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भ्रान्ति निवारण

हमारा जांगिड ब्राह्मण समाज प्राचीन काल से अपने आराध्य देव भगवान् श्री विश्वकर्मा को सर्वोपरि देवता मानते हुए उनकी सेवा-पूजा करते आ रहा है। जगह-जगह पर भगवान् विश्वकर्मा के मन्दिर बने हुए हैं और आधुनिक काल में भी निर्मित हो रहे हैं। हमने भगवान् विश्वकर्मा को ही इस सृष्टि का निर्माता, संरक्षक एवं नियन्ता माना है। अन्य किसी देवता की दखल इस अनन्त-असीम विश्व के सम्बंध में स्वीकार नहीं की है और न विभिन्न देवताओं को इसके निर्माण में, इसके संचालन में तथा इसके विलय में जुदा-जुदा कर्तव्य ही दी। इससे ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने (जो उस काल के महान दार्शनिक व वैज्ञानिक थे) इस विश्व का गहन अध्ययन किया और पता लगाने की कोशिश की किस प्रकार सूर्य देव दिन-रात प्रकट होते हुए हमेशा प्रकाश एवं ताप नि:शुल्क प्रदान करते हैं। किस प्रकार धरती माता अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य देव की आदर पूर्वक परिक्रमा लगाती हुई उसके ऊपर निवास कर रही जीव सृष्टि (प्राणी जगत) का लालन-पालन करती है, किस प्रकार सूर्य सदृश्य अनन्त तारे आकाश में अधर में लटक रहे हैं। ऐसे विस्मयकारी विश्व का ध्यान पूर्वक गहन अध्ययन के उपरान्त यही निर्विवाद निष्कर्ष निकाला कि कोई वृहद शक्ति (जो अदृश्य बनी हुई है) इस अनन्त आश्चर्यजनक जगत को उत्पन्न करती है, सुरक्षापूर्वक संचालन करती है और अन्त में अपने में समावेश भी कर लेती है। इस प्रकार गहन चिन्तन के पश्चात् हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस सृष्टि के पालक का नामकरण भगवान श्री विश्वकर्मा का उपयुक्त नाम देकर कर दिया। इससे बढ़कर और क्या नाम सत्य हो सकता है।
यह तो अनुमान लगाना कठिन है भगवान् श्री विश्वकर्मा ने कब हमारी पृथ्वी को उत्पन्न किया। हमारी आर्य संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। हमारे शास्त्रों में युगों का विषद् वर्णन मिलता है। लाखों वर्षों का सतयुग हुआ तत्पश्चात् त्रेता युग का प्रादुर्भाव हुआ। फिर लाखों वर्षों का द्वापर युग रहा। द्वापर युगी की समाप्ति के पश्चात् विगत लगभग 5000 वर्षों से कलियुग गतिशील है और लाखों वर्षों पर्यन्त चलेगा। हमारे शास्त्र तो कई चतुर्युगियों का वर्णन करते हैं। बड़ा विस्मयकारी वृतान्त है। हमारे आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी इस पृथ्वी की आयुष को पता लगाने की कोशिश की है। हमारी पृथ्वी नित्य अपनी धुरी पर घूमती भी है, जिससे रात-दिन होते हैं और सूर्य देव की परिक्रमा भी एक वर्ष में पूरी कर लेती है। उनके आंकलन के अनुसार हमारी पृथ्वी करोड़ों वर्षों से विद्यमान है और जीवों को आश्चर्य देते हुए निरन्तर उनका पालन-पोषण किये जा रही है।
उपरोक्त आंकलन के परिदृश्य में हमारी आर्य संस्कृति भी कम पुरानी नहीं हो सकती। इसे भी इस जम्बूद्वीप पर विकसित होते लाखों वर्ष हो सकते हैं। लेकिन फिर भी यह अनुमान लगाना कठिन है किस काल में भगवान् श्री विश्वकर्मा जी को हमारे प्राचीन ऋषियों ने मान्यता प्रदान की और उनका नामकरण कर दिया। जांगिड ब्राह्मण समाज के पूर्वजों में महर्षि अंगिरा का नाम विख्यात है। वे ही अथर्ववेद के आचार्य ऋषि बताये जाते हैं। शायद महर्षि अंगिरा के समय में भगवान विश्वकर्मा को आराध्य देव प्रतिपादित किया गया हो और उनके अनुयायी भगवान् श्री विश्वकर्मा को दृढ़तापूर्वक अपना एक मात्र आराध्य देवाधि देव मानते हुए निरन्तर उन्हीं का गुणगान करते आये हैं। इस दृष्टि से तो भगवान् श्री विश्वकर्मा ही ब्रह्म है, परात्पर परमेश्वर हैं। इस भौतिक सृष्टि के स्वामी हैं, परम पुरुष परमात्मा हैं, सच्चिदानन्द स्वरूप देवाधिदेव है और इस सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आधार एवं धारक हैं। वे सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सर्व शक्तिमान है। अन्य समुदाय जिस शक्तिमान तत्व को God, अल्लाह इत्यादि नामों से पुकारता है उसे हम भगवान् विश्वकर्मा के नाम से पुकारते हैं।
