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सत्कर्मों से ही मनुष्य को मिलती है प्रशंसा और सुकीर्ति

सच्चा सुख अच्छे संस्कार वालों एवं सुकर्म करने वालों को मिलता है। दूसरों को यथा सम्भव सुख पहुँचाने से और ईश्वर समाज एवं स्वयं की आत्मिक प्रसन्नता वाले कार्य करने से ही सुख मिलता है। सत्कर्मों से ही मनुष्य को आत्मिक बल, प्रसन्नता, प्रशंसा एवं सुकीर्ति की प्राप्ति होती है। संसार का प्रत्येक प्राणि अपने जीवन में सुख की खोज करता है, किन्तु उसे कितना ही सुख प्राप्त हो जावे संतुष्टि नहीं मिलती है।
वह अपनी मृग तृष्णा में पागल बना रहता है, वह हर प्रकार से अपने को अधिक सुखी बनाने का प्रयास करता है। सुख प्राप्त करने में संसार में नाना प्रकार के मार्ग हैं। सुख किन लक्ष्यों को प्राप्त करने पर मिलेगा, ये मनुष्य की बुद्धि, मनोवृत्ति, चाहत एवं संस्कारों पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति शराब को अमृत कहता है तो कोई उसको जहर तुल्य मानता है। कोई सासारिक भोग-विलास को सुख मानता है तो कोई माया में सुख ढूंढता है।
कोई पर निन्दा, बलात्कार, भ्रष्टाचार की मनोवृत्तियों की पूर्ति करने को ही अपना परम लक्ष्य का प्रतीक मानता है। इसी को सुख की अन्तिम सीमा समझ बैठता है। किन्तु वह यह नहीं समझता कि इन बातों का परिणाम, क्षणिक आभास, मन की अशांति भय, शरीर के रोगों की उत्पत्ति, समाज में घृणित होना जैसी दीर्घ कालीन मुसीबतों में फंसकर अपने जीवन को नरक बना लेता है। वह आगामी जीवन के लिए दुखद प्रारब्धों को स्वयं ही बनाता है। यह अपघात के समान है। यह सच्चा सुख न होकर दुःखों की खेती है।
सच्चे सुख की अनुभूति तभी होती है, जब मनुष्य के मन के विकार, तृष्णा, ईर्ष्या, काम, क्रोध, मद व लोभ की भावना से रहित हो। उसे किसी भी प्रकार की महत्वकांक्षा न हो। अधितर यह देखा जाता है कि मनुष्य अपने महत्वकांक्षा की पूर्ति को सच्चा सुख समझते हए मन की शान्ति, अपने चरित्र, ईमान, धन, तन व ख्याति को दाँव पर लगाकर सुख की खोज में पागल हो जाता है। अपने जीवन को अनेक कष्टों से घेर लेता है। और अपनी स्थिति हास्यपद बना डालता है। देखा जाए तो सच्चा सुख वर्चस्वता की होड, भौतिकता की होड से दूर रहकर ईश्वर के प्रति भक्ति भाव रखने से प्राप्त होता है। मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर प्राप्ति के प्रयत्न करता रहे। माया से विरक्त हो जाने पर ही सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।
ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रभु के सत्य सार्थक रूप को समझें, संसार में उसके सर्वव्यापी दर्शन करें। संसार की रचना ईश्वर ने बड़ी ही समझ और कारीगरी से की है। ईश्वर ने हजारों प्रकार की नदियाँ, झीले, झरने व स्रोत, जड़ी-बूटियाँ तथा जीव-जन्तुओं का निर्माण किया है। ईश्वर ने हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग में पंच तत्त्वों के माध्यम से ईश्वरीय अंश से उसने हमें जीवन दिया है।
हर श्वांस पर उनका अधिकार है। श्वास-श्वांस उन्हीं का प्रसाद है। उन्होंने जो भी शक्तियाँ संसार में बनायी है उनका बिना किसी भेदभाव के अमीर, गरीब को निःशुल्क अपनी सन्तान समझते हुए दिया है। इसीलिए हम उन्हें परम परमात्मा कहते हैं। हमें चाहिए कि हम उनके प्रति श्रद्धावान हों। भक्ति भाव से उनको समर्पित करें। इससे सच्चा सुख हमें स्वतः प्राप्त हो जायेगा।
ईश्वर सर्वव्यापी हैं हर कण में समाये हुए हैं। वे हमसे दूर नहीं हैं। वे हर समय, हर स्थान पर, हर जन्म जन्मान्तर में हमारे साथ हैं। यदि यही सोच हमारे दिल एवं दिमाग में होगी तो मन में प्रफुल्लता एवं अत्यन्त सुख रहेगा।

-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली