सामाजिक बिखराव / विघटन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य का विकास बल व बुद्धि की पराकाष्ठा है। अन्य कोई भी जीव मनुष्य के समान बुद्धि व चिन्तन मनन का समतुल्य नहीं है। समाज में रहना मानवीय गुणों का प्रतीक है। संगठन में ही शक्ति देखी जा सकती है। परम् ब्रह्म ने सृष्टि रचना हेतु जितने भी जीवों की रचना की है, उनमें मनुष्य ही एक मात्र ऐसा है, जिसमें विकास करने की क्षमता है।
समाज में संगठित होकर रहने के फायदों से सभी भली-भाँति परिचित है। एकला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है, जैसी कहावतें यूं ही नहीं कहीं गई हैं। जो समाज संगठित है वही पूजनीय है, वहीं प्रगतिशील है, अनुकरणीय है। सभ्य समाज की आवश्यकता सभी समाजों को है। जो व्यक्ति समाज के मूल्यों को संरक्षित नहीं कर सकते हैं, उन्हें नष्ट होना ही पड़ता है।
हमारे भी पूर्वज, शिलाधर व अग्रणी समाज को काफी कुछ देकर गये हैं। इन महानुभावों ने समाज को एकजुट करने में काफी सहयोग ( तन, मन, धन से ) दिया है। इसके उदाहरण जय किशन मणीठिया, डालचन्द, रायबहादुर इत्यादि हैं, जिन्होंने समाज के उत्थान व विकास को एक नई पहचान दी है। कई बार समाज को उच्च साबित करने हेतु कोर्ट-कचहरी का सामना किया है। उनका मकसद एक मात्र समाज से था, ना कि व्यक्ति विशेष के लिए कार्य करने से उनकी सोच थी कि हमारा समाज एक संगठन शक्ति बने ताकि जरूरत पड़ने पर सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र में अपनी पहचान शक्ति का प्रदर्शन कर सकें।
आज प्रायः देखने में आता है कि समाज संगठन के नाम पर विघटन की ओर अग्रसर है। जिसका उदाहरण हम कई वर्षों से देखते आ रहे हैं। संगठन जिला / तहसील स्तर पर होना लाजमी है, क्योंकि दूरी एक कारण है, जिससे लोग समय निकालकर गंतव्य स्थल पर एकत्रित होने से हिचकिचाते हैं। परन्तु आजकल तो एक तहसील व उपतहसील स्तर पर भी एक से ज्यादा समितियाँ बना दी जाती हैं। जिनका कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। सिवाय इसके कि एक समिति में मतभेद होने के कारण उसके सदस्य बिखर कर दूसरी समिति का निर्माण करना चाहते हैं, ताकि वे अपना वर्चस्व सिद्ध कर सकें।
आज गली-गली में अनेकों संगठनों के नाम देखने को मिल सकते हैं। जब समिति का गठन किया जाता है तो उसके उद्देश्यों में वही पुराने घिसे-पिटे कारण व एक नया कारण लिख दिया जाता है। यदि सभी के उद्देश्य एक ही हैं तो टुकड़ों की क्या महत्ता है। क्यों हम एक छत के नीचे रहना पसंद नहीं करते हैं। क्या लोभ या लालच है, दूसरों को नीचा दिखाना या अपनी महत्ता साबित करना, आरोप प्रत्यारोपण करना इत्यादि ?
क्या जरूरत है जगह-जगह समितियाँ गठन करने की? क्या हम एक बैनर के नीचे काम करने में सक्षम नहीं हैं ? क्या एक युद्ध का मैदान है जहाँ हम अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं?
महासभा का कर्तव्य बनता है कि सामाजिक बिखराव को दूर करने का प्रयास करें, संगठित करें ना कि कुकुरमुत्ते की तरह समितियाँ बनाकर छोड़ दें। समितियों का प्राय: रजिस्ट्रेशन भी दिखावा मात्र है। कोई ऑडिट करवाने को तैयार नहीं है, तो कोई चुनाव कराने को तैयार नहीं है। समाज के पिछड़े लोगों को पूछने वाले ही नहीं है।
चुनावों के समय अध्यक्ष बनने वाले प्रत्याशी सुध लेना शुरु करते हैं। कुछ तो अपने स्वयं के पैसे से सदस्य बनते हैं, कुछ के पैसे भावी अध्यक्ष देता है, कुछ दबाव की राजनीति का शिकार होते हैं।
क्या सदस्यों की पूछ चुनाव तक ही सीमित है। ये निर्णय आप स्वयं करें कि समाज में आपका क्या महत्व है? परन्तु ये भी ध्यान रखें कि तराजु के एक पलड़े में स्वयं को रखकर यह भी सोचें कि आपने समाज को क्या दिया है, जो आप उससे अपेक्षा रखते हैं। गीता में भी कहा है कि कर्म करो फल की चिन्ता मत करो। आप समाज के लिए स्वयं कुछ करें, तो रास्ता अपने आप बनता नज़र आयेगा ।
समाज हित में नई समितियों को बनाने से अच्छा है, जो समितियाँ कार्यरत है, उन्हीं में सदस्यों को आकर्षित किया जाये, स्वप्रेरित किया जाये। ऐसे आयोजनों का, गोष्ठियों का प्रतियोगिताओं का समायोजन किया जाये ताकि लोगों में उस समिति से जुड़ने की इच्छा स्वतः जाग्रत हो ना कि जबरन सदस्य बनाया जाये। लोगों के विचारों को एकत्रित कर उनका विश्लेषण करें ताकि सभ्य समाज निर्माण की ओर अग्रसर हो सके।
नव समिति निर्माण कार्य बन्द करें। जो समितियाँ रजिस्टर्ड नहीं हैं, उनका रजिस्टर्ड समितियों में विलय कराने का प्रयत्न करें। पुर्नोत्थान का कार्य किया जाये ताकि मृतप्राय: समितियाँ फिर से जीवन प्राप्त कर सकें। नवयुवकों को आकर्षित कर सकें। नाम हेतु पदाधिकारी बहुत बन लिये, अब तो पद लालसा छोड़ संजीवनी का कार्य करें। नयों को मौका दें, सुझावों का सम्मान करें। बिखराव की राजनीति को छोड़, एकजुटता का संदेश दें। झूठा सम्मान ( माला, साफा, प्रतीकों इत्यादि) को छोड़, प्रतिभाओं को आगे आने दें। पत्र-पत्रिकायें इसमें सहायक सिद्ध हो सकती है, अगर महिमा मंडन न करें तो ।
विश्वकर्मा की संतान को विश्वकर्म करना (समाज संगठित करना) ही शोभनीय है। निर्णय आपका है कि आप समाज को विभिन्न पाटों में देखना चाहते हैं या एक ब्रह्म के रूप में। आपके फैसले से तस्वीर बदल सकती है, फैसला लेने की देर है ।
जय विश्वकर्मा जय संगठन |
-- आर.पी. शर्मा, 789, बरकत नगर, जयपुर