दुःखी-सुखी ईश्वर नहीं, हम अपने कर्मोनुसार होते है
प्राय: यह धारणा होती है या हम भगवान् को दोषारोपण करते हैं कि हम दु:खी हो गए, ईश्वर ने हम पर दुःख डाल दिया, दूसरा बुरे कर्म कर रहा है, भगवान् उसे सुख दे रहे हैं। परिवार का मुखिया भला किसी सदस्य को दु:खी देखना चाहता है क्या? यदि परिवार का कोई सदस्य नशा करता है और नशे की हालत में वह दुर्घटना से घायल हो गया तो क्या उसके परिवार के मुखिया ने किया? नहीं ना, वह अपने कर्मों के अनुसार दुर्घटना ग्रस्त हुआ है, इसमें परिवार के मुखिया का क्या दोष? परिवार का मुखिया तो नहीं चाहता कि वह नशा करे और दुर्घटनावश घायल हो। इसलिए ईश्वर किसी को दु:ख-सुख नहीं देते हैं। मनुष्य अपने कर्मोनुसार दु:खी और सुखी होता है।
जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों में अपनी माँ को पहचान लेता है और उसके पास चला जाता है, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति के किये हुए बुरे कर्मों के कारण उसे पहचान लिया जाता है और वह अपने किये कर्म की सजा भोगता है। ईश्वर ने सम्पूर्ण जगत् की रचना की है कोई राजा, कोई रईस, कोई गरीब, दीन, दुःखी कंगाल, कोई महान, कोई नीचा। ऐसी विषमता क्यों? क्या ईश्वर अन्यायी और पक्षपाती है, जो सबको एक सा नहीं बनाता? ईश्वर समदर्शी न्यायकारी है। वे सबको अपनी ओर से समान सुविधा प्रदान करते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, आकाश, अग्नि आदि उसने सबके लिए बनाए हैं। विषमता मनुष्य ने स्वयं पैदा कर ली है। वह अपने कर्म के अनुसार दुःखी और सुखी है। कोई निरोगी है तो कोई दीर्घकालीन रोगी रहता है।
एक व्यक्ति अपने दो बेटों को पाँच-पाँच रुपए देकर बाजार में भेजता है। एक व्यक्ति ने बहुमूल्य वस्तुओं पर नज़र डाली पाँच रुपए में नहीं खरीद सकता था। फलस्वरूप उसने चोरी की वह चोर बन गया। दूसरा नेक व्यवहार से व्यापारी बन गया। दोनों में जो दो गतियाँ हुई वे उनके कर्मों के अनुसार हुई। एक व्यापारी बन सब जगह सम्मान पाता है, एक चोर बनकर कारावास भोगता है। सर्वत्र अपमानित होता है, इनके पीछे उनके कर्म ही जिम्मेवार हैं।
ईश्वर के विषय में भ्रम और शंका तो भगवान् ही दूर करते हैं। जब उनकी कृपा से प्रकाश का उदय होता है, तो मिथ्या तर्क का अंधकार मिट जाता है और ज्ञान का आलोक उदय होता है। तब भ्रम और अज्ञान का तिमिर अपने आप हट जाता है। भगवान् कहते हैं -
उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं ज्ञानिन नस्तत्त्व दर्शिनः।
अर्थात् जिसने साम-दाम आदि साधनों का अनुष्ठान किया है, सद्गुरु की सेवा की है, सत्संग का दीर्घकालीन सेवन किया है, शास्त्रों का अनुशीलन और एकाग्रतापूर्वक भगवान् की आराधना की है, वही भगवत् कृपा से यर्थाथ् तत्त्व का अनुभव करके कह सकता है कौन भ्रम में है, कौन नहीं।
कुछ लोग कहते हैं पाप-पुण्य ईश्वर कराते हैं, वास्तव में आधा ही सत्य प्रतीत होता है। ईश्वर पुण्यमयी है, पुण्य कराते हैं ये तो समझ में आता है, परन्तु बुरा या पाप ईश्वर कराता है, यह समझ से परे है। सूर्य उदय होने के बाद अंधकार बढ़ जाता है। सम्भवतया कोई भी मानने को तैयार नहीं होगा। अग्नि शीतल और चन्द्रमा उष्ण है, यह कौन मानने को तैयार होगा? ईश्वर पुण्यमयी है, वे पाप क्यों कराएंगे? एक ही प्रकार की चेष्टा दो मनुष्य करते हैं। एक की चेष्टा पाप बन जाती है और दूसरे की पुण्य।
पापी और पुण्य आत्मा दोनों अपनी नेत्रों से देखते हैं। एक की दृष्टि शुभ है वह सब में सर्वत्र भगवान् का भाव देखता है और दूसरा रूप लावण्य, कटाक्ष और हाव-भाव पर गंदी नज़र रखकर पर स्त्री का सतीत्व लूटना चाहता है। भाव शुद्धि के कारण पहले का दर्शन रूप चेष्टा पुण्य है और भाव की अशुद्धि के कारण दूसरे की चेष्टा पाप है तो अपनी दृष्टि के कारण सुखी और दु:खी है। ईश्वर सत्कर्म में सहायक होते हैं। पाप कर्म तो मनुष्य अपनी आसक्ति और चेष्टा के कारण करता है। इसलिए ईश्वर किसी को दु:खी और सुखी नहीं करते हैं, मनुष्य अपने कर्मों के कारण दुःखी और सुखी होता है।
-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली