सुख पुण्य का परिणाम है और दुःख पाप का
दुःखों और सुखों का आपस में जोड़ा है, जिस तरह से नर और मादा का जोड़ा होता है ठीक उसी तरह से सुख और दुःख का भी जोड़ा है। जिस प्रकार रात के बाद दिन होता है और दिन के बाद रात आती है इसी प्रकार सुख और दुःख बदलती छाया की तरह से है। हम पाप करते है तो दुःख भोगना पड़ता है और यदि पुण्य कर्म करते है तो सुख भोगने को मिलते हैं। जब तुम्हें संसार में दुःख मिलता है तो तुम्हारे भोग सुख का नाश होता है। तब तुम्हारे पाप का क्षय होता है तुम एक भयानक कर्म ऋण से मुक्त होते हो और जब तुम्हें संसार में सुख भोग प्राप्त होता है तो तुम्हारे भौतिक दुःख का अभाव होता है तब तुम्हारे पुण्य का क्षय होता है। तुम्हारे सत्कर्म की पूंजी समाप्त होती है।
इससे यह सिद्ध होता है कि भोग सुख की प्राप्ति में हानि है और सांसारिक दुःख की प्राप्ति में लाभ है। इसलिए जब भोग सुख मिले तब तो उसे इस प्रकार अनिच्छा से भोगों कि भोगे बिना छुटकारा नहीं इसलिए बाध्य होकर भोगना पड़ेगा। वस्तुत: है तो हानि की चीज और सांसारिक दुःख मिले तब उसे चाव से, उत्साह से भोगों, यह समझ कर की इसमें बड़ा लाभ है।
प्रारब्ध तुम्हारे रोने चिल्लाने से नहीं मिट जायेंगे जो दुःख लिखे है वह तो भोगने पड़ेगे। बड़ी भारी चाह और चिंता करने से भोग सुख नहीं जायेंगे। परन्तु यदि तुम दुःख में सुख तथा लाभ बुद्धि कर लोगे और सुख में दुःख तथा हानि बुद्धि कर लोगे तो यर्थाथ है तो तुम्हें सांसारिक दुःखों की प्राप्ति में क्लेश नहीं होगा।
गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि जितने भी ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से प्राप्त होने वाले भोग है वे सब विषय विमोह लोगों के सुख रूप दीखने पर भी वास्तव में निश्चित दुःख उत्पन्न करने वाले ही है तथा अनित्य है। इसलिए कोई भी बुद्धि रखने वाला मनुष्य इन भोग सुखों में नहीं रमता।
ये हिं संस्पर्शजा योग दुखयोनय एवं ते।
आधन्त वन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।
सच्चा बुद्धिमान् तो वह है जो इस रहस्य को समझ लेता है और सारे जगत की उत्पत्ति का कारण और जगत की सारी प्रवृत्तियों का हेतु एक मात्र श्री भगवान को मानकर भावपूर्ण हृदय से भगवान को भजता है।
भगवान को भजने वाला अवश्य भगवान को प्राप्त करता है और विषयों का चिन्तन करने वाला अनित्य एवं दुःखमय विषयों को। भगवान की प्राप्ति से सारे दु:खों का अन्त होकर परम सुख शान्ति की अनुभूति होती है। विषयों की प्राप्ति से विषयों की अपूर्णता, परिवर्तनशीलता, क्षणभंगुरता और दुःखों की आग बढ़ती है जो जन्म जन्मान्तर तक जलती रहती है।
मनुष्य का शरीर दुःखों से सर्वथा छुटकारा दिलाने के लिए भगवान ने कृपा पूर्वक शिक्षा है। इसे नये नये भयानक दुःखों की प्राप्ति कराने वाली विषयाशक्ति विषय सेवा और भगवान की विमुखता में ही बिता दिया तो इससे बड़ी मूर्खता तथा हानि और क्या होगी? ऐसा करने पर भगवत्व कृपा की अवहेलना होती है और मानव जीवन के दुर्लभ सुअवसर का दुरुपयोग होता है। जो दुःख हमें मिलते है वे गत पापों के कारण ही मिलते हैं और जो सुख का हम अनुभव करते वे हमारे पुण्यों का परिणाम है।
-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली