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हमारा मन

हमारे आराध्य देवाधिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी द्वारा रचित इस विस्मयकारी ब्रह्माण्ड का जीव-जगत एक विशिष्ट अंग है। इस प्राणी जगत के असंख्य प्रजाती के जीवों में “मानव” ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। हमारे बुद्धिमान महर्षियों ने बड़े सोच-विचार के पश्चात् इसे मानव, मनुष्य, मनस्वी इत्यादि नाम देकर प्रसिद्ध किया है, क्योंकि इसके मूल में 'मन' रूपी एक अद्वितीय प्रत्यंग प्रदान कर भगवान विश्वकर्मा जी ने अपनी अनुपम कला-कौशल का परिचय दे दिया है। इस विशिष्ठ प्राणी को मृत्युलोक में उत्पन्न देखकर तो देवलोक (स्वर्ग) के देवतागण भी इस मानव तन को पाने को तरसने लगे, कहना अनुचित नहीं होगा।
अब जरा मानव तन का निरीक्षण करें। हमारा स्थूल शरीर सर्वथा जड़ पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्वों द्वारा निर्मित है। इस शरीर को हम छू सकते हैं, देख सकते हैं, शल्य क्रिया द्वारा काट-बाट सकते हैं। इसमें पांच ज्ञानेद्रिया-श्रवण, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण (सूघने की शक्ति) विद्यमान है, जिनके द्वारा बाह्य भौतिक जगत का हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। साथ ही पाँच ही कर्मेन्द्रियां-वाक, हाथ, पैर, मूत्र व शौच क्रिया के अंग भी हैं, जिनकी सहायता से हम कर्म क्षेत्र में विविध प्रकार के सत्कर्म-दुष्कर्म जीवन भर करते रहते हैं और भगवतैच्छा से नाना रूप धारण कर उनका यथायोग्य फल भी भोगने से नहीं बच पाते हैं। ये ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियां भी स्थूल शरीर में अपने-अपने गोलकों में स्थित दिखाई देती है, मगर ये निष्क्रीय है। इन दसों इन्द्रियों का स्वामी मन है। मन जब इन्द्रियों से सम्पर्क स्थापित करता है तब ये सक्रीय होकर अपना-अपना कार्य-सुनना, ताप अनुभव करना, देखना, चखना व सूंघना इत्यादि सम्पादन करने लग जाती हैं। यही हाल कर्मेन्द्रियों का है। मन के आदेश के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता है। निद्रा के समय ये दसों इन्द्रियां शरीर में विद्यमान होते हुए भी कोई क्रिया नहीं कर पाती। अत: इस समस्त मानव तन में मन ही राजा है। वही सर्वश्रेष्ठ प्रत्यंग है।
अब देखिये इस मन को भी क्रिया शक्ति चेतन आत्मा से प्राप्त होती है। आत्मा को सच्चिदानन्द के अंश में शुमार किया जाता है। वहीं जीवनी शक्ति है। जब तक परमपिता परमेश्वर का यह अत्यन्त सूक्ष्म अविनाशी अंश (ईश्वर अंश जीव अविनासी) हमारे पंच भौतिक स्थूल शरीर में विद्यमान है, हम इस संसार में जीवन का आनन्द लूटते हैं और जब यह अंश इसे छोड़ जाता है तो जड़ भौतिक शरीर का कोई महत्व नहीं रहता। लेकिन यह स्थूल शरीर भी तो परमेश्वर द्वारा रचित अलौकिक कृति है।
हमारे शास्त्रों में मानव शरीर के निर्माण के सम्बंध में बड़ी चर्चा हुई है। ग्रन्थों में शरीर निर्माण का बड़ा रोचक वर्णन है। साधारणतया यह तो सर्वविदित ही है कि जब माता का रज व पिता का वीर्य तन्तु आपस में मिल जाते हैं फिर उनमें जीवात्मा का संचार हो जाता है, तब माता गर्भ धारण कर लेती है। विधि विधानुसार जीवात्मा के संग सूक्ष्म रूप में अन्त:करण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) एवं प्राण व इन्द्रियों का समागम होता है और माता के गर्भ में हमारा भूलोक में आगमन हो जाता है। यही तो मानव जीवन के प्रारम्भ की घड़ी होती है। अब आगे का वृतान्त जरा श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध के अथैकत्रिविंशोऽध्याय में देखिये। जब जीव को मनुष्य शरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान की प्रेरणा से अपने पूर्व कर्मानुसार देह प्राप्ति के लिए पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है।
माता के गर्भ (कोख) में यह तन्तु एक रात्रि में माता के रज में मिलकर एक रूप हो जाता है, कलल बन जाता है। फिर पांच रात्रि में बुदबुद रूप हो जाता है। दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप में परिणत हो जाता है। एक महिने में उसके सिर निकल जाता है। दो मास में हाथ-पांव आदि अंगों का विभाग हो जाता है। तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न व अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं। चार मास में इसमें मांसादि सातों धातुएं उत्पन्न हो जाती हैं। पांचवे महीने में भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली में लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूमने लगता है और उसी समय माता के खाए हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएं पुष्ट होने लगती हैं। वह उस जघन्य मल-मूत्र के गढ्ढ़े में पड़ा रहता है। ऐसी होती है माता के गर्भ में हमारी नौ माह की जीवन यात्रा। गर्भस्थ शिशु को माता के खाए हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन रूखे और खट्टे उग्र पदार्थों के स्पर्श मात्र से भारी पीड़ा सहन करनी होती है।
शिशु माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आंतों से घिरा रहता है। उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं। वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अंगों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरण शक्ति प्राप्त होती है और अपने सैंकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं। वह बैचेन हो जाता है, उसका दम घुटने लगता है। सातवां महिना आरम्भ होने पर उसमें ज्ञान शक्ति का उन्मेष हो जाता है। सप्त धातुमय स्थूल शरीर से बंधा हुआ देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा याचना करता हुआ प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है। वह दस माह का जीव जब विवेक सम्पन्न स्तुति करता है तब उस अधोमुख शिशु को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिए धकेलती है। उसके सहसा ठेलने पर शिशु अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उसकी पूर्व स्मृति नष्ट हो जाती है-उसका गर्भावास का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है। कला-कौशल प्रवीण इस ब्रह्माण्ड के रचियता भगवान श्री विश्वकर्मा कैसी निराली अद्भुत प्रक्रिया द्वारा अंधेरी प्रयोगशाला के भीतर एक विश्व सुन्दरी तक की रचना करके क्या हमें आश्चर्यचकित नहीं कर रहे हैं। हर मानव प्राणी स्वयं विधाता की अमूल्य अनुपम कलाकृति होने से पूजनीय है, वन्दनीय है और परम आदरणीय है। एक ही अदृष्ट शक्ति द्वारा रचित हम क्या सब एक से नहीं हैं? एक ही आत्मा से निर्मित एक ही समुदाय के नहीं हैं?
इस अनुपम स्थूल शरीर के भीतर स्थित एक और अदृष्ट सूक्ष्म शरीर भी तो है। हमारे आध्यात्मिक शास्त्र तो तीन शरीरों का प्रतिपादन करते हैं-1. स्थूल शरीर, 2. सूक्ष्म शरीर और 3. कारण शरीर। सूक्ष्म शरीर में हमारा अन्तःकरण (मन-बुद्धि-चित्त व अहंकार), दस इन्द्रियाँ (कान, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण व वाक, हाथ, पैर, शिश्न, गुदा), पांच प्राण (प्राण-अपान, समान, उद्दान व व्यान) शुमार होते हैं। इसे लिंग शरीर भी कहा जाता है, जो एक शरीर छोड़ दूसरे शरीरों में आवागमन करता रहता है। हमारे शरीर में सर्वोत्तम अंग मन ही है। वही नाना प्रकार की इच्छाएं-कल्पनाएं करता रहता है। कौन-सी इच्छा पूर्ति करना, क्या कर्म करना, इसका एक मात्र निर्णायक मन ही है। सत्कर्म करे या जघन्य अपराध, यह केवल मन ही का क्षेत्राधिकार है। अन्य कोई अंग-प्रत्यंग दखल नहीं दे सकता। अत: हर व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी मनोस्थिति पर निर्भर करता है। व्यक्ति सज्जन है या दुर्जन, उसके मन को देखा जाता है, ना कि उसके शारीरिक गठन अथवा रूपलावन्य को।
इस विषय पर श्रीमद्भागवत महापुराण में (पंचम स्कंध-अथैकादशोऽध्याय) राजा बहगण से जड़भरत जी का संवाद बड़ा समीचीन है। भरत जी के उपदेशानुसार “पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और एक अहंकार-ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर-ये ग्यारह उनके आधार भूत विषय कहे जाते हैं। गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार-ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं। शरीर को "यह मेरा है" इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। ये मन की ग्यारह वृत्तियाँ विषय, स्वभाव, संस्कार, कर्म और काल के द्वारा सैंकड़ों, हजारों, करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती है। जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा माया का तिरस्कार कर सबकी आसक्ति छोड़कर काम-क्रोधादि छ: शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता व आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है।
इस मन को सुसंस्कृत करने हेतु ही प्राचीन काल से शिक्षा पद्धति चली आ रही है। वैदिक काल में बालकों को गुरुकुलों में सुशिक्षित होने के लिए भेजा जाता था। इसे ही तो ब्रह्मचर्याश्रम कहा जाता था। आज भी उच्च कोटि के विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हर प्रान्त में, हर क्षेत्र में नव युवक-नवयुवतियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रदान करने हेतु स्थापित किए जा रहे हैं, ताकि उच्च कोटि की सुशिक्षा प्राप्त कर वे प्रबुद्ध नागरिक बन देश का नाम उज्ज्वल करें। इस शिक्षा का ग्रहणकर्ता हमारा मन ही तो है। सुसंस्कृत मन ही सत्कर्मों की ओर आकर्षित हो उच्च कोटि का मानव जीवन यापन कर पाएगा। सुपथगामी मन ही भगवत-भक्ति के महत्व को समझ सकता है और सन्तों की श्रेणी में स्थान पाकर प्रसिद्धि प्राप्त करेगा। मन की शुद्धि (पवित्रता) से तो परमेश्वर की प्राप्ति तक सुलभ हो जाती है। इसीलिए तो ग्रन्थों में कहा गया है:-
“निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।"

-- तुलसीराम शर्मा से.नि. (सेशन जज), जयपुर