मकर संक्रान्ति देवताओं का सुप्रभात होने से महापर्व है
भारत सदा से विश्व का महागुरु रहा है। सांस्कृतिक धरोहर का मूल भारत वर्ष है। जहाँ वर्षभर तीज-त्यौहारों, पर्व-उत्सवों की परम्परा निरन्तर गतिशील रहती है। भारतीय संस्कृति धर्म प्रमुख है। जो सृष्टि नियन्ता महाप्रभु के सत्कार्यों के रसमय क्रियाकलापों का प्रतिपादन करती है। इसी क्रम में भारत में षट्ऋतुओं का चक्र उत्सव की छटा बिखेरता है। ये षट्ऋतु चक्र पृथ्वी के द्वारा सूर्य की परिक्रमा से क्रियाशील है। जितने काल में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है उसको एक सौर वर्ष कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर परिभ्रमण करती है, उसको क्रान्तिवृत कहते हैं। भारतीय ज्योतिषियों द्वारा इस क्रान्तिवृत्त के 12 भाग कल्पित किए हुए हैं और उन 12 भागों के नाम उन स्थानों पर आकाशस्थ नक्षत्र पुञ्जों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती-जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिए जैसे मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ, मीना ये आकृति राशि कहलाती है। सूर्य एक मास में एक राशि से दूसरी राशि में जाता है। जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको सक्रांति कहते हैं। सूर्य जब धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है तो मकर संक्रांति कहलाती है। इस दिन से सूर्य उत्तर की ओर से उदय होना प्रारम्भ करता है। जिसकी अवधि छ: माह की होती है। मकर सक्रांति देवताओं का सुप्रभात है, यह उत्तराय देवताओं का दिन है। सूर्य के प्रकाशाधिक्य के कारण उत्तरायन विशेष महत्त्वशाली माना है। सूर्य आज से तिल-तिल वृद्धि के साथ दिन में वृद्धि करता हुआ रातें छोटी करने लगता है। शीत हरण कार्य प्रारम्भ हो जाता है। सूर्य के उत्तरायन में होने पर धार्मिक, शुभ कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। यह पर्व मूलत: सन्देश देता है-"तमसो मा ज्योतिर्गमय' याने अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ना जो वैदिक संस्कृति का शाश्वत् संदेश है।
हो असत में दूर भगवान, सत्य का वरदान दो।
दूर कर द्रुत तिमिर भगवन, शुभ ज्योति विहान दो।।
मृत्यु बन्धन से हटा, अमरीत्व है भगवान दो।
प्रकृति पाशो से छुड़ा, आनन्द मधु का दान दो।
प्रत्येक पर्व की अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है। जो व्यक्ति और राष्ट्र के लिए कोई न कोई जीवनदायी संदेश लेकर आता है। भारतीय संस्कृति प्रकाश की उपासक रही है। भारत शब्द का अर्थ भी हमें यही बताता है। भा-ज्ञान या प्रकाश की साधना में, रत-लगा हुआ। सो सदा से सद्ज्ञान की महिमा का प्रकाशक है, वैदिक संस्कृति आशावादी है। मकर सक्रांति का समय शीत युक्त होता है। याने शीत अपने पूर्ण यौवन पर दिन छोटे राते बड़ी। मगर मकर राशि में सूर्य का प्रवेश मकर संक्रांति के मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया। दिन बड़े होने प्रारम्भ, दिन गरमाने लगेंगे। उष्मा युक्त वातावरण बनने लगेगा। यही प्राकृतिक परिवर्तन हमें जीवन में आशावाद का पाठ पढ़ाता है। सोये विश्वास को जाग्रत करता है। कहता है कि जीवन में शिथिलता, निरुत्साह, निराशा आदि के दोष समाहित हैं जो सदा स्थिर नहीं रहेंगे। हम प्रकृति से सीखें हमारे बुरी अवस्था बदलेगी। उसका अन्त निश्चित है। आये हम उठ खड़े हों और अपने जीवन में संक्रांति लावें यह सन्देश देता है मकर संक्रांति का पर्व। वैदिक ग्रन्थों में जिसकी महिमा भरी पड़ी है। वैदिक ग्रंथों में जिसे देवयान कहा गया है। आदित्य ब्रह्मचारी गंगा पुत्र भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायन काल की प्रतिक्षा की थी। उत्तरायन के आगमन तक (6 माह तक) शर-शय्या पर शयन करते हुए ज्ञान प्रसादी बाँटकर मधुर संक्रांति के दिन अपना प्राणोत्सर्ग किया था। संक्रांति का अर्थ सम्यक क्रान्ति, सम्यक परिवर्तन। हमारे राष्ट्र प्रमुख प्राचीन काल में इस दिन विराट धर्म सम्मेलनों का आयोजन अपने-अपने सामर्थ अनुसार करते थे। धार्मिक व सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं पर विचार-विमर्श के बाद समाज को नई प्रेरणा, नई दिशा देते थे। यह दिवस समाज के प्राणियों में प्रकाश और विवेक की पूजा का पाठ पढ़ाने का संकल्प देते हए प्रेरणा देता था कि हमारा हर कार्य व्यापार विवेक युक्त हो। उदारता से परिपूर्ण यज्ञशील हो। मिलबाँट कर खाना व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं। समाज और राष्ट्र हृदय से ओझल न हो। दानशीलता इस पर्व का मुख्य संदेश है।
आर्यावत में प्राचीन ग्रीक लोग इस दिन वर-वधू की संतान वृद्धि हेतु तिलों से निर्मित पकवान बाँटते थे। प्राचीन रोमन लोग मकर संक्रांति के दिन अंजीर-खजूर और शहर अपने इष्ट मित्रों को भेंट देते थे। निर्धनों को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृतदान देने की परम्परा हमारे यहाँ प्रचलित रही हैं। भारत के सब प्रान्तों में तिल और गुड़ या खांड के लड्डू, तिल को दान देने की प्रथा रही है। मकर संक्रांति पर वहीं प्राचीन काल में पवित्र नदियों के किनारे राजा लोग या मठाधीश, सन्त प्रवर, समाज प्रमुख विराट धर्म सम्मेलनों का आयोजन रखते थे। जिसमें देश के कोने-कोने से धार्मिक, सामाजिक सूरमा व नट आदि लोगों का जमावड़ा होता था। वे सभी अपनी बुद्धि कौशल से मकर संक्रांति पर्व को चार चांद लगा देते थे। सम्मेलनों में देश की एकता, युवा पीढ़ी का भविष्य संवारने राजनीतिक चर्चा, कुशल सुशासन हेतु विचार गोष्ठियाँ होती थी। आहार-विहार के साथ सूर्य की उष्णता की वृद्धि के साथ समाज में हर विध वृद्धि हेतु कामना की जाती थी। संकल्प लेकर वार्षिक गतिविधियाँ सम्पादित होती थी। आओ हम सूर्य की उष्मा व प्रकाश के साथ अपने जीवन में उन्नति करते हुए दानमयी जीवन का संकल्प लें। तभी सार्थक होगा मकर संक्रांति का ओज, ऊर्जामयी पर्व। इसी के साथ मकर संक्रांति पर्व के रहस्य को समझते हुए समाज में इस पर्व का प्रचार कर जीवन धन्य बनावे।
-- डॉ. पं. लक्ष्मीनारायण सत्यार्थी, नागदा जंक्शन