संसार का आश्रय न लेकर परमात्मा का ही आश्रय लें
जो संसार हमारे देखने, सुनने एवं समझने में आता है, वह सब का सब परिवर्तनशील है। यह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता है। यदि आज हम बचपन को देखना चाहें तो नहीं देख सकते, क्योंकि यह रूप बदल गया है। इसी प्रकार वर्तमान रूप भी नहीं रहेगा। इसमें भी परिवर्तन हो जाएगा। अन्य प्राकृतिक पदार्थ भी हर क्षण बदलते हैं, यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होगा कि इनमें केवल नाश ही नाश है। नाश के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं है। अत: बुद्धिमता इसी में है कि नाशवान, परिवर्तनशील संसार का आश्रय न लेकर सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा का ही आश्रय लें। क्योंकि जो हर क्षण नाश को प्राप्त हो रहा है, उसके आश्रय से क्या लाभ हो सकता है?
आस्तिक लोग भी इस बात को दृढ़ता पूर्वक मानते है कि परमात्मा सभी देश, काल एवं वस्तुओं में परिपूर्ण है। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ वे न हों। वे जहाँ आप है वहाँ पर भी है। सभी वेद-पुराण, सन्त-महात्मा इसका पूरी तरह से समर्थन करते हैं। वे परमात्मा सभी काल एवं अवस्थाओं में ज्यों के त्यों हैं। उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। प्रतिक्षण बदलने वाला संसार हमारा नहीं है, जबकि प्रत्येक अवस्था में सम रहने वाले परमात्मा हमारे हैं। परमात्मा सभी प्राणियों के सुहृदय हैं एवं उन्होंने सभी को अपना आश्रय प्रदान कर रखा है। केवल इसे स्वीकार करने की उत्कृष्ट इच्छा होनी चाहिए। यह इच्छा पहले हमें ही करनी पड़ेगी, क्योंकि जीव ही प्रभु से विमुख हुआ है, परमात्मा हमारे से विमुख नहीं हुए हैं।
स्वयं को परमात्मा की सेवा में अर्पित कर देने से साधक कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसे कुछ भी कहना, पाना एवं जानना शेष नहीं रह जाता है। किन्तु संसार की आशा रखने से सिवा धोखे एवं विश्वासघात के ओर कुछ भी हाथ नहीं लगता। परिवर्तनशील का विश्वास नहीं किया जा सकता। केवल उसका सदुपयोग किया जा सकता है। जो एक क्षण-पल भी स्थिर नहीं टिकता उस पर विश्वास कैसे किया जाए। परमात्मा भूतकाल में थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में रहेंगे। अत: उनहीं को अपना आधार मानकर स्वयं को उनकी सेवा में लगा देना चाहिए। संसार में पद, मान, सम्मान प्राप्त करने की इच्छा करना बहुत बड़ा प्रमाद है।
मनुष्य आने-जाने वाले, नाशवान पदार्थों से अपना मूल्यांकन करता है, जो पदार्थ उसके सामने उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। उनकी प्राप्ति से वह कैसे बड़ा बन सकता है? धन, पद, अधिकार सभी नाशवान हैं। मनुष्य को इन पदार्थों को दूसरों की सेवा में सदुपयोग करना चाहिए। इन पर अधिकार नहीं करना चाहिए। धन आदि संसार से मिलते हैं, तो इन पर अधिकार भी संसार का ही होना चाहिए।
भगवान अपने भक्तों को अति महत्त्व देते हैं, फिर परमात्मा का आश्रय ग्रहण न कर संसार का भरोसा रखना कृतघ्नता है। कृतघ्नता पाप है, इससे बचना चाहिए।
कोई भजता है या नहीं, इसकी किंचितमात्र भी परवाह न कर भगवान सभी का पालन-पोषण करते हैं। जो भगवान का खण्डन करते हैं, उनको भी परमात्मा अन्न, जल, वायु समान रूप से उपलब्ध करवाते हैं। ऐसे परम दयालु हुदय परमात्मा का आश्रय ग्रहण कर जीवन को सफल बना लेना चाहिए। जो भगवान के लिए दु:खी होते हैं, उनके दुःख को भगवान सहन नहीं कर सकते। वे शीघ्र ही भगवान को प्राप्त कर लेते हैं। यही जीवन का चरम लक्ष्य है।
-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली