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जीवन का महत्व

प्रात: काल में जब हम नित्य कर्म से निवृत्त होकर एकान्त में शान्ति पूर्वक बैठकर ध्यान करते हैं तो सर्वप्रथम हम अपनी मानसिक क्रिया कलाप को विराम लगा देते हैं। मन में कोई विचार नहीं उठते। मन बिल्कुल शान्त हो जाता है। हमें केवल अपने अस्तित्व का भान रहता है। "मैं हूँ" ऐसा अनुभव बना रहता है। लेकिन यह "मैं हूँ" शरीर के किस स्थान पर है कोई नहीं बता सकता। यह कैसा है? किस रंग रूप का है? किस आकार का है? ठोस है या तरल है या भाप मात्र है? कोई नहीं बता सकता।
"मैं हूँ" यह अहंकार वृत्ति ही हमारी इकाई का केन्द्र प्रतीत होती है। हमारा स्थूल शरीर, उसकी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच ही कर्मेन्द्रियां तथा मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार एक इकाई है। इसकी अहंकार रूपी वृत्ति को हम "अहम्" अथवा "मैं" रूप में सम्बोधन कर सकते हैं। विशेष बात यह अनुभव में आती है कि इस केन्द्र से सदैव हर क्षण यह तरंग (Vibration) उठती रहती है कि "मैं हूँ" "मैं चेतन हूँ" और "मैं आनन्द' में हूँ। अर्थात् सत्-चित और आनन्द रूपी यह हमारी आत्मा ही तो कही जाती है।
यह आत्म तत्व कोई ठोस दिखने वाली वस्तु नहीं है। यह बिल्कुल सूक्ष्म स्वरूप लिये हुए है। अर्थात् इसे न छू सकते हैं न देख सकते हैं और ना ही बुद्धिद्वारा जान सकते हैं। क्या हम हवा (वाय) को देख सकते हैं? उसका कैसा रंग-रूप, कैसा आकार इत्यादि है हम अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से पता नहीं कर सकते। हमारे कक्ष में रात्रि में बिजली के बल्ब से प्रकाश हो रहा है। क्या हम प्रकाश को पकड़ सकते हैं, जान सकते हैं? यह तो उसके संलग्न बिजली का करंट है वह उसे प्रकाशित कर रहा है। लेकिन इस करंट को हम नहीं देख पाते। यह भी तो एक प्रकार का सूक्ष्म तत्त्व है। इसी प्रकार भू-आकर्षण भी सूक्ष्म तत्त्व है, जिसे देख नहीं पाते, छून हीं पाते।
जिन विद्युत तरंगों से हम टी.वी., मोबाइल, कम्प्यूटर आदि उपकरणों को प्रयोग में ला रहे हैं क्या वे भी कहीं दृष्टिगत हो सकी है? कदापि नहीं। इसी प्रकार अहम् रूपी हमारी आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व ह और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जिसे काटा नहीं जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता और मारा भी नहीं जा सकता। यह अविनाशी तत्त्व है और कहा भी गया है "ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन, अमल, सहज सुख राशी।।"
इस जीवात्मा रूपी अविनाशी तत्त्व को गीता में श्री भगवान ने अर्जुन को खुलकर समझाया है। गीता के अध्याय 15 श्लोक 7 में भगवान कहते हैं -
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मन: षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृति स्थानि कर्षति।।
अर्थात् इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है। परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है-अपना मान लेता है। प्राणी जगत्की उत्पत्ति जड़-चेतन के सयोग से हुई है। चेतन तत्त्व जब मन-बुद्धि-इन्द्रिय व स्थूल शरीर को अपना मान लेता है तो जीव भाव को प्राप्त हो जाता है। वह सोचता है "मैं हूँ" और यह शरीर मन-बुद्धि-चितअहंकार दस इन्द्रियां व स्थूल शरीर रूपी पुतला "मेरा" है। इतने से अज्ञान रूपी अंधकार छा जाता है वही आत्म तत्त्व जीव भाव में आबद्ध हो जाता है। जीवात्मा अपने साथ इन्द्रियों सहित अन्त:करण को लिये अनादिकाल से इस विराट विश्व में भ्रमण कर रहा है। जीव भाव से मुक्त नहीं होने के कारण नाना प्रकार के शरीर धारण करता हुआ जन्म-मृत्यु के भंवर में सदा से बह रहा है। कहीं अपना ठिकाना नहीं पा रहा है। इसी सम्बन्ध में श्री कृष्ण भगवान् गीता के श्लोक 8 में और स्पष्ट करते हुए अर्जुन को समझाते हैं कि मन सहित इन्द्रियों को अपना मानने के कारण जीव किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है:-
शरीरं यदवाप्नोनि यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात।।
अर्थात् जैसे वायु गन्ध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाती है वैसे ही शरीरादि का स्वामी बना हआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें चला जाता है।
इस प्रकार जीवात्मा का आवागमन अनादि काल से चला आ रहा है। इसमें क्या शंका रह जाती है। हमारी जो चैतन्य इकाई (सूक्ष्म शरीर रूपी) है वह स्थूल शरीर से जुदा हो जाती है तो हम इसे भयावह मृत्यु बताकर शोक मनाने लगते हैं।
जीव भाव में खोया हुआ जब यह प्राणी परमेश्वर की अहैतु कि कृपा से मानव शरीर प्राप्त करता है (जोकि देव दुर्लभ कहा गया है) तब उसे वह स्वर्ण अवसर प्राप्त होता है कि जीवन को सही दिशा देकर जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदैव के लिये छूट जाय और परमानन्द को प्राप्त कर ले। उसे पुन: इस भव सागर में डुबकियाँ लगाने से मुक्ति मिल जाय। परमेश्वर ने जीव को यह दुर्लभ शरीर बड़ा भारी कार्य सम्पादन हेत (मुक्ति या निर्वाण प्राप्त कर लेने को) दिया है। केवल मौज-मस्ती के लिये नहीं। यदि इतना समझ लें, इतना विवेक जाग्रत हो जाय, तो मानव का कल्याण सुनिश्चित समझे।
उपरोक्त चिन्तन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव इतना अविवेकी हो चला है कि वह अपने उद्धार तक को भूल बैठा है। सांसारिक विषय-भोग के साम्राज्य ने उसे बावला सा बना रखा है। सिवाय भोग-विलास की चर्चा के उसे और कोई बात सुहाती ही नहीं। जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से वह भय मुक्त सा प्रतीत होता है।
परमेश्वर की अनुकम्पा से इस सृष्टि में जीव जगत की सर्वोच्च चोटी का मानव शरीर तक उसे प्रदान कर दिया गया है फिर भी वह मूढवृत्ति धारण किये विवेक शून्य कैसे बैठा है? बड़े आश्चर्य का विषय है। नाना प्रकार के शास्त्र, अनेक सद्ग्रन्थ, धर्माचारियों के प्रवचन चहुँ ओर प्रवाहित हो रहे हैं, लेकिन मानव पर इस आधुनिक काल में तनिक भी प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं देता। मानव को सांसारिक जीवन ने इतना दबोच रखा है कि वह विवेक-विचार शक्ति को खो चुका है और अंधाधुंध भोग-विलास की दुनिया में डूबा जा रहा है। इसीलिये तो कहा गया है:-"बिन सत् संग विवेक न होई। ईश कृपा बिन सुलभ न सोई।।" यदि बाल्यकाल से ही सुशिक्षा, सदाचार युक्त जीवन एवं सत्पुरुषों का मार्ग दर्शन मानव ग्रहण नहीं करेगा इस दिशा में शुभ की आशा करना निर्मूल सिद्ध होगी। मानव समाज में आध्यात्मिक परिवर्तन की परम आवश्यकता है। सदाचार के विकास के बगैर आसुरी मनोवृत्ति का मानव समाज से निराकरण होना असम्भव है और नित्य प्रति नयेनये अपराध, दुराचार व कुत्सिक आतंक का उदय होता रहेगा।
मानव की मूल प्राथमिक आवश्यकता रोटी-कपड़ा-मकान की पूर्ति हो जाने के पश्चात् यदि वह अपने सृजनहार को स्मरण न करे, जिसने उसे पृथ्वी के समान सुखदायी पावन ग्रह पर जीवन यापन का दुर्लभ अवसर दे डाला और इसके विपरीत अपना सारा अमूल्य जीवन भोग विलास की दुनिया को समर्पित कर दे तो इससे बढ़कर और क्या शोचनीय दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति हो सकती है। गहन वैचारिक मंथन से जो सीधी बात उभरकर सामने आती है वह यह स्पष्टतयः उद्घोषित करती है कि अविनाशी इकाई के रूप में यह जीव अनन्त काल से नाना प्रकार के शरीर धारण किये इस विस्मयकारी अलौकिक ब्रह्माण्ड में भटक रहा है। इस ब्रह्माण्ड में असंख्य लोक इस पृथ्वी के समान ग्रह-नक्षत्र जीव सृष्टि को आश्रय देते अनादिकाल से विद्यमान है। परमेश्वर की कैसी यह क्रीड़ास्थली है? मानव ही यह सोचने समझने में समर्थ है कि आखिर वह कब तक इस अंधेरगदीं में डोलता रहेगा। यह तो अखण्ड भवसागर है, जिसे पार करना कितना कठिन है? हमारे वेद-शास्त्र कब से इसका विषद वर्णन करते आये हैं। हमारे दीर्घकालीन विविध लोकों के निवास के परिपेक्ष में इस धरती पर हमारा निवास क्षणिक है। फिर न मालुम किस लोक में वास होगा और कैसी परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ेगा। क्लेश मुक्त हमारा वास जब हमारे अंशी परमपिता आनन्द कन्द परमेश्वर की गोद में होगा। तभी दुर्घर्ष जन्म-मरण की शृंखला का अंत होगा और अविरल परमानन्द में वास होगा। इस दृष्टि से क्यों न हम अपने व्यस्त दैनिक सांसारिक जीवन में से कुछ क्षण उस कृपा सागर परमात्मा की स्मृति, प्रार्थना व आभार प्रकट करने में लगाकर अपने कल्याण का मार्ग सुनिश्चित कर लें।

-- तुलसीराम शर्मा से.नि. (सेशन जज), जयपुर