बोध प्रसंग
(1) बात पुराने समय की है, एक राजा था। उसे शौक था तो बस सुन्दर सुन्दर इमारतें बनाने का उसके राज्य में चारों ओर विशाल प्रासाद और भव्य दिखलाई पड़ते थे। राजा ने दूर-दूर से कुशल शिल्पियों को अपने राज्य में बुला रखा था, ताकि वे राज्य में और सुन्दर सुन्दर इमारतों व विशाल प्रासादों और भवनों का निर्माण कर सके। राजा शिल्पियों का आदर भी करता था और उन्हें उचित पारिश्रमिक के अलावा पुरस्कार भी देता था। इन्हीं शिल्पियों में एक अत्यंत अनुभवी शिल्पी भी था, , जो अब वृद्ध हो गया था, , उसने वर्षों तक राज्य की सेवा करते हुए अनेक उत्कृष्ट भवनों का निर्माण किया था। राजा उसे शिल्पी श्रेष्ठ कहकर पुकारते थे। एक दिन शिल्पीश्रेष्ठ ने राजा से कहा, महाराज! मैं जीवनभर राज्य की सेवा की है, लेकिन अब मैं वृद्ध हो गया हूँ, इसलिए मुझे राज्य की सेवा से मुक्त करने की कृपा करें।
राजा ने शिल्पी श्रेष्ठ की बात बड़े ध्यान पूर्वक सुनी और उससे कहा, "शिल्पीश्रेष्ठ! आपकी सेवाओं के लिए मैं ही नहीं पूरा राज्य आपका कृतज्ञ है, आपको सेवानिवृत होने का पूरा अधिकार है, लेकिन मेरी ख्वाहिश है कि सेवानिवृत्ति से पहले आप मेरे लिए एक भवन और बनाओ, जो आजतक बने सभी भवनों से श्रेष्ठ व उत्कृष्ट हो । शिल्पी राज की ख्वाहिश को कैसे टाल सकता था, वह बनाने के काम में जुट गया, लेकिन बेमन से उसने उस श्रेष्ठता व उत्कृष्टता का परिचय नहीं दिया, जिसकी उससे अपेक्षा थी, बस किसी तरह उसने बेमन से भवन पूरा कर दिया और एक दिन फिर राजा से प्रार्थना की "महाराज मैंने आपकी ख्वाहिश के अनुसार नया भवन भी तैयार कर दिया है, इसलिए अब तो मुझे राज्य की सेवा से शीघ्र मुक्त करने की कृपा करे।
हाँ, आज से आप राज्य की सेवा से मुक्त हुए, मैं आपकी कला से अत्यंत प्रभावित हूँ और आपको विशेष रूप से पुरस्कृत करना चाहता हूँ, इसीलिए मैंने आपसे इस उत्कृष्ट भवन का निर्माण करवाया है, ताकि आपको पुरस्कार स्वरूप ये भवन दे सकूँ, शिल्पी प्रसन्न तो हुआ, लेकिन उसे इस बात का बेहद अफसोस भी हुआ कि उसने इस भवन का निर्माण पूरे मन से नहीं किया और उसमें अनेक कमियाँ रह गई।
(2) राजेश्वर प्रसाद की उम्र यद्यपि काफी हो चुकी थी, लेकिन वे अपनी वास्तविक उम्र से बहुत कम दिखते थे और इसका कारण था, उनकी संतुलित दिनचर्या व जीवनचर्या नियमित रूप से व्यायाम और सैर करना तथा खानपान में संयम बरतना उनकी आदत बन चुकी थी। उनकी दिनचर्या और आदतों का उनके युवा पुत्र विवेक पर भी काफी असर था। विवेक भी स्वास्थ्य के प्रति बेहद सचेत था और व्यायाम करने और दौड़ लगाने में कभी कोताही नहीं बरतता था। बेशक विवेक युवा था और उसमें चुस्ती-स्फूर्ति थी, लेकिन राजेश्वर प्रसाद भी किसी तरह से कम नहीं थे। एक दिन संयोग पिता और पुत्र दोनों साथ-साथ सैर को निकले और पार्क में जाकर दौड़ लगाने का कार्यक्रम बना मजे में दोनों के बीच मुकाबला होने लगा, मजाक-मजाक में पिता ने पुत्र को चुनौती दी, दोनों के बीच दौड़ प्रारम्भ हुई कभी पिता आगे निकल जाते तो कभी पुत्र लेकिन अंत में जीत पिता की हुई । पुत्र ने कहा-' “मैं बहुत खुश हूँ कि जीत आपकी हुई आप पिता है, तो आपका विजेता होना अच्छा लगता है" पिता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन जीत जाने के बावजूद उनके चेहरे पर कहीं भी प्रसन्नता का नामोनिशान मौजूद नहीं था ।
काफी वक्त गुजर गया, पर दोनों की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया, दोनों अब भी व्यायाम करते और दौड़ लगाते । राजेश्वर प्रसाद विवेक को अधिकाधिक अभ्यास करने के लिए प्रेरित करते । विवेक सचमुच बहुत अच्छा दौड़ने लगा था। एकदिन फिर मजाक-मजाक में पिता ने पुत्र को चुनौती दे डाली, मुकाबला प्रारम्भ हुआ, कभी पिता आगे निकल जाते तो कभी पुत्र, लेकिन इस बार पुत्र का पलड़ा भारी था, इसके बावजूद राजेश्वर प्रसाद ने आगे निकलने की अपनी कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी उनके प्रयास में लग रहा था कि वो हर हाल में जीतना चाहते हैं।
राजेश्वर प्रसाद जीतना चाहते ही नहीं थे, दौड़ जब निर्णायक दौर में पहुँची तो जीत का श्रेय विवेक के हाथ लगा। यद्यपि राजेश्वर प्रसाद हार चुके थे, लेकिन उनके चेहरे पर झलकती प्रसन्नता की लहरें साफ दिखलाई पड़ रही थी, राजेश्वर प्रसाद ने विवेक के कंधे पर हाथ रखकर कहा- जिस दिन मेरा बेटा मुकाबले में मुझसे हार गया था और मैं जीत गया था, वो मेरी बहुत बड़ी हार थी, आज मैंने उस हार का बदला ले लिया है, मैं बहुत खुश हूँ कि आज मैं हार गया हूँ और मुकाबले में मेरा पुत्र मुझसे जीत गया है मेरे पुत्र की जीत ही मेरी वास्तविक जीत है।
-- ताराचन्द जांगिड (से.नि. अधिशाषी अभियन्ता) जोधपुर