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गोत्रकार ऋषि

भारद्वाज
महर्षि अंगिरा का विवाह दक्ष पुत्री सती से हुआ जिससे महर्षि अथर्वांगिरस का जन्म हुआ। ये अथर्ववेद के अधिकांश मंत्रों के ऋषि है, वाजपेय यज्ञ के प्रथम कर्त्ता त्रिसन्धि वज्र के निर्माता शिल्पाचार्य देवगुरु एवं नीति शास्त्रज्ञ तथा महान सेनानायक हुए। इनके पुत्र शयु अग्नि भी ऋषि हैं। बृहस्पति के पौत्र तथा शंयु के पुत्र महर्षि भारद्वाज ने ऋग्वेद के छठे मण्डल का सम्पादन किया। इसके अतिरिक्त यजुर्वेद के 16 मन्त्रों के भी ऋषि है, इनमें से अधिकांश मंत्रों का देवता अग्नि है। भारद्वाज ने उस अग्नितत्व का साक्षात्कार कर उसे साधन युक्त किया और विमान विज्ञान को इस चरम सीमा तक उन्नत किया जिस पर आज का विज्ञान भी नहीं पहुंच सका है। इन्होंने 'यन्त्रसर्वस्व', 'आकाश शास्त्र', 'अंशुमतन्त्र' तथा 'भारद्वाज शिल्प' इन चार शिल्प ग्रन्थों की रचना की। यन्त्र सर्वस्व में चालीस अधिकरण थे जिनमें प्रत्येक में पृथक-पृथक विज्ञानों का वर्णन था। इनमें से केवल वैमानिक अधिकरण के पांच सौ सूत्रों में से चार सूत्र वोधानन्द की वृत्ति के सहित प्राप्त हुए है, जिनमें विमान के 32 रहस्यों का वर्णन मिलता है जिन्हें पढ़कर भारत की अद्वितीय शिल्प उन्नति की चर्मावस्था का परिचय मिलता है।
भारद्वाज की महती प्रतिभा अनुपम तपस्या एवं वेद विज्ञान निष्ठा का अद्वितीय वर्णन तैत्तिरीय ब्राह्मण (3, 10, 11) में मिलता है उसके अनुसार वेदाध्ययनार्थ इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इन्द्र ने इनको 100, 100 वर्षों के तीन जन्म दिये जिनमें वे सतत वेदाध्ययन ही करते रहे। जब इन्द्र ने एक और जन्म का वरदान देकर पूछा कि अब क्या करोगे तो उन्होंने कहा कि 'मैं वेद का ही और अध्ययन करूंगा', महर्षि भारद्वाज की इस वेद निष्ठा से प्रसन्न होकर इन्द्र ने इनको सावित्र अग्नि का ज्ञान प्रदान किया।
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भारद्वाज का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। मत्स्य पुराण के अनुसार माता-पिता ने उत्पन्न होते ही भारद्वाज का परित्याग कर दिया था। मरूतों ने उसे दुष्यन्त पुत्र भरत को सौंप दिया तथा भरत के पश्चात् वह वितथ नाम से सम्राट बने। पुनः राज्य का त्याग कर प्रयाग में अपना आश्रम बनाया। यह आश्रम लोक लोकान्तर में अति विख्यात हुआ । वनवास के समय राम भी वहां पहुंचे थे, कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में सात बार भारद्वाज ऋषि का उल्लेख किया है। भारद्वाज संहिता पंचरात्र सम्प्रदाय का अमूल्य ग्रन्थ है। हेमाद्रि विज्ञानेश्वर ने भारद्वाज स्मृति में भी वचन उद्धत किये है। भारद्वाज गोत्र मूल आठ गोत्रों में से है इस गोत्र के तीन प्रवर भारद्वाज, बृहस्पति तथा अंगिरा है।

महर्षि गौतम
अंगिरा कुल विभूषण रहूगण ने ऋग्वेद के नवम् मण्डल के 37 व 38वें दो सूक्तों को साधन युक्त कर अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिल्प विज्ञान को उन्नत किया। इनके पुत्र गौतम हुए। ये ऋग्वेद प्रथम मण्डल के सूक्त 74 से 93 तक 20 सूक्तों के तथा अथर्ववेद काण्ड 20 के सूक्त 25 के मंत्रदृष्टा ऋषि है। प्रत्येक सूक्त के पूर्व लिखा है कि गौतमा राहूगण ऋषि जिसका अर्थ है रहूगण पुत्र गौतम ने इन मंत्रों का साक्षात्कार कर इन्हें साधन युक्त किया। यजुर्वेद के अनेक मंत्रों के भी ऋषि है। इन्होंने ब्राह्मण काल में भारत के पूर्व प्रदेशों में रहूगण तथा विदेध माधव के नेतृत्व में अग्नि का सारस्वत मण्डल से पूर्व की ओर जाने का विशद् वर्णन मिलता है।
वैवस्वत मन्वन्तर के सप्त ऋषियों में इनकी गणना से ये स्वतः आदि युग के प्रमाणित हो जाते है। इनकी साठ हजार वर्षों की महती तपस्या का वर्णन महाभारत में मिलता है। जिसके फलस्वरूप शिल्प विज्ञान को उन्नत करने में इनका योगदान चिरस्मरणीय है। इन्होंने गौतम शिल्प आदि अनेकों शिल्प विज्ञान ग्रन्थों की रचना की, शिल्प शास्त्र विशारद 17 आचार्यों में कश्यप कौडिन्य आदि के साथ इनकी भी गणना की जाती है। गौतम का न्याय दर्शन विश्व प्रसिद्ध है। आठ मूल गोत्रकारों में गौतम भी मूल गोत्रकार ऋषि है। इनके तीन प्रवर हैं - गौतम, रहूगण तथा अंगिरा।
आश्वलायन श्रोत में भी बहुधा गौतम का स्मरण किया गया है। इसी कुल में अरुण पत्र उद्वालक ऋषि ने वेद की आद्दालिकी शाखा की रचना, की जिसे प्रपञ्चहदय में गौतम शाखा भी कहा है। गौतम धर्म सूत्र, गौतम पितृमेध सूत्र तथा गौतम शिक्षा भी सम्प्रति उपलब्ध है ।

महर्षि अघमर्षण
ऊपर लिखित महर्षि अत्रि के वंश में सोम हुए। आगे चलकर गाधी पुत्र विश्वामित्र राजर्षि से ब्रह्मर्षि बन गये थे। मूल गौत्र कृत आठ ऋषियों में इनका भी नाम है। इन्होंने महती साधना से उपग्रह बनाने की कला में प्रवीणता प्राप्त कर प्रति श्रवण नामक नूतन नक्षत्र का निर्माण किया एवं महाराज त्रिशंकु को सशरीर उस कृत्रिम लोक की यात्रा कराई। ब्रह्मा के समान निर्माण कार्य में दक्षता के कारण ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र को भी ब्रह्मर्षि की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। इन्होंने ऋग्वेद के तृतीय मण्डल का सम्पादन किया तथा ये यजुर्वेद के भी अनेकों मंत्रों के ऋषि हैं। इन्होंने विश्वामित्र शिल्प नामक शिल्प ग्रन्थ की रचना की।
इनके पुत्र मधुच्छन्दा तथा पौत्र अघमर्षण भी मंत्र दृष्टा ऋषि हैं, वहां लिखा है अघमर्षणो माधुच्छान्दसः ऋषिः अर्थात् मधुछन्दा के पुत्र अघमर्षण इस मंत्र के ऋषि है। प्रसिद्धि के कारण गोत्र का प्रचलन हुआ। अघमर्षण, मधुच्छन्दा तथा विश्वामित्र ये तीन प्रवर है।

महर्षि दीर्घतमा
महर्षि अंगिरा के पौत्र तथा अथर्वागिरस के ज्येष्ठ पुत्र उतथ्य भी मंत्रदृष्टा ऋषि है। इनके अनुज लोक विख्यात बृहस्पति देवगुरु हुए। भृगु ऋषि की पुत्री ममता से महर्षि उतथ्य के पुत्र का नाम अन्धत्व के कारण दीर्घतमा विख्यात हो गया। अन्धे होने पर भी इन्होंने शिल्प विज्ञान के अनुसंधानार्थ घोरतम साधना की, जिसके फलस्वरूप इन्होंने ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के सूक्त 140 से सूक्त 194 के 55 सूक्तों के शतशः मंत्रों का साक्षात्कार किया। यजुर्वेद के 37वें अध्याय से 40वें अध्याय तक के सभी मन्त्रों के भी ऋषि हैं । इसका अन्तिम चालीसवां अध्याय तो ईशावास्योपनिषद् के नाम से कर्मयोग का प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
इस प्रकार यह ज्ञान और विज्ञान दोनों में पूर्णतः निष्णात थे। यह एक सहस्त्र वर्ष तक जीवित रहे। इनके पुत्र कक्षीवान् ऋषि थे तथा पौत्री घोषा ऋषिका हुई स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं, का प्रलाप करने वाले देख लें कि स्त्रियां केवल वेदों का अध्ययन ही नहीं करती थी, बल्कि वेद मंत्रों का साक्षात्कार कर मंत्र दृष्ठा ऋषिकायें भी थी।
सनातन धर्म का पालन करते हुए इन्होंने अंग देश के राजा बलि की रानी सुदेष्णा से अंग, बंग, कलिंग, पुन्ड्र तथा सह्य ये पांच पुत्र नियोग विधि से उत्पन्न किये, जिन्होंने अपने नाम से राज्यों की स्थापना की। अपने ज्ञान विज्ञान कौशल से यह लोक मान्य हुए तथा इनके नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ। इसके तीन प्रवर है - दीर्घतमा, उतथ्य तथा अंगिरा।

महर्षि कश्यप
महर्षि मरीचि (स्वायंभव के सप्तर्षि) के पुत्र महर्षि कश्यप हुए। दक्ष प्रजापति ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से किया। इनसे जो सन्तान उत्पन्न हुई उन्होंने अपने-अपने नाम से वंश चलाये। जैसे अदिति से आदित्य, दिति से दैत्य तथा दनु से दानव वंश। कश्यप ने अपने नाम से वंश (गोत्र) चलाने के लिए दो पुत्र वत्सर तथा असित उत्पन्न किये। वत्सर के दो पुत्र निध्रुव तथा रेभ हुए और असित का पुत्र देवल हुआ।
कश्यप मंत्र दृष्टा ऋषि है। कश्यपो मरीचि पुत्रः ऋषि इनके पुत्र पौत्र भी ऋषि है। वत्सारः काश्यपः ऋषि अर्थात् कश्यप का पुत्र वत्सार ऋषि है। असित काश्यपो देवल: वा अर्थात् कश्यप के पुत्र असित तथा देवल इन मंत्रों के ऋषि हैं। कश्यप विख्यात शिल्पाचार्य थे। इन्होंने काश्यप शिल्प, अंशुमान भेदकल्प, कश्यप संहिता (यन्त्र शिल्प) तथा शिल्प संहिता आदि अनेक महत्त्वपूर्ण शिल्प ग्रन्थों की रचना की। भौवन विश्वकर्मा के सर्वमेध यज्ञ के पुरोहित बने तथा विश्वकर्मा ने दक्षिण में समस्त पृथ्वी का राज्य अपने पुरोहित कश्यप को दान कर दिया। कुछ काल तक राज्य कर महर्षि कश्यप ने समस्त राज्य अपने पुत्रों में विभक्त कर दिया तथा अपना आश्रम कश्यप सागर (केसपियन सी) के निकट बसाया।
कश्यप गोत्र के तीन प्रवर हैं कश्यप, वत्सर तथा नैध्रुव। कश्यप नाम के अनेक ऋषि हो गये हैं, जो गोत्रकार ऋषि नहीं है, जैसे दशरथ के ऋषि सलाहकारों में एक कश्यप मुनि तथा युधिष्ठर के साथ तीर्थ यात्रा में भी एक कश्यप ऋषि साथ गये थे।

महर्षि गविष्ठर
स्वयंभू ब्रह्मा के सात मानव पुत्रों में तथा आठ मूल गोत्रकार ऋषियों में एक अत्रि भी है। ये ऋग्वेद के पांचवे मण्डल के सम्पादक एवं ऋषि हैं। यजुर्वेद के भी मंत्रदृष्टा ऋषि है। ये सुप्रसिद्ध शिल्पाचार्य हैं, इन्होंने आत्रेय शिल्प नामक ग्रन्थ की रचना की।
इसी वंश के अर्चनानस के पुत्र श्यावाश्व भी ऋषि हैं जो कि बहुना अत्रि वंश आत्रेय नाम से अनेक मंत्रों के ऋषि है। श्यावाश्व के पुत्र गविष्ठर भी ऋग्वेद के पंचम मण्डल के प्रथम सूक्त के ऋषि है। बुधगविष्ठरावात्रेयावृषी अर्थात् बुध और गविष्ठर ये दो आत्रेय ऋषि इन मंत्रों के दृष्टा हैं। ये सामवेद के मंत्र संख्या 1723 के भी ऋषि है। इनके पुत्र अन्धिगु भी मंत्र दृष्टा एवं ऋषि है। इस प्रकार शिल्प नैपुण्य एवं मंत्र दृष्टत्व शक्ति इन्हें वंश परम्परा से ही प्राप्त थी, इसी वैशिष्ठय के कारण इनसे गोत्र का प्रचलन हुआ। जिसके तीन प्रवर - आत्रेय, अर्चनानस तथा गविष्ठर हैं।

महर्षि जातूकर्ण्य
महर्षि वशिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा पौत्र पराशर तथा जातूकर्ण्य हुए। पाणिनि द्वारा गर्गादिगण में दो नाम पद एक साथ लिखे हैं। पराशर पुत्र वेद व्यास ने जातूकर्ण्य से ही पुराणों का अध्ययन किया। वृहदारण्यकोपनिषद् में लिखित पराशर्यो जातकर्ण्यात् इस कथन की सम्पुष्टि करता है। वाजसनेय प्रातिशाख्य में भी जातूकर्ण्य के तीन नियमों का उल्लेख है।
वाष्कल ने ऋग्वेद की चार शाखा बनाकर अपने चार शिष्यों को पढ़ाई। जातूकर्ण्य ने जो शाखा पढ़ी, वह जातूकर्ण्य शाखा कहलाई। विष्णु पुराण तथा शाखायन श्रोत सूत्रों तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में भी जातूकर्ण्य का उल्लेख मिलता है। ये काशी, विदेह तथा कौशल तीनों राज्यों के राज पुरोहित थे। मुनि वेदशिरा ने प्रमति को तथा प्रमति ने जातूकर्ण्य को पुराण दिया।
मधु विद्या का ज्ञान वेद व्यास ने जातुकर्ण्य से, उसने आसुनारायण से उसने आसुरी से तथा आसुरी ने आत्रेय से प्राप्त किया था, इसीलिए जातूकर्ण्य वंश की दृष्टि से वशिष्ठ तथा विद्या वंश की दृष्टि आत्रेय कहलाते है। फलस्वरूप जातूकर्ण्य गोत्र के तीन प्रवर जातूकर्ण्य, आत्रेय तथा वशिष्ठ है । जातूकर्ण्य ही ऐसे गोत्रकार ऋषि है जिन्होंने योनि तथा विद्या दोनों वंशों को एक समान महत्त्व देते हुए दोनों पूर्वजों को एक साथ स्मृत किया।

महर्षि लौगाक्षि
महर्षि लौगाक्षि नाम से दो गोत्रकार ऋषि प्रसिद्ध है। पूर्व लौगाक्षि अंगिरा कुल में हुए तथा उत्तर लौगाक्षि वशिष्ठ कुल में हुए। पं. ब्रह्मदेव शर्मा ने भी गौड ब्राह्मणोत्पत्ति के तृतीय भाग में दो लौगाक्षि ऋषियों को गोत्रकार माना है।
शिव पुराण की शतरूद्र संहिता में वराह कल्प के शिव अवतारों का वर्णन दिया है। उसमें महर्षि भारद्वाज को द्वापर के उन्नीसवें परिवर्त का व्यास माना है। इनके चार पुत्रों में एक लौगाक्षि थे। इस प्रकार पूर्व लौगाक्षि अंगिरा कुल के प्रमाणित होते हैं। इन्होंने यजुर्वेद के 26वें अध्याय के मंत्र का साक्षात्कार किया। जांगिड ब्राह्मणों के यही गोत्रकार ऋषि है। काठक गृह्य सूत्र को लौगाक्षि सूत्र भी कहते हैं। इसके धर्मसूत्र का एक प्रमाण गौतम धर्म सूत्र के मस्करी भाष्य में उद्धृत है। गोत्र प्रवर मंजरी में लौगाक्षि प्रवर सूत्र के अनेक लम्बे पाठ उद्धृत है। कठों से संबन्धित चार सहस्त्र श्लोक युक्त एक लौगाक्षि स्मृति भी उपलब्ध है। अंगिरावंशी लौगाक्षि के प्रवर गौतम उतथ्य तथा अंगिरा है।
उत्तर लौगाक्षि वशिष्ठ वंश में हुए। वेदव्यास की छठी पीढ़ी में पौष्पाञ्लि के चार संहिता प्रवचनकर्ता शिष्य हुए। उनमें एक लौगाक्षि थे। इनके पांच पुत्र थे इनके नाम से भी गोत्र का प्रचलन हुआ, जिसके प्रवर कश्यप, अवत्सार तथा वशिष्ठ है।

महर्षि कौंडिन्य
वशिष्ठ कुल में सात ब्रह्मवादी शिल्पाचार्य हुए है, जिन्होंने ब्रह्मा के समान निर्माण कार्य किया। वशिष्ठ शक्ति पराशर मैत्रावणी, इन्द्र प्रमति, अमरद्वसु तथा कुण्डिन, इन कुण्डिन के पुत्र कौडिन्य भी मंत्रदृष्टा ऋषि तथा विख्यात शिल्पाचार्य हुए। शिल्प शास्त्र के अनुपम ग्रन्थ गार्गेयागम में 17 शिल्प विशारद आचार्यों के नाम तथा उनके द्वारा लिखित 32 शिल्प ग्रन्थों का उल्लेख है, जिनमें कौडिन्य भी शिल्प विशारद माने गये हैं।
आनन्द संहिता में कृष्ण यजुर्वेद की कौडिन्य कृत गौत्र शाखा का उल्लेख मिलता है जिससे उद्धृत वचन कई अन्य ग्रन्थों में पाये गये है। इससे प्रमाणित होता है कि महर्षि कौडिन्य ने भी शाखा का प्रवर्तन किया। बौधायन गृह्य के तर्पण प्रकरण में कौडिन्य को तैत्तीरीयों का वृत्तिकार भी कहा है। कौंडिन्य कृत श्रौत सूत्र तथा कल्प सूत्र का भी उल्लेख है। विख्यात ऋषित्व शिल्पाचार्यता आदि के असामान्य कर्तृत्व के कारण इनके गोत्र का प्रचलन हुआ। जिसके प्रवर वशिष्ठ मित्रावरूण तथा कुन्डिन है।

महर्षि ऋक्षु
महर्षि भारद्वाज के वंश में वेदर्षि रेभ तथा दो विख्यात शिल्पाचार्य हुए। असुरों ने इन दोनों को कुयें में डाल दिया था, उस समय देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों ने इनकी रक्षा की। रेभ ने अथर्ववेद के काण्ड 20 के सूक्त 34 का साक्षात्कार कर शिल्प विज्ञान को उन्नत किया। वन्दन के पुत्र मितवचस तथा इनके पुत्र लोक विख्यात अजमीढ और पुरुमीढ ऋषि हुए। अजमीढ के पुत्र महर्षि ऋक्षु हुए जो अपने विशिष्ठतम गुणों के कारण 24वें परिवर्त के व्यास माने गए और इस प्रसिद्धि के कारण इनके नाम से भी पृथक् ऋक्षु गोत्र का प्रचलन हो गया। इसके पांच प्रवर हैं - अंगिरा, बृहस्पति, भारद्वाज, वन्दन तथा मितवचस।

महर्षि मुद्गल
ब्रह्मर्षि अंगिरा के वंश में भृम्याश्वन के पुत्र महर्षि मुद्गल हुए। 'ऋषि मुद्गलों भाम्याश्व' ऋग्वेद का यह कथन मुद्गल को भृम्याश्व का पुत्र तथा वेदर्षि प्रमाणित करता है। बृहद् देवता तथा निरूक्त भी इसी का समर्थन करते हैं । ये वेद मित्र शाकल्य के पांच शिष्यों में एक हैं जिन्होंने ऋग्वेद की पांच शाकल शाखायें बनाई, जिनमें एक मुद्गल शाखा भी है। इस शाखा का उल्लेख प्रपंच हृदय नामक ग्रन्थ में भी मिलता है, यह अभी तक अप्राप्य है। मुक्तोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची दी गई है, जिसमें महर्षि मुद्गल प्रणीत मुद्गलोपनिषद् का सत्तावनवां क्रमांक है और उसे ऋग्वेदीय माना है। शाखा प्रणयन की विशिष्ठता के कारण महर्षि मुद्गल के गोत्र का भी प्रचलन हुआ और इसके तीन प्रवर अंगिरा, भृम्याश्व तथा मुद्गल है ।
मुद्गल नाम के त्रेता तथा द्वापर युग में अनेक ऋषि मुनि हो गये है परन्तु गोत्रकार ऋषि भृम्याश्व पुत्र मुद्गल ही हैं। जनमेजय के सत्र के सदस्य मुद्गल मुनि थे। चरक संहिता तथा वृहदारण्यक में स्मृत मुद्गल ये ऋषि महाभारत कालीन है और ये गोत्र प्रवर्तक नहीं है।

महर्षि शांडिल्य
महर्षि कश्यप के पुत्र असित तथा असित के पुत्र देवल मंत्रदृष्टा ऋषि हुए। इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न हुए। मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत वर्णन मिलता है। महर्षि कश्यप की यज्ञाग्नि से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका वर्ण अग्नि के समान था और जो प्रभाव में बालखिल्य ऋषियों के समकक्ष था। अग्नि का गोत्र भी शांडिल्य होता है. अत: यज्ञाग्नि से उत्पन्न संतान का नाम भी शांडिल्य रखा गया।
आपस्तम्ब श्रौत सूत्र के रुद्र कृत भाष्य में (9-11-21) शांडिल्य गृह्य सूत्र उद्धृत है। लाटयायन, द्राह्यायण आदि कल्पों में भी बहुधा शांडिल्य का मत उद्धृत हैं। ब्रहदारण्यकोपनिषद् के छठे अध्याय में उसके ज्ञान के प्रवचन की परम्परा इस प्रकार दी गई है, वाम कक्षायण ने शांडिल्य से, शांडिल्य ने वात्स्य से, कुक्षि, यज्ञवचा, तुरकावमेव, प्रजापति ने ब्रह्मा से वह ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह शांडिल्य प्राचीन गोत्रकार ऋषि है। इसके तीन प्रवर शांडिल्य, देवल तथा असित है।

महर्षि वशिष्ठ
स्वयं भू ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में एक थे। ये स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों में सुविख्यात मंत्रदृष्टा तथा चार गोत्रकार ऋषियों में एक है। इन्होंने ऋग्वेद के सम्पूर्ण सातवें मण्डल का सम्पादन किया एवं साक्षात्कार किया। यजुर्वेद के पच्चीस तथा अथर्ववेद के आठ मंत्रों के भी ऋषि है। अपनी महती साधना तथा मंत्रों के यथावत् ज्ञान से ये लोह विज्ञान के निष्णात हुए फलस्वरूप वज्र से भी भयानक अस्त्रों का निर्माण किया। हाइड्रोलिक इन्जीनियरिंग के विशेषज्ञ थे तथा हाइड्रोडाइनामिक्स पर वशिष्ठ शिल्प तथा ज्ञानसागर वशिष्ठ इन दो विख्यात शिल्प शास्त्रों की रचना की। मत्स्य पुराण में उल्लिखित 18 शिल्पाचार्यों में इनका तीसरा स्थान है। इनके संरक्षण में ही सूर्य वंश की स्थापना हुई तथा ये गुरु एवं राजपुरोहित बने। इस वंश के सभी व्यक्ति वशिष्ठ कहलाये। सूर्य वंश में इक्ष्वाकु के पश्चात् निमि सम्राट हुए तथा उनसे वैमनस्य के कारण वशिष्ठ वंश की महत्ता न्यून हो गई, इस घटना का पुराणों ने अलंकारिक ढंग से इस प्रकार वर्णन किया है अर्थात् निमि के श्राप से वशिष्ठ ने देह त्याग दी और अगले जन्म में यही वशिष्ठ मित्रावरूण के अंश से उर्वशी अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए तथा इस प्रकार वशिष्ठ गोत्र चालू रहा। वैवश्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में जो वशिष्ठ है वह यही हैं। राम के गुरु वशिष्ठ इसी वंश के थे। ये सामवेद के मंत्र 539 के वशिष्ठों मित्रावरूण ऋषि है अर्थात् मित्रावरूण के पुत्र वशिष्ठ इसके ऋषि है, वशिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा शक्ति के पुत्र पराशर हुए।
इन्होंने वशिष्ठ पुराण, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्वसूत्र तथा वशिष्ठ स्मृति की रचना की। वशिष्ठ पुराण का वशिष्ठ प्रवराध्याय अति महत्त्वपूर्ण है, उसमें विश्व ब्राह्मणों के गोत्र एवं प्रवर लिखे हैं। ऋग्वेद की वशिष्ठ शाखा के भी उल्लेख मिलते है। जिन अंगिरा वंशियों ने वशिष्ठ आश्रम में शिक्षा ग्रहण की, उनका गोत्र विद्या संबन्ध से वशिष्ठ हो गया। इनके तीन प्रवर- वशिष्ठ, शक्ति तथा पराशर है।

महर्षि वामदेव
महर्षि अंगिरा की तीन पत्नियां थी। स्वरूपा से बृहस्पति तथा गौतम उत्पन्न हुए दूसरी पत्नी महर्षि कर्दम पुत्री स्वराट् से वामदेव, उतथ्य आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। वामदेव ने ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल का सम्पादन किया। उसके सूक्त 1 से 41 तथा 45 से 58 तक के ऋषि हैं। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद के भी अनेकों मंत्रों 35 का साक्षात्कार किया तथा शिल्प विज्ञान को आगे बढ़ाया। इनके पुत्र बृहदुक्थ ने भी ऋषि परम्परा को चालू रखा। बृहदुक्थ वाम देव्य ऋषि । वामदेव इन्द्रसभा के भी सदस्य थे । शिल्प नैपुण्य से प्राप्त विश्व मान्यता से इनके गोत्र का प्रचलन हुआ। जिसके तीन प्रवर हैं - वामदेव गौतम तथा अंगिरा।

महर्षि उपमन्यु
वशिष्ठ कुल में इन्द्रप्रमद तथा उनके पुत्र अमरद् वसु के पश्चात् महायशस्वी ऋषि व्याघ्रपाद के दो पुत्र उपमन्यु तथा धौम्य बहुत प्रसिद्ध हुए। इन्होंने महादेव जी की घोर साधना की। इनके पिता व्याघ्रपाद ने अंगिरा महर्षि के आश्रम में शिक्षा पाई थी, इसी कारण विद्या संबन्ध के कारण स्व. ज्वाला प्रसाद ने अपने जाति भास्कर ग्रन्थ में उपमन्यु को अंगिरा वंशी मानकर उपमन्यु गोत्र के प्रवर उपमन्यु उतथ्य भारद्वाज ब्राहस्पत्यश्चेति आंगिरस दिये हैं। परन्तु ब्राह्मण वंशेति वृतम् में विद्या संबंध को न मानकर कुल (वंश) को मानकर उपमन्यु गौत्र के प्रवर वशिष्ठ इन्द्रप्रमद तथा अमरद्वसु लिखे है।

महर्षि वात्स्य
वैवस्वत मनु के पौत्र नाभाग के पुत्र अम्बरीष ने अंगिरस ऋषियों से शिक्षा ग्रहण की तथा विद्या संबन्ध से अंगिरा गोत्र को स्वीकार कर लिया था। इनके पुत्र युवनाश्व तथा युवनाश्व के पुत्र वात्स्य हुए, बृहदारण्यकोपनिषद् के छठे अध्याय में दी हुई प्रवचन की परम्परा में लिखा है कि महर्षि शांडिल्य ने महर्षि वात्स्य से यह समस्त ज्ञान प्राप्त किया। वेद मित्र शाकल्य के पांच शिष्य थे, उनमें एक वात्स्य हैं इन्होंने ही वात्स्य शाखा का प्रवर्तन किया। महाभाष्य में भी इस शाखा का उल्लेख है, शाखा प्रवर्तन से लोकमान्य हुए और वात्स्य गोत्र का प्रचलन किया। जिसके तीन प्रवर हैं - अंगिरा, अम्बरीष तथा युवनाश्व।
पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ने अपने जाति भास्कर ग्रन्थ में दो प्रकार के वात्स्य गोत्र माने हैं। जामदग्न्य वात्स्य तथा अजामदग्न्य वात्स्य। अजामदग्न्य वात्स्य ही ऊपर लिखित अंगिरा वंश के गोत्रकार ऋषि हैं। अन्य वंशों में जामदग्न्य वात्स्य भी गोत्रकार है, जिनके प्रवर भृगु, च्यवन तथा आपन्वान हैं।
एक वात्स्य मुनि जनमेजय के सर्प सत्र में उपस्थित थे। कात्यायन श्रौत के परिभाषा अध्याय में वात्स्य आचार्य का उल्लेख है। मानवों के अनुग्राहिक सूत्र द्वितीय खण्ड में वात्स्य का मत मिलता है। परन्तु यह महाभारत कालीन वात्स्य है और हमारे गोत्रकार ऋषि नहीं है।

महर्षि वत्स
आदि गोत्राकार चार ऋषियों में महर्षि भृगु विख्यात ऋषि एवं शिल्पाचार्य हुए। अथर्ववेद के अनेकों मंत्रों के ऋषि होने से अथर्ववेद भृग्वांगिरस नाम से भी प्रसिद्ध है।
भृग के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व, ओर्व के ऋचीक तथा ऋचीक के जमदग्नि हुए जो मूल आठ गोत्र कृत ऋषियों में एक हैं, ये भी मंत्रदृष्टा है। इसी वंश में महर्षि वत्स हुए। ये ऋग्वेद दशम् मण्डल के सूक्त 80 तथा यजुर्वेद के अ. 4 से मंत्र 16 से 36 तथा अ. 7 के मंत्र 40 के मंत्रदृष्टा एवं ऋषि हैं। इस प्रकार इन्होंने विज्ञान की परम्परा को चरमोन्नत किया तथा अनेक शिल्प ग्रन्थों का निर्माण किया। फलस्वरूप अपना गोत्र भी चलाया। इसके पांच प्रवर हैं- भार्गव, च्यवन, आपन्वान, ओर्व तथा जमदग्नि।

महर्षि विद्
भार्गव वंश की महर्षि जमदग्नि की शाखा में महर्षि विद् हुए। भार्गव कुल में 19 मंत्र दृष्टा एवं ऋषि हुए हैं। इनमें महर्षि विद् का आठवां स्थान है। इन्होंने भी अपना पृथक गोत्र चलाया। इस गोत्र के भृगु, च्यवन, आपन्वान, आर्व तथा विद् ये पांच प्रवर हैं।