निरन्तर प्रभु के ध्यान में लगा हुआ हूँ। अब प्रभु का सानिध्य पाने के लिये मेरी काया शुद्ध हो मुझे ऐसा वरदान दीजिये।
राजा चित्रकेतु के ऐसे वचन सुनकर प्रसन्न होकर नारद जी ने कहा-आपकी भक्ति देखकर विराट प्रभु विश्वकर्मा आप पर बड़े प्रसन्न हैं और उन्हीं के आदेश से मैं यहाँ आया हूँ। आपका जीवन, कार्य, बर्ताव तथा तप ऋषियों के अनुकूल है और भगवान् ने आपके ऊपर कृपा करने हेतु ही मुझे यहाँ भेजा है, जिससे आपको प्रभु के साक्षात् दर्शन हों। इसलिये मैं आदि नारायण विराट की ऐसी अतिप्रिय महाविद्या का उपदेश दूंगा, जिस रहस्यमयी विद्या को जानकर आप थोड़े ही समय में प्रभु विश्वकर्मा का दर्शन कर सकेंगे। कारण कि उन्हीं के चरणों में पहुँचकर मनुष्य ही नहीं समस्त देवता भी द्वैत-अद्वैत के भेद को सही-सही समझ सकते हैं। ऐसे लोग ही परम ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। जब आप उनके स्वरूप को पहचान लेंगे तब आप भी प्रभु स्वरूप हो कर उनके तुल्य ही बन जायेंगे।
नारदजी ने आगे कहा - हे राजन् ! अब आप उस महा विद्या के बारे में ध्यान से सुनें। सर्वप्रथम हुंकार (प्रणव) स्वरूप वाले वासुदेव प्रद्युम्न, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि अनेक रूप को धारण करने वाले प्रभु, मैं आपका ध्यान करता हूँ। मैं आपकी शरण में आकर आपको नमन करता हूँ।
आप परमानन्द की साक्षात् मूर्ति हैं तथा योगी जिसे अनुभव मात्र से जान और पहचान लेते हैं। ऐसे प्रत्येक आत्मा में विराजमान शान्त, परब्रह्म पुराण पुरुष अद्वैत स्वरूप भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ।
हे देवाधिदेव ! आप राग द्वेषादि तमाम माया के द्वन्दों से परे हैं तथा आत्मा के आनन्द का ही आश्रय लिया है। आपने इन्द्रियों को वश में रखकर सृष्टि को नियन्त्रण में कर रक्खा है। मैं आपके उन पवित्र चरणों की वन्दना करता हूँ, जो सभी इन्द्रियों से परे रहते हैं अर्थात् जिन्हें मन, वचन, कर्म आदि इन्द्रियों से पहचाना नहीं जा सकता। ऐसे प्रभु स्वतः अनन्य प्रकाश से अपने आप में प्रकाशित होते रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते रहते हैं। वह अनेक नाम व गुणों को धारण करने के बावजूद नाम व गुणों से रहित हैं। कार्य और कारण की उत्पत्ति करने वाले प्रभु स्वयम् किसी कार्य में लिप्त नहीं होते। मैं ऐसे परब्रह्म परमात्मा को प्रणाम करता हूँ।
जिन्होंने सारे विश्व को उत्पन्न किया है तथा जो निरन्तर उसका पालन करते हैं तथा समय आने पर उसका नाश भी कर देते हैं, ऐसे प्रभु जिन्होंने अपनी ही विभूति से सब का सृजन करके और प्रत्येक सृजन में खुद विद्यमान रहकर विचरण करते रहते हैं, ऐसे सगुण और निर्गुण ब्रह्म को मेरा नमस्कार है।
जैसे प्रत्येक स्थान पर आकाश व्याप्त है तथा प्रत्येक स्थान पर वही विचरता रहता है। प्रभु भी सभी स्थानों पर रहकर सभी जगह संचार करने वाला है। अतः उसकी गति कोई नहीं जान सकता। ऐसे महिमा वाले साकार होकर भी निराकार और निराकार रहकर भी अनेक आकारों को धारण करने वाले हैं, किन्तु जिन्हें मनुष्य अपनी आँखों से देख नहीं सकता, ऐसे प्रभु को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।
यदि वास्तविक रूप से देखा जाये तो मनुष्य, पशु, पक्षी आदि समस्त चैतन्य सृष्टि जड़ मात्र ही है। किन्तु उसमें जब परम कृपालु परमात्मा का चैतन्य रूप प्रवेश करता है, तब वही हमें चेतन रूप में दिखलायी पड़ने लगता है। इसी प्रकार चेतन स्वरूप का ही आश्रय लेकर ही शरीर की यह समस्त इन्द्रियाँ व्यापार रूप से सभी कार्यों को करने में सक्षम होती हैं।
जिस प्रकार किसी वस्तु को स्वरूप बदलने के लिये अथवा उसे चुकाने के लिये उस पर आवश्यक प्रतिक्रियाओं की जरूरत पड़ती है। इसी तरह इन्द्रियों को शक्तिशाली बनाने के लिये ऐसे चेतनमय प्रभु की विशेष आवश्यकता पड़ती है। यही आवश्यकता जिनसे परिपूर्ण होती है, उस चेतन स्वरूप प्रभु को मैं बारम्बार वन्दन करता हूँ।
जिनकी अनेक विभूतियों के अधिपति एवम् महान् से भी महान् देवतागण वन्दना करते हैं। ऐसे श्रेष्ठ वस्तुओं से भी अनेक श्रेष्ठ देवाधिदेव परब्रह्म परमात्मा आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
नारदजी ने आगे कहा-हे राजा चित्रकेतु ! उस परम दयालु परमात्मा के महाविद्या की जानकारी मैंने आपको दे दी।
जब आप निरन्तर इसे रटते रहेंगे तो आप उस प्रभु में तल्लीनता का अनुभव करेंगे। तात्पर्य यह है कि अल्प-काल में ही आपको उस परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा। आपको प्रभु का दर्शन होगा। यह महाविद्या अनेक प्रकार से पुण्यदायक और मनुष्य का तेज बढ़ाने वाली है। अतः आप इसको निरन्तर जानते रहें, कारण कि यह आपको शरीर बन्धन से छुड़ाकर प्रभु का साकार दर्शन करा सकेगी। इससे आप प्रभु के निराकार स्वरूप को भी पा सकेंगे। इतना उपदेश देने के बाद नारदजी वहाँ से अन्तान हो गये।
उनके जाने के बाद चित्रकेतु राजा नारदजी के भावना पूर्ण उपदेश का पालन करते हुये महाविद्या का निरन्तर जप करने लगे। इससे प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा ने राजा को विद्याधर की पदवी दी और गन्धवों का अधिपति बनाया और उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देते हुये कहा-हे राजन् ! यदि तू इसी तरह मेरा स्मरण करता रहेगा तो तुझे निश्चय ही सिद्ध की पदवी मिलेगी। इतना कहने के बाद प्रभु वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये । विद्याधर की पदवी प्राप्त करने के बाद राजा चित्रकेतु आकाश में गन्धर्वो की स्त्रियों और अप्सराओं के साथ विचरण करने लगा। वहाँ वह अनेक प्रकार की क्रीड़ायें करता हुआ अति आनन्दपूर्वक प्रभु का गुणगान करने लगा।
दैवयोग से एक बार विद्याधर (राजा चित्रकेतु) आकाश में विचरण करते हुये कैलाश पर्वत पर भगवान् शङ्कर के परमधाम में जा पहुँचे, किन्तु वहाँ की विचित्रता वे सहन नहीं कर सके, क्योंकि उनमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं था। अतएव वे भगवान् शङ्कर को ज्ञान देने को तत्पर हो गये। भगवान् शङ्कर उस समय चित्रकेतु के वचन सुनकर मुस्कराने लगे, किन्तु माँ पार्वती को यह सब सहन नहीं हो सका। अत: वे चित्रकेतु को शाप देती हुई बोलीं - रे दुष्ट ! तुझे इतना अभिमान है कि तू भगवान शङ्कर को ज्ञान देने चला है। तुझे इतना अभिमान है तू ही सबसे बड़ा है। इसलिये तुझे इस अभिमान का दण्ड मिलना आवश्यक है। इसलिये मैं तुझे शाप देती हूँ कि तू महर्षियों को तङ्ग करने वाले राक्षस की योनि में पैदा हो।
अब माँ पार्वती के इस शाप को सुनकर गन्धर्वो का अधिपति विद्याधर (राजा चित्रकेतु) कुछ न बोला, बल्कि भगवान शङ्कर और माँ पार्वती को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। वे चाहते तो अपने तपोबल से माँ पार्वती को भी शाप दे सकते थे, किन्तु प्रभु की भक्ति के कारण उनका मन निर्मल बन चुका था। इसलिये वे ऐसा न कर सके। सद्पुरुष तथा भगवान से भक्ति रखने वाले समान दृष्टि वाले होते हैं। वे जानते हैं कि संसार में जो कुछ होता है, वह प्रभु की इच्छा से ही होता है और दूसरों के कल्याण के लिये होता है। ऐसा सोचकर प्रभु से प्रीति करने वाले शान्त चित्त हो कर धैर्य रखते हुए सभी बातें सह लेते हैं।
ऋषियों ने यह सुनकर जिज्ञासा की, हे सूतजी ! आपने हमें पुण्यकारक चित्रकेतु राजा की गाथा सुनायी, किन्तु अब कृप्या यह भी बतायें कि चित्रकेतु राजा को फिर राक्षस योनि प्राप्त हुई या नहीं? यदि प्राप्त हुई तो कब से । वह किस वंश में पैदा हुआ और फिर उसने मुनियों को परेशान करने के लिये क्या-क्या किया? कृपया यह सारी बातें हमें विस्तार से सुनायें।
ऋषियों की ऐसी जिज्ञासा सुनकर सूतजी ने कहा-हे ऋषि ! माँ पार्वती का शाप सुनकर चित्रकेतु वहाँ से चला गया और उसे जो शाप मिला था, उसे भोगने की प्रतीक्षा करने लगा और हिमालय की एक गुफा में बैठकर निरन्तर प्रभु का जप करने लगा। उस समय वह प्रभु से यही विनती करता - हे प्रभो! आप माँ पार्वती का दिया हुआ शाप भोगने का बल प्रदान करें। शाप के कारण राक्षस योनि में जाने पर भी मेरा चित्त निरन्तर आप में ही लगा रहे।
पूर्वकाल में प्रजापति कश्यप का विवाह दक्ष की पुत्री अदिति से हुआ था। उनके बारह पुत्र हुये थे। वे सबके सब सूर्य के नाम से प्रसिद्ध हुये थे। उनमें त्वष्टा नामक पुत्र का विवाह राक्षसों की छोटी बहन रचना से हुआ था। उसे विश्वरूप नाम का एक पुत्र हुआ। उन्हीं दिनों देवताओं ने अपने गुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया था। जिससे बृहस्पति उन लोगों को छोड़कर कहीं चले गये। अब गुरु के हट जाने से राक्षस उन्हें परेशान करने लगे। उस समय देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाया। उस समय उसके ही ज्ञान, बुद्धि और विद्या के प्रभाव से देवताओं को असुरों के कष्ट से छुटकारा मिल गया और वे पुनः अपने वैभव का भोग करने लगे, लेकिन दैत्य-कन्या का पुत्र होने के कारण देवता उस पर पूर्ण तौर से विश्वास नहीं कर पा रहे थे। इसलिये एक दिन धोखे से उसे मार डाला।
अपने पुत्र को इस प्रकार धोखे से मारे जाने के कारण त्वष्टा अत्यन्त कुपित हो उठे और पुत्र को मारने वाले देवताओं के राजा इन्द्र का विनाश करने हेतु उन्होंने दक्षिणाग्नि में होम किया। हे इन्द्र शत्रु ! "तू एकदम शत्रु का नाश करने के लिये जल्दी तैयार हो और शत्रु का नाश कर", इतना कहकर त्वष्टा ने दक्षिणाग्नि में होम किया। उस समय अग्नि में से एक भयङ्कर कुरूप पुरुष उत्पन्न हुआ। वह पुरुष और कोई न था, बल्कि चित्रकेतु था, जो माँ पार्वती का शाप भोगने के लिये इस रूप में पैदा हुआ था। चित्रकेतु जन्म लेने के साथ ही एकदम बढ़ने लगा तथा भयङ्कर पर्वतों के समान शरीर से सारी दिशाओं को कँपाने लगा। अपने हाथ में त्रिशूल धारण किये हुये वह तीनों लोकों को नष्ट कर देने की अभिलाषा से चारों ओर घूमने लगा। उस समय उसकी दृष्टि के सम्मुख जो भी पड़ता वह उसका नाश कर देता। दक्षिणाग्नि से उत्पन्न हुआ वह पुरुष सारे जग में वृत्रासुर के नाम से विख्यात हुआ।
वृत्रासुर एक क्षण रुके बिना सृष्टि का नाश करने के लिये तत्पर हो उठा और अपने आयुध के सामने आये लोगों को गाजर मूली की तरह काटने लगा। यह देखकर सारे देवता अत्यन्त दुःखी हो उठे और अपने-अपने दैवीय अस्त्रों के साथ मुकाबला करने के लिये आने लगे, लेकिन सब एक साथ मिलकर लड़ने के बाद भी वृत्रासुर का कुछ न बिगाड़ सके । कारण कि देवताओं द्वारा फेंके हुये अस्त्र-शस्त्रों को वह अपना मुँह चौड़ा करके एक साथ निगलने लगा एवं अपने त्रिशूल से उन देवताओं को बुरी तरह व्यथित करने लगा। अपने इस पराजय को देखकर देवता बुरी तरह भयभीत हो उठे और अन्य कोई उपाय न देखकर वे प्रभु विश्वकर्मा का स्मरण करने लगे। उनकी इस प्रार्थना से प्रसन्न हो प्रभु प्रकट होकर देवताओं से कहने लगे-हे देवताओं ! असुर त्वष्टा के मन्त्र के प्रभाव से यह राक्षस बहुत भयंकर हो उठा है, लेकिन फिर भी घबड़ाने की कोई बात नहीं है। वैसे महाविद्या से रक्षित इस राक्षस का नाश करना बहुत कठिन है। अतएव जब तक इसके विनाश हेतु उचित साधन तैयार न हो तब तक धैर्य रखने की आवश्यकता है। आप लोग भी नारायण कवच रूपी महाविद्या से रक्षित हो । इसलिये आप इससे व्यथित अवश्य होगे, किन्तु आपका कोई बाल बांका न होगा। अब उसके वध का समय सोचे जाने तक आप लोग शान्त रहें।
इतना कहने के बाद परमात्मा ने सभी देवताओं को आश्वासन देकर वहाँ से विदा कर दिया और तत्पश्चात् वे वृत्रासुर के विनाश का उपाय सोचने लगे।
आखिर उन्होंने समस्त देवताओं को दधीचि मुनि के आश्रम पर भेजा और उनसे उनकी अस्थियों को प्राप्त करने के लिये कहा । अब सभी देवतागण प्रभु विश्वकर्मा के बताये हुये सलाह से महा तपस्वी दधीचि के आश्रम में पहुंचे और उनसे अपनी सारी कठिनाई बताते हुये उनसे अस्थि देने की याचना की।
ऋषि दधीचि देवताओं की रक्षा के लिये अपनी अस्थियाँ देने को तैयार हो गये। वे इसके लिये समाधि लगाकर बैठ गये तथा तीनों लोकों के हितार्थ प्रसन्न मन से समाधिस्थ हो गये। उस समय वे भगवान विश्वकर्मा को अपने मन में स्थित करके घोर तप करने वाले मुनि ने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। तत्पश्चात उनके शरीर से अस्थियाँ निकाल कर इनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया। अब उनकी अस्थियाँ लेकर देवता लोग प्रभु के पास पहुँचे। उस समय प्रभु ने उन अस्थियों से वज्र नामक एक हजार दाँत वाला उत्तम अस्त्र बनाकर वृत्रासुर को मारने के लिये इन्द्र को दे दिया। इसके साथ ही उसे अपना तेज भी दे दिया।
प्रभु का आशीर्वाद ग्रहण कर इन्द्र अपने हाथी ऐरावत पर सवार होकर वृत्रासुर को मारने को चल पड़ा। उस समय उस वज्र से अनेक राक्षसों का विनाश करता हुआ इन्द्र वृत्रासुर के निकट जा पहुँचा, लेकिन वृत्रासुर ने देखते ही उसे हाथी समेत निगल लिया। यह देखकर सभी देवताओं में घबड़ाहट फैल गयी। लेकिन अब सबको यह देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि इन्द्रदेव शीघ्र ही वृत्रासुर का पेट फाड़कर बाहर निकल आये और देखते ही देखते वज्र नामक अस्त्र से उसका सिर काट दिया। इस प्रकार भगवान विश्वकर्मा के आशीर्वाद से देवताओं के राजा इन्द्र ने असुर पर विजय प्राप्त किया।
इन्द्र ने जिस समय वृत्रासुर पर विजय प्राप्त किया। उस समय आकाश में देव दुंदुभि बज उठी। चारों ओर राजा इन्द्र की जय-जयकार होने लगी तथा ऋषि मुनि इन्द्र को आशीर्वाद देने वाले प्रभु विश्वकर्मा का गुणगान करने लगे। गन्धर्व, सिद्ध तथा चारण सभी राजा इन्द्र की स्तुति गीत गाने लगे।
उधर वृत्रासुर ने अपने मृत्यु के समय भगवान विश्वकर्मा में अपना मन लगाया था। इसलिये जैसे ही इसकी मृत्यु हुई, वैसे ही उसके शरीर से एक तेजस्वी वायु बाहर निकली और देखते ही देखते प्रभु में विलीन हो गयी। उस समय उसका तेज प्रभु विश्वकर्मा में विलुप्त होते देख सबको बड़ा आश्चर्य होने लगा। किन्तु सिद्ध और गन्धवों ने जब राजा चित्रकेतु (गन्धर्व) के सम्पूर्ण चरित्र को स्पष्ट किया तो सबके मन में इसका समाधान हो गया।
सूतजी बोले - हे मुनियों ! आप लोगों ने यह अनुभव कर लिया होगा कि अष्टाक्षर महामन्त्र का प्रभाव कैसा है। उस मन्त्र की आराधना से साधारण से साधारण पुरुष भी उच्च स्थिति को पा सकता है। इसको समझने के लिये चित्रकेतु का चरित्र ही पर्याप्त है। प्रभु के अनन्य भक्तों पर यदि दूसरे देवताओं की कृपा न हो तो प्रभु की भक्ति में जरा भी चलायमान न होता । अन्त में उसका उद्धार ही होकर रहता है। जो पद योगियों के लिये पाना कठिन है, उस परम पद को प्रभु की भक्ति से सहज ही प्राप्त कर लेते हैं।
प्रभु विश्वकर्मा पुराण पुरुष हैं और दया के भण्डार हैं। वे निरन्तर अपने शरण में आये हुये की रक्षा करते हैं। भक्तों पर कल्याण करना उनका सहज स्वभाव है । परमेश्वर की आराधना करने वाले सृष्टि का समस्त सुख भोगते हुये प्रभु के उत्तम पद प्राप्त कर उनके ही समान बन जाते हैं और प्रभु के धाम अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। हे मुनियों! आप ने वज्र के निर्माण और वृत्रासुर के वध के बारे में जो कुछ सुनना चाहा था, उसे मैंने विस्तार से कह सुनाया। अब आप लोगों को और जो सुनने की इच्छा हो बतायें।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में वज्र निर्माण नामक पच्चीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। छब्बीसवाँ अध्याय
(गुप्तक्षेत्र महात्म्य)
श्रुतं च गुप्तक्षेत्रं यन्निर्मितं विश्वकर्मणा।
नरदेन च स्कंदेन महत्ता प्रतिपादिता।।
ऋषियों ने कहा- हे सूतजी! हमने सुना है कि इस पृथ्वी के बारे में एक गुप्त क्षेत्र का वर्णन आया है और उस क्षेत्र का भी भगवान विश्वकर्मा ने निर्माण किया है तथा नारद मुनि शंकर पुत्र कार्तिकेय ने इसके महात्म्य को अनेक गुना बढ़ाया है। हे पुराणज्ञ! यह गुप्त क्षेत्र कहाँ पर है एवम् प्रभु की वह कृति कैसे इतनी महिमा वाला बना, उसका नाम गुप्तक्षेत्र किस लिये पड़ा बताने की कृपा करें। हे सूतजी! हमने यह आपसे इसलिए पूछा कि आप सारे पुराणों की जानकारी रखते है और महर्षि वेदव्यास की भी आप पर बहुत कृपा है। इसलिए आपका संग पाने से हमें बेहद आनंद हुआ।
ऋषियों की बात सुनकर सूतजी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले- हे ऋषिगण! प्रभु विश्वकर्मा का चरित्र अपरम्पार है। उनकी संपूर्ण रचना ही महान तीर्थधाम है। वे सारे तीर्थ धाम ही अनेक पुण्य तथा उत्तम फल देने वाले है। उस गुप्त क्षेत्र की रचना ही निःसंदेह अलौकिक है। मैं इसकी महिमा के बारे में आप लोगों को विस्तार से सुनाने जा रहा हूँ। कृपया आप लोग इसे ध्यानपूर्वक सुने। यह बात कोई भाग्यशाली ही जानता है कि इन्द्रद्युम्न के पराक्रमों की निशानी स्वरूप मही नदी अत्यंत पुण्य देने वाली है। एक सहस्त्र नदियों का स्वामी सागर कितना पुण्यशाली है। यह बात भी आप लोग अच्छी तरह जानते है कि भारत की सभी नदियाँ पवित्र है और उन नदियों का पानी समुद्र में एकत्र होता है। ऐसे समुद्र की महानता का कहना ही क्या? जैसे सिंह को देखकर हिरणों का समूह भाग जाता है, उसी प्रकार समुद्र को दूर से देखने पर अथवा दूर से उसकी आवाज सुनायी देने मात्र से मनुष्य के पापों का समूह नष्ट हो जाता है। मही नदी और सागर ये दो जलाशय सभी जलाशयों में श्रेष्ठ है। हे मुनियों! जहाँ इन दोनों जलाशयों का संगम होता है, वह स्थान कितना पवित्र है। इसका वर्णन साक्षात् सरस्वतीजी भी नहीं कर सकती।
इस समुद्र के उत्तर में महि-सागर संगम के किनारे मही नदी साबरम्वती नदी के बीच में जो प्रदेश है, वह कुमारिका खांड के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में मनु के पुत्र ऋषभ देव के पुत्र भरत नामक राजा के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। भरत के पुत्र का नाम वृष्यश्रृंग था। वह अपने पिता की भांति ही पराक्रमी था। राजा भरत के मृत्यु उपरांत वृष्यश्रृंग गद्दी पर बैठा। उसके आठ पुत्र और एक पुत्री थी। यह पुत्री बहुत धार्मिक भावना वाली थी, लेकिन पूर्व जन्म के कुछ बुरे कर्मों के कारण उसे बहुत कुरूप देह मिली थी। तब उसने सागर संगम पर भगवान शंकर को अपने तप से प्रसन्न किया और उनकी कृपा से उत्तम सौन्दर्य प्राप्त कर लिया। उसके पिता वृष्यश्रृंग ने अपने राज्य को नौ भागों में बाँटा। उसमें प्रत्येक पुत्र को एक-एक भाग मिला और नवां भाग अपनी पुत्री को दिया। यह पुत्री आजीवन कुंआरी रही। उसके नाम से ही कुमारिका खण्ड बना। अब यह क्षेत्र किस तरह उत्पन्न हुआ इसका इतिहास सुनें।
महिसागर संगम के उत्तर में छ: कोस दूर तारकपुर नामक एक श्रेष्ठ नगर था। इसी नगर में महर्षि कश्यप की पत्नी दिति से उत्पन्न दानवों की पीढ़ी में तारक नामक एक महाभयंकर राक्षस रहता था। उसने छोटी सी पहाड़ी पर तारक नगर बसाया था और उस छोटी पहाड़ी की चोटी पर अपने रहने का घर बनवाया था। तारकासुर अपने ही निवास पर रहकर पाँच कोस के विस्तार वाले सारे राज्यों को देख सकता था। वह देखने में अति भयंकर और कुरूप था। उसका बल एक हजार हाथियों के समान था। उसने प्रायः सभी देवताओं को हराकर उसकी जगह एक-एक राक्षस को बैठा दिया। वे सारे राक्षस देवताओं को महान कष्ट देने लगे। उस समय सारे देवता कपि का रूप धारण कर पहाड़ों की गुफाओं में रहने लगे। वह असुर देवताओ की स्त्रियां और उनकी कन्याओं से हर तरह की चाकरी करवाता था। उन सबको बुरी तरह अपमानित करता। फिर भी सारे देवता और तीन देव (ब्रह्मा, विष्णु महेश) उसका कुछ बिगाड़ नहीं सके और उसका एक बाल बाँका न कर सके। इससे वे सारे के सारे लोग अत्यंत परेशान हो उठे।
तत्पश्चात् तारकासुर ने घोर तप करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया और उनसे यह वर मांगा कि कोई भी देवता, मनुष्य या पशु-पक्षी उसे न मार सके, उसे केवल छः वर्ष का बालक ही मारे। उसने सोचा था कि उसे मारने वाला छ: वर्ष का बालक नहीं हो सकता क्योंकि उसके इतनी शक्ति ही नहीं होगी। यही सोचकर वह गर्व से अंधा हो गया था और घूम-घूमकर सारे विश्व को पीड़ा पहुंचाने लगा, उस समय वास्तव में देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके।
तब तारकासुर के इस अत्याचार से देवों को बचाने के लिए प्रभु विश्वकर्मा ने निर्णय किया। उस समय दक्ष के यज्ञ में सती जलकर भस्म हो गयी थी। तब भगवान शंकर उन्मत्त अवस्था में रहते हुये कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या में लग गये। सती पर्वतराज हिमालय के घर उमा के रूप में जन्म ले चुकी थी। वे शंकरजी को पुनः पाने के लिये कठोर नियमों का पालन करती हुई शंकर जी की भक्ति करने लगी। उधर सती के शोक में व्याकुल शंकर जी की उग्र समस्या को देखकर प्रभु ने सोचा वास्तव में यदि ऐसे उग्र तप से तेज से बालक उत्पन्न हो तो वह तारकासुर का वध करने में समर्थ हो सकेगा। इसके अतिरिक्त उसके वध का कोई उपाय नहीं। लेकिन उधर सती के विरह में व्याकुल शंकर अन्य किसी स्त्री से संबंध रखने के लिये तैयार न थे, किंतु उसके अतिरिक्त देवताओं के विपत्ति निवारण करने का कोई मार्ग न था।
अंत में सब देवताओं ने आपस में तय करके शंकरजी के पास कामदेव को भेजने का निश्चय किया। इसके लिये वे उपयुक्त अवसर की तलाश करने लगे। अंत में एक बार जब अपनी माया फैलायी, तब उनके मोह जाल में शंकरजी की तपस्या भंग हो गयी। उस समय शंकरजी ने ध्यान लगाकर कामदेव की करतूत जान ली। फिर भी उन्होनें क्रोध में आकर अपनी तपस्या भंग करने वाले को दंड देना चाहा और इसके लिये उन्होनें तीसरी आँख खोल दी। तीसरी आँख खुलते ही जो आग निकली उसमें कामदेव जलकर भस्म हो गया। कामदेव के भस्म होते ही सभी ओर हाहाकार मच गया।
इससे देवतागण शंकरजी को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर गये और शंकरजी की स्तुति करने लगे। शंकरजी के शांत होने पर देवताओं ने उन्हें परिस्थितियां समझा दी और उन्हें पार्वती से विवाह करने की विनती करने लगे। शंकरजी देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तैयार हो गये। देवताओं के हित के लिए जिस कामदेव ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उसे सभी देवताओं ने उत्तम वरदान दिये तथा वह छाया रूप में (अशरीर) रहने लगा। तदुपरांत शंकरजी और पार्वती के संबंध से कार्तिकेय का जन्म हुआ।
उत्पन्न होते ही उनकी शक्ति एकदम बढ़ने लगी। ऋषियों ने उसका जन्म संस्कार किया और देवताओं ने उसे अपना सेनापति बनाया। इसके बाद कार्तिकेय अपने पिता की आज्ञा प्राप्त कर तारक का वध करने तारकपुर जा पहुंचे। वहां देवताओं के साथ दैत्यों का भयंकर युद्ध हुआ, किंतु उनके घनघोर युद्ध करने के बाद भी कोई राक्षस मर नहीं रहा था। यह देखकर कार्तिकेय को भयानक क्रोध आ गया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि आज मैं किसी भी तरह दुष्ट दानवों का विनाश करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद वे अपने पूरे दल-बल के साथ रण भूमि में आये और अपने हाथ में रखे हुये अस्त्र को शक्ति पूर्वक राक्षसों पर फेंका। कार्तिकेय द्वारा फेंका हुआ अस्त्र सीधे तारकासुर के मस्तक पर जा लगा। उस प्रहार से वह अत्यंत व्यथित हो उठा और उसके मस्तक से खून का फौव्वारा बह निकला।
वह इस तरह चक्कर खाने लगा और चक्कर लगाता हुआ धनुष से दूर जा गिरा। इसके साथ ही उसके शरीर से एक तेज निकला और वह तेज भगवान शंकर में विलीन हो गया। कार्तिकेय ने शंकरजी के भक्त तारकासुर को अपने जन्म के छठे वर्ष ही एक क्षण में ही नाश कर दिया। लेकिन उस असुर का वध करने के बाद स्वामी कार्तिकेय को बड़ा दुःख हुआ, क्योंकि तारकासुर उनके पिता का बहुत बड़ा भक्त था। ऐसे पिता के भक्त का वध उन्होनें स्वयं किया था। इसलिये उनकी आत्मा को बिल्कुल शांति नहीं मिल रही थी। अब सभी देवता मिलकर उन्हे समझाने लगे कि पापियों के वध में कोई पाप नहीं लगता, किंतु कार्तिकेय को यही लगता कि शंकर के एक भक्त का वध उनके हाथों हुआ है, इसलिए वे स्वयं पाप के भागीदार हो गये है। ऐसा विचार कर उनका मन ग्लानि से भर उठा और उन्होनें इसका प्रायश्चित करने का निर्णय लिया।
तब भगवान विष्णु ने उन्हें समझाया- हे कार्तिकेय! भगवान शंकर के भक्त के वध करने से जो पाप होता है, उस पाप के निवारण के लिए भगवान शंकर के लिंग की प्रतिष्ठा करने से मनुष्य ब्रह्म-हत्या जैसे पापों से भी छुटकारा पा जाता है। अतएव लिंग की स्थापना ही इसके लिये सर्वश्रेष्ठ है, यदि लिंग अपूज्य रहे तो इसका दोष स्थापित करने को लगेगा। इसलिए कार्तिकेय ने एक लिंग की स्थापना की। हे मुनियों! इस प्रकार उत्तम तीर्थ की उत्पत्ति हुई। कार्तिकेय के विजय के उपरांत उत्पन्न हुये इस तीर्थ को कार्तिकेय के विजय को याद रखने के लिये ही उसका नाम स्तंभ तीर्थ रखा दिया।
यह स्तंभ तीर्थ (खंभात) में अत्यंत प्राचीन और अत्यधिक पुण्य देने वाला है। इस तीर्थ में सभी देवताओं का निवास है। सभी तीर्थ इसी एक तीर्थ में आते है। इसलिये इसका महत्व अन्य तीर्थों से अधिक है।
शौनक ऋषि बोले- हे सुतजी! कार्तिकेय की विजय के उपरांत यह उत्तम तीर्थ बना। इसे हम लोगों ने समझ लिया, किन्तु जैसा कि आपने कहा कि यहां सभी देवता निवास करते है और सभी तीर्थ यहां आते हैं तो यह किस प्रकार बना, दया करके इसे भी हम लोगों को सविस्तार बताइये।
शौनक महर्षि के प्रश्न को सुनकर सूतजी ने कहा- हे ऋषि! आपने बहुत उत्तम प्रश्न पूछा है। मैं इसका उत्तर दे रहा हूं। आप लोग इसे ध्यानपूर्वक सुनें। विराट विश्वकर्मा के अंश से उत्पन्न हुये ब्रह्मा के मानस पुत्र नारदजी एक बार पिता ब्रह्माजी की सभा में गये। उस समय सभा में दान की महिमा पर चर्चा चल रही थी। सभा में यह तय किया गया कि दान बड़ा महत्त्व है तथा दान में दी जाने वाली वस्तु जहां तक पहुंचे, वहां तक दान देने वाले को फल मिलता है। सभी दानों में भूमि दान का महत्व बहुत ज्यादा होता है, क्योंकि इसका फल कई पीढ़ियों में चलता है। भूमि का दान दिये जाने से जब तक भूमि रहेगी, तब तक उसके वंशजों को उसका फल मिलता रहेगा। उस समय भूमिदान की महिमा सुनकर नारदजी की भी इच्छा भूमिदान देने की हो गई, लेकिन स्वयं अकिंचन होने से भूमिदान के लिए भूमि कहां से लाते। अब उन्हे इसी बात से चिंता सताने लगी।
फिर भी उन्होनें भूमिदान के लिए महिसागर संगम के किनारे अति श्रेष्ठ भूमि पसंद की। उस समय वह भूमि सौराष्ट्र के राजा के अधिकार में थी। नारदजी ने तब उनको अपने ज्ञान से प्रसन्न कर भूमि, गाय और अन्य द्रव्य प्राप्त किया। इसके बाद वे स्तंभ तीर्थ की भूमि दान करने के लिए उत्तम ब्राह्मण की खोज में निकले, कारण यदि उचित पात्र को दान न किया जाये तो उसका पुण्य दान देने वाले को नहीं मिलता। दान को किसी सुपात्र को देने से ही उसका फल प्राप्त होता है। नारदजी ने अब उत्तम ब्राह्मण पाने के लिए सात प्रश्न तैयार किये और यह निश्चय किया कि जो ब्राह्मण उन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देगा वही सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होगा और दान के लिए सुपात्र होगा। फिर क्या था, नारदजी इसके लिये एक गांव से दूसरे गांव मे घूमने लगे, लेकिन बहुत दूर तक चक्कर लगाने के बाद भी उन्हें योग्य ब्राह्मण न मिल सका।
दैवयोग से एक दिन वे घूमते-घूमते हिमालय की तलहटी में जा पहुंचे। वहां एक नगर का नाम था - कलाय ग्राम। इस नगर में बहुत से ब्राह्मणों का निवास था। वे सारे ब्राह्मण स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले थे और स्वयं का बोया हुआ अनाज तथा वृक्षों में लगे हुये फल से अपना जीवन यापन करते थे। वे सारे के सारे लोग महान तपस्वी थे और अपना अधिक समय ज्ञान चर्चा में ही बिताया करते थे। यहां पर एक बारह वर्ष के बालक ने उनके सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया। तब प्रसन्न होकर नारदजी ने उसे ही भूमिदान देने का निश्चय किया। वे हरिनादि चार सौ ब्राह्मणों को महिसागर संगम के किनारे ले आये तथा बहुत बड़ी सभा का आयोजन करने के बाद उन्हें भूमिदान दिया। नारदजी द्वारा बसाये गये ये ब्राह्मण नारदीय कहलाये। एक बार इन ब्राह्मणों से थोड़ी सी भूल हो गयी। तब नारदजी ने उन्हे श्राप भी दिया था कि आप सब कलयुग में विद्याहीन होंगे और कुल का नाश हो जायेगा।
इस प्रकार पुण्यकारक तीर्थ में ब्राह्मणों को बसाने के बाद नारदजी ने प्रभु श्री विश्वकर्मा से प्रार्थना की कि वे कृपा करके उनके द्वारा बसाये हुये ब्राह्मणों के लिए योग्य आवासों की रचना करें एवं उनकी रक्षा के लिए जिन-जिन देवताओं की स्थापना आवश्यक हो, उन सब देवताओं के लिए भी योग्य स्थान का निर्माण करें। प्रभु ने नारदजी की विनती स्वीकार कर ली और क्षण मात्र में उनकी सारी व्यवस्था कर दी। उस समय प्रभु की सहायता से नारदजी ने स्तंभ तीर्थ के चारों ओर उनके रक्षण हेतु अनेक देवी देवताओं की प्रतिष्ठा की।
उत्तम वरदान देने वाले प्रभु विश्वकर्मा ने अपने अनन्य भक्तों की इच्छा के वशीभूत होकर सभी देवताओं से वहां निवास करने का वचन ले लिया। देवताओं ने यह भी कहा कि जब तक पृथ्वी कायम रहेगी, तब तक इसी क्षेत्र में निवास करेगें। हमारे मुख्य तीर्थ धामों में आकर तप करने से मनुष्यों को वैसा ही फल प्राप्त होगा जैसे अन्य तीर्थों में हमारे दर्शन करने से प्राप्त होता है। अब सब तीर्थ यही पर वास करेगें।
हे मुनियों! सब तीर्थ इस तीर्थ में किस तरह निवास करते है, इसे भी मैं बताता हूँ। नारदजी ने जब भूमिदान का समारंभ किया तो उसमें सभी देवताओं सहित अपने पिता को भी आमंत्रित किया। उस समय नारद जी के अनुरोध पर स्नेह के वशीभूत हुये ब्रह्माजी और देवी सावित्री स्तंभ तीर्थ में आये थे। वह समारंभ अच्छी तरह पूरा हुआ। रात अच्छी तरह आमोद-प्रमोद में व्यतीत हो गयी। दूसरे दिन प्रभात होते ही एक नया संकट उत्पन्न हो गया।
शास्त्रों में कहा गया है कि “अतिथि देवो भव “ अर्थात् मेहमानों को देवता समझना चाहिये। नारदजी के मेहमान वास्तव में देवता थे। ब्रह्माजी तो उनके पिता थे ही। यदि उनके आदर सत्कार में कोई कमी आती तो सारा किया गया कार्य व्यर्थ हो जाता।
मैंने पहले ही कहा था कि इस सारे सृष्टि में पृथ्वी, स्वर्ग तथा पाताल स्थित सभी तीर्थों को मिलाकर उनकी संख्या एक करोड़ है। ब्रह्मदेव का नियम था कि वे प्रातःकाल उठकर नियम पूर्वक सभी तीर्थों में स्नान करते थे। वे हंस पर आरूढ़ होकर स्नान करने जाते थे लेकिन उस दिन वे नारद जी के अतिथि थे। यदि वे वहां से बाहर निकलते तो नारदजी के अतिथि सत्कार में कमी मानी जाती। इसलिए नारदजी संकट में पड़ गये, किंतु बहुत देर में उन्होंने इसके लिए एक रास्ता ढूढ़ निकाला। उन्होंने प्रभु भगवान विश्वकर्मा का आव्हान करके बुलाया और उनसे एक कुण्ड निर्माण करने का अनुरोध किया। कुंड के पास ही एक कूप का निर्माण करवाया। तत्पश्चात् नारदजी ने सभी तीर्थों का आव्हान किया तथा करोड़ों तीर्थों का जल लेकर कुण्ड और कुएं में भर दिया।
करोड़ों तीर्थों में स्थित भगवान शंकर के शिवलिंग का पूजन करने का नियम जानकर नारदजी ने सभी तीर्थों में स्थित शिवलिंग की प्रार्थना कर उन्हें आव्हान करके बुलाया। इसके साथ ही प्रत्यक्ष बैठे भगवान शंकर को प्रसन्न किया तथा एक शिवलिंग की स्थापना करके नारदजी बोले- हे शंकरजी! जैसे आप करोड़ों तीर्थों में निवास करते है, उस प्रकार इस स्थान में एक स्वरूप बनकर मेरे बनाये लिंग में वास करें। जिस प्रकार आप सभी तीर्थों में फल देते है, उसी प्रकार सारे तीर्थों का फल एक ही बार में दें। नारदजी की स्तुति से प्रसन्न होकर शंकरजी ने नारदजी की इच्छा पूरी करने के लिये उस लिंग में सदा के लिये निवास किया। इस तरह उस लिंग का नाम कोटीश्वर (करोड़ ईश्वर) पड़ा। नारदजी के इस अद्भुत कार्य को देख सभी देवता आकाश से पुष्प वर्षा करने लगे। सभी और देव दुन्दुभि बजने लगी और नारदजी की जय-जयकार होने लगी।
नारदजी के इस अद्भुत अतिथि सत्कार को देखाकर ब्रह्माजी इतना प्रसन्न हुए कि वे भी सावित्री सहित कोटि तीर्थ के पास निरंतर निवास करने लगे। उस समय प्रभु विश्वकर्मा ने इन सब देवताओं के निवास के लिये उत्कृष्ट देवालयों की रचना की।
हे ऋषियों! जिस प्रकार कोटि तीर्थ की स्थापना हुई तथा जिस प्रकार सभी देवताओं का उसमें निवास हुआ ये सारी बातें मैने आपको बता दी। सब तीर्थों के निवास रूप तथा सब तीर्थों का उत्तम फल एक ही समय मिलने के आश्रय रूप, सब तीर्थों के स्तंभ समान यह स्तंभ तीर्थ सब तीर्थों से महान है। यह हर तरह से उत्तम फलों को देने वाला तया मनुष्यों को मोक्ष देने वाला है। इस तीर्थ की महिमा इतनी असीम है कि सहस्त्र मुख वाले शेष नारायण भी इसका वर्णन करने में असमर्थ है। यह तीर्थ चारों प्रकार के पुरूषार्थ और मोक्ष देने वाला हैं।
हे मुनियों ! इसी पुण्य प्रदायिनी तीर्थ में कालभीति नामक ब्राह्मण को चिर शांति मिली थी तथा उसने महाकाल की पदवी पाकर शंकर के रूप में स्थान प्राप्त कर लिया था। इस उत्तम तीर्थ में बकरी की देह वाली कुमारिका को सुंदर स्वरूप मिला था। शंकर जी की कृपा से वह पार्वती जी की श्रेष्ठ सखी बन गयी थी।
इसके महात्म्य स्वरूप ही विजय नामक एक ब्राह्मण को केवल एक रात्रि में सारी सिद्धियां मिली थी। यहां नारदजी द्वारा स्थापित देवियों की निरंतर सेवा करके और उनकी प्रसन्नता पाकर भीमसेन के पौत्र बर्बरीक ने देवत्व को प्राप्त किया था।
सूतजी आगे बोले- हे मुनि! इस प्रकार यह अति उत्तम तीर्थों से महान् तथा तीर्थों के राजा के समान और सब तीर्थो के स्तंभ समान है। इसका स्तंभ तीर्थ नाम भी सब प्रकार से सार्थक है। कार्तिकेय द्वारा रचित तथा नारदजी के सहयोग से विकसित जिसका संरक्षण अनेक देवियां करती हैं, ऐसे उस तीर्थ का अनेक ऋषि मुनियों ने सेवन किया है और उत्तम प्रकार की सिद्धियां उन्होनें क्षण भर में प्राप्त की है। इस तीर्थ का भ्रमण एक बार कर लेने से मनुष्य के सारे पाप एक क्षण में नष्ट हो जाते है। उसे सब तीर्थों के बराबर फल की प्राप्ति होती है। ऐसे अमोघ फल देने वाले तीर्थ का महात्म्य जान लेने के बाद कौन सा व्यक्ति अन्य तीर्थ की ओर दौड़ेगा। कौन मनुष्य इस तीर्थ को छोड़ना चाहेगा, कारण कि उत्तम वस्तु प्राप्त करने के अभिलाषी सभी होते है।
उस समय सूत जी के मुख से मही-सागर संगम तीर्थ स्तम्भ तीर्थ की महिमा सुनकर सारे ऋषियों को परमानंद हुआ। वे उच्च स्वरों से प्रभु श्री विश्वकर्मा का गुणगान करते हुये उनकी स्तुति करने लगे। विश्व के रचयिता प्रभु की और उनकी लीलाओं का पार पाना कठिन है। ऐसे प्रभु के द्वारा निर्मित लिंगों तथा स्थानों से जिसकी महत्ता बढ़ी है, ऐसे स्तंम तीर्थ का उत्तम महात्म्य सुन कर प्रसन्न चित्त ऋषि अनेक शास्त्रों के सार स्वरूप सूतजी की अनेक प्रशंसा करने लगे।
उस समय तीर्थराज स्तंभ तीर्थ का अर्चन और वंदन करते हुए, वे सूतजी से कहने लगे- हे सूतजी! आप तो अनेक पुराणों के जानकार है। हम लोगों को आपके मुख से स्तंभ तीर्थ का महात्म्य सुन कर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। हे धर्मज्ञ! आपने आरम्भ में ही इस तीर्थ का उल्लेख गुप्त क्षेत्र के नाम से किया था। यह बात हमारी समझ से परे रही। अब आप हमे कृपया विस्तार से बताये कि आपने इस क्षेत्र को गुप्त क्षेत्र क्यों कहा? इतना पुण्यदायक होते हुए भी किसी ने इसकी महिमा को क्यों नहीं जाना। यह हमारे मन मे संदेह पैदा करने वाला है। आप इन सब बातों का रहस्य हमें बताकर हमारे मन के संदेह को दूर करे।
ऋषियों की यह वाणी सुनकर सूतजी बोले- हे ऋषियों! यह गुप्त क्षेत्र ही स्तंम तीर्थ है। इस तीर्थ को एक बार धर्मराज ने उसके दोष के लिए दंड दिया था। धर्मराज ने श्राप दिया था कि कलियुग में यह तीर्थ गुप्त रहेगा। इसका महात्म्य कोई नहीं जानता। उसी श्राप के कारण यह गुप्त क्षेत्र अथवा गुप्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। इसकी महिमा मी गुप्त क्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी श्राप के कारण उसका महात्म्य गुप्त हो गया है, लेकिन महत्ता में कोई कमी नहीं आई। श्राप के कारण यह गुप्त अवश्य रहा। इसकी महिमा अन्य तीर्थों की तरह प्रसिद्धि नहीं पा सकी। इसी कारण लोग इस तीर्थ को नहीं जान पाये।
इस पर ऋषियों ने जिज्ञासा की- हे सूतजी! धर्मराज ने तीर्थराज को श्राप क्यों दिया था। यह भी हमें विस्तार से बताने की कृपा करें। सूतजी ने समझाया - हे ऋषिगण! एक बार ब्रह्माजी को सब तीर्थ को निमंत्रित करने की इच्छा हुई। ब्रह्माजी ने सभी तीर्थों को ब्रह्मलोक में आने का आव्हान किया। सबके आ जाने पर ब्रह्माजी ने उनके स्वागत सत्कार के लिए एक सभा बुलाई। उस सभा में प्रभु विश्वकर्मा सर्वोच्च आसन पर विराजमान थे। उनके दायीं ओर ब्रह्मा, विष्णु, महेश अपने योग्य आसनों पर आसीन थे। उनके पीछे गंधर्व तथा यक्ष बैठे थे। प्रभु के बायीं ओर नारद, तुम्बरू, गौतम, वशिष्ठ एवं विश्वामित्र आदि अपना आसन ग्रहण किये हुए थे। प्रभु के सम्मुख सभी तीर्थ बैठे थे। इस समारोह की शोमा प्रभु विश्वकर्मा बना रहे थे। उन्होनें प्रत्येक सभा में आये लोगों के आसन बनाये थे। आसन किस पदार्थ से बने थे इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। सभा में स्थान स्थान पर कल्पवृक्ष शोभायमान थे। कहीं भी प्रकाश के लिए दीप नहीं था। फिर भी सारी सभा प्रकाश की किरणों से जगमगा रही थी। जगह जगह पर मोती रत्न व हीरे जड़ित तोरण लटक रहे थे और भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वजा पताकायें बादल के साथ बातें कर रही थीं, उस समय ऐसा ही प्रतीत हो रहा था।
सभा आरम्भ होने के साथ ही ब्रह्माजी उठे और प्रभु विश्वकर्मा सहित सभी को प्रणाम कर गंभीर वाणी में कहने लगे- हे तीर्थ देवताओं! मैंने आप लोगों को एक साथ दर्शन करने के लिए यहां बुलाया है। अपने घर बुलाकर अतिथियों का उत्तम प्रकार से स्वागत करना यही हर गृहस्थ का धर्म है। इसलिये मुझे आप सब की पूजा करने की अभिलाषा है, किंतु आप लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। अतएव यह मेरी शक्ति के बाहर हो रहा है। इसलिये मैं क्या करूं, मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ रहा है। मुझे अब इस सभा में जो भी आदेश होगा, उसी आदेश का मैं पालन करूंगा।
ब्रह्माजी की सुनकर विष्णुजी बोले- सभी धर्मों के ज्ञाता और उसके पालक धर्मराज ही इसके लिए जैसा आदेश देंगें वही होगा क्योंकि धर्म के मामले मे परामर्श देने में वे ही अधिक निपुण हैं। उस समय विष्णुजी की बात से प्रभावित होकर धर्मराज बोले- हे ब्रह्मदेव! यदि आप सब तीर्थों का पूजन करने के लिए अशक्त हैं, तो सब तीर्थो में जो महान हो आप उसकी पूजन करें क्योंकि समझा यही जाता है कि सबसे बड़े का पूजन कर लेने से सबका पूजन हो जाता हैं। फिर अन्य तीर्थों का पूजन न हो सके तो इसमें कोई दोष नहीं। धर्मराज के इस आदेश से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी बोले- हे तीर्थ देवताओं! आप सब में महत्व की दृष्टि से जो महान् हो उसकी पूजा करने को मैं तैयार हूं। आप में जो सर्वश्रेष्ठ हो वह मुझे बताये मैं उसके पूजन के लिये तैयार हूँ।
ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर सभी तीर्थ एक दूसरे का मुँह देखने लगे और आपस में विचार करने लगे, किंतु कोई कुछ बोला नहीं। वे सोचने लगे कि जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा। इसलिये चुप रहना ही ठीक है। यह चुप्पी काफी समय तक रही।
यह देखा कर ब्रह्माजी ने फिर वही प्रश्न किया। तब देहधारी स्तंभ तीर्थ के अधिष्ठाता देव खड़े हुये और सभा के सदस्यों को प्रणाम कर ब्रह्माजी से बोले- ब्रह्मदेव! पृथ्वी, स्वर्ग तथा पाताल में स्थित जितने भी एक करोड़ तीर्थ है, उन सब में मैं ही महान् हूँ। अतएव आप मेरा पूजन करे। एक अकेला मेरा पूजन ही सब तीर्थों के पूजन करने के बराबर होगा। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिए।
स्तंभ तीर्थ के ऐसे गर्व भरे वचन सुनकर धर्मराज ने खड़े होकर कहा- हे देवताओं और ऋषिगणों! इस स्तंभ तीर्थ को अपनी महत्ता का अभिमान है। इसी निर्लज्जता के लिये मैं इसे श्राप देता हूँ कि कलियुग में इसका नामोनिशान बिल्कुल मिट जायेगा।
धर्मराज के ऐसे वचन सुनकर कार्तिकेय और नारदजी को बड़ी चिंता हुई कि जिस तीर्थ को महान बनाने में उन लोगों का स्वयं बहुत बड़ा हाथ था, उसका नाश हो यह उन्हें कैसे अच्छा लग सकता था। इसमें स्तंभ तीर्थ का थोड़ा भी दोष नहीं है, ब्रह्माजी ने प्रश्न किया था, स्तंभ तीर्थ के द्वारा उनका उत्तर दिया गया। वह उत्तर भी सत्य ही था। महिमा में उनकी श्रेष्ठता सबसे अधिक थी। यह विचार कर कार्तिकेय से नहीं रहा गया और वे बोले- हे धर्मराज! आप तो धर्म के पालन करने वाले है, आपके हाथों ऐसा अन्याय हो यह आपको शोभा नहीं देता। इससे तो सृष्टि का विनाश ही हो जायेगा। अतएव आप अपना श्राप वापस ले लीजिये। इस पर कार्तिकेय, नारद और धर्मराज के बीच काफी विवाद हुआ। इससे वातावरण यदि ऐसा होता रहेगा तो देवताओं के बीच झगड़ा पैदा हो जायेगा और सब क्रोधित हो उठेगें। इसलिए इस झगड़े का अंत तुरंत कर देना चाहिए।
यह सोचकर विष्णुजी ने कहा- हे धर्मराज! हे कार्तिकेय! आप दोनों शांत हो जायें और मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनें। आप दोनों ही ठीक कह रहे है। अतः रास्ता ऐसा निकालना चाहिए कि दोनों की मान-मर्यादा बना रहे। यदि प्रभु विश्वकर्मा को कोई आपत्ति न हो तो जैसा मैं कहूं वैसा करें। धर्मराज अपना दिया हुआ श्राप वापस ले सकते है और स्वामी कार्तिकेय को दुःख भी न पहुंचे कि उनके द्वारा स्थापित किये हुये तीर्थ का नाश हो। इसलिए यदि धर्मराज अपने श्राप को थोड़ा परिवर्तित कर दे तो बात बन सकती है।
भगवान् विष्णु की बात सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गये और बोले- ठीक है! विष्णुजी जैसा कहते है, वैसा ही होगा। स्तंभ तीर्थ का नाश नहीं होगा पर कलियुग में इसकी महिमा गुप्त रहेगी। इसकी महिमा कोई जान भी नहीं पायेगा। यह गुप्त तीर्थ के नाम से जाना जायेगा।
सूतजी बोले- हे ऋषि! इस प्रकार प्रभु की लीलाओं का जिसमें वर्णन है, ऐसे स्तंभ तीर्थ क्षेत्र का उत्तम महाम्त्य मैंने आप लोगों को सुना दिया। अब और जो कुछ सुनने की इच्छा हो उसे बताइये, क्योंकि प्रभु के गुण सुनने-सुनाने में मुझे कोई थकान नहीं आती। इसलिये आप लोगों को जो सुनना हो उसे निःसंकोच कहें।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में गुप्त क्षेत्र महात्म्य नामक छब्बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। सत्ताइसवाँ अध्याय
(भक्ति योग)
साधु सूत ! महाभाग ! भक्तियोगं च कथ्यताम् ।
यामाश्रित्य जनाः सर्वे मोक्षमिच्छन्ति शाश्वतम् ॥
ऋषि बोले- हे सूतजी ! हे महाभाग ! आप हमें भक्ति योग के बारे में बताइये । उसके सभी लक्षणों को हम विस्तार से सुनने को इच्छुक हैं । जिस भक्ति योग का आश्रय लेकर मनुष्य शाश्वत मोक्ष पाने की इच्छा रखते हैं, उसी भक्ति योग के जानने की हमारी तीव्र आकांक्षा है। अतएव उस भक्ति योग के प्रभाव के बारे में हमें बताने की कृपा करें।
ऋषियों की यह वाणी सुनकर सूतजी बोले- हे ऋषियों ! इलाचल पर एक दिव्य बरगद के नीचे प्रभु विश्वकर्मा अत्यन्त सुशोभित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके पाँच ब्रह्मर्षि उस समय हाथ जोड़कर उनकी स्तुति कर रहे थे। अपने पुत्रों को इस तरह स्तुति करते हुये देखकर प्रभु विश्वकर्मा बोले- हे पुत्रों ! लगता है आप लोगों के अन्तर्मन में कोई गहरी चिन्ता व्याप्त है। आप उसे मेरे सम्मुख कहिये। मैं उसे अवश्य दूर करने की चेष्टा करूँगा।
प्रभु की इस वाणी को सुनकर पाँचों ब्रह्मर्षि गदगद हो उठे। फिर ब्रह्मर्षि मनु बोले - हे देवाधिदेव ! संसार के अनेकों क्षणिक विषयों के सुख-रूपी अन्धकार में लिप्त हुआ मनुष्य जब उस अन्धकार में बेचैन होने लगे, तब उस अन्धकार से मुक्ति दिलाने के लिये आपके सिवाय कौन सामर्थ्यवान हो सकता है? आप ही आदि, मध्य और अन्त में रहने वाले सबके अधिष्ठाता परमेश्वर हो । प्राणियों के अज्ञान रूपी अन्धकार को आप ही विनष्ट करने वाले हैं। अतएव हे प्रभु ! हम आपसे धर्म के बारे में जानने की अभिलाषा रखते हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं, आपसे कुछ भी गुप्त नहीं। फिर हमारे प्रश्न का उत्तर तो आपको हमें देना ही है। वास्तव में हम आप से धर्म के विषय में कुछ जानना चाहता है। आप हमारी इस अभिलाषा को पूरी करें।
ब्रह्मर्षि मुनियों की सारगर्भित वाणी सुनकर प्रभु विश्वकर्मा प्रसन्न हो उठे और बोले- हे पुत्रों ! जिन्हें मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा है, उनके लिये अध्यात्म योग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कारण कि अध्यात्म योग ही व्यक्तियों का कल्याण कर सकता है और यही योग उसके दुःखों का नाश कर सकता है। साम दाम आदि सब अंगों से पूर्ण इस अध्यात्म योग के बारे में मैं आप लोगों को बताता हूँ। प्रत्येक प्राणी का जीवात्मा हर तरह के बन्धन से परे है। फिर भी उसका चित्त (मन) ही उसका सबसे बड़ा बन्धन है, जीवात्मा को बन्धन में डालने वाला है तथा अनेक प्रकार के विषयों से पूर्ण उसका चित्त है। यदि प्राणियों का चित्त सब विषयों को छोड़ कर परमात्मा में लग जाये तो उस प्राणी का मोक्ष हो जाता है। जब प्राणियों में "मैं" का मद आ जाता है और वह अहङ्कार में भर कर कहने लगता है कि यह मेरा है अथवा यह काम मैंने किया, तो उसमें अभिमान उत्पन्न होता है। तब उसके अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर छः भयङ्कर शत्रु उससे लिपट जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत जो प्राणी मेरापन छोड़कर सब कुछ प्रभु के अधीन कर दे तो उपर्युक्त छहों शत्रुओं से वह बच जाता है और ऐसा होने से दुःख द्वन्द आदि सभी उससे दूर भाग जाते हैं।
वह प्राणी समान दृष्टि रखने वाला होता है और शीघ्र ही उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लेता है । संसार के सभी विषयों के प्रति उसे वैराग्य हो जाता है और उसका मन केवल परमात्मा में ही स्थिर हो जाता है। उसकी आत्मा निर्मलता प्राप्त कर लेती है तथा वह सभी भेदों से दूर और स्वयं प्रकाशित होती है। जिस प्रकार अङ्गारों पर राख पड़ने से अङ्गार धूमिल हो जाता है और उसी राख को हटा देने से अङ्गारे फिर चमकने लगते हैं। उसी तरह आत्मा भी जब विषयों की आशक्ति से छूट जाती है, तो वह चमकने लगती है। इसलिये जो मनुष्य ब्रह्मत्व प्राप्त करना चाहता हो उसे चाहिये कि वह प्रभु की भक्ति द्वारा अपना चित्त, विषयों से हटा ले । प्रभु में लीन व्यक्तियों को सहज ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। सज्जनता से भरे हुये व्यक्ति दया के भण्डार और सहनशील होते हैं। वे सबसे समभाव रखते हैं तथा दुनिया में उनका कोई शत्रु नहीं होता। उनमें शान्ति का गुण कूट-कूट कर भरा होता है। वे कभी शास्त्र के वचनों का उल्लंघन नहीं करते और अपने चरित्र में मलिनता नहीं आने देते। अतएव सज्जन अथवा सत्पुरुष कहे जाने वाले व्यक्ति केवल प्रभु में ही अपनी भक्ति लगाये रखते हैं। वे मोक्ष पाने के लिये उसकी ही भक्ति भावना को दृढ़ किया करते हैं। वह सब कुछ प्रभु पर छोड़कर अपने सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ देता है और निरन्तर उत्तम फल देने वाली प्रभु की कथा सुनता है। उनकी लीलाओं का गुणगान स्वयम् भी करता है और दूसरों से करवाता भी है। उसे हर स्थान पर प्रभु की झलक दिखाई देती है। प्रभु में चित्त लगाये रखने वाले व्यक्ति को आधिदैविक, आधिभौतिक तथा अध्यात्मिक दुःख नहीं व्यापता।
उत्तम व्यक्ति किसी भी प्रकार की अच्छाई या बुराई में नहीं पड़ते, मेरे अनन्य भक्त अपने इन्द्रियों के आश्रय में जो कुछ कार्य करते हैं. वे सारे कार्य मेरे लिये ही हैं। वे इस प्रकार का कार्य करते-करते निरन्तर मेरे ही गुण पराक्रम तथा लीलाओं को गाते या श्रवण करते हैं तथा सदैव प्रसन्नता से भरे रहते हैं। उनके मुख पर दुःख या शोक की छाया भी नहीं रहने पाती। वे अपने हृदय में बराबर मेरी छवि ही देखा करते हैं और मेरे ही तेज स्वरूप का अपने मन में सदैव ध्यान किया करते हैं और मेरे ही अलौकिक स्वरूप को ध्यान में रखकर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ायें और बातचीत किया करते हैं। तात्पर्य यह कि वह हर ढंग से मुझमें ही रत रहते हैं। इस प्रकार मेरी भक्ति में लीन होकर वे तरह-तरह की कल्याणकारी शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं और उन शक्तियों से शाश्वत सुख और आनन्द का उपभोग करते हैं। मेरा जो भक्त माता-पिता, भाई-बन्धु, अनुज सखा आदि में मेरे ही स्वरूप को देखता है उसे मैं विपुल, ऐश्वर्य प्रदान करता हूँ। इसके अलावा जो भक्त अकेला मुझे भजता है, उसे मैं जगत् के बन्धनों से छुटकारा दिला देता हूँ अर्थात् वह जन्म मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
हे पुत्रों ! तुम लोग मुझे ही इस जगत् का कर्ता-धर्ता और हर्ता मानो। मेरी इच्छा के विरुद्ध एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। फिर बिना मेरा सहारा लिये हुए कौन इस संसार सागर से पार हो सकता है, क्योंकि सूर्य, चन्द्र का प्रकाशित होना तथा अग्नि का प्रज्वलित होना यह सब मेरी ही शक्ति के कारण हैं। मेरी भक्ति में जो भी मन लगाता है। वह सभी भयों से छुटकारा पाकर मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।
विश्वकर्माजी ने आगे कहा - हे पुत्रों ! इस प्रकार मैंने आपको भक्ति के लक्षण बताये । यह भक्ति कई प्रकार की होती है। अब मैं उसका भी वर्णन कर रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनें।
भक्ति के विभिन्न मार्ग हैं तथा भक्ति भी तीन प्रकार की है। सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण आदि भेद के कारण व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न प्रकृति होती है। उनकी इन्हीं प्रकृतियों के कारण भक्ति के भी भेद उत्पन्न होते हैं, गुण भेद के कारण भक्ति के भी तीन प्रकार के मुख्य भेद हैं -
(१) सात्विक भक्ति, (२) राजसी भक्ति, (३) तामसी भक्ति ।
(१) सात्विक भक्ति :- यह भक्ति मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है। एक तो स्वयम् के द्वारा किये गये दुष्कर्मों को दूर करने के लिये, अथवा वह भक्ति जो पापों के प्रायश्चित करने के लिये की जाती है। यह दोनों भक्तियाँ सात्विक प्रकार की प्रथम भक्ति मानी जाती है। दूसरे प्रकार की सात्विक भक्ति वह होती है, जो किसी प्रकार के फल की आशा रखे बिना मात्र प्रभु की प्रसन्नता के लिये की जाती है। तीसरे प्रकार की सात्विक भक्ति वह है, जो प्रभु की प्रसन्नता की आशा रखे बिना, मात्र अपना कर्तव्य समझ कर की जाती है। सात्विक भक्ति के तीन प्रकारों के श्रवणादि भेदों के कारण नौ-नौ प्रकार होते हैं और इस प्रकार सात्विक भक्ति कुल मिलाकर सत्ताइस प्रकार की होती है।
(२) राजसी भक्ति - इस भक्ति के भी तीन प्रकार हैं। पहले प्रकार की राजसी भक्ति वह होती है, जो अनेक प्रकार के ऐश्वर्य तथा सुख की प्राप्ति के लिये अथवा सम्पत्तियों की प्राप्ति की इच्छा रखकर की जाती है। दूसरे प्रकार की राजसी भक्ति वह होती है, जो यश पाने अथवा अपनी कीर्ति बढ़ाने या मात्र प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये की जाती है। तीसरी राजसी भक्ति वह है, जो अपनी इन्द्रियों से जिस प्रकार सुख भोगा जाता है, वैसा सुख प्राप्त करने के लिये की जाती है। इस तरह राजसी भक्ति भी तीन प्रकार की होती है। श्रवण कीर्तन आदि नौ भेदों के कारण तीन प्रकार की भक्ति के नौ-नौ भेद मिलाकर इस भक्ति के भी सत्ताइस प्रकार हैं।
(३) तामसी भक्ति :-तमोगुण के आश्रय वाली इस भक्ति को भी कर्मों के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया गया है। पहले प्रकार की तामसी भक्ति वह है, जो मत्सर भाव का आश्रय करके तथा भेद दृष्टि में रख कर की जाती है। दूसरे प्रकार की तामसी भक्ति वह है जो आडम्बर, ढोंग या दिखावे के लिये दम्भ का आश्रय लेकर की जाती है। तीसरे प्रकार की तामसी भक्ति वह है, जो हिंसा का आश्रय लेकर क्रूर कर्म के लिये क्रोधित होकर की जाती है। इस प्रकार तामसी भक्ति तीन प्रकार की होते हुये श्रवण कीर्तनादि नौ भेद होने से कुल सत्ताइस भेद इसके भी हैं। इस प्रकार प्रभु की सगुण भक्ति भी उन्यासी प्रकार की है। इनके अन्य भेदों की गणना नहीं की गयी है।
हे पुत्रों! इस तरह मैंने आप लोगों को सगुण, निर्गुण भेदों का वर्णन किया । इन सब में प्रभु की निर्गुण भक्ति सर्वश्रेष्ठ है । जो भक्त उत्तम निर्गुण भक्ति में अपना मन लगाते हैं, ऐसे अनन्य भक्तों को अपनी समानता देकर उन्हें अपने पास ही रखता हूँ। मेरे ऐसे भक्त, कर्म बन्धनों से परे होकर मुझमें ही अपना मन लगा कर नित्यकर्म अहङ्कार के भेद बुद्धि के सिवाय करते हैं तथा सत्कर्म करते हैं, वे तप, दया का भाव रखते हुये बुजुर्गों के प्रति सम्मान रखते हैं, धर्म का सेवन करते हुये सभी कर्मों में अहं भाव का त्याग कर सभी कर्म मुझमें ही अर्पित कर देते हैं । इस तरह सत्पुरुषों के द्वारा बताये हुये रास्तों पर चलते हुए वे मेरे ही धाम में पहुँच जाते हैं । इस विषय में कोई भी सन्देह नहीं किया जा सकता।
आत्मा परमात्मा का ही अंश है, इसलिये सभी प्राणियों में व्याप्त आत्मायें समान हैं। अतएव सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना चाहिये और सबको समान सृष्टि से देखना चाहिये। यही नहीं प्राणियों का आदर सत्कार भी करते रहना चाहिये। यदि ऐसा किया जाये तो इस तरह सब प्राणियों की पूजा परमात्मा की ही पूजा मानी जायेगी। यदि किसी प्राणी को दुःख दिया जाये अथवा भेद दृष्टि किया जाये तो यह परमात्मा का अपमान है। मनुष्यों को प्रत्येक प्राणियों में सद्भावना रखनी चाहिये और सब को समान दृष्टि से देखना चाहिये। ऐसा न करके केवल मूर्ति का पूजन सच्चा पूजन नहीं है, यह मात्र आडम्बर है। इससे ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। मूर्ति पूजा ईश्वर को प्रसन्न करने का साधन नहीं। उससे तो मात्र चित्त ही शुद्ध होता है। जिस व्यक्ति की मूर्ति पूजा करके मन की शुद्धि नहीं होती, उसे मूर्ति पूजा का कोई फल नहीं मिलता। ऐसे भेद बुद्धि रखकर केवल मूर्ति पूजा का कोई फल ही नहीं मिलता। ऐसे भेद बुद्धि रखकर केवल मूर्ति पूजा करने वाले व्यक्ति को भयङ्कर पाप लगता है। फिर पाप से छूटने के लिये उसे अनेक प्रयत्न करने होते हैं । केवल शारीरिक परिवर्तन की भिन्नता के कारण मनुष्य को भेद-भाव नहीं रखना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक प्राणियों के शरीर में रहने वाली आत्मा परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार छोटे-बड़े होने के बावजूद एक ही तरह वृक्ष, फल और दृष्टि से समान है। इस तरह छोटे बड़े होने के बाद भी आत्मा की दृष्टि से सब समान हैं।
इसके पश्चात् प्रभु विश्वकर्मा अपने पाँचों पुत्रों से बोले- हे ब्रह्मर्षि ! आप लोग मेरे मुख से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये आप सब मेरे अपने ही हो । इसलिये आप लोगों को भी योग्य ज्ञान तो देना ही चाहिये । बालक का प्रथम गुरु उसका पिता है । इसलिये आप सब मेरी बातों को ध्यान से सुनें । इस संसार के अनेक कष्टों को सहता हुआ जो व्यक्ति बिना किसी फल की आशा किये हुये प्रभु की भक्ति करता है, वह मेरा अतिप्रिय सर्वश्रेष्ठ भक्त है । इस प्रकार की भक्ति से आत्मा तथा परमात्मा की प्रसन्नता पायी जा सकती है। प्रभु की निष्काम भक्ति उत्तम प्रकार की ज्ञान देने वाली है। जो व्यक्ति निरन्तर धर्म के मार्ग पर चलता है, उससे भक्ति और श्रद्धा उत्पन्न होती है। प्रभु के लिये जिसके मन में श्रद्धा होती है, उसकी प्रीति प्रभु की लीला कहने सुनने में निरन्तर बनी रहती है। ऐसे मनुष्य शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। उस उत्तम भक्ति करने वाले को प्रभु, धन या पुत्र इत्यादि क्षणिक सुख नहीं देते बल्कि वे उसका परिचय उसकी आत्मा के उस अविनाशी स्वरूप से करवा देते हैं, जो आत्मा से भिन्न नहीं है।
तत्व पुरुष जिसे तत्व कहते हैं, वह तत्व ही आत्मा की पहचान का ज्ञान है। वह ज्ञान रूपी तत्व ही मेरा अर्थात् मेरा परब्रह्म आदि पुरुष का स्वरूप जानो। परन्तु उसे देखने के लिये उन्हें सारे शास्त्रों का अभ्यास करके फिर उन-उन शास्त्रों का सारभूत ग्रहण कर मेरी भक्ति का आश्रय लेना पड़ता है। वर्णाश्रम की विभाग में अच्छी प्रकार आचरण करके प्रभु का सानिध्य पाया जा सकता है और इसी प्रकार प्रभु की अनन्य भक्ति जिसने प्राप्त कर ली है, ऐसे और उत्तम भक्तों की सेवा करने से व्यक्तियों की सारी वासनायें शान्त हो जाती हैं। भक्तिहीनों को भगवद् भक्ति का घोष प्रभावित करता है। भगवद् भक्ति का नाद कानों में पहुँचते ही सब विकारों का नाश होकर तथा मनुष्य का मन सत्व गुणों का आश्रय पाकर प्रभु में स्थित हो जाता है। ऐसे प्रभु की भक्ति रूपी साधना में जिसका मन शान्त हो गया है। वे इस असार संसार के विदाध वातावरण में चिर शान्ति प्रदान करने वाला परम तत्व का ज्ञान पा जाते हैं ओर ऐसे व्यक्ति को अपने ही अन्तर में परमात्मा के सच्चे स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं। प्रभु के दर्शन होने के साथ ही उसके मन के समस्त अहङ्कार नष्ट हो जाते हैं। उसके सभी तर्क-वितर्क विनष्ट हो जाते हैं और फिर वह कर्म बन्धन से छूट जाता है। इसी वजह से जो भी "ज्ञानी व्यक्ति हैं", वे बराबर प्रभु की भक्ति में ही लिप्त रहते हैं।
भगवान सर्वत्र व्यापक होने के कारण सगुण होते हुये भी निर्गुण हैं और तीन गुण वाली त्रिविध प्रकृति के आश्रय में रहकर समस्त विश्व में व्याप्त हैं, सबका पालन करने वाले हैं। उन्होंने अपनी ही माया से वशीभूत होकर समस्त विश्व का सृजन किया। फिर स्वयम् चैतन्य रूप में उसमें प्रवेश कर उसी चेतन स्वरूप से वे उसका नियन्त्रण करते हैं। वे स्वयम् भी अपनी चैतन्य शक्ति के प्रकाश के कारण प्रकाशित होते हैं और अद्वितीय होते हुए भी अन्य शरीर के आकार में उसी तरह रहते हैं, जैसे किसी बर्तन या घड़े के आकार में पानी रहता है।
इस तरह मैं परम चैतन्य स्वरूप पञ्च महाभूत इन्द्रिय तथा मन और तीन गुणों द्वारा सारी रचना करता हूँ और उसी में प्रवेश करके क्रीड़ा करता हूँ। हे पुत्रों! मैं अपनी सारी सृष्टि का पालन रक्षण तथा नियन्त्रण करता हूँ।
उस समय प्रभु विश्वकर्मा के वचन सुनकर मनु आदि उनके पाँचों पुत्र बड़े प्रसन्न हुये। उनके कण्ठ भर गये और आनन्दाश्रु से उनकी आँखें गीली हो उठीं। उनके मुख से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी। इसके बाद प्रभु ने अपने वरद् हस्त उनके मस्तक पर रखा । फिर वे गदगद कण्ठों से प्रभु विश्वकर्मा की स्तुति गाने लगे।
वे कहने लगे - हे पिता ! हे नाथ ! हे देवाधिदेव ! सारे विश्व को उत्पन्न करने वाले । आप स्वयं इस सृष्टि को उत्पन्न कर उसे नियम में रखते हुये उसके पालन करने वाले हैं। फिर प्रलय-काल के समय उन सब में से निकल कर पुन: एक होकर रहने वाले, ऐसा आपका चेतन स्वरूप जब इस सृष्टि से अलग हो जाता है, तब समस्त विश्व की चेतना समाप्त होते ही वह विनष्ट हो जाता है । इस प्रकार अपनी ही सृष्टि को आप अपने में ही विलीन कर लेते हैं। ऐसे अगाध वैभव तथा पराक्रम वाले जगत नियन्ता हम आपको नमस्कार करते हैं तथा हमारा चित्त संसार के सभी बन्धनों और नियमों से दूर रहकर हे विराट प्रभु ! आपकी भक्ति में स्थिर रहे।
हे देवाधिदेव ! हे विश्वात्मन् ! हे दया के भण्डार ! आप अनेकानेक गुणों के धारण करने वाले होकर भी निर्गुण तथा अनेक स्वरूप धारण करके भी आप अरूप हैं। हे परमात्मा ! हम आपको प्रणाम करते हैं तथा बार-बार आपकी भक्ति अपने चित्त को दृढ़ रखते हुये आपके परम तेज में स्थापित करते हैं।
आपने जिस नवधा भक्ति को बताया है, उसमें श्रवण कीर्तन रूपी उत्तम सात्विक भक्ति में रत होकर आपके सभी यश गान को गाते हुये हम आपके सगुण स्वरूप से परिचित होते हुये निर्गुण स्वरूप को पहचानने तथा उसी स्वरूप को पाने की इच्छा से निरन्तर उस दिशा में प्रयास करते हैं। इस आपके निर्गुण स्वरूप परम तेज को पाकर इस संसार से मुक्त होते हुये मोक्ष को प्राप्त करें। यह आपकी कृपा से ही सम्भव है।
हे सर्वज्ञ ! हे समग्र सृष्टि के नियन्त्रक ! हे सारे विश्व के रक्षक ! इस असार संसार को अनेक बन्धन-रूपी आपकी दुःसाध्य माया का पार देवतादि भी नहीं पा सकते, उसी माया में वे भी फँसे हुये हैं। मकड़ी के मजबूत जाले की तरह आपकी माया से निकल पाना कठिन है।
मनु आदि पाँचों ब्रह्मर्षियों के ऐसे वचन सुनकर आदि नारायण प्रभु विश्वकर्मा प्रसन्न चित्त होकर बोले - हे पुत्रों ! मैंने आप को दिव्य ज्ञान दिया है और उसका निरन्तर अभ्यास करने से आप इस सृष्टि में चारों ओर फैली मेरी माया को पार कर जल्दी ही मुझे प्राप्त करने में सफल होंगे और मेरे सत्य स्वरूप को पहचान लेंगे। इस विश्व के अनेकों प्रकार के कार्य सिद्ध करके तथा सृष्टि के प्रजाओं के अन्य कार्य करने के लिये अपने वंशजों की यहाँ स्थापना करके आप मेरी सानिध्यता में आओगे। निरन्तर जीवन युक्त होकर मेरे ही ध्यान में मग्न होकर उस मोक्ष को पा लोगे, जो ऋषि-मुनियों को भी अति कष्ट से प्राप्त होने वाला है।
सूतजी बोले-इस प्रकार परम दया के भण्डार प्रभु विश्वकर्मा अपने पाँचों पुत्रों को भक्ति योग तथा उसके इक्यासी प्रकारों का सम्पूर्ण ज्ञान देकर तथा उन्हें उत्तम आशीर्वाद प्रदान कर अपने आसन पर ध्यानस्थ हो गये । तत्पश्चात् उनके पाँचों पुत्र भी उनके सानिध्य में उनके स्वरूप को अपने हृदय में उतार कर नेत्र बन्द करके अन्तर में उनका ही गुणगान करते हुये उनको पाने के लिये सगुण भक्ति में लीन हो गये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में भक्ति योग नामक सत्ताइसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। अट्ठाइसवाँ अध्याय
(विश्वावसु आख्यान-१ )
विश्वावसुश्च को आसीत् किमर्थं प्रत्यपूजयत् ।
किं फलं प्राप्तवान्चासौ तन्नो कथय विस्तरात् ॥
ऋषि बोले - हे सूतजी ! विश्वावसु कौन था ? प्रभु विश्वकर्मा का उसने किस कारण से पूजा किया। पूजन करने से उसे कौन सा फल प्राप्त हुआ। आप दया करके ये सारी बातें विस्तार से बतायें। प्रभु विश्वकर्मा के अत्यन्त पवित्र भक्तों का चरित्र जानने की हमारी प्रबल इच्छा है।
सूतजी बोले-हे ऋषिगण ! बहुत प्राचीन समय में बर्हिष नामक एक राजा था। वह अपनी प्रजाओं का पालन बड़ी ही अच्छी तरह करता था। उसके राज्य में चोर, बटमार या लुटेरे कहीं दिखलायी नहीं पड़ते थे। वह राजा कलाकार, ज्ञानी पुरुष और विद्वानों को आश्रय देने वाला था। वह खुद भी सारी कलाओं का प्रेमी और जानकार था। दुष्टों का दमन वह बड़ी क्रूरता के साथ करता था, एवम् राजा अपनी प्रजा के बीच बड़ा लोकप्रिय था। वह राजा अपने राज्य के विद्वानों की सभा किया करता और इस तरह उसके दरबार में हर तरह के लोग आया करते थे। उसकी इस सभा में सानग ब्रह्मर्षि के वंश में भाभन्यु गोत्र का मृत्युञ्जय नामक विश्व ब्राह्मण भी था। मृत्युञ्जय ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था तथा हर प्रकार के ज्ञान-विज्ञान हासिल किये हुए था। छहों शास्त्र तथा छहों दर्शन से कण्ठाग्र थे। वह धर्म के मार्ग पर चलता हुआ नित्य-कर्म करने वाला षट्कर्म में निपुण था। उसने हर तरह की सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थी। उसकी उपासना में इतनी शक्ति थी कि वह जो चाहे वही कर सकता था। वाद-विवाद में उसके सामने कोई टिक ही नहीं पाता था। ऐसे ज्ञानी ब्राह्मण को राजा ने अपने दरबार में रखकर उसे पुरोहित का पद दे दिया था। राजा सारा यज्ञ कार्य और धार्मिक अनुष्ठान उसी से कराते थे। वह आचार्य के रूप में राजा के सभी संस्कारों को पूरा किया करता । बर्हिष राजा गायें, भूमि तथा स्वर्ण आदि देकर उसे सम्मानित किया करते थे।
मृत्युञ्जय के वंश में शतमन्यु, चतुर्भद्र, सत्यक आदि-आदि गोत्र प्रवर्तक हो चुके हैं। मधु, माधव, सुनन्द, प्रबोधक आदि अनेक शास्त्र प्रवर्तक भी हो चुके हैं। इन लोगों ने समग्र शिल्प शास्त्र का सारे विश्व में प्रचार किया है। हे मुनियों ! सानग गोत्र के मृत्युञ्जय के सीमन्त नामक पुत्र था। उसी सीमन्त का पुत्र विश्वावसु था।
विश्वावसु जन्म से अपंग था। वह हिल-डुल सकने में असमर्थ था। उसके हाथ की अंगुलियाँ ऐसी अकड़ी हुयी थी कि वह अपने हाथ से किसी भी वस्तु को पकड़ नहीं सकता था। वह न तो सुन सकता था और न देख सकता था। ऐसे बालक को पाकर माता-पिता बहुत चिन्तित हो उठे। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती थी, वैसे-वैसे माँ सुयशा और पिता सीमन्त की चिन्ता बढ़ती जाती थी ? पुरोहित के पद पर आसीन होने के कारण उनके पास सुख-वैभव की कमी न थी पर इस चिन्ता से वह पेट भर खा नहीं सकते थे। विश्वावसु के और भी चार बड़े भाई थे, किन्तु उनके माता-पिता यह जानते थे कि उनके मरने के बाद विश्वावसु को बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा।
विश्वावसु भी कुछ बोलना चाहता था, लेकिन स्पष्ट रूप से वह कुछ न बोल पाता । उसके पिता ही उसे नहलाते, धुलाते और उसे बैठाकर अपने हाथ से खाना खिलाते । चलने में असमर्थ होने के कारण वे लोग ही उसका मल-मूत्र उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते । माता-पिता की मनः स्थिति देखकर विश्वावसु के चारों भाई भी देखभाल में कोई कमी न लाते । उन चारों भाइयों ने शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन कर लिया और शिल्प विद्या में भी पारंगत हो गये और उन्होंने माता-पिता का सारा बोझ अपने कन्धों पर ले लिया था। वे अपने पिता के साथ राज्य सभा में जाते। वहाँ यज्ञादि करते और पिता की अनुपस्थिति में वे सभी धार्मिक अनुष्ठान करते। यजमानों को सन्तुष्ट करते हुये देखकर उनके पिता के मन को बड़ी शान्ति मिलती थी, लेकिन अपने अपंग पुत्र की चिन्ता उन्हें अधिक रहती थी।
विश्वावसु यद्यपि बोल नहीं सकता था। फिर भी उसे इस बात का भास होने लगा था कि उसके पिता उसके लिये बहुत चिन्तित रहते हैं। अब विश्वावसु अपने माता-पिता को इस चिन्ता से मुक्त कराने का उपाय सोचा करता, पर उसे इसके लिये कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा था । यदि कोई उपाय उसे सूझ भी जाता था, तो वह उसे पूरा करने में असमर्थ था। जिस माता ने नौ महीने तक अपने कोख में रखकर उसके लिये अनेक प्रकार के कष्ट उठाये, उस माता को उसके जन्म लेने के बाद भी कष्ट उठाना पड़े यह बात उसके लिये बहुत दुःखदायी हो रही थी।
किन्तु भगवान् भी दया का सागर है, वह हर प्राणी को दुःखों से उबरने के लिये एक मौका अवश्य देता है। उसी अवसर में हर प्राणी अपनी इच्छा सिद्ध कर सकता है। विश्वावसु के लिये भी कुछ ऐसा ही हुआ । प्रभु की प्रेरणा से एक बार सीमन्त और उसकी पत्नी सुयशा ने ईलाचल की तीर्थ यात्रा करने की सोची। उस समय सीमन्त अपनी पत्नी से बोले - हे सुन्दरी ! सारा जीवन मैंने राजा और प्रजा की सेवा में बिता दिया। उन लोगों के अनेक कार्य सिद्ध किये। उसके फलस्वरूप मुझे दक्षिणा में काफी द्रव्य भी प्राप्त हुआ। अब मेरा स्थान मेरे पुत्र भी ले सकते हैं, क्योंकि उन्हें भी सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान हो चुका है। इसलिये मेरी इच्छा है कि अपने द्वारा संचित किये हुये धन का सदुपयोग हो, जिससे लोक-परलोक सुधरे ऐसे उत्तम कार्य में संचित किये हुए धन को खर्च करने की मेरी इच्छा है। इस विषय में यदि आपको भी कोई राय देनी हो तो बतायें।
अपने स्वामी के ऐसे वचन सुनकर सुयशा ने कहा- हे नाथ! स्त्री के लिये तो पति ही उसका परमेश्वर है। इसलिये किसी को पत्नी से उसकी इच्छा के बारे में कुछ पूछना ही नहीं चाहिये, क्योंकि स्त्री पति की सेविका मात्र होती है। पति की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना ही स्त्रियों का धर्म है। पतिव्रता स्त्री पति की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानती है। अतः हे स्वामी ! आपकी इस इच्छा में मेरी भी सहमति है। आप केवल आज्ञा करें। यह दासी उसका पालन करने में सदैव तैयार रहेगी। उसमें किसी तरह की बाधा मेरी ओर से न होगी, क्योंकि लग्न-मण्डप में देवताओं के सम्मुख मैंने आपको ये वचन दिये थे। अतः आप निश्चिन्त रहें, मैं हर तरह से आपका साथ दूंगी।
पत्नी की ऐसी वाणी सुनकर सीमन्त प्रसन्न होकर बोले- हे भामिनी! शास्त्रों में नारी को बहुत बड़ा स्थान दिया गया है। उनका कथन है-"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता", अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता है। नीति शास्त्र में ऐसा भी लिखा है कि भोजन के समय अपने पति को प्रेम पूर्वक खिलाने वाली स्त्री का स्वरूप माता के समान होता है, क्योंकि माता जैसे अपने पुत्र को अधिक खिलाने की चेष्टा करती है, वैसे ही वह अपने पति को अधिक खिलाने में सुख अनुभव करती है। रात्रि के समय वही अप्सराओं के मान को भङ्ग करती हुयी पति को ऐसा मदहोश बनाती है कि पति क्षण भर के लिये सारे संसार को भूल जाता है। इसके अतिरिक्त वह घरेलू कार्यों में भी पति को ऐसा परामर्श देती है, जो पति के लिये बहुत उपयोगी होता है। इस तरह वह एक मन्त्री का कार्य करती है। इस तरह अपने को विविध स्वरूपों में प्रस्तुत करने वाली स्त्री अबला नहीं प्रबला होती है। यह देखते हुये पुरुष को अपने कार्यों में स्त्रियों की सलाह लेनी उचित है । यदि ऐसा होता है, तो पुरुष का हर काम सफल होता है। अतः इस समय एक स्त्री नहीं बल्कि मन्त्री के रूप में मेरे इस विचार को जैसा उचित हो परामर्श दें। संचित धनराशि का एक भाग धर्म के कार्यों में व्यय किया जाना चाहिये। यह सोचकर मैनें ईलाचल की यात्रा करने का मन बनाया है। इसलिये इस पर मैं आपकी भी राय जानना चाहता हूँ।
सुयशा के मन में भी बहुत दिनों से ईलाचल की यात्रा करने की इच्छा थी। अब पति की ऐसी इच्छा जानकर सुयशा ने तुरन्त अपनी सहमति दे दी। इसके साथ ही उसने छोटे पुत्र विश्वावसु को भी साथ ले चलने की इच्छा जतायी। सीमन्त की भी इच्छा विश्वावसु को साथ ले जाने की थी इसलिये उन्होंने तुरन्त इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उस समय राजा की सारी पुरोहिताई ज्येष्ठ पुत्र एवम् यजमानों का कार्य अपने तीनों पुत्रों को सौंप कर अपनी सभी जिम्मेदारियों से निवृत्त होकर सीमन्त अपनी यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।
साठ कोस दूर स्थित ईलाचल की यात्रा के लिये प्रायः बीस दिन लगना था। पत्नी और अपंग पुत्र को साथ लेकर निकलने के लिये उन्होंने सारी सामग्रियाँ ले ली थीं। मार्ग में खाने, पहनने का सामान भी ले लिया था। फिर एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर सीमन्त व सुयशा अपंग बालक विश्वावसु को लेकर उत्तम रथ पर सवार हुये और ईलाचल की ओर प्रभु विश्वकर्मा के दर्शन करने हेतु निकल पड़े।
उस समय सबसे अधिक प्रसन्नता विश्वावसु को थी। वह हर्षातिरेक के कारण अपने अपंग देह को इधर-उधर कर रहा था। उसके ऐसे बर्ताव को देखकर सीमन्त और सुयशा का मन बहुत प्रफुल्लित हो उठा । वे लोग भी समझने लगे कि विश्वावसु को इस यात्रा में बहुत आनन्द मिल रहा है। पुत्र की प्रसन्नता से माता-पिता भी बहुत प्रसन्न थे, लेकिन विश्वावसु के आनन्द का कारण कुछ भिन्न ही था।
उसके विकलांग होने से उसके माता-पिता बहुत दुःखी रहते हैं। यह बात विश्वावसु बहुत दिनों से समझ रहा था, लेकिन अपनी अपंगता के कारण वह उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता इस बात का उसे और दुःख था। उनका दुःख दूर करने के लिये उसे कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा था। अन्त में बहुत विचार करने के बाद उसने सोचा यदि वह एकान्त में जाकर ईश्वर परायण होकर रहे तो शायद इससे माता-पिता का दुःख कुछ कम हो जाये, पर अपंग होने के कारण उसके लिये कहीं दूर जाना सम्भव नहीं था। उस दिन प्रकृति ने उसे अपने आप ही ऐसा अवसर प्रदान कर दिया था। माता-पिता स्वयम् उसे प्रभु के पास ले जा रहे थे। अब सवाल था कि जाने के बाद लौटकर आने का, पर प्रभु की इच्छा से यह प्रश्न भी हल ही हो जाना था। मन में एक आशा की किरण आ जाने से उस पर आशा की बड़ी-बड़ी मीनारें खड़ी हो जाती हैं। मकड़ी अपने केवल एक तन्तु से पूरा जाला बुन लेती है। मनुष्य भी इसी तरह आशा की एक किरण से ही क्या नहीं कर लेता । विश्वावसु भी इसी आशा की किरण को पाकर फूला नहीं समा रहा था।
महर्षि सीमन्त और सुयशा का रथ ईलाचल की ओर रवाना होने के लिये ठीक समय से निकला। चारों तरफ अनेक धान के खेत तथा फल से लदे वृक्ष देखने को मिले। तालाब, रमणीय बाग, छोटे बड़े आवास तथा हर तरह के पक्षियों को देखकर विश्वावसु के आनन्द की सीमा न रही । घर की चार दीवारी से वह उस दिन पहली बार निकला था। अतएव नई-नई वस्तुओं को देखकर कभी हँसने लगता, कभी भयभीत होने लगता, कभी आश्चर्य चकित किलकारी मारने लगता । मार्ग में पक्षियों के कलरव सुनकर तो वह अत्यन्त प्रफुल्लित हो उठता था।
महर्षि सीमन्त जिस रथ पर सवार थे, उसमें बर्हिष राजा के घुड़साल के अश्व जुते थे। वे इतने वेग से चलने वाले थे कि बीस दिन का रास्ता पन्द्रह दिन में ही पूरा कर लिया। सोलहवें दिन सूर्य निकलते-निकलते वे ईलाचल की तलहटी में जा पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही उन्हें विश्वकर्मा मन्दिर के ध्वज, ईलाचल के शिखर पर दिखलायी पड़ने लगा। उस समय सीमन्त ने सारथी से रथ रोकने की आज्ञा दी। रथ रुकते ही सीमन्त नीचे उतरा और यात्रा से थकी सुयशा को सहारा देकर नीचे उतारा। इसके बाद विश्वावसु को कन्धे पर बैठाया और पत्नी के साथ ईलाचल पर चढ़ना शुरू किया । उस समय घोड़ों को वहीं छोड़कर सारथी भी उनके साथ जाने लगा।
महर्षि सीमन्त इस तरह ईलाचल पर पहुंचे और शिव कुण्ड में स्नान कर परम कृपालु श्री विश्वकर्मा के मन्दिर की ओर गये। सूर्य की पहली किरण उस समय ईलाचल के सर्वोच्च शिखरों को स्पर्श करने की तैयारी कर रही थी। उसी समय पुजारीजी देवालय के द्वार खोलने को तत्पर हुये। महर्षि सीमन्त प्रभु दर्शन हेतु मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। उस समय सूर्य देवता में भी उनके आगमन से मन्दिर के फर्श पर अपनी किरणों को इस तरह बिखेरा जैसे वहाँ जाजिम बिछी हो। इसके साथ ही घण्टा, शंख, मृदङ्ग, नगाड़े सब दैवी वाद्य एक साथ बज उठे। ऋषि-मुनि मन्दिर के प्रांगण में पहुँचकर सुन्दर वेद मन्त्रों का उच्चारण करने लगे। पुजारी एवम् अन्य ब्राह्मण-गण प्रभु की हाथ जोड़करस्तुति करने लगे। बन्दीजन, मागध प्रभु के यशोगान में लिप्त हो गये तथा पक्षियों का कलरव उनके स्वरों के साथ स्वर मिलाने लगे। चारों ओर आनन्द का वातावरण छा गया और सभी ओर स्वर्गिक प्रसन्नता की लहर दौड़ने लगी।
मन्दिर का द्वार खुलते ही अब उन्होंने प्रभु के दर्शन किये। फिर पुजारी द्वारा पूजन आरती करने के उपरान्त महर्षि सीमन्त पत्नी समेत प्रभु के विग्रह के समीप पहुँचकर उनके चरण स्पर्श किये। फिर दोनों अनेक नियम और व्रतों का पालन करते हुए, वहीं पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। सारथी का प्रबन्ध अतिथिगृह में रहने के लिये किया गया। इस तरह नियम पूर्वक व्रत करते हुये उनके चौदह दिन आनन्दपूर्वक व्यतीत हो गये, किन्तु पन्द्रहवें दिन एक आश्चर्यजनक घटना घटी।
बात यह थी कि प्रतिदिन पति-पत्नी प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में ही बालक को लेकर विश्वकुण्ड में स्नान करने जाया करते थे। एक दिन वहीं किनारे पर बैठकर नित्यकर्म कर रहे थे। सुयशा अपने प्रिय पुत्र विश्वावसु को स्नान करा रही थी। तभी अचानक उनके हाथों से उनका पुत्र छूट गया और नीचे गिरते हुये एक भयङ्कर आकृति वाले शिला से जा टकराया। उस भयङ्कर शिला से एक विकलांग बालक टकराये तो उसका क्या होगा? इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। सुयशा का तो उस पुत्र पर अगाध प्रेम था। उनकी भी दशा का आसानी से अन्दाज लगाया जा सकता है। उस समय बालक के हाथ से छूटते ही उनके मुख से एक भयङ्कर चीख निकल पड़ी फिर वे उस ओर दौड़ पड़ीं, जिधर महर्षि सीमन्त बैठे थे। लेकिन प्रभु की माया का कोई पार नहीं पा सकता । जब महर्षि अपनी पत्नी के साथ घटना-स्थल पर पहुँचे, तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य की सीमा न रही कि पत्थर से टकराने के बाद भी वह अपंग बालक अपने माँ बाप को देखते ही एकाएक जमीन पर खड़ा हो गया और वह गूंगा बालक माता-पिता की ओर ओ माँ , ओ पिताजी कहता हुआ दौड़ पड़ा और उनके पास आकर खड़ा हो गया। यह अद्भुत दृश्य देखकर दोनों पति-पत्नी अवाक रह गये। बालक भी अवाक् होकर अपने माता-पिता के चरणों पर गिर पड़ा और रोने लगा। उस बालक को आँसू बहाता देखकर वे दोनों चेतनावस्था में आकर बालक को अपने गोद में उठा लिया और बार-बार स्नेह में भर कर उसका चुम्बन करने लगे, तथा वे आपस में कहने लगे कि प्रभु की लीला अपरम्पार है। इस कारण गूँगे और अपंग बालक को भी पत्थर से टकराने के बाद भी चोट नहीं आयी, उल्टे उसकी विकलांगता समाप्त होकर उसका शरीर देदीप्यमान हो गया। अब वह बोल भी सकता था और सुन भी सकता था।
ऐसा चमत्कार देखकर महर्षि सीमन्त ने अपनी यात्रा को सफल माना और मन ही मन प्रभु की दया और लीला का बार-बार वन्दन करते हुए उसे प्रभु के मन्दिर में ले गये। उस दिन उनके व्रत का अन्तिम दिन था। दोनों ने बालक को साथ लेकर उत्तम विधि से प्रभु का पूजन किया तथा अच्छी तरह ब्राह्मणों को खिला-पिलाकर उत्तम प्रकार से दान-दक्षिणा दिया। फिर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर उन्हें विदा किया।
तत्पश्चात् वहाँ से लौटकर उन दोनों ने तय किया कि उस दिन की रात ईलाचल में बिताकर प्रातःकाल होने पर घर लौट चला जाये। माता-पिता के इस निर्णय को सुनकर विश्वावसु उनके पास आया और कहने लगा- हे माता-पिता ! आप लोगों ने मुझे जन्म देकर मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया है। माँ ने मुझे दस महीने गर्भ में रखकर मेरा बोझ उठाया। फिर जन्म के बारह वर्षों तक लगातार मेरा बोझ उठाती रहीं। आज जिन प्रभु विश्वकर्मा ने आप लोगों पर कृपा की है, उन्हीं की कृपा से मुझे भी यह दिव्य देह प्राप्त हुआ है। अब मेरा कर्तव्य हो जाता है कि प्रभु की इस कृपा का लाभ उठाकर अपने इस शरीर से आप लोगों की सेवा करूँ। हे माता-पिता ! यदि आप लोगों को कष्ट न हो तो मुझे आज्ञा दें कि मैं प्रभु की सेवा यहीं ईलाचल में उनके सानिध्य में रहकर ही करूँ। जिसने मुझ पर इतना बड़ा अनुग्रह किया, उस प्रभु की जितनी भी सेवा बन सके करनी चाहिये । उसके साथ ही यदि प्रभु आदेश देंगे तो आपका यह पुत्र आपकी सेवा में भी उपस्थित रहेगा। यदि प्रभु की इच्छा आपके पास भेजने की न हुई तो उन्होंने आपके अपंग पुत्र को उत्तम शरीर दे दी, उस कृपा को पर्याप्त मान लेना चाहिये। अतः हे माता-पिता ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं यहीं रह जाऊँ।
पुत्र की यह बात सुनकर प्रभु की इस कृपा पर बारम्बार विचार करते हुये उन्होंने सोचा कि जब प्रभु ने इस बालक पर इतनी कृपा की है, तो इसे उनकी सेवा के लिये यहीं छोड़ दिया जाये। वे हमारे पुत्र को अवश्य हमारी सेवा के लिए भेजेंगे। जिस प्रभु की कृपा से पुत्र को इतना सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ है, वह शरीर यदि उनकी सेवा में ही न आये तो यह महान् अनर्थ होगा। प्रभु द्वारा प्रदत्त सभी वस्तुओं का उपभोग प्रथम उन्हीं के लिये करना चाहिये। फिर उन्हीं की आज्ञा से उन्हें समर्पित की गयी वस्तु को प्रभु का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लेना चाहिये। यदि व्यक्ति उसे पहले ही अपने उपयोग में ले लेता है तो इससे बढ़कर अनर्थ की बात और कोई नहीं हो सकती। इसलिये ऐसे पुत्र को जिसे प्रभु का अनुग्रह प्राप्त है, उन्हीं की सेवा में छोड़ देना चाहिये । हमारे पुत्र की विकलांगता समाप्त हो गयी है। इससे बढ़कर निश्चिन्तता की बात और हो ही क्या सकती है। लेकिन वह किसी आशा से ऐसा नहीं करते । यदि वे कुछ पाने की आशा से पुत्र का पालन-पोषण करते हैं, तो उसमें उनका कोई निजी स्वार्थ निहित रहता है। ऐसे स्वार्थी लोगों के लिये तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है। स्वार्थमय जीवन से तो यही अच्छा है कि प्रभु की सेवा में ही जीवन बीते।
इस प्रकार सोच विचार कर उन दोनों ने अपने पुत्र को प्रभु की सेवा करने के लिये ईलाचल पर्वत पर रहने की आज्ञा दे दी। फिर सारी रात उन्होंने प्रभु के गुणानुवादों का कीर्तन करते-करते बिता दी। दूसरे दिन प्रातः विश्वकुण्ड में खानादि से निवृत्त हो पवित्र मन से प्रभु के दर्शन किये। फिर पुत्र को अन्तःकरण से आशीर्वाद देकर अपने देश के लिये लौटे। उस समय माता-पिता की विदाई से विश्वावसु की आँखें सजल हो उठी और वह बहुत देर तक तन्द्रा की अवस्था में वहीं खड़ा रहा । एकाएक इसी समय उसके कानों में घण्टा बजने की आवाज पहुँची। फिर तो वह अपने को सम्हाल कर स्वस्थ मन से मन्दिर की ओर चल पड़ा।
दूसरी ओर सारथी सीमन्त और सुयशा को लेकर जिस रास्ते से आये थे, उसी रास्ते से लौट पड़े । मार्ग में दोनों पति-पत्नी प्रभु का यश गान करते रहे और उसकी लीलाओं को याद कर-करके आँसू बहाते रहे। प्रभु की माया से उस समय वे बुरी तरह मोहित हो रहे थे। उनके घर से निकलने से अब तक डेढ़ महीने का समय बीत गया था।
तत्पश्चात् घर लौटकर सीमन्त ने पुत्र पर प्रभु की कृपा होने के कारण विशाल ब्रह्मभोज कराया तथा ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान एवम् स्वर्ण आदि देकर प्रसन्न किया। इधर राजा समेत अन्य नगरवासियों ने जब विश्वावसु पर प्रभु के अनुग्रह की बात सुनी, तो वे सभी प्रभु की अगाध महिमा से परिचित होकर उनका गुणानुवाद करने लगे।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वावसु-१ नामक अट्ठाइसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। उनतीसवाँ अध्याय
(विश्वावसु आख्यान-२)
गते पितरि कर्माणि कृत्वा विश्वावसुः पुनः ।
कर्माणं ध्यायमानोऽसौ स्थितो देवसमीपतः॥
सतजी बोले- हे ऋषि! माता-पिता को विदा करने के बाद विश्वावसु अपने कार्य में लग गया। उसे नित्यकर्म मात्र का ज्ञान था। अतः प्रभु के मन्दिर में विराजमान होकर उनकी सेवा में ही अपना चित्त लगा दिया। जन्म से ही अपंग होने के कारण बचपन में न तो उसे कोई योग्य संस्कार मिल सका था और न ज्ञान । इसलिये वहाँ रहकर वह दिन-रात केवल प्रभु की पूजा और सेवा में ही लिप्त रहता था।
प्रातः उठकर वह शौचादि से निवृत्त होकर विश्वकुण्ड में स्नान करता एवम् पुजारी द्वारा सिखाये हुये नित्यकर्म करता, और मन्दिर में जाकर उसकी सफाई आदि करता। फिर बाकी समय पुजारी के कार्यों में मदद करता । सायंकाल के समय अपने कार्यों से निवृत्त होकर प्रतिमा के सामने ध्यान लगाकर बैठ जाता और इतना तन्मय हो जाता कि उसे अपने शरीर की सुधि न रहती, यही उसकी दिनचर्या थी। जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता था। वह अपनी पर्णकुटी में जाने के बजाय कई अवसर ऐसे आते थे, कि सारी रात वहीं रहता और जब प्रातःकाल आकर पुजारी उसे जगाता तभी वह उठा करता। वास्तव में पुजारी उसे थकान के कारण सोया हुआ समझने लगते, लेकिन विश्वावसु को किसी को कुछ समझाने की चिन्ता न थी। वह अपने नियमों का पालन करता हुआ प्रभु की सेवा में ही जीवन बिताया करता था।
विश्वावसु के इस घोर तप को देखकर प्रभु विश्वकर्मा ने सोचा कि अपने इस परम भक्त के लिये कुछ करना चाहिये। यह विचार कर उन्होंने महर्षि अगस्त को स्वप्न में दर्शन देते हुये कहा- हे मुनि ! आपके आश्रम के उत्तर की ओर एक पर्णकुटी में सीमन्त का पुत्र विश्वावसु रहता है। प्रातःकाल होते ही ब्रह्म मुहर्त में उसका सारा संस्कार करते हुए उसे मन्त्रोपदेश दें। यद्यपि वह संस्कार विहीन है, फिर भी दिन-रात मेरी सेवा में लिप्त रहता है। उसे एकाग्र चित्त से ध्यान मग्न होते हुये देखकर मुझे उसके प्रति अत्यन्त स्नेह होता है। अतः उसे योग्य संस्कार देकर ब्राह्मणत्व प्रदान करें यही मेरी इच्छा है।
अनेक दिनों से तपश्चर्या में बैठे हुये अगस्त मुनि को स्वप्न में प्रभु का आदेश मिलते ही वे तुरन्त उठ खड़े हुये तथा प्रातः होते ही विश्वकुण्ड में स्नान करने के बाद उन्होंने होम इत्यादि किये, तथा एक ब्रह्मचारी को विश्वावसु को बुलाने के लिये भेजा। उसी समय विश्वावसु स्नानादि से निवृत्त हुआ था। अतएव ब्रह्मचारी के मुख से अगस्त्य मुनि का आदेश सुनकर वह तुरन्त उसके साथ चल पड़ा और अगस्त्य मुनि के आश्रम में जा पहुंचा। उस समय उसके एक हाथ में आसन तथा दूसरे हाथ में पात्र था। मस्तक में भस्म लगा था तथा गले में माला पहन रखी था। उसका मुख योगियों के समान तेजस्वी लग रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे तथा चाल में गम्भीरता थी।
अगस्त्य ऋषि उस बालक को देखते ही आत्म-विभोर हो उठे और उसे अपने पास बैठाकर उसे सपने की सारी बातें कह सुनायी। इसके बाद बालक की इच्छा जानकर ऋषि अगस्त्य उसे अपने यज्ञशाला में ले गये और उसका उत्तम विधि से सभी संस्कार करके गायत्री मन्त्र का उपदेश दिया। उस समय विश्वावस के द्वारा दक्षिणा के सम्बन्ध में पूछने पर ऋषि अगस्त्य बोले - मैंने यह कार्य प्रभु की इच्छा के अनुसार किया है, अतः इसकी दक्षिणा वही देंगे । इसके बारे में तुम्हें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। फिर भी विश्वावसु इसके लिये जिद्द करता रहा, तो अगस्त्य मुनि बोले - हे पुत्र! यदि तू दक्षिणा ही देना चाहता है, तो नित्य यज्ञ के लिये लकड़ियाँ तुझे ले आनी होंगी। इस प्रकार जब तक तू ईलाचल के ऊपर रहेगा, यह कार्य तुझे नित्य नियम पूर्वक करना होगा। यही तेरी गुरु दक्षिणा मानी जायेगी।
बालक विश्वावसु ने गुरु की इस आज्ञा को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर लिया। अब वह अपने नित्य नियम में गुरु के लिये काष्ठ ले आने का कार्य भी जोड़ दिया। इसके बाद वह गुरु की आज्ञानुसार नित्यकर्म से निवृत्त होकर गायत्री मन्त्र का जप करता। इस तरह गायत्री मन्त्र की आराधना करते हुये उसके एक वर्ष बीत गये। इतने दिनों में उसने चौबीस लाख गायत्री मन्त्र का जप पूर्ण कर लिया था। इस गायत्री मन्त्र की आराधना से उसके तेज में बढ़ोत्तरी होने लगी। धीरे-धीरे उसका जीवन मात्र, फल-फूल पर ही निर्भर हो गया। यम नियम संयम में दिन-प्रतिदिन कोई कमी नहीं आने पाती थी। उसका हँसमुख चेहरा, हृष्ट-पुष्ट शरीर और मधुर वाणी से पूरा ईलाचल प्रभावित था। उसकी तपस्या ने सबके अन्दर एक अपूर्व आकर्षण पैदा कर दिया था।
अब नित्य प्रति प्रभु की सेवा में लिप्त रहकर वह ऋषि-पुत्र विश्वावसु सबको मोहित करने लगा। इसी बीच उसकी प्रतिभा से आकर्षिक होकर एक दिन महर्षि अङ्गिरा उसके पास आये और उसे प्रभु के अष्टाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया। विश्वावसु तो यही चाहता भी था । अनायास ही उसकी इच्छा पूरी हो गयी और उसने दूसरे ही दिन से उसका जप करना आरम्भ कर दिया। इसके लिये उसने प्रभु के मन्दिर के बिल्कुल सामने ही विश्वकुण्ड के सामने अपना आसन जमाया। आरम्भ में उसे इस काम में कुछ कष्ट उठाना पड़ा, किन्तु शीघ्र ही उसने अपने को स्थिर कर लिया और अपनी इन्द्रियों का निग्रह करके वह एक सप्ताह में ही इस तरह लगने लगा जैसे वर्षों का तपस्वी हो। उस समय अष्टाक्षर मन्त्र में इतना लीन हो गया कि भाग्य से ही वह आठ दस दिन में एक बार प्रभु के दर्शनार्थ अपने आसन से उठकर मन्दिर में जाता था। ऐसा करने से उसकी आसन सिद्धि बढ़ गयी। तीन महीने बाद फिर आसन जमाया। इस तरह एक वर्ष व्यतीत हो गया। उसने लगभग चौंसठ लाख जप करने के बाद उसकी गणना की तो प्रभु में एकाग्र चित्त होने से गिनती करना भी भूल गया।
उसकी इतनी उग्र तपस्या को देखकर प्रभु उस पर प्रसन्न हो उठे और समाधि में उसे दर्शन दिया। उस समय एक अत्यन्त दुःसह तेज की चमक हुई और उसके तेज के विम्ब से एक अस्पष्ट आकृति दिखायी दी। उसी आकृति से धीरे-धीरे प्रभु विश्वकर्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप दिखायी पड़ने लगा। समाधि में प्रभु विश्वकर्मा के दर्शन होते ही विश्वावसु की समाधि टूट गयी और उसने धीरे-धीरे नेत्र खोल दिया, नेत्र के खुलते ही सामने विराजमान प्रभु विश्वकर्मा के दर्शन हुये।
उस समय विश्वावसु ने देखा कि विश्वकुण्ड के किनारे एक वट वृक्ष की घनी छाया में प्रभु विश्वकर्मा एक सिंहासन पर आरूढ़ हैं। उनके पाँच मुख वाले प्रत्येक मस्तक पर दिव्य रत्नों से जटित अलौकिक मुकुट शोभायमान है। अपनी दसों भुजाओं में आयुध धारण किये हुये थे, कन्धे पर ब्रह्मसूत्र और अङ्ग पर पीले वस्त्र धारण किये हुये थे। यही नहीं अनेक ऋषि प्रभु की सेवा में लगे थे, मनु एवम् उनके पाँचों पुत्र प्रभु के पास ध्यानस्थ विराजमान थे।
इस प्रकार दिव्य स्वरूप में प्रभु के दर्शन कर विश्वावसु की आँखों से हर्ष के आँसू बहने लगे। वे धीरे-धीरे आसन से उठ खड़े हुए और हर्षातिरेक से उनका गला रुंध गया था। वे फिर सीधे प्रभु के पास पहुँचकर उनके चरणों पर गिरकर रोने लगे। उनकी इस भक्ति को देखकर प्रभु ने प्रसन्न होकर उसके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। उनके अंग का स्पर्श होते ही उसके हृदय के अन्दर शान्ति प्रवाहित होने लगी और उनके जन्म-जन्म के पापों का नाश हो गया। उन्हें उत्तम ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। उसी समय विश्वावसु की जिह्वा पर सरस्वती देवी ने कृपा की और वे अनेक प्रकार के उत्तम छन्दों से प्रभु विश्कर्मा की स्तुति करने लगे।
उस समय विश्वावसु की स्तुति से प्रसन्न होकर प्रभु ने गम्भीर वाणी में कहा - हे वत्स ! मैं तेरे एकनिष्ठ तथा एकाग्र भक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ। आज तुमने जो सिद्धि प्राप्त कर ली है, वह बड़े-बड़े योगी तथा महर्षि अपने तप-बल से नहीं प्राप्त कर सके। मेरे उस परमधाम को तुमने थोड़े ही समय में पा लिया है। मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ। अतएव तुम्हें जो वर माँगना है, माँग लो।। मैं तेरी हर इच्छा मानने को तैयार हूँ।
प्रभु की वाणी सुनकर विश्वावसु गदगद होकर बोला - हे प्रभु ! आपको सारी बातों की जानकारी है। आपने वर देने की बात कहकर मेरी महत्ता बढ़ा दी है। आपकी कृपा पाने के बाद फिर और किसी चीज की याचना करना मूर्खता होगी। अतएव हे प्रभु ! मैं केवल यही चाहता हूँ कि मैं निरन्तर आपकी सेवा करता रहूँ। आपके इस मनोहर स्वरूप को छोड़कर मेरा मन और कहीं न फंसे, बस इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ न चाहिये।
विश्वावसु के प्रेम भरे वचन सुनकर प्रसन्न चित्त प्रभु विश्वकर्मा बोले - हे वत्स ! जब-जब मैं प्रसन्न होता हूँ तो यह प्रसन्नता फल रहित नहीं हो सकती। मैंने तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिये ही तुम्हें दर्शन दिया है। इसलिये तुम्हारी जो भी कामना हो मुझसे वही माँग लो।
विश्वावसु ने उत्तर दिया - हे प्रभु! आपका दर्शन होना यही मेरी भक्ति का सर्वश्रेष्ठ फल है। यह फल मुझे अनायास ही मिल गया है। इसलिये अब मुझे किसी चीज की अभिलाषा नहीं रह गयी। फिर भी यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो मेरी केवल यही अभिलाषा है कि जिन माता-पिता ने मुझे इस योग्य बनाया है, मैं उनके पास रहकर कुछ उनकी भी सेवा कर सकूँ। मैं उनके अन्तिम काल में उनकी भी सेवा करके कृतकृत्य होऊँ तथा उनके ऋण से मुक्ति पा सकूँ। उनकी सेवा करने के बाद में फिर आपकी सेवा में लौटूं। आप मेरी यही इच्छा पूरी करें।
उनकी इस वाणी को सुनकर प्रभु बोले - हे वत्स ! मैं जो कुछ कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो। आज से तीन दिन के पश्चात् यहाँ भय नामक राक्षस आयेगा । वह यहाँ रहने वाले ऋषि मुनियों को बहुत कष्ट पहुँचायेगा और उनके कार्यों में विघ्न डालेगा। तेरे पास गायत्री की महाविद्या है। तू उस महाविद्या और मेरे प्रभाव से उस राक्षस को पराजित करेगा। इन्हीं शक्तियों के बल पर तू राक्षस की सारी विद्याओं को निस्तेज कर, उसे फिर पाताल में भेजने में सफलता पायेगा। मेरी महाविद्या के प्रभाव से तुझे सभी प्रकार की ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होगी। मेरे अन्दर व्याप्त सभी ज्ञान को भी तू प्राप्त कर लेगा। भय के जाने के सातवें दिन बाद तेरे पिता को तेरी आवश्यकता पड़ेगी। हे पुत्र ! राक्षस को निस्तेज करने के बाद तुम इस स्थान से पूर्व दिशा की ओर चले जाना और माता-पिता से मिलकर उनकी सेवा करना।
तत्पश्चात् उनकी आत्मा को सन्तोष देने वाले कार्य करते रहना। फिर माता-पिता का अन्त-काल आने के पश्चात तू ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये अनेक उत्तम कार्यों को सिद्ध करते हुये पुनः ईलाचल पर रहने के लिये लौट आना। यहीं तुम तपश्चर्या के बल से योग मार्ग का आश्रय लेते हुये अपने स्थूल शरीर को छोड़ देना।
तुम्हारे माता-पिता का तेरे प्रति प्रगाढ़ स्नेह है। इसलिये वे अपनी अन्तरात्मा में तेरी ही झलक देखते हैं और इस कारण वे अगले जन्म में राजा उत्तानपाद तथा सुनीति उसकी पत्नी के रूप में उत्पन्न होंगे। उस समय भी तू माता-पिता दोनों का उद्धार करने के लिये उनके यहाँ भी पुत्र के रूप में उत्पन्न होगा। तेरा नाम ध्रुव होगा। वहाँ भी मेरे लिये तेरी भक्ति अचल होगी। उस अचल भक्ति के कारण तू जीवन मुक्त होकर मेरे परम पद को प्राप्त करेगा।
विश्वावसु को इतना समझाने के बाद प्रभु देखते ही देखते वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये। विश्वावसु प्रभु के अन्तर्ध्यान होते ही अपनी पर्णकुटी में लौटे और वहीं प्रभु के वचनों का स्मरण करते हुये उनके बताये हुए समय की राह देखने लगे।
इधर राजा बर्हिष के राज्य में विश्वावसु के माता-पिता एवम् उनके सारे भाई सुखपूर्वक रहते थे। जब वहाँ कोई यात्री आकर विश्वावसु की उन्नति का समाचार उन्हें सुनाता तो उनकी प्रसन्नता की सीमा न रहती। फिर तो वे उसी चिन्ता में डूब जाते कि न जाने कब विश्वावसु के दर्शन होंगे। प्रभु ने ही उसे हमें देकर उसकी विकलांगता दूर की। यह देखकर हम लोगों ने उसे प्रभु को ही सौंप दिया, एवम् जब प्रभु ही उचित समझेंगे तभी वे उससे हमारी भेंट करायेंगे। अतएव इसके बारे में धीरज रखना ही ज्ञानवान पुरुषों का काम है। सीमन्त अपनी पत्नी को भी यही बातें कहकर समझाया करते थे।
सीमन्त तो प्रभु विश्वकर्मा एवं विश्वावसु का स्मरण करते हुये अपना जीवन सुखपूर्वक बिता रहे थे कि एकाएक उनके ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। बात यह हुई कि राजा बर्हिष के राज्य में कहीं से चार पण्डित आ गये। वे पण्डित हर तरह छल-कपट की विद्या में प्रवीण थे। वे देश-देशान्तर के अनेक पण्डितों को पराजित करके यहाँ आये थे। वे जहाँ भी जाते वहाँ के पण्डितों से विवाद करते और उसके लिये वे राजा से यह शर्त लगाते कि जो भी पण्डित विवाद में हारेगा, राजा उसे मृत्यु दण्ड देगा। अब उन पण्डितों के आगमन की बात सुनकर उस राज्य के सभी पण्डित चिन्तित हो उठे। कई पण्डित तो नगर छोड़कर पलायन कर गये लेकिन सीमन्त तो राज्य पुरोहित थे, अतः उनका भाग जाना सम्भव नहीं था। यह सुनकर सीमन्त और उनके चारों पुत्र भय के कारण चिन्तित हो उठे। इन पण्डितों का यह नियम था कि वे जिस शास्त्र के बारे में विवाद करते उस शास्त्र का विषय पहले से ही बता देते और घोषणा करने के पन्द्रह दिन बाद वे वाद-विवाद करते।
उस काल में बर्हिष राजा के राज्य में एक विचित्र नियम था। उस नियम के अनुसार जो भी राजा राजगद्दी पर बैठता था, उसे अपने लिये नया निवास स्थान बनवाना पड़ता था तथा इसके अतिरिक्त जितनी भी आवश्यकता की वस्तुयें होती थीं, उन्हें भी नये सिरे से बनाना पड़ता था। उसके साथ ही अपने पूर्वजों के निवास स्थान में उनकी सभी चीजें सम्भाल कर रखना पड़ता था। इस प्रणाली के आधार पर राजा के सात पूर्वजों के निवास स्थान एक ही पंक्ति में थे। उनके साथ ही राजा बर्हिष का भी महल था। ये सारे राजाओं के महल एक ही ढङ्ग के बने थे तथा राज शिल्पी को ऐसी ही आज्ञा देकर बनवाया गया था। उसमें सबसे विचित्र बात यह थी कि सभी महल जमीन से एक ही स्तम्भ के सहारे हवा में बने थे।
यहाँ पर आये चारों पण्डितों को इसी विषय पर विवाद करना था। उनका यह कहना था कि एक स्तम्भ पर स्थित महल शत्रु के आक्रमण कर देने पर राजा और उसके परिवार का रक्षण नहीं कर सकता, क्योंकि यदि शत्रु, महल के एक ही स्तम्भ पर हमला करे तो सारा राजमहल ध्वस्त हो जायेगा और ऐसी स्थिति में राजा सपरिवार परलोक पहुँच जायेगा। अतएव इस तरह का राजमहल बनाने की सलाह देने वाले पुरोहित को शिल्प और राजनीति का पूरा ज्ञान नहीं है। ऐसे पुरोहित राजदण्ड के अधिकारी हैं, क्योंकि यदि राजा और राजमहल ही नष्ट हो जायेगा तो राज्य का अस्तित्व कैसे रहेगा।
विवाद का यह विषय सुनकर सीमन्त और उनके चारों पुत्र भीषण रूप से चिन्तित हो उठे, कारण कि उस राज्य में पुरोहिताई का सारा कार्य वे लोग और उनके पूर्वज ही करते थे। इन सब महलों का शिल्प और राजकाल की सभी राजनीति उनके कुल पुरुषों ने ही तय की थी। अतः उन परदेशी पण्डितों के लगाये गये सारे आरोप उन्हीं लोगों पर आते थे। उस समय वे लोग यहीं समझमें लगे कि यह विषय उनके विरुद्ध जा सकता है और उनकी पुरोहिताई तो समाप्त ही होगी बल्कि उनके प्राण भी जाने की सम्भावना है। वैसे प्राण चले जाने की कोई चिन्ता उन्हें नहीं थी, चिन्ता केवल इस बात की थी कि सात पीढ़ियों से राज पुरोहित का पद भार ग्रहण करने वाले कुल पुरुषों की कीर्ति एक क्षण में परदेशियों के हाथों नष्ट होने वाली है। इसी चिन्ता से सारे परिवार की नींद हराम हो गयी थी।
इधर बर्हिष राजा ने अपने राज्य में इस चर्चा के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक घोषणा करवा दी थी। अब राजपुरोहित के मार्गदर्शन के अनुसार सभा के लिये उत्तम मण्डप की रचना करवायी गयी। सभा मण्डप के मध्य राजा का आसन तथा उसके दोनों ओर राज्य कर्मचारियों के आसन बनाये गये । राजा के सिंहासन के पीछे राज कुटुम्ब की स्त्रियों तथा पुरुषों के बैठने की व्यवस्था की गयी थी तथा दूसरी ओर स्त्रियों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था थी।
अस्तु पन्द्रह दिन का समय व्यतीत होने पर अर्थात सभा आरम्भ होने वाले दिन प्रातःकाल होते ही राज्य के सभी लोग सभा मण्डप की ओर पहुँचने लगे। इस विचित्र सभा को देखने के लिये सभी आतुर थे। दूर-दूर की प्रजा और पण्डितों से राजा का सारा नगर भर उठा था। परन्तु राज्य के अन्य पण्डित इससे चिन्तित हो उठे थे, क्योंकि सीमन्त ऋषि पर इन सब की बड़ी श्रद्धा थी। उस दिन सुबह से ही सीमन्त के यहाँ नगर के पण्डितों का जमघट होने लगा। प्रत्येक पण्डित कौतूहलवश सीमन्त से इसके विषय में अनेक तरह के प्रश्न पूछने लगे, किन्तु सीमन्त सबसे यही कहते कि प्रभु की जो इच्छा होगी वही होकर रहेगा।
इसी समय अवसर पाकर सुयशा भी कहने लगी - हे नाथ ! हमारे प्रिय पुत्र विश्वावसु का कोई समाचार नहीं मिल पा रहा है। यदि आप उचित समझें तो उसे बुला लीजिये। मुझे अच्छी तरह विश्वास है कि वह ही हमें इस मुसीबत से छुटकारा दिला सकता है, क्योंकि अपने ज्ञान के सम्बन्ध में वह अत्यन्त प्रसिद्ध है, इसे आप भी जान चुके हैं। पत्नी की ऐसी वाणी सुनकर सीमन्त ने कहा - हे देवी! आप इस बात को जानती हैं कि उस पुत्र को हम लोगों ने प्रभु के चरणों में सौंप दिया है। प्रभु की इच्छा के विरुद्ध अब हम उसे कैसे बुला सकते हैं। जिसे प्रभु में पूर्ण विश्वास हो उसे किसी भी तरह चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। उधर सीमन्त के सारे पुत्र इस विपत्ति से छुटकारा पाने के लिये अनेक ग्रन्थों का अवलोकन कर रहे थे तथा उस मुसीबत से बचने के लिये विचार विमर्श कर रहे थे।
दूसरी ओर ईलाचल पर प्रभु के वचनों के अनुसार भय राक्षस वहाँ आ पहुँचा और ऋषि-मुनियों के कार्य में बाधा पहुँचाने लगा तथा उन्हें हर तरह से कष्ट देने लगा। जब भय का कष्ट ऋषिगण सहन न कर सके तो वे ऋषि विश्वावसु के शरण में आये। उस समय तीन दिन तक विश्वकर्मा महाविद्या से प्रभु की आराधना करते हुए विश्वावसु ने भय की सारी विद्या हरण कर ली, फिर उन्होंने अपने तीर छोड़कर उसे अपनी विद्या से सीधे पाताल भेज दिया। इस प्रकार छठे दिन भय को परास्त कर सातवें दिन प्रात:काल ही प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर विश्वावसु अपने माता-पिता के पास जाने को तैयार हो गये।
हे मुनियों ! मैं पूर्व ही वर्णन कर चुका हूँ कि जिस दिन चर्चा होने वाली थी, उस दिन नगर की सारी तैयारियाँ पूर्ण कर ली गई थी। सुबह से ही सारी प्रजा सभा मण्डप की ओर आने लगी थी। इसके साथ ही निर्धारित समय पर सारे पण्डित भी सभा में आने लगे थे। फिर भी सभा होने में कुछ विलम्ब था। कारण कि राजा, पुरोहित तथा बाहर से आये हुये चारों पण्डितों के आसन रिक्त पड़े थे। फिर भी सभा मण्डप खचाखच भरा हुआ था।
इसी समय ईलाचल से विश्वावसु भी अपना खड़ाऊँ पहन कर एक हाथ में कमण्डल तथा दूसरे हाथ में दण्ड लेकर एवं बगल में आसन दबाकर चलने के लिये तैयार हुये। इसके बाद उन्होंने अपने इष्टदेव तथा माता गायत्री का स्मरण कर घर जाने का संकल्प किया। फिर क्या था, उनके इस संकल्प मात्र से उनका खड़ाऊँ उन्हें लेकर विमान की तरह उड़ने लगा। यह अद्भुत घटना ईलाचल के सभी प्राणी आश्चर्य चकित नेत्रों से देखते रहे। इस तरह विश्वावसु शीघ्र ही अपने नगर के पास जा पहुंचे। इस विचित्र घटना को कोई देख न सके । इसलिये वे नगर के बाहर ही आकाश से नीचे उतरे और पैदल ही अपने पिता के घर की ओर चलने लगे।
उस समय महर्षि सीमन्त अपने पुत्रों के साथ सभा मण्डप में जाने की तैयारी करने में लगे थे। सुयशा देवी ने अखण्ड दीप की स्थापना करके उसका पूजन किया। उसके साथ ही अपने पति और पुत्रों का तिलक किया। आज उनकी पतिव्रता होने की कसौटी थी। उन्हें सभी ओर शुभ शगुन होते दिखायी पड़ रहा था। उनका बामाङ्ग भी रह-रहकर फड़क रहा था। फिर भी ये शुभ शगुन उन्हें निरर्थक मालूम हो रहे थे। जब पति और पुत्र सभा-मण्डप में जाने लगे तो वे उन्हें पहुंचाने के लिये द्वार तक आ गयीं। उस विदाई के समय उनका हृदय बार-बार भर आने लगा। उस समय उन्होंने अपने दोनों हाथों से अपना मुंह ढंक लिया और आँसु रोकने का प्रयास करने लगीं। तब पिता पुत्र उन्हें आश्वासन देकर आगे बढ़े थे कि सहसा इसी समय उन्हें एक गम्भीर आवाज सुनाई दी।
जय हो ! जय हो ! महर्षि सीमन्त की जय हो ! माता-पिता को मेरा प्रणाम ! बन्धुओं को प्रणाम ! आपका विश्वावसु आप लोगों की वन्दना करता है। आप लोग विजय को प्राप्त करें।
इतना कहते हुये विश्वावसु उन सबके पास जा पहुंचे। सुयशा देवी को अपने सबसे अधिक लाड़ले पुत्र को अच्छे अवसर पर आया देखकर बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने दौड़कर जमीन पर दण्डवत कर रहे अपने पुत्र को उठाकर गले से लगा लिया। पाँच वर्ष पूर्व वे अपने पुत्र को जिस तरह खिलाती रहीं, उससे भी अधिक स्नेह से उस पर हाथ फेरने लगीं। उस समय सभा आरम्भ होने जा रही थी। उन्होंने अपने इस पुत्र को आशीर्वाद देकर सभा में जाने के लिये विदा किया। अब उनके मन का सारा सन्ताप दूर हो गया। हृदय आनन्द से भर उठा था। उन्होंने पहले ही वहाँ आये हुये यात्रियों से अपने पुत्र की ख्याति सुन रखी थी। इसलिये उन्हें विश्वास था कि इस मुसीबत से उनका पुत्र उन्हें अवश्य बचायेगा। यह देखकर उन्होंने श्रृङ्गार किया और अपने पुत्र-वधुओं को श्रृङ्गार करने की आज्ञा दी। फिर अपने सारे पौत्र-पौत्रियों को भी अच्छे ढङ्ग से सजाया। फिर अपने पुत्र-वधुओं को अच्छे-अच्छे पकवान बनाने की आज्ञा देकर स्वयं पति और पुत्रों की सफलता के लिये मन्दिर में बैठकर प्रार्थना करने लगीं।
अब सभा आरम्भ होने में कुछ ही क्षण शेष रह गया था। सभा उस समय खचाखच भर गयी थी। प्रतिपक्षी पण्डित भी आ पहुँचे थे और राजा भी अपने आसन पर विराजमान हो गया था, लेकिन उस समय महर्षि सीमन्त नहीं पहुंचे थे। सभी आतुरता से उनकी राह देख रहे थे। एक-एक क्षण बीतते गये किन्तु महर्षि सीमन्त कहीं दिखायी नहीं दिये । उनको समय पर अनुपस्थित देखकर सभी सोचने लगे कि शायद इस वाद-विवाद में अपनी पराजय होने की सम्भावना से वे डर गये । इसलिये वे सम्भवतः न आयें। इस तरह उस सभा में विभिन्न प्रकार की चर्चायें होने लगी। कोई सीमन्त की निन्दा करने लगा तो कोई उच्च स्वरों से उन्हें फटकारने लगा। किसी को उन पर दया आने लगी, और इस तरह उन लोगों को उनसे सहानुभूति होने लगी। अब सभी लोगों में इस तरह का विश्वास जग उठा कि महर्षि सीमन्त नहीं आयेंगे। सभा आरम्भ होने में बस एक ही पल की देरी रह गयी। अब तो राजा भी एकदम निराश होकर सोचने लगा - आज परदेशियों के सामने मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा न होगी। फिर भी मन ही मन अपने इस उथल-पुथल को दबाये हुए शान्त बैठा रहा। सीमन्त की प्रतीक्षा में कभी-कभी उसके नेत्र द्वार की ओर उठ जाते थे।
फिर सभा के आरम्भ होने की सूचना देने की डंके की आवाज हुई धम्म । अब लोगों के मन में सीमन्त की पराजय निश्चित हो चुकी थी, किन्तु उस क्षण उन्हें यह देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि सीमन्त सभा-मण्डप में धीरे-धीरे प्रवेश कर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे उनके चारों पुत्र भी थे और उनमें एक दिव्य तेज वाला ब्रह्मचारी भी था। उस आगन्तुक को देखकर सारे लोग तरह-तरह की चर्चायें करने लगे। फिर भी उसके तेज से चकाचौंध होकर सभी अवाक् हो गये और उसे आदर मान देने लगे। प्रतिस्पर्धी पण्डित भी उनके सम्मान में खड़े हो गये । अब महर्षि और उनके चारों पुत्र राजा द्वारा अपने लिये रखवाये हुये आसन पर विराजमान हो गये, लेकिन नवांगन्तुक के लिये कोई आसन नहीं था, कारण कि सभा में आमन्त्रित लोगों के लिये ही गिनती से आसन लगवाये गये थे। अब राजा ने आसन लाने के लिये अपने अङ्गरक्षक की ओर इशारा किया, किन्तु आगन्तुक ब्रह्मचारी ने उस संकेत को समझ लिया और राजा को अपना नियम-संयम बताते हुये वहीं अपना आसन बिछा लिया और सबको प्रणाम करते हुये उस पर बैठ गया। उस आगन्तुक ब्रह्मचारी का यह नियम परायणता देखकर उस सभा के बीच उसकी प्रतिष्ठा और बढ़ गयी।
सभा का समय होने पर राजा के मुख्य प्रधान ने खड़े होकर सारी परिस्थितियों की घोषणा कर दी और विरोधी पण्डितों को उनका तर्क प्रस्तुत करने का निवेदन किया। प्रधान से तर्क आरम्भ करने की सूचना मिलते ही चारों पण्डित बारी-बारी से खड़े होकर शिलाशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीति आदि अनेक विषयों पर आड़म्बर युक्त लम्बे चौड़े तर्क प्रस्तुत करते हुये अपनी बातों का समर्थन किया। उनके बोलने के ढङ्ग से यही लगता था कि ये पण्डित जीत जायेंगे।
अब उन चारों पण्डितों के बोलने के बाद राजा की आज्ञा से प्रधानजी फिर खड़े हुये और राजपुरोहित से बोले - पुरोहित जी! आपने बाहर से आये हुये इन पण्डितों के तर्क सुने । उन्होंने अपनी बातों के समर्थन के लिये जो दलीलें दी हैं, उनको भी आप लोगों ने सुन लिया है। यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि यदि उनकी बातों में सत्यता हुई तो सारा दोष आप लोगों के मत्थे जाता है। आपके पूर्वजों पर भी इसका असर पड़ेगा । अतः आप लोग खूब सोच समझकर इसका उत्तर दें। आप अपने ऊपर लगाये गये दोषों को निराधार सिद्ध करेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
प्रधानजी के इतना कहने के बाद उन पण्डितों ने कहा कि यदि इसका उत्तर महर्षि सीमन्त नहीं दे सकते तो उनकी ओर से कोई और पण्डित उनके पक्ष के समर्थन में उत्तर दे सकता है। उत्तर कोई भी दे हमें इससे लेना-देना नहीं, कारण कि यदि सीमन्त का बचाव नहीं हुआ तो उसका बचाव न करने वाले पण्डित भी सुरक्षित नहीं रहेंगे, बोलने वाला इसका ध्यान रखेगा।
उस समय सारी सभा पुरोहित की बात सुनने के लिये आतुर हो रही थी। अब उन सबकी आतुरता का अन्त करते हुये सीमन्त अपने आसन से उठ खड़े हुये और बोले - राजा जी ! पण्डितगण और प्रजाजन ! इस राज्य का प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ और मैंने अपना सारा दायित्व अपने पुत्रों को सौंप दिया है। मेरे जीवन में ऐसे अनेक प्रसङ्ग आ चुके हैं। अतएव मुझे इसमें किसी प्रकार की हैरानी नहीं हो रही है, लेकिन अशक्त हो जाने के कारण अपना मस्तिष्क ऐसी बातों में खपा सकना कठिन है। अतः अब इसका उत्तर मेरे पुत्र ही देंगे। हमने सदैव अपने परिवार में आयी हुई मुसीबतों का हल खुद ढूंढ निकाला है। आज भी इसका हल हम खुद निकालेंगे। इस बारे में आप लोग निश्चिन्त रहें। मेरे चारों पुत्र निरन्तर अनेक कार्यों में लगे होने के कारण थके हुए हैं। मेरा छोटा पुत्र विद्याभ्यास करके अभी-अभी आया है। आज उसके ज्ञान को परखा जाये, यही उसकी इच्छा है। अतः उन पण्डितों की शङ्का का समाधान मेरा छोटा पुत्र ही करेगा।
महर्षि सीमन्त इतना कहकर बैठ गये। अब राजा का संकेत पाकर सीमन्त का सबसे छोटा पुत्र विश्वावसु उठ खड़ा हुआ। विश्वावसु की देदीप्यमान मुख-मुद्रा देखकर सभाजनों को विश्वास हो गया कि आज सीमन्त की जीत होगी।
विश्वावसु ने खड़े होते ही राजा से कहा - हे राजन ! मैं आगन्तुक पण्डितों की शङ्का का समाधान करने के लिये खड़ा हुआ हूँ, पर इसके पूर्व मैं इन लोगों से यह स्पष्ट कर लेना चाहता हूँ कि ये महानुभाव इस विषय पर केवल जिह्वा से बोलकर चर्चा करना चाहते हैं अथवा उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी चाहते हैं। ये लोग पहले मुझे इसके बारे में बतायें।
विश्वावसु के इस प्रश्न को सुनते ही सभा के सारे लोग आश्चर्य में पड़ गये । एक ऐसा महल जो एक स्तम्भ पर खड़ा हो, वह राजा की रक्षा कर सकता है अथवा नहीं ! यह प्रमाण पुस्तकों में तो मिलेगा, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से कोई स्तम्भ को तोड़ता है तो उसकी रक्षा परमात्मा भी नहीं कर सकता, जबकि सीमन्त का छोटा पुत्र प्रत्यक्ष प्रमाण देने को तैयार है।
इधर प्रत्यक्ष प्रमाण की बात सुनकर वे चारों कपटी पण्डित बहुत प्रसन्न हो उठे। इस समय उन्हें पूर्णरूप से विश्वास होने लगा कि विजय उनकी होगी, क्योंकि बिना स्तम्भ के कोई महल खड़ा ही नहीं हो सकता। इसलिये उन्होंने इसके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग की।
उस समय विश्वावसु राजा से बोले हे राजन् ! आप अपने सभी महलों के स्तम्भ को तोड़ने की आज्ञा दे दें। इसके लिये आप योग्य व्यक्तियों को काम पर लगा दें। वैसे भी यदि आपका इस महल से रक्षण न हो पायेगा तो आपको नया महल इसे तोड़कर बनवाना ही है। यदि इस समय महल को कोई क्षति न पहुँचे तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
विश्वावसु के इस तर्कयुक्त वाणी सुनकर राजा ने सभी महलों के स्तम्भों को तोड़ने की आज्ञा दे दी। इधर विश्वावसु ने मय दानव से सीखी हुयी मायावी विद्या के बल से महल के प्रत्येक कोने में अदृश्य स्तम्भ स्थित कर दिया। राजा के सारे कर्मचारी मजबूत साधनों को लेकर उन स्तम्भों को तोड़ने का प्रयत्न करने लगे। अब जैसे-जैसे स्तम्भों पर प्रहार होता, वैसे-वैसे वे पण्डित बहुत खुश हो जाते, लेकिन स्तम्भ टूटते हुये देखकर प्रजा का मन अधीर हो उठता। स्तम्भ तोड़ने वाले तो मानो आधा मर ही चुके थे।
अन्त में काफी परिश्रम के बाद महल के एक-एक करके सारे स्तम्भ टूट गये, किन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि महल का एक कण भी नहीं गिरा। यह देखकर सभा के सारे लोग आश्चर्य चकित रह गये। राजा की तो प्रसन्नता की सीमा न रही। चारों ओर आनन्द की लहर बहने लगी और सारी सभा सीमन्त और उनके पुत्रों की जय-जयकार से गूंज उठी।
आगन्तुक पण्डितों के चेहरे इस तरह काले पड़ गये जैसे उस पर किसी ने स्याही पोत दी हो । अब वे क्या करें और क्या बोलें, यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी। वे चारों अब वहाँ से भागने का अवसर तलाश रहे थे, क्योंकि वे हार चुके थे और उन्हीं की शर्त के मुताबिक उनका वध होना था। लेकिन वे वहाँ से भागें इसके पहले ही राजा के सभी कर्मचारी उनके आगे पीछे आकर खड़े हो गये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वावसु आख्यान-२ नामक उनतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। तीसवाँ अध्याय
(विश्वावसु आख्यान -३)
दृष्ट्वा प्रमाणं प्रत्यक्षं नृपरक्षा करं परम् ।
प्रासादमविभक्तं च सर्वेर्जयमुदीरितम् ॥
सूतजी बोले - हे ऋषियों ! एक ही खम्भे पर टिके हुए राजमहलों में रह रहे राजा और उसके परिवार का रक्षण कैसे होगा। ऐसे विदेश से आये हुये पण्डितों के प्रश्नों का विश्वावसु ने जो प्रमाण सहित उत्तर दिये उसे देखकर वहाँ एकत्र हुआ जन समूह पुरोहित सीमन्त और विश्वावसु की जय-जयकार करने लगा। इधर चारों पण्डित बिना एक शब्द बोले नतमस्तक होकर खड़े हो गये। उस समय जो कोलाहल मच रहा था, उसे राज कर्मचारियों ने बड़े परिश्रम के बाद शान्त किया। यद्यपि भवन के स्तम्भ चूर-चूर हो गये। फिर भी भवन उसी प्रकार हवा में लटका हुआ था। अब लोग इस अद्भुत दृश्य को देखकर मन ही मन विश्वावसु की प्रशंसा करने लगे।
इसके पश्चात् जब चारों ओर शान्ति हुई तो विश्वावसु राजा की आज्ञा पाकर बोले - हे राजन् ! पूज्य पण्डितगण तथा नगरवासियों ! आपको इस हवा में लटके हुये भवनों को देखकर बहुत ही हैरानी मालूम होती होगी। प्रभु विश्वकर्मा की सेवा में निरन्तर रहने वालों को लिए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। कारण कि प्रभु ने अपने अनन्य भक्तों तथा आचायों द्वारा शिल्प शास्त्र का इतना विस्तार किया है और उसमें ऐसे विचित्र लगने वाले भवनों का निर्माण किया है, जो किसी योजना के द्वारा ही निर्मित हुआ लगता है। ऐसा नहीं है कि प्रभु ने जिस वस्तु का निर्माण किया है उसके रक्षण का उपाय न किया हो। वे भवन जो आप स्तम्भ पर बना हुआ देख रहे हैं, उन सब भवनों की रचना आदि शिल्प शास्त्र प्रवर्तक महान आचार्यों ने ही की है। फिर उन आचार्यों का काम, जो प्रभु के ही समान है, का दोष निकालना अपने ही विनाश का कारण बनता है। जिस स्तम्भ को तोड़ने में राज कर्मियों को आधे प्रहर का समय लगा, उसी को तोड़ने अथवा उसका निर्माण करने में उत्तम शिल्पियों को मात्र एक क्षण लगता है। इस समय आप देखेंगे कि मैं उन स्तम्भों को एक क्षण में पहले की तरह ही खड़ा किये देता हूँ।
इतना कहने के बाद विश्वावस ने अपने कमण्डल में से जल की एक अञ्जलि ली और उस टूटे हुए स्तम्भों पर छोड़ दिया।
अब सब के देखते-देखते वे सारे स्तम्भ इस तरह खड़े हो गये मानों उन्हें कुछ हुआ ही न हो। उसका स्वरूप जैसा था, वैसे ही दिखायी पड़ने लगा। इस चमत्कार को देखकर सब ठगे-ठगे से रह गये । राजा ने भी अब मन ही मन उस बाल ब्रह्मचारी का अभिवादन किया। उसके तेज को देखकर प्रजा भी सिर झुकाकर उसका अभिवादन करने लगी।
उस समय विश्वावसु फिर बोले - हे सज्जनों ! आपने देखा कि कुछ क्षण पूर्व पहले वाले स्तम्भ के टुकड़े-ट्रकड़े हो गये थे। अब सबके देखते-देखते वह फिर पूर्ववत् हो गया। पहले के निर्मित स्तम्भ और इस समय के बने हुए स्तम्भ में कोई अन्तर ही नहीं रहा। आप लोग विचार कर रहे होंगे कि यह चमत्कारिक घटना कैसे घटी? इसके उत्तर में मुझे केवल यह निवेदन करना है कि जो निष्काम भाव से परमात्मा की सच्ची भक्ति करते हैं, उनके लिये दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं है। यह जो कुछ घटना आपके सामने घटित हुयी, वह मैंने नहीं की, मुझमें इतनी शक्ति नहीं है। वास्तव में जिस प्रभु के सानिध्य में मैंने अपना जीवन अर्पित किया है, उस प्रभु में अडिग श्रद्धा होने के कारण मेरे सभी कार्य सफल होते हैं। मेरे पूज्य पिताजी ने अवकाश प्राप्त कर लिया है, किन्तु वे और मेरे चारों भाई भी ऐसा करने में समर्थ हैं। यही नहीं वे इन भवनों को आकाश में नचा भी सकते हैं। फिर वे जो कुछ करते हैं, बल्कि सबके हृदय में विराजमान भगवान् यह सब उनसे करवाते हैं। जिस राज्य में प्रभु के ऐसे अनन्य भक्त रहते हैं, उस राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता। राज पुरोहितों के निर्देश से जिन भवनों का निर्माण कराया जाता है, उनमें राजा के सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता है। अतएव सब लोगों से निवेदन है कि आप सब उसी विराट प्रभु विश्वकर्मा का निष्काम भाव से भजन करें। भजन करने वाले को संसार की कोई वस्तु अप्राप्त नहीं रहती है। उसे सारे वैभव प्राप्त होते रहते हैं।
इतना कहकर विश्वावसु अपने आसन पर बैठ गये। उस समय राजा के प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने सीमन्त के पाँचों पुत्रों का सम्मान किया तथा उन्हें हर तरह के उत्तम वस्त्र आदि उपहार में दिये। सीमन्त के चारों बेटों को कीमती आभूषण दिये। तत्पश्चात् विश्वावसु को रत्नों से जड़ा हुआ दण्ड, कमण्डल एवम् पादुकायें दी, तथा उन सबका यथोचित सम्मान करने के बाद उन्हें पालकी में बैठाकर विदा किया।
इसके बाद जब पिता-पुत्र मण्डप के बाहर आये तो सभी प्रजा उनकी जय-जयकार करने लगी। इसके साथ ही जब उन्हें यह मालूम हुआ कि सीमन्त के साथ आया हुआ ब्रह्मचारी कोई और नहीं, बल्कि सीमन्त का अपंग बालक विश्वावसु है, तो उनके कौतूहल और आश्चर्य की सीमा न रही। उस समय उन लोगों ने छः व्यक्तियों से भरी हुई पालकी अपने कन्धों पर उठा ली और उनकी जय-जयकार करते हुये महर्षि सीमन्त के घर की ओर रवाना हो गये। इधर सुयशा को जब यह मालूम हुआ कि उसके पति और पुत्र पालकी पर सवार होकर घर आ रहे हैं, तो वह जल से भरा हुआ कलश लेकर घर के द्वार के सामने आ गयी। उस समय सबके मस्तक पर सात बार कलश उतार कर उन्हें घर में प्रवेश कराया। महर्षि सीमन्त ने प्रजा को सान्त्वना देते हुये कहा-"हे नगरवासियों ! अब विश्वावसु सदैव आप लोगों के पास ही रहेगा।" इस वचन को सुनकर प्रजा को काफी सान्त्वना मिली और वे सब अपने-अपने घरों को चले गये।
जिसके जीवन का कोई भरोसा नहीं था, ऐसे पुत्र को इस मुसीबत के समय वापस आया हुआ देखकर सुयशा प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थी। उस आनन्द का वर्णन करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। इतनी प्रसिद्धि प्राप्त किये हुए अपने पुत्र को वे बार-बार अपनी गोद में बैठाकर चूमती सहलाती और खिलाती थी, कारण कि उसके लिये तो वह अभी भी पहले जैसा ही बच्चा था। उस समय विश्वावसु भी अपनी माँ के हृदय को शान्ति पहुँचाने वाली अनेक तरह की मीठी-मीठी बातें करते थे। इसके बाद सुयशा ने सबको भोजन कराया। उस दिन रसोई में भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवान बने थे और खाने वाले को उसका स्वाद भी उत्तम लग रहा था। उस समय भोजन का आनन्द लेने के बाद सब अपने-अपने कमरों में विश्राम हेतु चले गये।
विश्राम के पश्चात् कई नागरिक उनसे मिलने आये एवम् उनका अभिनन्दन किया। उस समय विश्वावसु अपने मधुर वाणी से सबका सत्कार करते हुये उनका मन मोहने लगे। उनका सारा दिन इसी तरह लोगों का आवोभगत करते हुए बीत गया। फिर नित्यकर्म से निवृत्त होकर सबने सायंकाल को भोजन किया। फिर काफी रात तक आनन्द करने के बाद विश्वावसु सबकी आज्ञा लेकर सोने चले गये।
तत्पश्चात् प्रातःकाल होते ही नित्यकर्म से निवृत्त होकर ब्रह्म मुहूर्त में विश्वावसु अपने पिता की यज्ञशाला में आये । वहाँ उन्होंने अपने सभी भाइयों और पिता के साथ बैठकर विधिपूर्वक यज्ञ और होम किया। फिर संकल्प मात्र से विश्वावसु ने जितनी भी विद्यायें प्राप्त की थी, उसे अपने भाइयों को भी बता दी । इस प्रकार सभी भाई विश्वावसु के समान तेज वाले होकर सभी का मन मोहित करने लगे और अनेक प्रकार की लीलायें करते हुये सबको आश्चर्य चकित कर देते थे। तत्पश्चात् अपने सभी पुत्रों की चहुँ दिशि फैली ख्याति को देखकर महर्षि सीमन्त और सुयशा ने कृतकृत्य होकर संसार का त्याग करने का मन बना लिया और फिर हिमालय की तलहटी में आश्रय बनाकर ईश्वर भक्ति में लग गये।
इस तरह काफी दिवस बीतने के पश्चात् उत्तरायण सूर्य में प्रभु श्री विश्वकर्मा जयन्ती के दिन प्रातः सीमन्त और सुयशा ने एक साथ अपने प्राण त्याग दिये। लेकिन उस समय अपने छोटे पुत्र विश्वावसु के प्रति बेहद स्नेह हो जाने के कारण उनकी आत्मा की ऊर्ध्वगति नहीं हुई। अतः सीमन्त पूर्व में की गयी घोषणा के अनुसार स्वयंभुव मनु के वंश में उत्तानपाद के नाम से उत्पन्न हुए। उनकी पत्नी सुयशा इस जन्म में भी उनकी रानी बनी तथा विश्वावसु उनके पुत्र ध्रुव के रूप में उत्पन्न हुये।
लेकिन इधर विश्वावसु और उनके भाइयों ने माता-पिता के निधन का समाचार सुना तो उनकी आत्माओं की शान्ति के लिये सभी योग्य क्रियायें की। तत्पश्चात् अपनी सम्पत्ति एवं वृत्ति अपने भाइयों को सौंपकर विश्वावसु प्रभु की आज्ञा पालन करते हेतु पुनः ईलाचल की ओर जाने की तैयारी करने लगे। उस समय जब वहाँ की प्रजा को विश्वावसु के ईलाचल जाने का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी हो उठे और वे विश्वावसु को बारम्बार रोकने की चेष्टा करने लगे। उनके विछोह होने के दुःख से राजा बर्हिष की आँखों में आँसू आ गये। उस समय सबको दुःखी देखकर विश्वावसु ने उन सबको उत्तम ज्ञानपूर्वक वचनों से धैर्य बँधाया और सबको ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देकर उनके मन का समाधान किया। फिर स्वयं ईलाचल की ओर चल पड़े।
सूतजी बोले - हे ऋषि ! जो विश्वावसु अपने पिता का कार्य सम्पन्न करने हेतु खड़ाऊँ पर उड़ते हुये आये थे तथा रथ से चलकर पन्द्रह दिनों में पहुंचने वाले मार्ग को पल-भर में समाप्त कर दिया था, वे ही विश्वावसु आज पैदल ईलाचल की ओर जा रहे थे। वे रेगिस्तान, जङ्गल, दुर्गम पर्वत, घाटी तथा खड्डे, टीले व अनेक कष्ट देने वाले मार्गों पर पैदल ही जा रहे थे, किन्तु इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी, क्योंकि प्रभु के भक्त और साधारण मनुष्य के रहन-सहन में कुछ भिन्नता रहती है। देखा जाता है कि अधम मनुष्य पराये धन-सम्पत्ति का उपयोग अपने लिये करते हैं, किन्तु साधारण मनुष्य अपने लिये केवल अपने ही धन-सम्पत्ति का उपयोग करते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति तो अपने धन सम्पत्ति का उपयोग अपने लिये न करके दूसरों के हित के लिये करते हैं। वे अनेक सम्पदा होते हुये भी स्वयम् गरीबों की तरह ही जीवन व्यतीत करते हैं।
यद्यपि ईलाचल की ओर पैदल प्रस्थान करते समय उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। फिर भी प्रभु विश्वकर्मा में दृढ़ विश्वास रखने के कारण वे उन पर आसानी से विजय प्राप्त करते जा रहे थे । अन्त में सारे कष्टों को सहन करते हुये वे एक महीने में ईलाचल पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर पूर्व की भाँति ही उन्होंने पवित्र होने के पश्चात् विश्वकुण्ड के किनारे पुराने वटवृक्ष के सामने आसन बिछाकर प्रभु के ध्यान में बैठ गये। उस समय वे केवल वायु को आहार के रूप में ग्रहण कर रहे थे। फिर परमात्मा में चित्त लगाये हुये उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया।
इसके बाद प्रभु की इच्छा पूर्ण करने के लिये उन्होंने राजा उत्तानपाद के यहाँ उनके पुत्र ध्रुव के रूप में जन्म लिया। उन्हें पिछले जन्म के किये हुए कर्मों के कारण अच्छे संस्कार मिले थे। इसलिये बालक ध्रुव अपने सौतेली माँ के कटाक्ष-मय वाणी को सहन न करने के कारण घर त्याग कर वन में चला गया और वहाँ प्रभु को स्मरण कर घोर तप किया। फिर प्रभु की कृपा से प्रभु के परम पद रूपी ध्रुव स्थान को प्राप्त किया और अपने सारे कुल का उद्धार किया।
सूतजी बोले - हे मुनियों ! उस अपंग विश्वावसु ने प्रभु विश्वकर्मा की उत्तम भक्ति से सुन्दर देह, यश, गौरव, ऐश्वर्य प्राप्त करते हुये अपने जन्म देने वाले माता-पिता की कीर्ति बढ़ायी और अन्त में अपने सारे कुल को तार दिया । हे ऋषियों! जैसे खारे समुद्र में यदि एकाध अमृत की बँद गिर जाये तो वह सारे समुद्र को अमृतमय बना देता है, उसी तरह विश्वावसु जैसे पुत्र की उत्पत्ति से सारे कुल का उद्धार हो जाता है और उन्हें प्रभु के परम-धाम की प्राप्ति हो जाती है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में विश्वावसु आख्यान-३ नामक तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। इकतीसवाँ अध्याय
(द्वारावती निर्माण)
श्रीकृष्णस्य प्रियं द्वारावती कर्तुं विनिर्मिता।
बहवावास समोपेतां कथं वै विश्वकर्मणा ॥
ऋषि बोले - हे सूतजी ! हे समस्त पुराणों के ज्ञाता ! पूर्व में कालयवन तथा जरासन्ध की ओर से उत्पन्न भय से अपनी प्रजा की रक्षा हेतु श्रीकृष्ण ने समुद्र के बीच में एक मजबूत किले का निर्माण कराते हुये वहाँ द्वारकापुरी नामक नगरी को बसाया। हे सूतजी! श्रीकृष्ण की रक्षा करने की अभिलाषा से समुद्र के बीच उत्तम आवासों से युक्त द्वारिका नगरी का निर्माण प्रभु विश्वकर्मा ने किस प्रकार किया था । हे सूतजी ! प्रभु की लीलाओं तथा गुणानुवादों से भरे आपकी वाणी श्रवण कर हमें अत्यन्त हर्ष होता है। उन प्रेमपूर्ण वचनों को हमें बार-बार सुनने की अभिलाषा होती है। परमात्मा की मधुर लीलाओं का वर्णन करने वाले आप धन्य हैं।
ऋषियों की ऐसी वाणी सुनकर सूतजी ने कहा - हे ऋषि-गण ! प्रभु की लीलायें अलौकिक हैं तथा उनका पार पाना कठिन है, किन्तु फिर भी आप लोगों के प्रश्न के समाधान हेतु मैं आप लोगों को द्वारावती के निर्माण की कथा सुना रहा हूँ। प्रभु ने पृथ्वी का भार उतारने के लिये वसुदेव तथा देवकी के यहाँ कृष्ण के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपना बचपन नन्द और यशोदा के यहाँ बिताया। अपनी क्रूरता के लिये प्रसिद्ध अपने मामा कंस का वध किया। उन्हीं कंस के ससुर जरासन्ध अत्यन्त पराक्रमशाली हो गये थे। वे अनेक सेनाओं के सेनापति थे तथा कई राजा उनके अधीन थे। उन जरासन्ध ने श्रीकृष्ण से सत्रह बार युद्ध किया और प्रत्येक बार उनकी हार हुई। परन्तु जब वह पुन: अठारहवीं बार भगवान् श्रीकृष्ण से लड़ने आया तो उस समय कालयवन नामक म्लेच्छ भी यादवों के पराक्रम को जानकर उनके साथ युद्ध करने आ पहुँचा। श्रीकृष्ण ने उस समय विचार किया कि एक ओर कालयवन है तथा दूसरी ओर जरासन्ध है। इन दोनों से एक साथ युद्ध करने पर हमारी सेना का नाश होगा तथा प्रजा भी कष्ट में पड़ जायेगी। इसलिये अब कोई ऐसा मार्ग निकालना चाहिये जिससे प्रजा की रक्षा हो सके।
यह सोचकर श्रीकृष्णचन्द्र ने भगवान् विश्वकर्मा का ध्यान किया। उनके ध्यान करते ही प्रभु विश्वकर्मा हंस पर आरूढ़ होकर मथुरा में भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित हुए। पीताम्बर पहने तथा गले में उत्तम वनमालाओं से शोभित पाँच मस्तक तथा दस हाथों में विविध हथियार धारण किये हुये प्रभु विश्वकर्मा का शुभागमन देखकर बलराम सहित प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवान् विश्वकर्मा की स्तुति की तथा उत्तम उपहारों से उनका पूजन किया। उस समय प्रभु ने दोनों भाइयों की अभिलाषाओं से परिचित होकर एक ही क्षण में उत्तम और मजबूत दुर्ग बनाकर उसमें द्वारावती नगर की रचना की।
सूतजी ने आगे कहा - हे मुनियों ! प्रभु ने जिस द्वारावती की रचना की, उसका मैंने आप सभी से वर्णन कर दिया । उस नगर को प्रभु ने क्षण मात्र में निर्मित कर दिया था। उसका दुर्ग बहुत ही शक्तिशाली था। इस नगर की रचना होने के बाद सभी लोग उस किले के चारों ओर घूमकर उसका प्रवेश द्वार ढूँढ़ने लगे, किन्तु उसका प्रवेश द्वार किसी को नहीं मिल सका। उस समय सब भगवान् के पास पहुँचकर पूछने लगे-हे प्रभु ! इसका द्वार कहाँ है ? हमें मिल नहीं रहा है ? उसका द्वार न मिलने के कारण ही उसका नाम द्वारिका रखा गया। भगवान् विश्वकर्मा के द्वारा श्रीकृष्ण भगवान् के लिये बनाये गये इस दुर्ग के नगरी की शोभा का वर्णन करना बहुत दुरूह है। फिर भी आप लोगों से उसका वर्णन करूँगा, इसे ध्यान से सुनिये।
हे ऋषियों! शिल्प शास्त्र के आद्य एवम् कुशल प्रवर्तक तथा समस्त विश्व के आदि गुरु जिन्होंने अपने हाथों में परशु, गज, सूत आदि धारण कर रखा है। जिनके आधे नेत्र मिंचे हैं। एक हाथ में शिल्प-संहिता धारण करने वाले प्रसन्न मुख वाले विश्वकर्मा ने प्रजा के कल्याण के लिये संकल्प मात्र से ही समग्र विश्व का निर्माण कर दिया। उन्होंने समुद्र के पश्चिमी किनारे पर उत्तम और शक्तिशाली धातुओं के मिश्रण से अजेय दुर्ग की रचना की। यह दुर्ग सोने का था, फिर भी इसका निर्माण किस धातु से हुआ था, इसकी कल्पना करना कठिन था। दुर्ग के शिखर पर स्फटिक से बारह हाथ चौड़ा मार्ग बनाया गया था। इस रास्ते से एक साथ दो रथ आ सकते थे। दुर्ग के ऊपरी रास्ते के बाहरी ओर पाँच हाथ ऊँची तथा आठ हाथ चौड़ी दीवार थी। उक्त दीवार, शिखर पर चार हाथ की थी। उस पर जगह-जगह छोटी-छोटी चौकियाँ बनायी गयी थी। उन प्रत्येक चौकियों में तीन-तीन रक्षकों के रहने की व्यवस्था की गयी थी। इस प्रकार सम्पूर्ण दुर्ग के दीवारों के चारों ओर तीन सौ साठ चौकियाँ थीं।
उनमें प्रत्येक दस-दस चौकी के बाद एक-एक बड़ी चौकी आती थी। इसके अलावा हर चौकी में बहुत हथियार रहते थे। उन शस्त्रों और नगर की देखभाल के लिये उनमें दस-दस व्यक्ति रह सकें ऐसी व्यवस्था थी। सम्पूर्ण दुर्ग पर बारह बड़ी चौकियों का निर्माण किया गया था। उनमें भी हर चौकियों में अनेकानेक शस्त्रास्त्र भरे हुये थे और यही नहीं उनका उपयोग जानने वाले सौ-सौ रक्षक भी उनमें रह सकें ऐसी व्यवस्था की गयी थी। इस प्रकार इन बड़ी चौकियों में दुर्ग के अन्दर और बाहर मिला कर बीस-बीस बड़े शस्त्र भण्डार थे। इस दुर्ग के रक्षण की व्यवस्था हेतु अनेक सशस्त्र रक्षक किले अथवा दुर्ग के चारों ओर परिक्रमा करते थे और रात-दिन खड़े हुये उसकी रक्षा करते थे।
इस तरह सोने की उत्तम और मजबूत दुर्ग का निर्माण करने के पश्चात् उनकी छोटी बड़ी सभी चौकियों पर छोटे बड़े गुम्बद बनवाये तथा दुर्ग के चारों ओर सोने और चाँदी के कँगूरे रखे । प्रत्येक गुम्बद तथा कंगूरों पर अनेक प्रकार के उत्तम कीमती रत्नों से नक्काशी किये हुये भिन्न-भिन्न तोते, मयूर आदि पक्षियों को लगाया गया था। इनका निर्माण बड़ी ही बारीकी से किया गया था। यहाँ तक कि इसका अवलोकन करने वाले क्षण भर के लिये सच और झूठ (नकली और असली) का भेद ही नहीं जान पाते थे। कई स्थानों पर आराम से बैठने के लिये आसन भी बनाये गये थे। कई स्थानों में दुर्ग पर ही उद्यानों की रचना भी की गयी थी। इस प्रकार रचना करने के पश्चात् प्रभु विश्वकर्मा ने इसमें एक प्रवेश द्वार बनाया। प्रवेश द्वार दुर्ग के दक्षिण भाग में था। यह दुर्ग का द्वार इतने अगम्य स्थान पर और इतना छोटा था कि किसी का उस ओर ध्यान ही नहीं जा सकता था।
इस दुर्ग पर स्थित हर एक बड़ी चौकियों पर संग्राम के उपयुक्त हाथियों को सौ-सौ की संख्या में रक्खा जाता था। उसके प्रत्येक चौकी पर पाँच सौ घोड़े तथा पचास बड़े रथ थे। छोटे बड़े दस विमान अनेक शास्त्रास्त्रों सहित रखे गये थे। वहाँ भी स्फटिक का ही मार्ग था। इस मार्ग से नगर में आने के लिये ऐसे आठ मार्ग गुप्त रूप से बनाये गये थे। हर एक मार्ग आठों दिशाओं की ओर जाते थे। जिन-जिन स्थानों पर इस प्रकार नगर में प्रवेश करते थे, उन्हीं आठ स्थानों पर नगर के बाहर जाने के लिये भी आठ मार्ग बने हुये थे। इन सोलहों मार्ग का निर्माण बड़े अलौकिकपूर्ण ढङ्ग से किया गया था। इन मागों में विचित्रता यह थी कि आवश्यकता होने पर ये मार्ग अपने आप बन जाते तथा आवश्यकता समाप्त हो जाने पर ये मार्ग अदृश्य होकर दीवार में समा जाते थे। इस तरह अद्भुत रहस्यमय मार्गों की रचना से सारी द्वारिकापुरी ही पूर्ण रूपेण रक्षित थी।
यह दुर्ग हर प्रकार की रङ्ग-बिरङ्गी छत, ध्वजा, पताका आदि से सुशोभित था। चारों ओर बड़ी-बड़ी नौकायें जल राक्षस के समान तैरती दिखायी पड़ती। उस समुद्र के जल में तैरते दुर्ग में भी प्रभु की अद्भुत करामात थी । युद्ध के समय बाहर से दुश्मन का भय उत्पन्न हो और भय से मुक्ति पाने का कोई मार्ग न सूझ पड़े तो सारा दुर्ग ही उसमें रहने वालों के साथ जल में विलीन हो जाता और उस समय इसके निवासियों को किसी तरह का कष्ट नहीं होता था। दूसरी ओर दुर्ग को तहस-नहस की इच्छा रखने वाले शत्रु को जब कहीं भी दुर्ग के दर्शन न होकर चारों ओर पानी ही पानी दिखायी पड़ता था, तो वह निराश होकर लौट जाता था।
सूतजी आगे बोले - हे ऋषियों ! ये तो दुर्ग के बाहरी भाग का वर्णन था। अब मैं दुर्ग के अन्दर बसी हुई द्वारिका नगरी का वर्णन करता हूँ। उसे भी ध्यान देकर सुनो। प्रभु विश्वकर्मा ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के भवन की कल्पना की तथा द्वारिका के बीचों-बीच सहस्र सूर्य की कान्ति वाले उत्तम भवन का निर्माण किया। इसके बाद भवन की आठ दिशाओं में भगवान् श्रीकृष्ण की मुख्य आठ रानियों के रहने हेतु सुन्दर मन्दिरों की कल्पना की। भवन के चारों ओर सोलह हजार रानियों के निवास की कल्पना की। भगवान श्रीकृष्ण एवम् उनकी पत्नियों के निवास की रचना करने के बाद प्रभु विश्वकर्मा ने उन भवनों के दायीं ओर वसुदेवजी, उद्धवजी, उग्रसेन तथा प्रभु श्रीकृष्ण के सभी बुर्जुगों के भवनों की रचना की। फिर बायीं ओर बलराम, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न आदि के भवन बनाये गये। इसके बाद सभी कर्मचारियों के भवन बनाये गये। इस दुर्ग के पूर्व में ब्राह्मण, उत्तर में क्षत्रिय, पश्चिम में वैश्य तथा दक्षिण में शूद्रों के निवास बनाये गये। इसके बाद चतुरङ्गिणी सेना के रहने के लिए भवन का निर्माण हुआ।
उस नगर में अनेक टेढ़े-मेढ़े मार्गों की रचना करने के बाद उन मार्गों के दोनों ओर अनेक प्रकार के उत्तम फल देने वाले तथा सुगन्धित पुष्पों के तरह-तरह के वृक्ष रोपे गये । सम्पूर्ण मार्ग मन्दिर, भवन आदि अनेक प्रकार के पताकाओं और तोरणों से शोभायमान हो रहे थे। वहाँ स्थान-स्थान पर रत्नमय पात्रों में उत्तम प्रकाश को देने वाले रङ्ग-बिरङ्गे दीप प्रकट हो रहे थे। सारे नगर में मन्थर गति से सुगन्धित पवन बहा करती थी तथा उसमें निरन्तर मधुर वाद्यों का संगीत सुनाई पड़ता था। पक्षियों का मधुर कलरव उस नगर को और भी संगीतमय बना रहे थे।
नगर का निर्माण यद्यपि एक क्षण में हुआ था। फिर भी उसके प्रत्येक भवन, दरवाजे, खिड़कियाँ, गवाक्ष, झूले, तख्त से युक्त थे। उनमें से कोई भवन मिट्टी का तो कोई रत्नों का बना था। किसी भवन में एक मन्जिल, किसी में दो, तो किसी में पाँच या सात मन्जिलें बनी थी। उन सभी भवनों के आस-पास छोटी किन्तु मनोरम वाटिकायें थी। वाटिकाओं में अनेक प्रकार के फल-फूलों से लदे हुये वृक्ष उगे थे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक भवनों पर धातुमय शिखर शोभित हो रहे थे। नगर में अनेक गुप्त मार्गों की रचना हुई थी। जिनकी जानकारी राजा के विशेष कर्मचारियों अथवा सेनानायकों को थी। वे इन मार्गों से कहीं भी आ जा सकते थे। फिर भी किसी को उसका पता पा सकना कठिन था। प्रायः राजा के गुप्तचर उस मार्ग से आते-जाते और उसी के सहारे वे राजा को सारी गुप्त बातों की जानकारी देते। इस प्रकार द्वारावती की शोभा अद्वितीय थी।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! इस प्रकार अपनी योगविद्या के बल से द्वारावती की एक क्षण में रचना करके श्री विश्वकर्मा भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़े हुये। प्रभु की इस लीला को देखकर श्रीकृष्ण और बलदेवजी कुछ क्षणों के लिये अवाक् रह गये। फिर क्या था? दोनों ने हाथ जोड़कर प्रभु विश्वकर्मा को दिव्य आसन पर बैठाया और उनका हाथ जोड़े हुये ध्यान करने लगे । तत्पश्चात् दोनों भाई अनेक तीर्थों के सुगन्धित जल से उनके चरण धोने लगे। इस तरह प्रभु का पूजन और उनकी सेवा करके उनके हृदय को बड़ा आनन्द हुआ।
इसके बाद उन्होंने स्तुति करते हुये कहा - हे जगनियन्ता! दिव्य सुन्दर स्वरूप को धारण करने वाले, हम आपको नमस्कार करते हैं ! हे देवों के देव ! हम आपका बारम्बार अभिनन्दन करते हैं! आप ही समस्त विश्व में विराजमान होकर उसके कर्ता, धर्ता एवम् हर्ता हो । संसार में चैतन्य स्वरूप आप ही हो । समस्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति के कारण आप ही हो। आप ही सब का पालन करते हुये उनका नाश करते हो। वेद जिनकी स्तुति करते हैं, वे अपरिमित बल वाले आप ही हो। अनन्त, अनादि, दृष्ट, अदृष्ट सब कुछ आप ही हो।
आप ही सारे विश्व को भयभीत करने वाले काल हो तथा सबकी स्थिति एवम् गति के एक मात्र कारण हो । इस जगत् के होने वाले सभी कार्यों में आपकी कल्पना ही व्याप्त है। सब आपकी ही माया का विस्तार दर्शाते हैं। आपकी लीलाओं का पार पाना कठिन है। आप ही माया का आश्रय लेकर अनेक अवतार धारण कर धर्म तथा सन्तों की रक्षा करते हैं। आपका सारा स्वरूप जगत् के कल्याण के लिये है। अलौकिक माया के धनी जगतगुरु तथा जगत् के एकमात्र सूत्रधार हम आपको प्रणाम करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण एवम् बलदेवजी की स्तुति से प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा ने उन्हें दिव्य घोड़ों से जुते उत्तम सारथि सहित दो रथ दिये जो दिव्य शस्त्रास्त्रों से परिपूर्ण थे। समस्त पृथ्वी का भार उतारने के लिये उनके ही अंश से उत्पन्न दोनों भाइयों को उन्होंने अनेक प्रकार के उत्तम आयुध भी दिये । इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र तथा बलदेव को हल दिया तथा आशीर्वाद देते हुये प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा अदृश्य हो गये।
उस समय प्रभु विश्वकर्मा के अदृश्य होने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम अपने साथ निवास कर रहे सभी मथुरा वासियों को योग-माया के बल से क्षण भर में बिना द्वार के महान् धर्म से रक्षित द्वारावती में उठाकर रख दिया एवं अपनी प्रजा को अच्छी तरह रक्षित देखकर भगवान् स्वयम् प्रफुल्लित होकर अपने कार्य में जुट गये।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! इस प्रकार द्वारावती का निर्माण करने वाले कृपालु प्रभु विश्वकर्मा के सभी कार्य अलौकिक हैं। इन्द्रपुरी, कैलाश, बैकुण्ठ, ब्रह्मलोक तथा पृथ्वी के बाहर निर्मित प्रभु के सभी निवास एवम् देवालय का होना कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु पृथ्वी पर अलौकिक, दैविक निर्माण प्रलय-काल तक प्रभु विश्वकर्मा की याद दिलाता रहेगा। हे मुनियों ! द्वारावती के निर्माण के रूप में प्रभु की इस उत्तम लीला का जो व्यक्ति नित्य पठन-पाठन अथवा श्रवण करेगा, उसके सभी दुःख दूर होंगे। ऐसे लोग अनेक प्रकार के सुख भोगकर प्रभु की सारी माया से मुक्त उनके धाम को प्राप्त करेंगे। उनकी लीलाओं को सुनने मात्र से मनुष्य को अनेक सुख साधनों से युक्त आवास में रहने की सुविधा मिलेगी। वह अश्व, वाहन तथा अन्य सम्पत्तियाँ प्राप्त करता हुआ राजा की तरह सारे ऐश्वर्य को भोगता हुआ प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में द्वारावती का निर्माण नामक इकतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। बत्तीसवाँ अध्याय
(वास्तु प्रतिष्ठा)
वास्तुं तु नूतन गृहे तदपि प्रवेशे, देवालये नविन मण्डप सुप्रवेशे।
सर्वेजना सुख समृद्धि विवृद्धि हेतवे, देवान्विहाय प्रथमं किम् पूजयन्ति ॥
ऋषि ने कहा - हे सूतजी ! जब कभी किसी नव-निर्मित भवन में प्रवेश करते समय अथवा किसी देवालय तथा मण्डप में प्रवेश करते समय सारे मनुष्य अपने सुख संवर्धन हेतु किसी अन्य देवता की पूजा करने के बजाय सर्वप्रथम वास्तु की पूजा क्यों करते हैं? हमें इसके बारे में भी जानने की इच्छा है, कृपया हमें इसे भी विस्तार से बताने की कृपा करें।
सूतजी ने कहा - हे ऋषियों ! मैं पूर्व में ही इस कथा का वर्णन कर चुका हूँ कि भगवान शङ्कर एवम् अन्धक के पसीने से उत्पन्न इस वास्तु पुरुष को भगवान् ने अपने पुत्र के रूप में स्थापित कर दिया था। फिर उसने प्रभु के सानिध्य में ही रहकर उनका अनेक कार्य सम्पन्न किया है। जिस समय प्रभु ने देवी रन्नादे का विवाह सूर्यनारायण से किया था, तब उन्होंने भेंट स्वरूप सूर्यनारायण को बारह रथ सारथी सहित दिये थे। उसमें ग्यारह सारथी के अतिरिक्त बारहवाँ सारथी वास्तु को बनाया था।
वास्तु ने भगवान के आदेशानुसार अनेक पराक्रम दिखलाते हुये असंख्य दुष्टों का वध कर दिया था। विशेषतया प्रभु की इच्छा पूर्ण करने हेतु पृथ्वी के सभी शल्यादि दोषों का परिहार किया था। इसी कारण प्रभु ने उसे देवताओं में स्थान दिया था। साथ ही उसे यह भी वरदान दिया कि किसी भी नये निर्माण में सबसे पहले इसी की पूजा होगी। हे मुनियों ! जो अपने स्वार्थों का त्याग करके प्रभुमय होकर प्रभु के लिये ही अपने शरीर इत्यादि को अर्पित कर देता है, उसे प्रभु सर्वोत्तम पद प्रदान करते हैं। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता।
ऋषि ये सुनकर बोले-हे सूतजी ! आप सभी शास्त्र और पुराणों के ज्ञाता हैं। इसलिये आपको बहुश्रुत कहा जाता है। आप पर वेदव्यासजी एवम् शुकदेवजी की विशेष कृपा है। आपने सभी पुराणों का सार उसी तरह एकत्र किया है, जैसे हंस दूध को ग्रहण करके जल को छोड़ देता है। हे विद्वान सूतजी | वास्तु ने अनेक पराक्रम करके विश्वकर्माजी का नेह प्राप्त किया है, जैसा कि आपने अभी बताया है, साथ ही आपने यह भी कहा है कि वास्तु ने पृथ्वी के शल्यादि दोषों का परिहार किया है, तो हे सूतजी ! अब दया करके हमें यह बताइये कि वास्तु ने किस तरह भूमि के दोषों का परिहार किया ?
ऋषियों की वाणी सुनकर सूतजी बोले-हे ऋषिगण ! देवासुर संग्राम में जब शङ्कर और अन्धक का युद्ध चल रहा था, तब देव-दानव अपनी लड़ाई छोड़कर इन महान योद्धाओं का आश्चर्यजनक युद्ध देखने लगे। इन दोनों में एक तो सम्पूर्ण रूप से देवता थे और दूसरे को एक अन्य देवता का बल प्राप्त था। इसी कारण जैसे ही वज्र के सामने वज्र आता था। उनके घर्षण से जो अग्नि उत्पन्न होती, तो उसका वज्र के ऊपर कोई असर न पड़ता था। वैसे इन दोनों महान् योद्धाओं को एक दूसरे से युद्ध करते हुये थकान बिल्कुल नहीं लगी। दोनों में से कोई एक दूसरे से हार मानने वाला न था। जब एक सर्प दूसरे सर्प के घर अतिथि के रूप में जाता है तो केवल आपस में एक दूसरे की जीभ चाटकर वापस चला जाता है। उसी प्रकार ये दोनों योद्धा भी अपने शस्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार करते और फिर पीछे हट जाते थे। इस तरह आपस में लोहा लेते हुए एक दूसरे के अस्त्र-शस्त्र विफल करने की चेष्टा करते और प्रयास यही करते कि उन्हें एक दूसरे के सामने झुकना न पड़े।
देव-दानव का यह युद्ध एक हजार वर्षों तक चला शङ्कर और अन्धक को लड़ते आठ सौ वर्ष बीत गये। दोनों अविचल और अडिग रूप से लड़ रहे थे। उस समय सभी देव-दानव इस अभूतपूर्व युद्ध को बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। दोनों योद्धा जब एक दूसरे पर अस्त्र-शस्त्र फेंकते तो उनके टकराने से भयङ्कर ज्वाला उत्पन्न हो जाती, जो तीनों लोकों को अपनी ज्वाला से जलाती वह अग्नि की ज्वाला इतनी प्रचण्ड थी कि उससे तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मच गयी, लेकिन इस पुकार को सुनने के लिये इन दोनों में से किसी को भी फुर्सत नहीं थी।
अन्त में इनका युद्ध देखकर प्रभु विश्वकर्मा ने विचार किया कि यदि दोनों इसी प्रकार लड़ते रहे तो तीनों लोकों में हो त्राहि-त्राहि मच जायेगी और सभी लोग भयानक मुसीबत में पड़ जायेंगे । अतः उन्होंने शङ्कर भगवान् और अन्धक के युद्ध को रोकने का संकल्प किया। उनके इस संकल्प मात्र से ही सबको आश्चर्य में डाल देने वाला अद्भुत कौतुक उत्पन्न हुआ। उस कठोर युद्ध में इन दोनों को ही अत्यन्त परिश्रम करना पड़ा। अतः फलस्वरूप उनके शरीर पसीने से लथपथ हो गये। फिर देखते ही देखते उन दोनों के पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिर कर एक स्थान पर एकत्र हो गयीं और उसमें से एक अत्यन्त दिव्य पुरुष उत्पन्न हुआ। इस पुरुष की शक्ति से शङ्कर एवं अन्धक दोनों घबड़ा गये और उससे बचने के लिये प्रभु विश्वकर्मा की शरण में गये। तब प्रभु ने उस पुरुष से उन दोनों की रक्षा की तथा उसके उत्पत्ति का कारणं बताया। इसके बाद उस नये पुरुष को वास्तु का नाम देकर उसे अपना पुत्र बनाया।
प्रभु विश्वकर्मा के लिये वास्तु ने जो-जो कार्य किये उसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। वास्तु के असीमित पराक्रमों का वर्णन करना अत्यन्त कठिन है, पर उन्होंने पृथ्वी के अष्ट महाशल्य का जिस प्रकार परिहार किया, अब मैं उसे कहूँगा, क्योंकि उसके इसी कार्य से प्रसन्न होकर प्रभु ने उसे देवस्थान दिया था। इसी लिये नव-निर्माण और जीर्णोद्धार के कार्यों में सर्वप्रथम उसी की पूजा होती है।
सूतजी बोले-हे ऋषि ! देवासुर संग्राम में जब शरजी और अन्धक के युद्ध से तीनों लोकों को कष्ट पहुँच रहा था। तब वास्तु के उत्पन्न होने से वह युद्ध बन्द हो गया एवं दोनों की किसी प्रकार की हार जीत नहीं हुई और उन्हें सन्धि करनी पड़ी थी। इस प्रकार उन दोनों के झगड़े निपटा कर प्रभु वास्तु को साथ ले जाने के लिये अपने निवास स्थान की ओर चले। तत्पश्चात् उन्होंने अन्धक को भगवान् शङ्कर को सौंप कर सभी देव-दानवों के मन का समाधान करते हुये प्रभु वहाँ से जाने लगे।
तब वास्तु को साथ ले जाते हुये देखकर सभी देव प्रभु का मार्ग रोकते हुये बोले - हे देवाधिदेव ! हे अशरण शरण ! आप ही समस्त विश्व के कर्ता, धर्ता और हर्ता हो । समग्र विश्व के आधार आप ही हो, क्योंकि बिना आपके इस संसार में कोई टिक ही नहीं सकता । यद्यपि आपने हमें सारे भय से मुक्त कर दिया है, किन्तु हे स्वामी ! यह भय न जाने कब फिर वापस आ जाये यह हमें ज्ञात नहीं। अतः उस अज्ञात भय से आप हमारी रक्षा करें। आप हमें अति उत्तम और दृढ़ निवास स्थान बनाकर देने की कृपा करें, जिससे हमारे मन में फिर इस तरह का भय उत्पन्न ही न हो।
उस समय देवताओं के वचन सुनकर विश्वकर्माजी बोले - हे देवताओं ! आज के सात दिन बाद पर्वणी के दिन आपके पुरोहित श्री बृहस्पतिजी आकर मेरे अष्टाक्षर मन्त्र का उपदेश देंगे। इस मन्त्र का दिन भर जप करने से उस अमोघ कवच से आपको असुरों का भय बिल्कुल समाप्त हो सकेगा। इसके उपरान्त मैं आप लोगों के लिये उत्तम निवास स्थान का निर्माण कर दूंगा। इसमें रहकर आपको किसी बाहरी आक्रमण का भय न होगा। प्रभु से इस प्रकार की सान्त्वना पाकर देवताओं के प्रसन्नता की सीमा न रही।
उस समय भगवान् ने तीन देवों के निवास की रचना की। अनेक छोटी बड़ी पहाड़ियों के बने हुये टीले वाले स्थान को समतल बनाकर कैलाश का निर्माण किया और उसे भगवान् शङ्कर के लिये निवास स्थान बनाया। फिर विष्णु भगवान के रहने के लिये बैकुण्ठ की रचना की। इसके पश्चात् ब्रह्मलोक का निर्माण किया और फिर अनन्त भगवान् का निवास बनाया । इस तरह भगवान् ब्रह्मा एवम् भगवान् अनन्त का निवास स्थान बना देने से बीच में स्थित पृथ्वी का ऊपर नीचे से अच्छी तरह रक्षण हो गया।
तत्पश्चात् प्रभु विश्वकर्मा ने पृथ्वी के आठ दिशाओं में रहने वाले आठ लोकपालों के निवास का निर्माण करने का विचार किया और उनके संकल्प मात्र से ही इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान नामक दिशाओं के अधिपतियों के आवास बनाये । वे आवास प्रभु विश्वकर्मा के संकल्प मात्र से बने थे। लेकिन आश्चर्य यह है कि आवास क्षण-मात्र में ही तहस-नहस हो गये। उन्होंने पुन: आवास बनाये, परन्तु उनके भी टूटते देरी न लगी। इस तरह तीन बार आवास का निर्माण किया गया, किन्तु वह बार-बार टूट जाता था। अब अपने भक्त वास्तु को महत्व देने के लिये उससे इसका कारण खोजने के लिये कहा।
भगवान् विश्वकर्मा का आदेश मिलते ही वास्तु अपने कार्य में लग गये। प्रभु द्वारा बनाये गये ये आवास किस कारण नष्ट होते हैं। इसकी खोज करने में वास्तु को एक हजार वर्ष लग गये, फिर भी उन्हें इसका कुछ पता न चल सका । अन्त में वे शिथिल हो उठे और प्रभु विश्वकर्मा का ध्यान लगाने लगे। वास्तु जिस समय परमात्मा के ध्यान में लगे थे कि उसी समय प्रभु विश्वकर्मा द्वारा प्रेरित नारदजी वहाँ आ पहुँचे । नारदजी को वहाँ आया देखकर वास्तु ने उनका अनेक प्रकार से पूजन किया और उन्हें अपनी चिन्ता को बताकर उनसे मार्ग दर्शन माँगा।
नारदजी उनकी कठिनाई के बारे में सुनकर बोले-हे वत्स ! तू लगातार जिनकी सेवा में रहता है, तू उसको ही ठीक से पहचान नहीं पाया। प्रभु विश्वकर्मा ही आदि पुरुष हैं। वे स्वयम् सब कुछ जानते हैं और सब कुछ कर सकने में समर्थ हैं, किन्तु देवताओं के बीच तेरा महत्व बढ़ाने के लिये उन्होंने तुझे यह काम सौंपा है, लेकिन तुझे अपनी शक्तियों का अभिमान हो जाने के कारण इस काम में सफलता नहीं मिल सकी। अब उन्हीं की शरण में जाने से यह काम बन सकेगा और जगत् में तेरी कीर्ति बढ़ेगी। इतना कहकर नारदजी उन्हें अष्टाक्षर मन्त्र का उपदेश देकर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।
नारदजी के चले जाने पर वास्तु ने उनकी बातों पर विश्वास करते हुये अष्टाक्षर महामन्त्र की आराधना की और इससे उन्हें अनेक शक्तियाँ प्राप्त हुई । मन्त्र के प्रभाव से वास्तु ने भिन्न-भिन्न आठ स्वरूप धारण किये। इसके बाद जिस-जिस भूमि में आठों लोकपालों के निवास की रचना करनी थी। उस भूमि में उन्हीं आठों स्वरूप के द्वारा एक साथ प्रवेश किया। भूमि में प्रवेश करते ही उन्हें प्रत्येक स्थानों पर एक-एक गुफा (छिद्र) दिखायी दिया। उस समय वास्तु अति-सूक्ष्म स्वरूप धारण कर प्रत्येक गुफा में घुसकर अन्दर जाने लगे। गुफा काफी लम्बी और भयङ्कर रूप से संकुचित थी। तत्पश्चात् काफी दूर तक उसी संकुचित मार्ग से चलते हुये वास्तु एक प्रकाशमय तथा विस्तृत मार्ग पर आ पहुंचे।
यहाँ पहुँचते ही उन्होंने मन्द-मन्द प्रकाश में मार्ग के एक किनारे एक अन्य निवास स्थान को देखा । वह निवास अन्दर से बन्द था । यह देखकर वास्तु ने सोचा कि इसमें जरूर कोई रहता होगा, पर आँगन में पहुँचकर देखा कि वहाँ तमाम कूड़े का ढ़ेर लगा है। यह देखकर वास्तु ने विचार किया कि शायद यहाँ कोई न रहता हो। अब इसी द्विविधा में वास्तु उस दरवाजे को बार-बार खटखटाने लगे, लेकिन बहुत देर तक द्वार खटखटाने के बाद भी न तो अन्दर से कोई आवाज आई और न किसी ने दरवाजा खोला। वास्तु यह देखकर बेचैन हो उठे। फिर क्या था ? क्रोध में आकर उन्होंने पूरी शक्ति से दरवाजे पर एक लात मारी। दरवाजा पुराना था। इसलिये वास्तु के लात का प्रहार सहन न कर सका और देखते ही देखते उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये । वास्तुजी अन्दर घुस गये। अन्दर का निवास स्थान बहुत ही सुन्दर तथा भव्य था, आगे बढ़ने पर देखा कि उस भव्य भवन में एक अत्यन्त काला और कुरूप पुरुष पड़ा हुआ गहरी निद्रा में सोया हुआ है।
उस सारे भवन का अच्छी तरह निरीक्षण करने के बाद वास्तु ने देखा कि वहाँ उस पुरुष के अतिरिक्त और कोई न था। उस भवन में स्थान-स्थान पर मिट्टी और धूल पड़ी थी और वह भवन इतना विशाल था कि उसे देखने में पूरा एक वर्ष लग गया। एक वर्ष तक उस मकान में घूम लेने के बाद वास्तु जब उस पुरुष के पास आये तो उस समय भी वह सो रहा था।
वह पुरुष इतना भयङ्कर था कि जब वह साँस लेता, तब पाँच-पाँच हाथ दूर उड़ने वाले जीव-जन्तु भी साँस की हवा के साथ उसके पेट में चले जाते और साँस छोड़ने पर बहुत से जीव-जन्तु उसी तरह वापस निकल आते। जब वह जम्हाई लेता तो उसके जबड़े में स्थित नोकदार राक्षसी दाँत भी दिखलाई पड़ जाते । उस जगह खड़े वास्तु अब उस राक्षस पुरुष के जगने की राह देखने लगे।
लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी वह पुरुष न जागा। इससे वास्तु के धैर्य का बाँध टूट गया । तत्पश्चात् वास्तु ने क्रोध में भरकर उस पुरुष की छाती पर जोर से एक मुक्का मारा । मुक्के के प्रहार से वह आदमी तत्काल ही जाग गया और सामने खड़े हुये वास्तु को अपना शत्रु समझ कर उसे बड़ा क्रोध आया। उस क्रोध के कारण उसका सारा शरीर ही बुरी तरह काँपने लगा और वह वास्तु के साथ युद्ध करने को तैयार हो गया, किन्तु उसे बिना किसी हथियार के देखकर वास्तु ने भी अपना हथियार फेंक दिया और उन दोनों में मल्ल युद्ध चलने लगा।
यह मल्ल युद्ध काफी अरसे तक चला । अन्त में वास्तु ने उस पुरुष को पराजित कर उसे रस्सी से बाँध दिया । वास्तु के प्रहार के चोट से उसका सारा शरीर बुरी तरह शिथिल पड़ गया और उसके मुंह से कोई आवाज न निकली। यही घटना वास्तु के साथ आठों भूमि में घटी। वास्तु अब उन आठों भयंकर पुरुषों को बाँधकर प्रभु श्री विश्वकर्मा के पास ले गये। उस समय देवताओं ने प्रसन्नता से झूमते हुये वास्तु का सम्मान किया और उन आठों दैत्य रूपी पुरुषों को दण्डित करने की माँग करने लगे।
लेकिन अभी उनके दण्ड देने की बात चल ही रही थी कि एक अद्भुत घटना घटी । वे आठों पुरुष प्रभु विश्वकर्मा के चरणों पर गिर पड़े, प्रभु श्री विश्वकर्मा के शरीर का स्पर्श होते ही वे आठों भयङ्कर पुरुष सुन्दर देह वाले आभूषणों से युक्त हो गये। यह चमत्कार देखकर देवताओं सहित वास्तु को भी बड़ा आश्चर्य होने लगा। वे सभी देवतागण सोचने लगे कि आखिर यह घटना कैसे घट गयी और यह सुन्दर स्वरूप धारण करने वाले आठों पुरुष हैं कौन ? अस्तु इसका उत्तर पाने के लिये वे सब प्रभु की ओर देखने लगे।
प्रभु विश्वकर्मा सब कुछ जानते हुये भी अज्ञानियों की भाँति उन पुरुषों से पूछने लगे - हे दिव्य देह धारण करने वाले उत्तम पुरुष आप लोग कौन हो? एक क्षण पहले आप काले कुरूप थे, किन्तु इस समय यह तेजस्वी स्वरूप आपको कैसे प्राप्त हो गया ? हम इसे जानने के लिये बहुत उत्सुक हैं। कृपया हमारा यह कौतूहल दूर करें।
प्रभु की यह वाणी सुनकर उन आठों पुरुषों ने कहा - हे प्रभु ! आप तो स्वयम् सब कुछ जानने वाले हैं। फिर भी आपने प्रश्न किया है। इसलिये हम इसका उत्तर देंगे। जब ब्रह्माजी आप की आज्ञा से देवादि सृष्टि का निर्माण कर चुके, तब उन्होंने पृथ्वी पर मनुष्यों की सृष्टि का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया । तब गन्धर्व योनि में रहने वाले हम लोगों ने ब्रह्माजी के कार्य की हँसी उड़ायी । इससे क्रोधित होकर ब्रह्माजी ने हमें शाप दिया कि हम लोग राक्षस बन जायें। ब्रह्माजी की हँसी उड़ाने की यही हमारी सजा है।
ब्रह्माजी के इस शाप को सुनकर हम लोगों ने उनसे क्षमा माँगते हुये इसके निवारण की प्रार्थना की। तब उन्होंने कहा - हे वत्स ! दस हजार दिव्य वर्ष के पश्चात् प्रभु विश्वकर्मा जब सभी देवताओं के निवास का निर्माण करेंगे। उस समय उनके चरणों के स्पर्श से तुम सब अपने अपने दिव्य स्वरूप को पुनः प्राप्त कर लोगे। हम राक्षस बन जाने पर कुछ विपरीत कार्य न कर सकें, इसलिये हमने मुक्ति-काल तक उनसे गहरी निद्रा माँग ली । ब्रह्माजी ने इसे स्वीकार करते हुए कहा कि हम लोग आठ भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाकर उन भूमि के उत्तम आवासों में रहकर अपने शाप का समय पूर्ण होने तक गहरी निद्रा में सो जायें।
ब्रह्माजी की इस आज्ञा के मिलते ही हम किसी अगम्य शक्ति द्वारा स्वर्ग से फेंक दिये गये और जहाँ गिरे वहाँ की भूमि में काफी गहरायी तक चले गये और फिर उसी भवन में पहुँच कर सो गये, जहाँ हमें वास्तु ने जगाया था। हे परमपिता ! वास्तु के जगाने पर हमने काफी समय तक उनसे युद्ध किया, लेकिन वास्तु की अपरिमित शक्ति देखकर और यह जानकर कि हमारे शाप की अवधि पूर्णतः समाप्त होने को आ रही है, हमने स्वेच्छा से अपनी हार स्वीकार कर उनके बन्धन में बँध गये। यदि ऐसा न करते तो आपको पाना कठिन था। हे देवाधिदेव ! समस्त जगत् का उद्धार करने वाले आपको हम प्रणाम करते हैं और अपने-अपने स्थानों में जाने की अनुमति चाहते हैं।
सूतजी ने कहा - हे ऋषियों ! इस प्रकार प्रभु की आज्ञा लेकर वे आकाश मार्ग से अपने-अपने स्थानों को चले गये। यह बात जानकर सभी देवता वास्तु के पराक्रम की प्रसंसा करते हुये निर्भय होकर स्वर्ग में विचरण करने लगे।
हे ऋषियों ! इस प्रकार अष्ट महाशल्य का परिहार हुआ। फिर विश्वकर्मा ने एक के बाद एक सुन्दर आवासों की रचना की। तत्पश्चात् देवताओं के आवासों की रचना करने के बाद वे देवताओं से बोले - हे देवताओं ! किसी भी भवन का नवनिर्माण अथवा जीर्णोद्धार करने के बाद वहाँ सर्वप्रथम वास्तु की पूजा होनी चाहिये। ऐसा करने से अष्ट महाशल्य सहित पृथ्वी के दोष नष्ट होंगे। तदोपरान्त नव-निर्माण से होने वाले छोटे-बड़े दोषों के निवारण के लिये जो व्यक्ति ढङ्ग से पूजन करायेगा तो वहाँ देवता निवास करेंगे । जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ देवताओं का निवास नहीं रहता और वे लोग सदा अमङ्गल से ग्रसित रहते हैं। हे देवताओं ! जिस घर में वास्तु का पूजन होता है, वहाँ अनेक प्रकार के सुख समृद्धियों का वास रहता है।
इतना कहकर प्रभु श्री विश्वकर्मा सबके देखते-देखते वास्तु सहित अन्तर्ध्यान हो गये। फिर जिस ओर प्रभु अन्तर्ध्यान हुए थे। उसी दिशा को प्रणाम करके सभी देवता, प्रभु द्वारा बनाये आवास में सर्वप्रथम वास्तु का पूजन करके तथा विश्व ब्राह्मणों की भी शिल्पी के रूप में पूजा करने के बाद सबको उचित दान दक्षिणा देकर उस आवास में रहना आरम्भ किया।
सूतजी बोले - हे ऋषियों ! भगवान विश्वकर्मा की आज्ञानुसार जो व्यक्ति नव-निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के समय वास्तु पूजा करते हैं, उन्हें निरन्तर सुख सम्पत्ति प्राप्त होती रहती है। प्रभु की इस आज्ञा को न मानने वाले हमेशा दरिद्रता का जीवन यापन करते हैं और तरह-तरह से पीड़ित रहा करते हैं। हे मुनियों ! इस प्रकार वास्तु की प्रसिद्धि और उनके देवत्व की प्राप्ति के बारे में आप ने जो कुछ पूछा था उसे मैंने विस्तार से बता दिया। अब आपको और जो कुछ सुनना हो उसे भी बताइये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में वास्तु प्रतिष्ठा नामक बत्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। तैतीसवाँ अध्याय
(शिल्पी प्रतिष्ठा)
सूत ! सूत ! महाभाग कथं वै शिल्पि पूजनम् ।
भवता कथितं तात ! तन्नो ब्रूहि विस्तराद् ॥
शौनक ऋषि बोले - हे सूतजी! हे श्रेष्ठ वक्ता ! आपने इसके पूर्वभाग में शिल्पी पूजन का जिक्र किया था। इसका तात्पर्य क्या है? आप हमें इसके बारे में भी समझाइये । उस शिल्प पूजा की बात हमें दया करके विस्तार से बताने का कष्ट करें।
महर्षि शौनक की बात सुनकर सूतजी प्रसन्न हो उठे और बोले - हे शौनकजी ! जिस प्रकार शास्त्रों में ब्राह्मणों की पूजा निहित है, उसी प्रकार सर्वसम्मति से शिल्पी पूजा का भी विधान किया गया है। पूर्व में जिस तरह विराट पुरुष के मुख से पाँच ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार उनके मुख से पाँच प्रकार के शिल्प कर्म करने वाले शिल्पियों की भी उत्पत्ति हुई। उन सबकी गणना विश्व ब्राह्मण के रूप में की जाती है। ये विश्व ब्राह्मण सभी प्रकार के संस्कारों के अधिकारी हैं। साथ ही वेदादि पर भी उनका अधिकार है।
शौनक ने फिर प्रश्न किया - हे सूतजी ! आपने बताया कि शिल्पी जन्म तथा कर्म से ब्राह्मण हैं। पर नव-निर्माण या जीर्णोद्धार में शिल्पी का पूजन आवश्यक है या नहीं ? यदि आवश्यक है तो इसका कारण हमें बताइये। यह सब जानने की हमारी बड़ी इच्छा है।
सूतजी ने कहा - हे शौनक ऋषि ! इस विषय में बहुत प्राचीन काल की एक कथा सुना रहा हूँ।
अवन्ती नामक नगरी में हर्यश्व नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह बहुत विद्वान था। वह ब्रह्म मुहूर्त में ही शैय्या का त्याग कर देता और उठने के साथ ही सबसे पहले वह परमात्मा का नाम लिया करता था। फिर दैनिक क्रियाओं से निपट कर जलाशय में स्नान करने जाता और वहाँ से लौटकर आजीविका हेतु ब्राह्मणोचित कार्य करता । ऐसा करते-करते उसे पचास वर्ष बीत गये।
इस तरह न्याय के मार्ग पर चलते हुये उसने अपने जीवन में बहुत सुख-सम्पदा अर्जित कर ली। घर में अथाह लक्ष्मी आ जाने से वह संसार के समस्त सुखों का उपभोग आसानी से कर सकता था। उसके सारे पुत्र भी आज्ञाकारी थे। इससे उसे किसी प्रकार का दुख ही नहीं रह गया । उसकी पत्नी भी उससे कन्धे से कन्धा मिला कर कार्य करने वाली थी। सब मिलाकर वह हर प्रकार से सुखी था।
अब पचास वर्ष पूरा होने के पश्चात् हर्यश्व ने निश्चय किया कि वह सब सुखों का उपभोग कर चुका है। अतः अब उसे प्रभु की सेवा करने के लिये संसार का त्याग कर देना चाहिये। नहीं तो उसके लिये अनर्थ हो जायेगा । इस प्रकार से संसार त्याग का विचार आते ही ब्राह्मण हर्यश्व ने विचार किया कि मैंने अब तक बहुत धन कमाया है। मुझे बह सारा धन पुत्रों के लिये ही छोड़कर जाना है, लेकिन उचित यही होगा कि उसमें से थोड़ा धन धर्म कार्य में भी खर्च करूँ। फिर संसार से विरक्ति लेकर यहाँ से चला जाऊँ। इस तरह निर्णय लेने के बाद अगस्त्य मुनि को उन्होंने पुरोहित बनाकर एक महान् यज्ञ किया। यह यज्ञ इक्कीस दिनों तक चला। तत्पश्चात् यज्ञ में आये हुये सभी ब्राह्मणों, ऋत्विजों एवम् आचार्यों को उत्तम भोजन करा के उन्हें भरपूर दान-दक्षिणा देकर सन्तुष्ट किया।
तत्पश्चात् उस यज्ञ की पूर्णता हेतु अगस्त्य मुनि हर्यश्व से बोले - हे यजमान ! प्रभु को प्रसन्न करने के लिये तूने जो महान यज्ञ किया है, उस यज्ञ के सभी पात्र, कुण्ड, मण्डप, वेदी आदि यज्ञोपयोगी सभी सामग्रियों का निर्माण करने वाले विश्व ब्राह्मण शिल्पी का पूजन भी तुझे करना है। मुनि की यह वाणी सुन सभी शास्त्रों के ज्ञाता हर्यश्व ने बेमन से उन शिल्पियों की पूजा की तथा उनका अनादर करते यज्ञ की पूर्णाहुति की।
तत्पश्चात् सात दिन पूरा होने पर हर्यश्व ने विधिवत् दीक्षा ली और भगवा वस्त्र धारण कर तथा हाथ में दण्ड लेकर घर से बाहर निकल पड़ा। अपने द्वारा किये गये उस महान् यज्ञ में ब्राह्मण शिल्पियों का तिरस्कार करने के कारण हर्यश्व को राह में रक्त पित्त की व्याधि उत्पन्न हुयी। अब उसको इस व्याधि के कारण उसके चित्त की स्थिरता एवम् एकाग्रता समाप्त होती दिखायी दी।
यह देखकर उसने तीर्थाटन करने का निश्चय किया। मन में पुनः शान्ति प्राप्त करने हेतु वह कभी किसी तीर्थ स्थान पर जाता तो कभी किसी पर । तीर्थ स्थानों पर जाकर वह सर्वप्रथम तीर्थ के पवित्र जल में स्नान करता, फिर तीर्थ के अधिष्ठाता देवों की पूजा करता । तीर्थों में निवास करने वाले मुनियों और सत्पुरुषों का सत्सङ्ग करता। विद्वान पुरुषों से अपने दुःख दूर करने एवम् चित्त से लुप्त हुये शान्ति को पुनः वापस पाने का उपाय पूछता। सबके द्वारा विभिन्न उपाय बताये जाने पर वह श्रद्धापूर्वक उनका पालन करता, लेकिन न उनके रोग का निवारण ही होता, न उसे शान्ति ही मिलती। उसके रोगों में अलबत्ता बढ़ोत्तरी ही होती गयी। अन्त में इन सबको छोड़कर वह केवल प्रभु के नाम का उच्चारण करता हुआ एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने लगा।
इस तरह हर्यश्व के अनेक तीर्थ स्थानों में भ्रमण करने के पश्चात् भी मन को शान्ति न मिली। उसका रोग दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ने लगा। इससे हर्यश्व बहुत चिन्तित हो उठा और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? अब वह सब तरफ से ऊब कर परेशानी की दशा में जङ्गलों में विचरण करने लगा और इस दुखद परिस्थिति में आज तक अपने द्वारा पालन किये गये धर्म तथा वेद शास्त्र आदि सभी की निन्दा करने लगा। उसे धर्म से बेहद अश्रद्धा होने लगी। तत्पश्चात् वह इधर-उधर भटकता हुआ पागलों की तरह पड़ा रहने लगा।
इस तरह असह्य पीड़ा सहते हुये हर्यश्व को सात वर्ष बीत गये। अचानक एक दिन जंगल में इसी तरह भटकते हुये उसकी भेंट महर्षि च्यवन से हो गयी। असह्य पीड़ा से व्यथित होने के कारण हर्यश्व ने च्यवन ऋषि को देखते ही अशिष्ट शब्दों का व्यवहार किया, किन्तु च्यवन ऋषि ने उस समय अपने योगवल से हर्यश्व के अशिष्टता का कारण समझ लिया और उसके प्रति क्रोध न करके उस पर कृपा की। वे हर्यश्व को शान्तिमय दृष्टि से देखने लगे और उसके पास जाकर उसके व्याधि ग्रसित शरीर पर अपने सुखदायक करों से स्पर्श किया।
अस्तु, महर्षि च्यवन के हाथों का स्पर्श होते ही हर्यश्व को कुछ शान्ति मिली और उनकी पीड़ा काफी कम हो गयी। अब अपनी पीड़ा के कम होते ही उन्होंने सम्मुख एक अत्यन्त तेजस्वी पुरुष को खड़े हुये देखा और उन्हें दण्डवत करते हुये हर्यश्व ने अपना मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। तत्पश्चात् महर्षि के द्वारा उसे प्रेम से उठाने पर हर्यश्व उन्हें प्रणाम करता हुआ बोला - हे दिव्य पुरुष ! इस घोर जंगल में निवास करने वाले आप कौन हैं ? आपने मेरे अशिष्टता पर ध्यान न देकर मुझे अपना कृपा-पात्र बनाया। इसके लिये मैं आपका जीवन पर्यन्त ऋणी रहूँगा। मुझ जैसे नारकीय व्यक्ति पर महती दया दिखलाने वाले आप साक्षात् यज्ञ नारायण हैं अथवा स्पर्श मात्र से मेरे शरीर की असह्य पीड़ा हर लेने वाले आप धनवन्तरि वैद्य हैं ? असहनीय पीड़ा से छुटकारा दिलाने के लिये मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। आप कौन हैं इसका निर्णय करना मेरे लिए कठिन हो रहा है। मुझे आप शीघ्र अपना परिचय देने का कष्ट करें ताकि मेरे मन का उद्वेग कुछ कम हो।
हर्यश्व के इस विनीत वचनों को सुनकर महर्षि च्यवन कहने लगे - हे हर्यश्व ! माता सरस्वती की गोद में बैठकर सदैव तपस्या में लिप्त रहने वाले मुझ तपस्वी को लोग च्यवन के नाम से जानते हैं। मैंने अपनी तपस्या के बल से ही जान लिया था कि अति विद्वान् हर्यश्व को अति भयङ्कर रोग लगा है तथा उसकी वेदना से इसका मन अस्थिर हो उठा है। वह इस निर्जन जङ्गल में उन्मत्त होकर इधर-उधर भटक रहा है। अतः तुझे इस दुःख से मुक्त कराने के लिये ही मैं प्रभु की प्रेरणा से तुम्हारे पास आ पहुँचा हूँ।
महर्षि च्यवन के मधुर वचनों को सुनकर हर्यश्व के आनन्द की सीमा न रही। वह झट बोल उठे - हे तपस्वी ! मैं अपनी पीड़ा के कारण आपको पहचान न सका था। मेरी इस भूल को क्षमा करें। हे भगवन् ! लगता है, मैं किसी बहुत बड़े पाप के कारण इस प्रकार की पीड़ा को भोग रहा है। हे प्रभु के महान् भक्त ! मुझसे ऐसा कौन सा अपराध हो गया, जिससे मुझे यह कष्ट उठाना पड़ रहा है और इसका किस भांति प्रायश्चित हो, कृपया इसका उपाय बतायें।
हर्यश्व के विनम्रता पूर्ण वचनों को सुनकर महर्षि च्यवन ने कहा - मुझे यह अच्छी तरह विदित है कि तुमने अच्छे कुल में जन्म लेकर सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन किया है। मैंने समाधि में बैठकर ही प्रभु की प्रेरणा से यह सारी बात जान ली है। प्रभु ने तुम्हें उस दुःख के निवारणार्थ ही यहाँ भेजा है। हे निर्मल चित्त वाले ! आपने पूर्वाश्रम को त्यागते समय पहले इक्कीस दिन का महान् यज्ञ किया था। उस समय महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में पूर्ण हुये इस यज्ञ में ब्राह्मणों को उचित दान-दक्षिणा देकर सन्तुष्ट किया। फिर भी हे त्यागी पुरुष ! इस उत्तम कार्य में एक छोटी सी भूल कर बैठे। उसी भूल का दण्ड तू इस समय भोग रहा है। यज्ञ में जिस शिल्पी से यज्ञ कुण्ड के साधन तथा यज्ञ कुण्ड वेदी वगैरह का कार्य कराया था। उस शिल्पी का तूने पूजन नहीं किया और इसी कारण तेरी यह गति हुयी, क्योंकि ऐसा करने से तुझे ब्रह्म द्रोह का दोष लगा है।
हर्यश्व ने जिज्ञासा की - हे ऋषि ! इतनी छोटी सी भूल के लिये इतनी बड़ी सजा। यह बात मेरी समझ में नहीं आयी।
यह सुनकर महर्षि च्यवन ने उत्तर दिया - हे बन्धु ! प्रभु के दरबार में अन्याय नहीं होता । जैसी भूल होती है, वैसी ही सजा दी जाती है। वास्तव कोई छोटी सी भूल जानते हुये भी की जाय, तो वह महान् भूल हो जाती है। तुझे यज्ञ के समय आचार्य तथा ऋषियों ने इस भूल के लिये आगाह किया था। फिर भी तूने यह भूल की। जिससे तेरी यह छोटी सी भूल दुगुनी हो गयी और उसी के फलस्वरूप तुझे रक्त पित्त जैसा भयङ्कर रोग लगा।
हे हर्यश्व ! तेरा अधिक समय ईश्वर आराधना में ही बीता। इसलिये प्रभु ने मुझे प्रेरणा देकर तेरे पास भेजा । अब मैं तेरे कल्याण के लिये जो मार्ग बताऊँ, उसे तू श्रद्धापूर्वक कर । तूने विद्वान होकर जो भूल की उसी का यह फल तुझे भुगतना पड़ रहा था। फिर भी जीवनभर नीति पूर्ण मार्ग पर चलाने के कारण तेरी पीड़ा की अवधि जल्दी ही समाप्त हो गयी, अन्यथा तू इसी अवस्था में जाने कितना कष्ट उठाता । अब मैं तुझे इससे उद्धार का मार्ग बता रहा हूँ उसे ध्यानपूर्वक सुन।
इस समय तू सीधे ईलाचल पर्वत पर जा और वहाँ पहुँचकर विश्वकुण्ड में स्नान कर उत्तम नियमों को धारण करता हुआ अष्टाक्षर मन्त्र का जप कर । ऐसा करने से प्रभु विश्वकर्मा तुझ पर प्रसन्न होंगे और तुझे आठ दिन के अन्दर ही सम्पूर्ण रूप से आराम मिल जायेगा। इतना कहकर च्यवन मुनि ने हर्यश्व को प्रभु विश्वकर्मा के अष्टाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया। फिर उसे ईलाचल का मार्ग बता महर्षि च्यवन अपने आश्रम को लौटे।
तत्पश्चात् हर्यश्व, प्रभु की अनुकम्पा से च्यवन ऋषि का आदेश प्राप्त कर ईलाचल की ओर रवाना हुये। उस समय च्यवन ऋषि से भेंट हो जाने के कारण उनके मन में बड़ी शान्ति व्याप्त थी। फिर रास्ते भर अष्टाक्षर मन्त्र का जप करते-करते वे ईलाचल पर्वत पर पहुँच गये।
ईलाचल पर्वत पर पहुँचने के उपरांत उन्होंने सर्वप्रथम विश्वकुण्ड में स्नान किया। फिर अष्टाक्षर मन्त्र का जप करते हुये उन्होंने प्रभु की आराधना प्रारम्भ की । इस तरह आराधना करते हुये कब आठ दिन बीते उन्हें इसका पता भी न चल सका।
नवें दिन ब्रह्ममुहूर्त में जब वे ब्रह्मकुण्ड में स्नान करके निकले, तब कुण्ड के किनारे उन्हें भयङ्कर तेज दिखलायी दिया। पहले तो उन्होंने इसे प्रेम का उपद्रव समझा, पर अष्टाक्षर में असीम विश्वास होने के कारण वे इससे जरा भी न घबड़ाये और यह किसका तेज है, यह जानने के लिये उसी दिशा में बढ़ने लगे । यह तेज आँखों को चौंधिया देने वाला था, किन्तु वह शनैः-शनैः कम होता गया और हर्यश्व उसके बिल्कुल समीप पहुँच गये । पास जाने पर उन्होंने जो कुछ देखा उससे वे बड़े आश्चर्य में पड़ गये।
उन्हें सामने ही एक विशाल बड़ का पेड़ दिखायी दिया। उसकी घनी छाया में एक अति प्रकाशमान दिव्य सिंहासन था। उस पर एक अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट सजीला व्यक्ति बैठा हुआ था। उसके पाँच मुख तथा दस हाथ थे। उसके हाथों में परश, गज, धागा, हथौड़ी, आदि उत्तम हथियार थे। हर्यश्व ने समझ लिया कि वे और कोई न होकर स्वयम् प्रभु विश्वकर्मा हैं। उनके समक्ष अनेक ऋषि हाथ जोड़े सेवा में उपस्थित थे।
इस प्रकार अलौकिक रूप को धारण किये हुये प्रभु को देखकर हर्यश्व प्रभु विश्वकर्मा के चरणों में गिर पड़े और गद्गद कण्ठों से प्रभु की प्रार्थना करने लगे। उसी समय उनके शरीर पर प्रभु की दृष्टि पड़ते ही उनका सारा रोग समाप्त हो गया। फिर तो प्रभु को अपने ऊपर प्रसन्न देखकर बार-बार प्रभु के गुणों का गान करने लगे। यह सुनकर प्रसन्न चित्त होकर प्रभु ने कहा - हे हर्यश्व ! पृथ्वी पर सभी कार्य समाप्त कर जब मैं यहां वापस आया, तब मैं पृथ्वी पर अपने पाँचों मानस पुत्रों को इसलिये रख आया था कि पुन: आवश्यकता होने पर वे काम आ सकें। उन्हीं पाँचों को इस समय यहाँ भी तू ध्यानस्थ देख रहा है। मेरे इन पाँच पुत्रों के वंश से उत्पन्न हुये पंचशिल्प को जानने वाले सभी शिल्पियों को मेरा ही पुत्र होने के कारण मेरे ही स्वरूप में देखना चाहिये।
हे हर्यश्व ! इस प्रकार शिल्पी के स्वरूप में स्थित जो व्यक्ति मेरी पूजा करता है, उसे अनेक सम्पदा प्राप्त होती है। जो मेरे इस स्वरूप की अवहेलना करता है, उसे पीड़ा और दुःख प्राप्त होता है। फिर तो वह दरिद्रता को भोगता हुआ प्रेत योनि में जाता है। जितना पाप ब्राह्मण के अनादर करने से होता है, उससे सौ गुना अधिक पाप शिल्पी के अनादार से लगता है। मेरी प्रसन्नता हेतु मनुष्यों को निरन्तर शिल्पी का आदर करना चाहिये।
ऐसा कहने के उपरान्त प्रभु विश्वकर्मा ने फिर कहा-हे हर्यश्व ! यहाँ से लौटने के बाद तुम पुनः च्यवन ऋषि के आश्रम में जाना । वे ही तुझे मेरे अति गुप्त विद्या का ज्ञान देंगे। फिर उस विद्या का श्रद्धापूर्वक सेवन करते हुए तू मेरे परम धाम को प्राप्त करेगा। इतना कह कर भगवान् विश्वकर्मा वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये। तत्पश्चात् प्रभु के अन्तर्ध्यान होते ही हर्यश्व वहाँ की धूल मस्तक पर लगा कर उनकी आज्ञा पालन करने हेतु वहाँ से चले गये।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में शिल्पी प्रतिष्ठा नामक तैतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। चौतीसवाँ अध्याय
(श्रवण विधि)
सूत नो ब्रूहि सकलं विधिं सर्व सुसंमतम् ।
पुराण श्रवणस्यैव विश्वकर्मा प्रसादतः॥
शौनक बोले - हे सूतजी ! विश्वकर्मा भगवान् की कृपा से विद्वत् जनों के द्वारा पुराण श्रवण की जो मान्य विधि है, उसे हमें विस्तार से बताइये।
महर्षि शौनकजी के वचन सुनकर सूतजी बोले - हे शौनक ! पूर्व में महायुग के अन्त में हुये आद्य नैमित्तिक प्रलय के कारण शेष नारायण ने जब वात्स्यायन समेत नारद आदि सब ऋषियों तथा प्रजाओं को जिस प्रकार यह श्रवण विधि कही थी, वह मैं तुमसे कहता हूँ। जिस समय शेष नारायण श्री विश्वकर्मा पुराण सुनाने के लिये तत्पर हुये तब वात्स्यायन ने कहा - हे शेषजी! आज आप हमें इस प्रलय-काल में भी बचाने को तैयार हुये हैं। अतः आप हमारा बारम्बार प्रणाम स्वीकार कीजिये । हे नागराज जी! आप प्रभु की लीलाओं को सुनाने के लिये तैयार हैं। अतएव पहले यह बतायें कि सुनने वाले के लिये किसी व्रत, नियम या तप का विधान तो नहीं है। कारण कि कोई भी कार्य आरम्भ करने के पूर्व उसकी विधि जाननी चाहिये, अन्यथा सुना जाता है कि उसका कोई फल मिलने वाला नहीं है। अतः इसके सुनने हेतु जो नियम हो पहले वह सारे नियम हमें बताइये।
वात्स्यायन की धर्म से परिपूर्ण बात सुनकर शेष नारायणजी ने कहा - हे वात्स्यायन ! श्री विश्वकर्मा पुराण प्रभु विश्वकर्माजी का दूसरा रूप है। अब मैं इस पुराण का वर्णन आप लोगों से करने के पूर्व उस पुराण के श्रवण की सारी विधि कहता हूँ। आप सब इसे ध्यानपूर्वक सुनने की कृपा करें। जब तक किसी मनुष्य की सर्व शक्तियाँ काम करती रहें, तब तक पुराण श्रवण की इच्छा करनी चाहिये। उसके मन में जब प्रभु की पूर्ण भक्ति तथा श्रद्धा उत्पन्न हो, तब ही सुनना उत्तम होगा। इसके श्रवण हेतु पर्वणी का दिन सर्वोत्तम होता है। विशेष दिन किसी भी महीने का त्रयोदशी एवम् पूर्णिमा होता है।
हे वात्स्यायन ! जिस मनुष्य को पुराण श्रवण करने की इच्छा हो, वह सर्वप्रथम ब्राह्मण को पुराण श्रवण हेतु उचित दिन की खोज करे। पुराण श्रवण करने की निर्धारित तिथि से एक दिन पूर्व ब्राह्मण को बुलाये। फिर स्वस्ति वाचन पूर्वक गणपति का पूजन करे । इससे सभी मांगलिक कार्यों में उत्पन्न होने वाली बाधायें नष्ट हो जाती हैं। इसके बाद (अक्षत) चावल का मण्डल बनाये तथा उसके बीचों-बीच मन्त्रोच्चारित करते हुये एक कलश रखे। इसी कलश पर तांबे या चाँदी के पात्र में प्रभु श्री विश्वकर्मा का विग्रह रखे । प्रभु श्री विश्वकर्मा का विग्रह सुवर्ण का होना चाहिये। प्रभु की मूर्ति के दायीं ओर वास्तु की चाँदी की मूर्ति तथा बायीं ओर ध्यानस्थ पाँच ब्रह्मर्षियों की स्वर्ण अथवा चाँदी की मूर्ति बनवाकर रक्खे। प्रभु के निकट चाँदी से निर्मित हंस की मूर्ति रखें । तत्पश्चात् उचित मन्त्रोच्चार सहित सभी लोगों का क्रम से पूजन करे। सबसे पहले वास्तु, पाँच ब्रह्मर्षि एवम् प्रभु का पूजन करना चाहिये। फिर हंस और दसों दिक्पालों सहित प्रभु के आयुधों का पूजन करे तथा अखण्ड दीप की स्थापना करके प्रभु विश्वकर्मा के परम ज्योति स्वरूप का ध्यान करते हुए उनका भी पूजन करे। इसके पश्चात् प्रभु की पुस्तक ज्ञान देह रूपी पुराण एवम् वाचक के आसन रूपी व्यास पीठ का पूजन करना चाहिये।
इस भांति सबकी पूजा करने के उपरान्त व्यास पीठ पर बैठ कर पुराण सुनाने वाले ब्राह्मण का व्यास रूप अथवा मेरा स्वरूप मानकर पूजा करे। ब्राह्मण भी उस दिन सभी श्रोताओं को पुराण की महिमा बताये । पुराण का श्रवण कराने वाले उक्त ब्राह्मण के साथ एक अन्य ब्राह्मण को महामन्त्र का जप करने के लिये बैठावे।
पुराण श्रवण के प्रथम दिवस पाँच ब्रह्मर्षियों की कथा सुनावे एवम् दूसरे दिवस ईलाचल महात्म्य से व्रज रचना तक पुराण का श्रवण कराये। तृतीय दिवस गुप्त क्षेत्र महात्म्य से शिल्पी प्रतिष्ठा तक का पुराण सुनावें। सातवें अध्याय में प्रभु इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, उस समय उत्तम ढङ्ग से सभी उपचारों सहित प्रभु का अर्चन-पूजन करे। बारहवें अध्याय में ब्रह्मर्षियों के समेत प्रभु का पूजन करे। फिर ग्रहों की स्थापना करते हुये उनका पूजन करे। इसके बाद विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना करे और उसमें ग्रह हवन आदि करने के पश्चात् अष्टाक्षर महामन्त्र का दशांश हवन करे। फिर सभी आवश्यक समझे जाने वाले हवन करके पूर्णाहुति करे। पुराण श्रवण की विधि तथा फल पुराण स्वरूप प्रभु का पूजन करके पुराण को अर्पित करे। पुराण की पूजा करते समय उसे उत्तम वस्त्रों और अलङ्कारों को समर्पित करता हुआ उसके पास पादुका एवम् सोने का हंस रखें । चाँदी के बने छत्र तथा आयुध रखें । तत्पश्चात् पुराण सुनाने वाले पण्डित की पूजा करे और उसे अलङ्कार, बर्तन, वस्त्र तथा अन्य उपयोगी वस्तुयें दान में दें। फिर प्रभु का विसर्जन करने के बाद वाचक की धूमधाम से विदाई करना चाहिये।
शेषजी ने आगे कहा - हे वात्स्यायन ! जिसमें प्रभु की लीलाओं का समावेश हुआ हो, वह पुराण प्रभुमय है तथा उसे सुनाने वाला ब्राह्मण भी प्रभुमय है। ऐसी उत्तम भावना उस समय सदैव मन में बनी रहे। यह सारी विधियाँ करने के बाद वहाँ रखा हुआ दीप, विश्वकर्मा के मन्दिर में रखें और भेंट स्वरूप सवा रुपया रखें।
हे वात्स्यायन ! इस तरह पुराण श्रवण की विधि पाँच दिन की है। इस पुराण को विधि पूर्वक सुनने वाले को पुराण का पूरा फल मिलता है। वह इस संसार में अनेक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है।
वात्स्यायनजी ने प्रश्न किया - हे शेषजी ! आपके बताये हुये पुराण श्रवण की विधि सुनकर मुझे आनन्द मिला, लेकिन आपने जो पर्वणी के दिन इसके सुनने का महत्व बतलाया है, तो यह भी बतायें कि यह पर्वणी के दिन कौन से हैं।
शेष नारायण ने कहा - हे वात्स्यायन ! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि महासूद त्रयोदश भगवान विश्वकर्मा की जयन्ती है। इसके साथ ही अमावस्या उनके अधिकार की तिथि है। बसन्त पञ्चमी रन्ना देवी के विवाह की तिथि है। श्रावण की पूर्णिमा यज्ञोपवीत धारण करने का दिन है। प्रत्येक मास की दोनों त्रयोदशी, पूर्णिमा तथा अमावस्या इन्हीं छः तिथियों को पर्वणी का दिन गिना जाता है। इनमें भी अमावस्या चन्द्र के क्षय के कारण नहीं गिनना चाहिये। बाकी पाँच दिनों को पर्वणी का दिन मानकर पुराण श्रवण करें। उसके लिये एक दिन पूर्व महात्म्य सुनकर फिर पर्वणी के दिन इसका श्रवण करे।
हे वात्स्यायन ! इस श्रवण विधि के बारे में आपने जो कुछ पूछा था, वह मैंने बता दिया। इसके अलावा आपकी और जो कुछ सुनने की इच्छा हो बतायें।
सूतजी ने आगे कहा - हे शौनक ! आपने जो कुछ जिज्ञासा की थी, उसके उत्तर में मैंने आपको शेष-वात्स्यायन संवाद रूपी सारे रहस्य बता दिये। अब आपको और जो कुछ सुनने की इच्छा हो बतायें।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में श्रवण विधि नामक चौतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। पैंतीसवाँ अध्याय
(श्रवण फल)
सूत ! सूत ! महाभाग वद नो वदतां वर।
पुराण श्रवणे किं स्यात्फलं पातकनाशनम् ॥
ऋषि बोले - हे सूतजी ! हे भाग्यशाली सूतजी ! भगवान् श्री विश्वकर्मा के पुराण को सुनने से क्या फल मिलता है, कृपया यह भी बताइये। क्योंकि पुराण श्रवण की विधि सुनने के बाद भी वात्स्यायन द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में श्री शेष नारायण ने उन्हें श्रवण का फल भी बताया था।
सूतजी ने कहा- हे ऋषियों ! आपने जो कहा सत्य है। जब शेष नारायण जी सभी ऋषि प्रजा और वास्त्यायन जी को पुराण श्रवण की विधि कह रहे थे, उस समय विधि को सुनने के बाद भी वात्स्यायन जी ने शेषजी से पूछा-हे शेषजी ! इस उत्तम पुराण सुनने के बाद किन-किन फलों की प्राप्ति होती है।
वात्स्यायन जी के प्रश्न के उत्तर में शेषजी ने कहा- हे वात्स्यायन ! मैंने आपको विश्वकर्मा पुराण सुनाया है। उसके सुनने के बाद आपने स्वतः देख लिया कि पुराण श्रवण का क्या फल है ? उसके श्रवण करते ही भगवान् ने तुरन्त आपको अपने दिव्य रूप में दर्शन दे दिया। इसके अतिरिक्त प्रलय काल के तूफान से भयभीत प्रजाओं की प्रभु ने रक्षा किया और इस तरह से उन्हें फिर से भूमि, धन, आवास सभी प्रकार के सुख दिये । हे वात्स्यायन ! पुराण श्रवण के फल स्वरूप इतना प्राप्त कर लेने के बाद और क्या चाहिये। फिर भी आपके प्रश्न के उत्तर में मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ उसे ध्यान पूर्वक सुनिये।
जिस स्थान पर पुराण का पठन या पाठन होता है, उस स्थान पर प्रभु श्री विश्वकर्मा पहले से आखिरी पाँचवें दिन तक वास्तु सहित रहते हैं। जिस तरह ईला को, विश्वावसु को एवम् हर्यश्व आदि को फल मिला उसी प्रकार इस पुराण के सुनने वाले को प्रभु फल देते हैं।
पुराण का विधि पूर्वक श्रवण करने वाले को प्रभु धन-धान्य, ऐश्वर्य, सम्पदा सभी कुछ प्रदान करते हैं। उसका सारा पाप नष्ट होकर उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और अन्त में वह परम पद को प्राप्त होता है।
सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! आपने जितनी भी जिज्ञासायें की थी। मैंने उन सबका समाधान कर दिया। प्रभु का चिन्तन एवं मनन ही सब पुरुषार्थों का प्रदान करने वाला है।
।। इति श्री विश्वकर्मा पुराण में श्रवण फल नामक पैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण ।। श्री विश्वकर्मा पुराण माहात्म्य
जयतु जयतु देवो विश्वधृक् विश्वकर्मा
भव ! तव प्रतिरोमे लक्षविश्वानि सन्ति ।
सकलजगतशास्ता निर्गुणी वा गुणी वा,
प्रभवतु मम देवः सौख्य संपत्ति दाता॥
सारे विश्व को जिन्होंने धारण किया है- ऐसे देवाधिदेव प्रभु विश्वकर्मा की जय हो। हे भव ! आपके एक-एक रोम में लाखों विश्व स्थित हैं। सारे विश्व पर शासन करने वाले प्रभु आप सगुण या निर्गुण जैसे भी हों मुझे सुख सम्पत्ति देने वाले हों।
सूतजी ने कहा-हे ऋषि ! सृष्टि के आरम्भ होने के बाद प्रथम युग के अन्त में जब प्रलय होने लगा, तब उस समय प्रलय के भयंकर तूफान से तथा भूकम्प आदि से जब पृथ्वी बुरी तरह डोलने लगी, तब भयभीत हुये ऋषियों ने उपर्युक्त प्रार्थना की थी।
ऋषिगण कहने लगे - हे सूतजी ! तप के प्रभाव से हर प्रकार की सम्पत्ति जिनके चरणों की दासी बनकर रहती है और तप को ही सब प्रकार की सम्पदाओं में मुख्य गिना जाता है। इसके अतिरिक्त आपने यह भी कहा कि उन्होंने अत्यन्त तुच्छ गिनी जाने वाली सम्पत्ति की प्रार्थना की थी। हे सूतजी ! यह विरोधाभास समझ में नहीं आता । कारण कि ऋषि मुनियों द्वारा इन सम्पत्तियों को बहुत तुच्छ गिना जाता है, फिर भी तप को छोड़कर उन्होंने ऐसी प्रार्थना क्यों की थी।
ऋषियों की इस जिज्ञासा को सुनकर सूतजी बोले-हे ऋषिगण ! इस विश्व में रहने वाले सभी पदार्थ गतिशील हैं। उसमें भी जिस ग्रह अथवा पृथ्वी पर हम रहते हैं, वह पृथ्वी भी अपनी गति से मध्य बिन्दु के आस-पास प्रदक्षिणा किया करती है। इसी के फलस्वरूप रात और दिन होते हैं। रात को प्रलय माना जाता है। इस प्रकार जब तीन सौ साठ दिन और तीन सौ साठ रात होते हैं, तो एक वर्ष पूर्ण होता है । इस तरह जब हमारे तीन सौ साठ वर्ष पूरे होते हैं, तो देवताओं का एक वर्ष होता है। इस प्रकार देवताओं के बारह हजार, चौबीस हजार,अड़तालीस हजार वर्ष के अनुसार सत्युगादि चार युगों की कल्पना की गयी है। इन सब वर्षो का जोड़ एक लाख बीस हजार होता है। उतने समय में हमारे चार करोड़ बत्तीस लाख साल बीत जाते हैं। इन चार युगों को महायुग या चौकड़ी कहा जाता है।
एक महायुग के समाप्त होने के बाद दूसरा महायुग प्रारम्भ हो जाता है। उसके बीच बारह हजार देवताओं के वर्ष बीत जाते हैं। यह बीच का समय नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। उस समय सारी पृथ्वी जलमय हो जाती है और समस्त प्राणी जीव वृक्ष औषधियाँ आदि नष्ट हो जाती हैं। हे मुनियों ! जब सृष्टि के आरम्भ के बाद सर्वप्रथम नैमित्तिक प्रलय होने वाला था, तब सारी पृथ्वी पर ही हाहाकार मच गया । भयंकर तूफानी प्रलयकाल के उनचास पवन एक बवन्डर की तरह बहने लगे। दिशाओं में चारों ओर धूल फैल जाने से भयंकर अन्धकार फैल गया और उस बवन्डर में वृक्ष, मकान, पर्वत सभी टूटकर गिरने लगे । समुद्र की लहरें जोर-जोर से उठती हुयी आकाश को छूने लगीं।
इस अकस्मात् होने वाले प्रलय से सारी प्रजा दुःखी होकर इधर-उधर भागती हुयी भयङ्कर आर्तनाद करने लगी और भगवान् से रक्षा की प्रार्थना करने लगी। इस भयङ्कर चीत्कार के शब्द सुनकर समाधि में बैठे हुये ऋषि मुनियों का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने भी अब अपने आसन से उठकर इस प्रलय काल की स्थिति को देखा, उस समय उन्हें भी प्रजा की रक्षा का कोई रास्ता नहीं सूझा । इसलिये वे प्रजा की रक्षा का उपाय जानने के लिये बद्रिकाश्रम की ओर गये।
उस स्थान पर आद्य ऋषि नारायण सृष्टि के कल्याण हेतु दस लाख वर्ष तक का उग्र तप कर रहे थे। उसी समय सभी ऋषि मुनि उस भयङ्कर तूफान के कारण लड़खड़ाते एवम् एक दूसरे पर गिरते पड़ते बद्रिकाश्रम की ओर बढ़ रहे थे। सहसा रास्ते में उनकी भेंट नारद जी से हो गयी। नारद जी द्वारा उनसे कुशल क्षेम पूछे जाने पर सभी ऋषियों ने सृष्टि पर आये महान् सङ्कट के बारे में नारद जी को बताया।
ऋषियों की यह वाणी सुनकर आद्य ऋषि नारायण से पहले से ही सारी बातों की जानकारी रखने वाले महर्षि नारद बोले- हे ऋषियों ! इस समय प्रलय काल की वायु से गति पाता हुआ समुद्र का जल बद्रिकाश्रम के चारों ओर की भूमि अपने में समेटता हुआ आगे बढ़ रहा है। उस बढ़ते हुये जल प्रवाह के कारण आप बद्रिकाश्रम नहीं जा सकते। इस समय मात्र नर नारायण के तप के प्रभाव से समुद्र का जल उनके आश्रम का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । ऐसा मानना चाहिये।
मैं उन्हीं के आदेश से आप लोगों को कुछ सन्देश देने आया हूँ। इस समय बद्रिकाश्रम में तप करते हुये विश्व नायक नर नारायण प्रभु इस प्रलय में सारी पृथ्वी को डुबो देना चाहते हैं, इस अति वेग से बहने वाले समुद्र के जल से आप तथा प्रजा के रक्षण का मार्ग बताने के लिये ही प्रभु ने मुझे आप लोगों के पास भेजा है। उनकी जो आज्ञा है, उसे आप ध्यानपूर्वक सुनें।
प्रलय काल बिल्कुल समीप आ गया है। यह जानकर वे क्षण भर अपनी समाधि तोड़कर मुझसे बोले- हे वत्स नारद ! प्रलय काल के प्रारम्भ होने का समय आ गया है। इस समय समुद्र का सारा जल पृथ्वी को डुबो देगा। उससे भयभीत होकर सारी प्रजा भयङ्कर चीत्कार करती हुई रक्षा हेतु उपाय ढूँढ़ने के लिये दसों दिशाओं में दौड़ रही हैं। उन्हें दिलासा देने के लिये सारे ऋषिगण भी मुझसे मिलने इधर आ रहे हैं, लेकिन यहाँ आते हुये ऋषियों को रास्ते में ही रोककर मेरी आज्ञा से ईलाचल की ओर रवाना कर दें। अतः हे ऋषिगण ! हमें सारी प्रजा को लेकर ईलाचल की ओर चलना चाहिये।
इस प्रलयकाल में वायु से प्रेरित समुद्र का जल क्षणभर में सारी पृथ्वी को अपने में समेट लेगा। उस समय पृथ्वी के जीव प्राणी, मनुष्य, औषधियाँ आदि पानी में डूबने के बाद फिर उत्पन्न नहीं होंगे। भगवान नारायण जहाँ तपस्या कर रहे हैं, वह बद्रिकाश्रम की भूमि तथा विराट प्रभु विश्वकर्मा की चरण रज जहाँ पड़ी है, उस इलाचल पर्वत के सिवाय सब कुछ जल में विलीन हो जायेगा। इसलिये हमारी रक्षा उसी ईलाचल पर हो सकती है। वहाँ प्रभु के स्थान की रक्षा करने के लिये शेषनारायण अपने अंश से ब्राह्मण का रूप धारण कर श्री वात्स्यायन को आदि विराट विश्वकर्मा की लीलाओं का वर्णन जिस महापुराण में किया गया है, उसका श्रवण करा रहे हैं। हम भी सब प्राणियों सहित वहाँ जाकर प्रभु की लीलाओं का श्रवण करें, कारण कि यह दुष्कर प्रलय काल कब बीतेगा यह किसी को नहीं मालूम है।
नारद जी के धैर्य देने वाले इन वचनों को सुनकर सारे ऋषिगणों ने तमाम वनस्पतियों तथा औषधियों के बीज लेकर प्रलय काल की आयी हुई, मुसीबत से बची हुई प्रजा को लेकर ईलाचल का मार्ग पकड़ा। उन्हें उस समय अपने पीछे आ रहे प्रलय का वेग बहुत तुच्छ लग रहा था। लेकिन उस जल को उनके पास पहुंचने के पूर्व ही नारद जी ने सबको अपने सिद्धदण्ड पर बिठाकर अपनी भक्ति के प्रभाव से उन लोगों को क्षण भर में ईलाचल में पहुंचा दिया।
ईलाचल पहुँचकर सभी प्रजाओं सहित ऋषियों ने विश्वकुण्ड में स्नान करने के पश्चात् मन ही मन प्रभु विश्वकर्मा का ध्यान किया। सारे संसार की रक्षा हेतु तथा प्रलय में भी प्रजा को बचाने के लिये और उन्हें सुख सम्पत्ति देने के लिये मैंने सर्वप्रथम जो प्रार्थना आपको बतायी थी, वह ऋषियों ने की।
सारे विश्व को जिन्होंने धारण किया है। ऐसे देवाधिदेव विश्वकर्मा की जय हो। हे भव ! आपके प्रत्येक रोम में लाखों विश्व व्याप्त हैं। सारी दुनिया पर शासन करने वाले हे प्रभु ! आप सगुण या निर्गुण जैसे भी हो मुझे सुख सम्पत्ति प्रदान करें।
सूतजी ने आगे कहा- हे शौनक ! इस प्रकार प्रभु से सुख सम्पत्ति प्रदान करने की प्रार्थना करने के पश्चात् वे ईलाचल पर स्थित विश्वकर्मा के अत्यन्त प्रिय चम्पक वन में गये। वहाँ श्री शेष नारायण अपने एक अंश से ब्राह्मण का रूप धारण कर अपनी पुत्री ईला और दामाद ईलाचल को, जो भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं, उनकी रक्षा के लिये विराजमान थे और सामने ही प्रभु की लीलाओं का श्रवण करने को उत्सुक वात्स्यायन जी को शेषजी प्रभु की लीलाओं का श्रवण करा रहे थे।
जिस समय नारद जी वहाँ पहुँचे, तब उन्हें देखते ही शेष नारायण सहित वात्स्यायन जी अपने आसन से खड़े हो गये । उन्हें योग्य आसन देकर उनका सम्मान किया। फिर सब प्रजा और ऋषियों को शान्ति पहुंचाने वाले प्रभु की लीलाओं से ओत-प्रोत विश्वकर्मा पुराण को शेषनारायण जी ने सबको सुनाया।
भगवान् की लीलाओं का श्रवण करते-करते कब बारह हजार देवताओं के वर्ष बीत गये। किसी को इसका पता न चल सका। फिर सबको ही अपने में तल्लीन देखकर प्रभु ने उन्हें अपना दर्शन कराया।
उस समय वे एक उत्तम वट वृक्ष के नीचे पाँच मस्तकों सहित दिव्य देह धारण किये हुये उत्तम सिंहासन पर विराजमान थे। वे अपने पाँच मस्तक पर दिव्य रत्नों से जटित मुकुट धारण किये हुये थे। उनके दर्शन से सभी अपने को धन्य समझने लगे और नतमस्तक होकर नारद सहित सभी लोग वेद मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सारी प्रजा के कल्याण हेतु प्रभु विश्वकर्मा ने जल से बाहर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार उनकी भरपुर दया प्राप्त कर सारी प्रजा आज भी उनकी यशोगान करती है।
भजत रे मनुआ किल विश्व परं,
वरद प्रियतरं सुख शान्ति प्रदं ।
सकल विश्व निवास करं प्रभुं,
श्रीधरं मधुरं भूमि धृक्धरणं॥
हे मनुष्यों ! आप वास्तव में सारे विश्व का निर्माण करने वाले प्रभु का भजन करें, जो आपको मनोवांछित फल देने वाले तथा सुख शान्ति प्रदायक हैं। ऐसे विश्वकर्मा का आप भजन करें। जो अलौकिक कान्ति धारण करने वाले हैं तथा जिन्होंने शेष नारायण के रूप में सारी पृथ्वी का भार धारण कर रखा है तथा कछुवे का रूप धारण कर मेरु पर्वत का भार अपनी पीठ पर उठा रखा है। ऐसी अनेक लीलायें जो करते रहते हैं, ऐसे विश्वकर्मा का आप सब भजन करें।
।। इति श्री शौनक संवाद रूप श्री विश्वकर्मा पुराण महात्म्य सम्पूर्ण ।।