जीवन का सत्य
बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि सर्वप्रथम हमारे प्रबुद्ध पूर्वज महान ऋषि-मुनियों ने ही इस संसार के रचियता, पालनकर्ता व संवरणकर्ता के रूप में भगवान श्री विश्वकर्मा की परिकल्पना की व उन्हें ही अपने आराध्यदेव के रूप में अपने हृदय कुंज में प्रतिष्ठित किया। विशुद्ध तर्क संगत एवं वैज्ञानिक यह दृष्टिकोण था। तभी से हमारे पूर्वज उस परम शक्ति के विषय में निरन्तर खोज करते आये हैं। उन महापुरुषों ने यह राह अपनाते हुए कर्म क्षेत्र में निर्माण-कला कौशल का मार्ग अपनाया और विश्व को अपनी कलाकृतियों द्वारा सुखमय जीवन-यापन का मार्ग प्रशस्त किया।
हमारे महान ऋषि-मुनियों के गहन चिन्तन का ही परिणाम है कि हम विधाता की रचना व कार्यशैली से परिचित हो रहे हैं। हमारे प्राचीन शास्त्र इसी खोज के परिणामों के कथानक से भरे पड़े हैं।
खेद है, हमारा आधुनिक जीवन इस सुपथ को छोड़कर भटक गया है। ईश्वरीय ज्ञान को ही हमारे पूर्वजों ने सर्वोत्तम महत्व दिया और आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ते चले। उनके इस सुपथ की तनिक झलक पाने का हम जरा प्रयास करें।
आर्य संस्कृति का आधार सनातन धर्म रहा है। मानव जीवन का लक्ष्य परमेश्वर प्राप्ति रहा है। परमेश्वर के चिन्तन को जीवन में सर्वोत्तम महत्व दिया गया। यही कारण है कि हमारे प्राचीनतम् धर्म शास्त्र विश्व व विश्वकर्मा के सम्बंध में निर्विवाद दृष्टिकोण अपनाये प्रतीत होते हैं। एक तरफ सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी रूप परम तत्त्व परमेश्वर भगवान श्री विश्वकर्मा निर्गुण-निराकार रूप से सर्वत्र व्याप्त है। दूसरी तरफ परमेश्वर की शक्ति माया-योगमाया अघट-घटना परयेसी शक्ति के रूप में विद्यमान है, जिसके द्वारा इस विस्मयकारी भौतिक जगत का निर्माण (रचना), संरक्षण व प्रलय रूपी क्रियायें अनवरत रूप से अनादिकाल से चली आ रही है। और तीसरा तत्व है जीव सृष्टि। इन्हीं तीन तत्वों पर गहन शोध, विचार-विनिमय करते हुए हमारे महान दार्शनिक ऋषि-मुनियों ने वेद-पुराण-उपनिषद गीता, रामायण-श्रीमद् भागवत आदि सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ रचकर सम्पूर्ण मानव समाज की अद्वितीय-अनुपम सेवा की है।
इस महान् ग्रन्थों के अवलोकन-अध्ययन से व सन्त-महात्माओं के प्रवचनों से मानव समाज को प्रचूर मात्रा में आध्यात्मिक ज्ञान उपलब्ध हो रहा है। सूक्ष्मतया मोटे तौर पर जरा सोचें। सर्वप्रथम परमपिता परमेश्वर पर ही तनिक विचार करें। परमेश्वर वह तत्व है, जो इस सम्पूर्ण अनन्त-असीम भौतिक जगत का आधार है। हस्तामलक सदृष्य उसकी मुट्ठी में यह जगत स्थित है। जैसे वायु है मगर हमें दिखाई नहीं देती। माइक्रोवेव की आकाश में तरंगें व्याप्त हैं, मगर क्या वे हमें दिखाई देती हैं? इसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म रूप में परमेश्वर सर्वत्र निराकार व्याप्त है-विद्यमान है-सक्रिय है, लेकिन अनिर्वचनीय है। वाणी द्वारा उसे बता नहीं सकते। मोटे तौर से उस तत्व को "सच्चिदानन्द" कह कर इंगित किया करते हैं। वह सत् है अर्थात् सर्वदा विद्यमान है अनादिकाल से है व आदि अन्त रहित है। वह कब से है, अनुमान लगाया नहीं जा सकता। कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह सदा से है और सदा रहेगा। यह भौतिक जगत नष्ट हो जायेगा, लेकिन परम तत्व (परमेश्वर) सर्वदा मौजूद रहेगा। दूसरा अंग है 'चित' यानि चेतन। परमेश्वर सर्वत्र चेतन रूप से विश्व भर में मौजूद है। वह कण-कण में हाजिर-नाजिर है। शिवजी (शंकर भगवान) भी तो बोल उठे थे कि -
जाके हृदयं भगति जस प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती।।
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना।।
देस काल दिसि बिदिसहु माहीं। कहहु सो कहां जहां प्रभु नाहीं।।
अग जग मय सब हित बिरागी। प्रेम ते प्रभु प्रगटई जिमि आगी।।
यह कितना सुन्दर सारगर्भित निरूपण उस अदृश्य शक्ति का हमारे धर्म ग्रन्थ करते हैं। परमेश्वर सर्वत्र समान रूप से इस समस्त सृष्टि में विद्यमान है। ऐसा नहीं है कि कहीं थोड़े हो व कहीं अधिक मात्रा में हों। वे तो समान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं चाहे वह धरती हो या निराकार आकाश ही क्यों न हो। चाहे वह हमारी पृथ्वी हो चाहे सूर्य-चन्द्र व अन्य नक्षत्र ही क्यों न हो-परमेश्वर समान रूप से समस्त ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत है। इसके अतिरिक्त परमेश्वर जगत से वैरागी के समान दूरी बनाये रखते हैं। उनके सारे कार्य जैसे भौतिक जगत् की रचना करना, उसका संरक्षण (देख-रेख) करना, उसे समयानुसार कालान्तर में समेट लेना इत्यादि कार्य उनकी अघट-घटना परयेसी परम् प्रवीण शक्ति महामाया करती रहती है। परमेश्वर तो सदा इस प्रपंच से निर्लिप्त असंग रहते हैं। हाँ यदि कोई प्रेमी भगवत भक्त (नरसी मेहता के समान) प्रेमभाव विभोर होकर पुकारे तो अविलम्ब तत्काल सगुण रूप में प्रकट हो जाते हैं। निराकार परमेश्वर भी तो प्रेम से अधीर होकर सगुण रूप धारण करने में सक्षम है।
तीसरा अंश है "आनन्द"। परमेश्वर परम आनन्द की मूर्ति ही तो है। इसीलिये तो कहा गया है "God is Love" भक्तजन का उत्कृष्ट प्रभु प्रेम ही तो निर्गुण निराकार उस परम तत्व को सगुण रूप में प्रकट होने को विवश कर देता है। श्रीमद् भक्त माल (नाभाजी विरचित ग्रन्थ) की कथाएं प्रमाणित करती है, किन-किन प्रातः स्मरणीय प्रेमी सन्तों के समक्ष सगुण रूप में परमात्मा प्रकट हुए। वास्तव में सारा जीव जगत आनन्द प्राप्ति हेतु विविध क्रिया-कलाप में व्यस्त है। जीव मात्र आनन्द प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य अनुभव कर रहा है। इस प्रकार परम पिता परमेश्वर को हम "सच्चिदानन्द" के रूप में पुकारते हैं। लेकिन "नेति-नेति” कहकर वेद शास्त्रों ने परमेश्वर का निरुपण करने में असमर्थता ही प्रकट की है।
यह सारा भौतिक जगत परमपिता परमेश्वर की इच्छा मात्र से उनकी परा-शक्ति (महामाया) तत्काल निर्माण कर देती है। लोग उसे प्रकृति के नाम से पुकारने लगे हैं। अनिश्वरवादी केवल प्रकृति को ही सर्वे-सर्वा मान बैठे हैं। वे नहीं समझते कि इस विश्व की रचना के पीछे दो तत्व-जड़ व चेतन का ही तो संयोग है। प्रकृति तो जड़ है। चेतन उसे क्रियाशील न करे तो वह अपने आप कुछ नहीं कर सकती। चेतन परमेश्वर की इच्छानुसार बह रचना में प्रवृत हो जाती है। भौतिक जगत ही दृश्यमान तत्व है। किस कला-कौशल से प्रकृति इस विस्मयकारी अखिल ब्रह्माण्ड की रचना कर देती है, कल्पनातीत विषय है। मानव इस प्रक्रिया की खोज में अनादि काल से लगा हुआ है और नाना प्रकार के सिद्धांत उसने स्थापित की है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने Big Bang Theory प्रतिपादित की है और खोज करते-करते Great Collider जैसे प्रयोगों द्वारा किये God Particle खोज निकाला। यह वैज्ञानिक समुदाय अभी जड़ तत्व की खोज में ही उलझा पड़ा है। उसे शाश्वत आध्यात्मिक शक्ति का तो तनिक भी भान नहीं। हमारे प्रबुद्ध ऋषि-मुनियों ने कुछ अन्य रूप से सृष्टि रचना का वृतान्त प्राचीनतम् शास्त्रों में प्रकट किया है। मानव मस्तिष्क के लिये इस रहस्य को उजागर करना सम्भव नहीं। किस प्रकार परमेश्वर की पराशक्ति महतत्व-अहंकार आदि की रचना करने के पश्चात् इस असीम-अनन्त "आकाश'' को प्रकट करती है। फिर दूसरा महाभूत “वायु" रूपी तत्व का संचार करती है। तब तक सर्वत्र पोल व अंधकार के सिवाय कुछ भी नहीं था। फिर "अग्नि' को प्रज्ज्वलित कर अनेकानेक सूर्य उदय हुए और ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो उठा। तदनन्तर "जल तत्व" उत्पन्न हुआ। महासागर सर्वत्र दिखाई दिये। जल तत्व से "पृथ्वी" तत्व उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन पंच महाभूतों ने भौतिक जगत की रचना करके आश्चर्यजनक योगदान प्रदान किया।
अब इस विश्व के तीसरे अंग-जीव सृष्टि पर विचार करना रह जाता है। यदि कृपालु विधाता जीव सृष्टि की रचना नहीं करता तो यह सारा भौतिक जगत् नीरस (बिना किसी हलचल के) सूना-सूना दिखाई पड़ता। इस जल-थल, प्रकाश, वायु का क्या अर्थ यदि उसमें जीव सृष्टि न हो। अत: परमपिता परमेश्वर जी की इच्छानुसार महामाया ने पृथ्वी जैसे लोकों में जलचर-थलचर-वायु में जीवन यापन करने वाले 84 लाख योनियों के जीवों की रचना कर डाली। इन जीवों के भौतिक जगत् में पदार्पण से यह विश्व शोभायमान हो उठा। उसमें जीवनी शक्ति व्याप्त हो गई। आनन्द की लहरें जीव समुदाय में उठने लगी। सारा वातावरण एक प्रकार से अलौकिक जीव सृष्टि से रोचक हो उठा। जहाँ भौतिक जगत में केवल जड़ तत्व का विस्तार था, वहीं जीव सृष्टि में दोनों-जड़ एवं चेतन का समावेश हो गया। “जड़" तत्व पंच महाभूतों के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। मगर "चेतन" तत्व तो सच्चिदानन्द भगवान श्री विश्वकर्मा के सिवाय कहीं अन्य स्त्रोत से उपलब्ध होने वाला नहीं है। यह जीव सृष्टि जड़ व चेतन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुई। सभी जीवों के भीतर परमेश्वर का चेतन व आनन्द अंश विद्यमान रहता है। इसीलिए तो ब्रह्मा जी ने भी कहा है:-
"जय जय अविनासी सब घट वासी व्यापक परमानन्दा।"
