हिन्दी सर्वजन प्रिय भाषा है, फिर इससे नफरत क्यों?
यह निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी बहुत ही शक्तिशाली, व्यापक और सर्वजन प्रिय भाषा है, थी व भविष्य में भी रहेगी। भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती है, उनमें हिन्दी को ही वर्षों पहले ही जनसम्पर्क की भाषा के रूप में स्वीकृति मिल चुकी थी। तीर्थ यात्री, व्यापारी इसी हिन्दी के सहारे पूरे भारत में चारों धाम करके आ जाते थे। वहीं व्यापारी भी अपना व्यापार पूरे भारत में पर्वो-मेलों के समय करते रहते थे। हिन्दी ही एक मात्र सहायक भाषा के रूप में मददगार सिद्ध होती थी। आज भी यही क्रम जारी है। वर्षों पहले से हिन्दी संस्कृत की देवनागरी लिपि को ही नहीं, बल्कि आचरण और प्रकृति को भी अपने में समाहित करने में सक्षम रही है। प्रान्तीय भाषा-भाषियों ने हिन्दी भाषा को अपने व्यवहार और आचरण में शताब्दियों पहले से ही उतारना शुरू कर दिया था।
देवनागरी लिपि अपनी विशिष्ट वैज्ञानिकता के साथ ही लोगों को व्यवहारिक स्तर पर अपनी सहजता एवं आत्मीयता के गुण के कारण स्वीकार है। जिस तरह व्यवहारिक व व्यापारिक दृष्टि से विश्व के बड़े-बड़े राष्ट्र हिन्दी को अपना कर भारत में अपनी व्यापारिकव्यवसायिक पैठ जमाने में लगे है। विश्व में लगभग 130 महाविद्यालय में हिन्दी अध्यापन का कार्य हो रहा है। चीन व अमेरिका में हिन्दी को लेकर विशेष रूझान झलक रहा है। उसी अनुसार यदि भारत की प्रान्तीय भाषाएं हिन्दी में जितना अधिक लिखने-पढ़ने और बोलने का काम करेंगे हिन्दी उतनी ही शक्तिशाली, व्यापक और सर्वजन प्रिय होगी।
अपनी भाषा, साहित्य व संस्कृति को अपनाकर किसी भी प्रकार के कार्यों को मूर्तरूप दिया जाए, उसमें शीघ्र सफलता मिलेगी। हिन्दी और प्रान्तीय भाषाएं देश की जनता के दिलों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगी। यह प्रयोगात्मक निर्विवाद सत्य है। भारत के समस्त साहित्यकार यह स्वीकार कर चुके है कि हिन्दी देश को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण भाषा है। 18वीं सदी में हिन्दी को लेकर विशेष बयार बहने लगी थी। 1837 के बाद हिन्दी भारत के विद्वानों व आम लोगों में प्रचलित हो साहित्य पटल पर उभरने लगी। भारतेन्दु जी हिन्दी युग के प्रवर्तक माने जाते है। पुनर्जागरण काल भारतेन्दु युग के नाम से प्रचलित है। उस 50 वर्षीय समय में खड़ी बोली हिन्दी का प्रचलन हुआ। कालगणना के आधार पर हिन्दी साहित्य का 1000 वर्ष पहले प्रारम्भ होना माना गया है। काल विभाजन के इतिहास का आधार उस काल की प्रवृत्तियों, परिस्थितियों और काल की विशेषताओं को मानते हुए वीरगाथा काल (आदिकाल) 1050 से 1375 तक, पश्चात् भक्तिकाल (मध्यकाल) जो भक्ति और रीतिकाल के नाम से 1375 से 1900 तक माना गया है जिसमें निर्गुण भक्ति धारा में ज्ञानाश्रयी शाखा व प्रेमाश्रयी शाखा के नाम से तथा सगुण धारा में रामभक्ति व कृष्णभक्ति शाखा के नाम से प्रसिद्ध है। 1900 के बाद आधुनिक काल प्रारम्भ हुआ इसे गद्यकाल के नाम से जाना जाने लगा। अपने काल के कवियों ने हिन्दी को माध्यम बना धार्मिक उन्माद, आडम्बर का विरोध कर पवित्रता, सदाचार और समता पर बल दिया। दूसरी ओर अवतार व लीलाओं के द्वारा भारतीय संस्कृति सभ्यता की रक्षा की। देश प्रेम, राष्ट्रीयता व अत्याचार के खिलाफ अन्याय, असत्य के खिलाफ संदेश दिया गया, यह कार्य हिन्दी में ही हुआ। हरिश्चन्द्र नाम के बहुमुँखी साहित्यिक व्यक्तित्व का आना हुआ। हिन्दी साहित्य में उनके समान दुसरा व्यक्ति नहीं आया। देशप्रेम तथा मातृभाषोद्धार की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनके इन्ही विचारों के कारण विद्वानों ने हरिश्चन्द्र को भारतेन्दु की पदवी से विभूषित किया। उनके काव्य में राष्ट्रभाषा व मातभाषा को ही उन्नति के शिखर तक पहुंचने का माध्यम माना है। उनकी रचना वानगी देखे -
निजभाषा उन्नति कहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।। 1।।
अंग्रेजी पढ़के जदपि,सब गुण होत प्रवीन।
पै निजभाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के दीन ।।2।।
धर्म, युद्ध, विद्या, कला, गीत, काव्य-ज्ञान।
सबके समझत जोग है, भाषा माहि समान ।। 3।।
हिन्दी को लेकर इनका समर्पण, साहित्य सेवा व हिन्दी की समस्त विद्याओं में इनकी लेखनी प्रशंसनीय रही है। हिन्दी का वर्तमान स्वरूप जो हमारे समक्ष है, इसे इस रूप में लाने में जिन विद्वानों ने सामग्री, संकलन, वर्गीकरण, विश्लेषण, संश्लेषण आदि विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजर कर हिन्दी साहित्य को समृद्धता देकर यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दी पूर्ण वैज्ञानिक, व्याकरण सम्मत व सर्वजनप्रिय भाषा है।
सर्वजनप्रिय हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का गौरव स्वतंत्रता के पहले इसे प्राप्त हो गया था, लेकिन महात्मा गांधी ने राष्ट्र विकास को ध्यान में रखते हुए इसे राष्ट्र भाषा की मान्यता दी। सम्पूर्ण भारत ने इसके प्रचार-प्रसार का समर्थन किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भारत भर के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजो के खिलाफ बनाई गई रणनीतियाँ, अपनी भावनाएं देश के कोने-कोने में पहुंचाकर भावनात्मक एकता का जो परिचय दिया था, मिला था उसका श्रेय हिन्दी को ही जाता है। ओ भारत में रहने वालो! हिन्दी की अनिवार्यता को हृदय की गहराई से, अपने अन्तःकरण से स्वीकार कर उन महापुरूषों की भावनाओं को समझो, जो गैर प्रान्त के होकर भी जिनकी अपनी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। उन विद्वानों ने भी इस हिन्दी भाषा को अपनाने के लिये तथा इसे पारम्परिक आदान-प्रदान और सम्पर्क की भाषा बनाने के लिये अथक प्रयास ही नहीं किये बल्कि अपनी साहित्यिक रचना हिन्दी में कर नवप्रेरणा दी व अपने लक्ष्य पर सफलता का परचम फहरा गये। आजादी के बाद हमारी ओछी मानसिकता और अंग्रेजों द्वारा फूट डालो-राज करो की नीति के बोये बीजों से पनपी फसल ने आपस में एक दूसरे से बड़े बनने व मानने के घमण्ड ने हमारी अपनी एकता को रोगग्रस्त कर राष्ट्रीय उन्नति में भी बेड़ियाँ डालने में सफलता प्राप्त कर विश्व के मानचित्र में बहुत पीछे लंगड़ाते हुए चलते-रेंगते नजर आ रहे है। आज जो राष्ट्र शीर्ष पर है, उसका कारण उनकी अपनी राष्ट्रभाषा है।
आओ, हम उन महापुरूषों को देखे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी, फिर भी उन्होंने हिन्दी हित में क्या नहीं किया? स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जिनकी मातृभाषा गुजराती, ज्ञानार्जन संस्कृत में अर्जित किया। उसी ज्ञान को भारतवासियों हितार्थ हिन्दी में रखा। राजाराम मोहनराय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचन्द्र बोस, आचार्य विनोबा भावे, रविन्द्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी, बाबूलाल विक्रम पराडकर, काका कालेश्वर जैसे अनेक हिन्दी अनुरागी मनीषियों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन किया।
याद रहे, भाषा का प्रश्न किसी भी देश के सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा, अस्मिता से जुड़ा रहता है। हमें भाषाई स्वाभिमान और राष्ट्र की गरिमा का ध्यान रखते हुए हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के उन्नयन व विकास हेतु व्यवहारिक कदम उठाने होंगे। हिन्दी में क्या कमी है? पूर्ण वैज्ञानिक, व्याकरण सम्मत भाषा है। अंग्रेजी कब से इस भारत में आई है? हिन्दी जिसे पटरानी कहा जाता था, उस पद पर आसीन थी। आज और कोई भाषा भारतभूमि पर पटरानी कहाने का दम्भ भरे और हम उस ओर से आँखें फेर मौन हो जाये तो हमारी राष्ट्र भक्ति कलंकित होगी। अंग्रेजी सुविधा प्राप्त करने की भाषा हो सकती है, लेकिन उसका सम्बन्ध न तो इस धरती से है और न ही यहां की सभ्यता और संस्कृति से है। इसलिये अपनी भाषाओं की उपेक्षा करके अंग्रेजी के मोहजाल में उलझकर रह जाना, हम भारतीयों के लिये शोभनीय नहीं है।
सवा सौ करोड़ जनता भारत की टुकर-टुकर निहार ही नहीं रही, अंग्रेजी की दासता स्वीकार करते हुए अंग्रेजी गुलामी का लबादा ओढ़े जीवन जी रही है। दो या तीन प्रतिशत लोग देश की गुलामी की भाषा अंग्रेजी के माध्यम से अभिव्यक्ति के क्षेत्र में परतंत्र बनाने का कुचक्र रच रहे है। अरे, हिन्दी ने सदा जोड़ने का काम किया है और अंग्रेजी ने तोड़ने का। हमें अंग्रेजी के मोहजाल से मुक्त होकर हिन्दी के गौरव को पुन:स्थापित करना है, क्योंकि हिन्दी सर्वजनप्रिय भाषा है। आज ही संकल्प लेते हुए भारतीय होने का परिचय दे। आप अपना लेखन पूर्ण स्वतंत्रता के साथ हिन्दी में करें।
पत्राचार, निमंत्रण पत्र, हस्ताक्षर, मकान-दुकान के नाम, विज्ञापन आदि देवनागरी लिपि में ही लिखने का निर्णय लें व औरों को भी इस हेतु प्रेरित करें।
स्वतंत्रता के बाद कई सरकारे आई और गई, लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्यता बनी रही। जो भारत माँ का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हिन्दी का पठन-पाठन देश में अनिवार्य नहीं हो सका। दु:ख का विषय है कि अंग्रेजी की गुलामी हमें आज भी मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक व चिन्तन की दृष्टि से अभिव्यक्ति की बेड़ियों में जकड़े हए है। वो समय याद करो जब भारत माँ दासता की गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। मगर राष्ट्रवासियों का संकल्प, हमारे शहीदों, महापुरूषों का जुनून व समर्पण के बल से, एकता की शक्ति से दासता की बेड़ियाँ झनझना के टूट गई। उसी तरह आज हिन्दी के समर्थन में जिसे संविधान में जो दर्जा मिला है, उसका कार्यान्वयन शुरू हो। इस हेतु आवश्यक समझे संविधान में संशोधन करें। विश्व में ख्याति प्राप्त ऊर्जावान, राष्ट्रभक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी इस हेतु ठोस पहल कर हिन्दी हेतु स्वतंत्रता की लड़ाई की तरह भाषाई जंग छेड़े। सर्वजन प्रिय भाषा हिन्दी को उसका वैधानिक अधिकार दिलाने हेतु भाषायी जंग लड़ना होगा।
-- डॉ. पं. लक्ष्मीनारायण सत्यार्थी, नागदा जंक्शन