अब विचारनीय प्रश्न यह उठता है कि हमारा समाज उस परात्पर परमेश्वर भगवान् श्री विश्वकर्मा को सामाजिक पत्रिकाओं, चित्रों में यहाँ तक कि मन्दिरों में भी एक वृद्ध श्वेत दाढ़ी से व औजारों से सुसज्जित चतुर्भुज देवता के रूप में क्योंकर प्रदर्शित करने लगा? उन्हें कब से हम देव मिस्त्री (इन्द्रलोक में देवताओं के कारीगर के रूप में) मानने को विवश हो गये? यही तो सर्वव्यापी ऐसी भ्रान्ति है, जिसका निराकरण ढूंढे बगैर, हमारे समाज के भटक जाने का खतरा बना रहेगा। एक तरफ हम भगवान् विराट विश्वकर्मा को सृष्टि के रचियता प्रकट करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें देवताओं के कारीगर की संज्ञा दे रहे हैं। कैसा है यह विरोधाभास? फिर उन्हें देवलोक से भी गिराकर इस भूमण्डल पर लाने का प्रयास होता है। हमारे विद्वजन ही बताते हैं कि “विश्वकर्मा का जन्म अंगिरा वंश में हुआ। अंगिरा के चार पुत्र एकत्, द्वित, त्रित और भुवन हुए। भुवन के पुत्र विश्वकर्मा हुए। आश्वलायन (सर्वाभुक्रमाणिका) व्याख्याकार षड्गुरु भाष्य के अष्टम् अष्टक के अष्ट अध्याय में लिखा है-
"भुवनो नाम आप्त्य पुत्र इति। एवं च भुवनपुत्र त्वेत विश्वकर्मण: अंगीह वंशनत्वं ऋषि गोत्र त्वमच।"
इस प्रकाशन से तो भ्रान्ति और अधिक शोचनीय स्थिति को प्राप्त हो जाती है। वाल्मीकि रामायण तक में इस विषय में चर्चा हुई है। तुलसीकृत रामचरित मानस में यह प्रसंग बड़ा रोचक वर्णित हुआ है:-
गिरी त्रिकूट एक सिंधु मंझारी। विधि निर्मित दुर्गम अति भारी।।
सोइ मय दानव बहुरि संवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा।।
भोगावति जिमि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा।।
तिन्हते अधिक रम्य अति बंका। जगविख्यात नाम तेहि लंका।।
ऐसी सुन्दर राक्षसराज रावण की नगरी क्या विश्वकर्मा जी का हाथ लगे बिना विख्यात हो सकती थी? उल्लेख है कि माल्यवान - सुमाली-माली दैत्यराज सुकेश के पुत्र थे। ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर इन्होंने विश्वकर्मा से जाकर कहा कि हमारे निवास के लिये हिमालय, मेरु अथवा मंदराचल पर शिव भवन के समान बड़ा लम्बा-चौड़ा भवन बना दो। तब विश्वकर्मा ने बताया कि दक्षिण समुद्र के तट पर त्रिकूट नाम का पर्वत है। “दक्षिण स्योदधेस्तीरे त्रिकूटो नाम पर्वत।" (वा. 7/5/22) फिर विश्वकर्मा ने बताया कि उसके पास ही दूसरा बड़ा पर्वत है, जिसके बीच के शिखर पर लंका नगरी बसी हुई है। विश्वकर्मा ने बताया कि मैंने लंकापुरी को इन्द्र की आज्ञा से बनाया था। इस वृतान्त से स्पष्ट हो जाता है कि विश्वकर्मा देवताओं के कारीगर है। तब वे भुवन ऋषि पुत्र कैसे समझा जाय? इस विषय में एक से एक विषद उलझने सामने आती हैं, जिनका समाधान ढूंढना प्रबुद्ध शास्त्रीयों का कार्य है।
इसके अतिरिक्त एक प्रसंग और भी आता है, जिसकी चर्चा यहाँ पर करना उचित प्रतीत होता है। जब श्री रामजी के समुद्र पार कर लंका पर धावा बोलने का समय आया तब उनके डर से समुद्र के राजा उपस्थित हुए और उन्होंने समुद्र पर पुल बनाकर लांघने की सलाह दी। वे कहते हैं-
"नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह के परस किये गिरी भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।"
ये दोनों वानर कुल के भाई थे नील बड़ा व नल छोटा। ये विश्वकर्मा के पुत्र थे।
नल: सेतुं करोत्वस्मिन जले मे विश्वकर्मणः।
सुतो धीमान् समर्थोऽस्मिन कार्ये लब्धवरो हरिः।। वा. 6/3/84
अर्थात् विश्वकर्मा का पुत्र चतुर नल वर के प्रभाव से मेरे जल पर सेतु का निर्माण करे - ये वचन सागर सम्राट के हैं।
उपरोक्त कथा से तो और अधिक भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है। याने नील-नल वानर कुल के प्राणी थे और विश्वकर्मा के पुत्र थे। तात्पर्य यह कि स्वयं विश्वकर्मा भी वानर कुल में उत्पन्न हुए होंगें।
इस प्रकार के अनेक प्रसंग पुराण-शास्त्रों में आते हैं। कहीं उन्हें देवताओं का कारीगर बताया जाता है और कहीं पर उन्हें वानर प्रजाति में उत्पन्न प्राणी? वास्तविक अर्थ धूमिल हो चुका। भगवान् श्री विश्वकर्मा स्वयं अपने नाम के अर्थ से सृष्टि के रचियता स्वयंभू परमेश्वर बताये गये, लेकिन ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होने लगा अर्थ का अनर्थ हो गया। सर्वान्तर्यामी परमेश्वर से पदच्युत कर उन्हें देव कारीगर की उपाधि दे डाली और कालान्तर में वानर कुल में उत्पन्न प्राणी बता दिया गया। हमारे आराध्य देव के साथ यह कैसा व्यवहार? यह कैसा परिहास?

-- तुलसीराम शर्मा से.नि. (सेशन जज), जयपुर