अर्थात परमपिता परमेश्वर अविनाशी हैं (सदैव रहते हैं चाहे भौतिक सृष्टि प्रलय काल में लुप्त क्यों न हो जाए) वे प्रभु सब प्राणियों के हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी) सर्व व्यापक, परम आनन्द स्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुन्द (मोक्ष दाता) है। ऐसे परमपिता परमेश्वर के अंश (यानि अणु से भी सूक्ष्म चेतन तत्व) से जीव की उत्पत्ति हो जाती है। इसी बात को गोस्वामी जी इस प्रकार उधृत करते हैं:-
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।"
तत्व से जीव रूपी इकाई अविनाशी है। जड़ के संयोग के कारण वह नाना प्रकार के शरीर धारण किये अनन्त काल से इस भौतिक जगत् में डोल रहा है। शरीर जड़ तत्व (पंच महाभूतों) से निर्मित होने से नाशवान है। एक शरीर मृत्यु के गाल में पहुँचा कि जीव दूसरा चोला धारण कर लेता है। इस प्रकार जन्म-मृत्यु के पाश में बंधा हुआ प्राणी अनादि काल से इस जगत् में डोल रहा है।
इन अनन्त जीवों में से हम भी एक इकाई है इस बात को नहीं भूलना है। आज भी हम जड़ शरीर में बंधे हुए हैं यह हमारी दयनीय परिस्थिति प्रदर्शित करती है। नाना प्रकार के शरीर हम धारण कर चुके हैं, लेकिन माया अथवा विधाता के विद्यानुसार हम अपने को जन्म-मृत्यु की अविरल श्रृंखला से अभी तक मुक्त नहीं कर पाये, यही विषाद का प्रश्न है। मानव शरीर में आकर ही हमें वह अमुल्य अवसर मिलता है, जब हम साधना का मार्ग सिद्धकर सदा के लिये मुक्त हो जायें। स्वयं भगवान श्री रामजी ने श्रीमुख से मनुष्य मात्र के कल्याण हेतु यह सीख देकर सचेत किया है:-
"बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथनि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक संवारा।।
दो.- सो परत्र दुख पावई सिर धुनिधुनि पछिताई।
कालहि कर्म हि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाई।। 43।।
एहि तनकर फल विषय न भाई। स्वर्ग स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तन पाइ बिषय मन देहीं। पलटि सुधाते सठ बिष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चार लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
इस सुन्दर चित्रण के द्वारा प्रभु ने कैसा उत्कृष्ट उपदेश मानव मात्र को प्रदान किया है। मानव शरीर जैसा सर्वोत्तम अवसर पाकर भी यदि जीव अपना कल्याण साधन सम्पन्न नहीं कर पाता तो फिर उसे दुर्भाग्यवश पुन: 84 लाख ऊँच-नीच योनियों में भ्रमण करना ही पड़ेगा। विषय भोगों में ही सारा मानव जीवन खपा देना इससे बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण जीवन और क्या हो सकता है।
हमारे शरीर में जीवात्मा अत्यंत सूक्ष्म रूप से विराजमान है और इसी के प्रकाश से समस्त शरीर चेतन्य को प्राप्त होता है और जीवन का आनन्द प्राप्त करता है। अणु-परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म यह चेतन्य अविनाशी ईश्वरीय अंश हमारे शरीर में स्थित हमें निरन्तर जीवनी शक्ति प्रदान कर रहा है। चाहे चींटी हो, चाहे हाथी ही क्यों न हो यह ईश्वरीय अंश पूर्ण चेतन्य सम्पूर्ण शरीर को प्रदान करता रहता है। जब यह सूक्ष्म जीवात्मा बहिर्गमन कर जाता है, तो सुन्दर काया शव के रूप में परिणित हो जाती है और किसी काम की नहीं रहती। एक विशाल कक्ष घोर अंधकार मय अर्धरात्रि को एक छोटे से बल्ब के जलाने से प्रकाशित हो जाता है और उसमें सारी वस्तुऐं चमकती हुई दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार चेतन का क्षुद्र अंश सारी देह को चेतना प्रदान कर देता है। हमें यह नहीं भूलना है कि हमारी इस शरीर रूपी इकाई में शास्त्रों ने तीन शरीरों की व्याख्या की है यानि 1. स्थूल शरीर, 2. सूक्ष्म शरीर और 3. कारण शरीर है। हमारा स्थूल शरीर तो सभी को दिखाई देता है, लेकिन दूसरे दोनों शरीर सूक्ष्म प्रकृति के होने के कारण दिखाई नहीं देते। बिजली का बल्ब रोशनी देता हुआ हमें बखूबी दिखाई देता है, मगर उसमें दौड़ता हुआ प्रकाश उत्पन्न करने वाला विद्युतीय करंट दिखाई नहीं देता। आज तक किसी ने बिजली तरंग का रंग रूप नहीं देखा। इसी प्रकार जीवात्मा का अविनाशी अंश अत्यन्त सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता।
अब विचारणीय प्रश्न उठता है हम अपने अंशी परमपिता परमात्मा से जो सर्वव्यापी है कब अलग हुए और जड़ तत्व के सम्पर्क में आकर जीव श्रेणी में आ खड़े हुए। मेरे विचार से कोई इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता। अनादि काल से हम परमात्मा से परिछिन्न हुए विश्व में डोल रहे हैं। नाना योनियों में जन्म-मृत्यु की श्रृंखला में आबद्ध हम इस अनन्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर रहे हैं। प्रभु की महामाया ने यह कैसा खेल रचा है। जिस प्रकार ईश्वरीय विधानानुसार दिन-रात निरन्तर होते चले आ रहे हैं, इसी प्रकार जीव सृष्टि में हरेक प्राणी विविध योनिनुसार शरीरो में अनादि काल से जन्म-मृत्यु के पाश में बंधा जीवन यापन कर रहा है। अनन्त जीव है और अनन्त ही योनियाँ हैं, जिसमें उसका अनवरत आवागमन चल रहा है। संसार का यही तो वास्तविक स्वरूप है। बड़े आश्चर्य की बात है बुद्धि सम्पन्न मानव इस शाश्वत सत्य को क्यों नहीं समझ रहा है और भोग-विलास को ही जीवन का सबकुछ मानकर उसमें डूबा पड़ा है। उसने कैसा अर्थहीन अपना जीवन बना रखा है? न तो उसकी सत्संग में कोई रूचि है और न श्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय में। ऐसी परिस्थिति में सद्बुद्धि व विवेक जाग्रत होना असम्भव सा दिखाई पड़ता है। वह कब समझेगा कि उसका यह अमूल्य मानव जीवन साक्षात् मोक्ष का द्वार है। वह ऐसा अनुपम अवसर क्यों कर बेपरवाही से खो रहा है। वह कब समझेगा कि अनादि काल से परमपिता परमेश्वर से जुदा हुआ वह अनेक बार 84 लाख विविध योनियों भोग चुका है और ईश कृपा से कई बार मानव जीवन भी प्राप्त कर चुका है, लेकिन उसने अब तक अपने उद्धार का मार्ग नहीं खोजा। उसकी सारी बुद्धिमानी, सारी चतुराई काफूर हो जाती है, जब अन्त समय पर वह अपने को कैसी अत्यन्त असहाय स्थिति में पाता है? उस समय सिवाय “सिर धुनि धुनि पछताई” के सिवाय और कोई चारा नजर नहीं आता। यही जीवन का सत्य है।
-- तुलसीराम शर्मा से.नि. (सेशन जज), जयपुर