आत्म-निरीक्षण
हर मानव को अपनी वास्तविक मनोदशा की स्थिति का भलीभांति ज्ञान रहता है। कोई बात उससे छुपी नहीं रहती। उसने क्या अच्छा किया, क्या बुरा किया, वह बखूबी जानता है। प्रभु कृपा से उसे अपने कृत्यों की भली-भांति जानकारी रहती है। इससे सिद्ध होता है कि मानव अपने को अच्छी तरह से जानता है-समझता है और उसका शत-प्रतिशत सही आंकलन करने में सक्षम है।
अब यदि कोई व्यक्ति अपने को सन्त बनाना चाहता है तो उसे सतर्कता से अपने दोषों पर दृष्टि बनाये रखनी होगी, जिसके मन में कोई विकार न हो वही तो सन्त कहलायेगा। ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन में नित्य प्रति दिन यह कठोरता से मन को नियंत्रित | करना होगा कि कोई विकार किसी प्रकार की कुदृष्टि उसके भीतर | (अर्थात्) उसके अन्त:करण में) उत्पन्न ही न होने पावे। मानव के | मन में ये विकार-(1) काम, (2) क्रोध, (3) लोभ, (4) मोह, | (5) ईर्षा, (6) द्वेश व (7) अहंकार प्रबल रूप से घर किये रहते हैं। उसका सारा जीवन ही इन विकारों से संघर्ष करने में व्यतीत हो जाता है और जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रह जाता है। इन विकारों को नियन्त्रित करने में मानव को अपना जीवन नि:स्वार्थ परोपकारी भावना से परिपुष्ट करना होगा। मानव में सबसे | बड़ा दोष उसका स्वार्थीपना है। वह अपनी सुख सुविधा को ही जीवन का परम लक्ष्य मान बैठता है और उसे पाने के लिये क्या | उचित है ? क्या अनुचित है? तनिक नहीं सोचता। इस प्रकार वह मानसिक विचारों के जाल में फंस जाता है और कुकर्म तक करने से नहीं हिचकिचाता।
मानव समाज में व्याप्त विविध प्रवृत्तियों का अनुभव करते हुए हर व्यक्ति अपने जीवन की रूपरेखा बनाता रहता है और उन्हीं के अनुसार विविध कार्यों में लिप्त हो जाता है। वर्तमान युग में मानव जीवन की शैली इतनी विकृत हो चुकी है कि हमें चारों ओर स्वार्थ का ही वातावरण दृष्टिगोचर हो रहा है। धन की लालसा सर्वोपरी दिखाई देती है। अनुचित साधनों से, बेईमानी से, भ्रष्टाचार से धन संग्रह की लालसा इतनी बलवती हो गई है कि उसका व्यवहार अधोगती की सारी सीमा पार चुका है। बड़े-बड़े अधिकारी, मन्त्री वर्ग, प्रशासन तन्त्र पूर्ण रूप से भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसा हुआ है। ऐसे भयंकर वातावरण में जन साधारण कैसे न्यायपूर्ण जीवन की कल्पना कर सकता है। समाज का एक बड़ा वर्ग Anti-social activities को जीवन शैली बना चुका है। यहाँ तक कि छात्र वर्ग भी इस ओर आकृष्ट होने लगे हैं। महिलाओं के आभूषण, हैण्ड बैग इत्यादी छीन लेना अपना व्यवसाय बना लिया है। स्त्री जाती के साथ दुराचार करना बड़ी तेजी से समाज में बढ़ रहा है। यह सब नतीजा है स्वार्थ परक जीवन का। परहित की भावना तो लुप्त सी हो चुकी है।
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।"
वास्तव में शुभ-अशुभ कर्म करने की प्रवृत्ति व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर है। कर्म करने की प्रेरणा मन से ही तो मिलती है। मन में निरन्तर संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। कौन-सा विचार कार्य रूप में बदले उसके मन पर निर्भर है। कोई व्यक्ति सन्त प्रकृति का है या अपराधी प्रवृत्ति का? उसकी मनोदशा पर निर्भर है। यदि हमारा मन स्वस्थ है, सन्तुलित है तो हम शुभ कर्म का ही सोचेंगे और शुभ कर्म को कार्य रूप में परिवर्तित करने का प्रयास करेंगे। इसके विपरीत यदि मन में क्रोध-क्षोभ अथवा क्रूरता का संचार प्रबल हो जाय तो व्यक्ति हर कोई जुर्म-अपराध करने को उद्यत हो जायेगा। इसलिये मन को सुशिक्षित करना, अनुशासन द्वारा Control करना परम आवश्यक है, ताकि हम दुष्कर्मों से बच सकें। दुर्भाग्य से किसी पाठशाला में मनोनिग्रह का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। नतीजा यह होता है कि सर्वत्र हिंसक प्रवृत्ति प्रबल होकर नाना प्रकार के अपराधों को जन्म देती है। सारे कानून-कायदे इस प्रवृत्ति को रोकने में सर्वथा असमर्थ व निष्क्रीय सिद्ध हुए हैं। इस विवेचन से निष्कर्ष यही निकलता है कि जब तक समाज में आत्म निरीक्षण की परिपाटी उपयोग में नहीं लाई जायेगी और मानव मात्र आत्म निरीक्षण द्वारा अपने मन में उत्पन्न दोषों को सतर्कता से अपने अधीन नहीं करेगा, समाज में नाना प्रकार के अपराधों की बाढ़ को रोकना असम्भव-सा है। सत् साहित्य, सतसंग व आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा ही मन को सन्मार्ग में लगाया जा सकता है और उसके फलस्वरूप समाज में सुख-शान्ति का वातावरण स्थायी रूप से स्थापित किया जा सकेगा। समाज के प्रबुद्ध वरिष्ठ महानुभाव से अपेक्षा है कि वे समाज सुधार की योजना में सक्रीय रूप से भाग लें और भावी पीढ़ी की मानसिकता में सतोगुण का संचार कर जीवन की सहीराह दर्शाने का प्रयास करें। स्वच्छन्दता की खतरनाक प्रवृत्ति से वशीभूत हमारी नई पीढ़ी आर्हतकर राह न अपना ले, इस ओर सावधानी पूर्वक ध्यान देना अति आवश्यक है।
परमपिता परमेश्वर ने मानव को इतनी स्वछन्दता, इतनी स्वतन्त्रता दे रखी है कि वह चाहे तो धर्मात्मा बन सकता है, ऋषि-महर्षि बन सकता है, एक महान सन्त इसी जीवन काल में बनकर जीवन सफल कर सकता है। इसके विपरीत वह चाहे तो महादुराचारी, क्रूर, हत्यारा तक बन सकता है। कोई रोकने वाला नहीं है। मानव की इसी में समझदारी है कि वह इस अमूल्य दुर्लभ जीवन में कौन-सी राह अपनाता है।
-- तुलसीराम शर्मा से.नि. (सेशन जज), जयपुर