Jangid Brahmin Samaj.Com



संतोष में ही परम सुख है

संसार में यदि कोई चीज का वास्तव में अभाव है तो वह संतोष का अभाव। संतोष में ही परमसुख है। यह हमारे शास्त्रों का कथन है। आज का विचार है कि संतुष्ट व्यक्ति मुर्दा होता है। संतोष की भावना जागृत होते ही विकास का रथ रूक जाता है। देखा जाए तो यह ज्यादा गलत बात भी प्रतीत नहीं होती। संतोषी को आलसी भी बताया जाता है। नई सभ्यता ने व्यक्ति को आगे बढ़ने का संदेश दिया है, मगर यह नहीं बताया गया है कि आगे कहाँ तक बढ़ा जावे। आगे बढ़ना ठीक बात है पर कैसे बढ़ना है यह भी हमारे सोचने का विषय है। किसी को गिराकर आगे बढ़ने से कोई फायदा नहीं होता है उस विकास, उस प्रगति, उस समृद्धि का क्या लाभ जिससे मानसिक सुख ही नहीं मिलता। दुनिया के हरेक कार्य का उद्देश्य सुखी होना है। सुख शरीर का नहीं मन का होना चाहिए। मन का सुख किसे है किसे नहीं यह कहना तो बहुत कठिन है, पर विरलों को ही प्राप्त है यह कहना सरल है गलत नहीं ।
हम समझते हैं कि धनवान व्यक्ति बहुत सुखी होगा उसे और चाहे जो हो पर रोजी रोटी का संकट तो नहीं है। पर यदि आपके पास बहुत धन है, भोजन है पर आपकी बिमारी के कारण एक दाना भी नहीं खा सकते तो आप अपने को सुखी समझोगे या उसको जो एक मुट्ठी चना खाकर कंकरीली जमीन पर भी गहरी नींद सोता है। मखमल के गद्दे पर सोने वाला उतनी गहरी नींद नहीं सो सकता। कारण एक को उसे धन इक्कठा करने की चिन्ता है, दूसरे को पेटभर भोजन की। पेट जल्दी भर जाता है, परन्तु धन का घड़ा कभी भरता ही नहीं है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की एक उक्ति है जिस आदमी के दाँत में दर्द होता है, वह यह सोचता है कि जिसके दाँत में दर्द नहीं है, वह परम सुखी है। आगे चलकर बनार्ड शॉ कहते हैं यही दशा गरीबों की है जो हरेक अमीर को सुखी समझता है।
मानसिक सुख संसार में बड़ी तपस्या से प्राप्त होता है, उसे पाना सरल है, यदि हमको सत्संग प्राप्त हो। आज यूरोप की हालत देखिए क्या हिटलर सुखी था? इससे ज्ञात होता है कि उनके मन में एक भयंकर आग जल रही है। किसी पूर्व जन्म की तपस्या के कारण उनके पास धन तो है पर उनका मन दूसरों से कुछ छीनने तथा अपना कुछ छिन जाने से दुःखी है।
सुख की कोई परिभाषा तो नहीं है। किसी को चोरी में सुख है, किसी को पाप करने में सुख मिलता है, किसी को नेकी करने में सुख मिलता है। मन ही मनुष्य के बंधन और मोख का कारण होता है। यदि मन साफ है तो मनुष्य जीवन की नौका पार कर लेगा। यदि उसे कोई रोग लगा है तो उसे किसी प्रकार का सुख अच्छा नहीं लगता। धैर्य जिसका पिता हो क्षमा जिसकी माता हो शक्ति जिसकी गृहणी हो सत्य जिसका पुत्र हो दया जिसकी बहन हो और भाई जिसका मन संयम हो ऐसा व्यक्ति वास्तव में सुखी है, संतोषी है और वही संसार में सबसे सफल, सबसे महान और सबसे अधिक सम्पन्न है। जो दूसरों का अहित करके जीना चाहता है उसे कभी सुख सुलभ नहीं हो सकता। जो यह नहीं जानता कि सबकी आत्मा एक है, हर एक का शरीर भिन्न है पर प्राण एक हैं। यह समझ लेता है वही वास्तव में सुखी और संतोषी है।

-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली