सुख प्राप्ति का मूल मंत्र
निर्मल मन स्वस्थ तन संग मधुर व्यवहार।
प्राणि सेवा, भक्तिरत ये सदा सुख का आधार।।
सुख जग का हर प्राणि चाहता है, हर व्यक्ति सुखी जीवन जीना चाहता है, लेकिन प्रथम तो प्रश्न यह खड़ा होता है कि सुख कैसे प्राप्त हो? दूसरा प्रश्न है कि सुख मिलने पर हम सन्तुष्ट कैसे हो? सुख प्राप्त करने के जग में अनेक रास्ते हैं। सच्चा सुख अच्छे संसार वालों एवं सत्कर्म करने वालों को प्राप्त होता है। दूसरों को सुख पहुंचाने से और ईश्वर, समाज एवं स्वयं की आत्मिक प्रसन्नता वाले कार्य से सुख की प्राप्ति होती है।
सत्कार्यों से ही मनुष्य को आत्मिक बल, प्रसन्नता, प्रशंसा एवं सुकीर्ति की प्राप्ति होती है। सच्चे सुख की परिभाषा क्या की जाए परिभाषा विस्तृत है। सच्चे सुख की अनुभूति तभी हो सकती है, जब मनुष्य का मन निर्विकार यानि तृष्णा, ईर्ष्या, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह की भावना से रहित हो। किसी प्रकार की महत्वकांक्षा न हो। अधिकतर यह देखा जाता है कि मनुष्य अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु मन की शान्ति, अपने चरित्र व ईमान को दांव पर लगाकर सुख की खोज में पागल हो जाते हैं और फिर अपने को अनेक कष्टों से घिरा और अपनी ख्याति दाँव पर लगाकर स्वयं को सबकी दृष्टि में हास्यपद बना डालता है। देखा जाए तो सच्चा सुख वर्चस्वता की भावना और भौतिकता की होड़ से दूर रहने एवं ईश्वर के प्रति भक्ति भाव रखने से ही प्राप्त होता है।
सांसर के सभी विकारों से विरक्ति प्राप्त होने पर ही मनुष्य को ईश्वर भक्ति का परम आनन्द प्राप्त हो सकता है। ईश्वर भक्ति पाँच प्रकार से होती है। कोई निष्क्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है। कोई सक्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है। कोई सखा के रूप में भक्त हो सकता है। कोई माता-पिता के रूप में भक्त हो सकता है। कोई पति-पत्नी या प्रेमी के रूप में भक्त हो सकता है।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि हम निम्न प्रकार से आध्यात्मिक जगत् की प्राप्ति करके परम सुख को प्राप्त हो सकते हैं।
निर्मान मोहा, जितसंगदोषा, अध्यात्मनित्या, विनिवृत्त कामा।
द्वन्द्वैविमुक्ता सुखदुःख सज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
हम उपाधियों से चिपके हुए हैं, उनसे दूर हो उनसे मोह नहीं रखें। ईश्वर भक्ति प्राप्त न होकर जब तक हम माया में आसक्त रहेंगे तब तक परम सुख प्राप्त करने की खोज का लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं हो सकते, क्योंकि इस माया रचित संसार में हमकों सभी दुःखदायी गुण जैसे काम, क्रोध, मद, ये पाप-पुण्य का निर्णय करने की शक्ति का हरण करके ईश्वर से और उसकी भक्ति से और उससे प्राप्त आनन्द से सदैव दूर ही रहेंगे।
अच्छे कमों की कसौटी है कि आपकी आत्मा जिस कार्य को करने से प्रसन्न हो, दूसरों का हित होता है, जिससे किसी व्यक्ति, समाज, परिवार, जाति व राष्ट्र के दुःख दूर हो उनका उद्धार हो। उनके द्वारा सराहना की जावे तो समझो हमारा कार्य सत्कर्म है या पुण्य कर्म है। दूसरों के हितार्थ कार्य करना प्राणि मात्र को प्रसन्न रखना आदि। अच्छे कर्म करने से मनुष्य को मन में एक अनोखी शान्ति, प्रसन्नता और संतुष्टि प्राप्त होती है और हमें सच्चा सुख प्राप्त होता है।
-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली