इच्छा ही बंधन इच्छा त्याग ही मुक्ति
इच्छा मात्र ही संसार है और अनिच्छा ही निर्वाण है, इसलिए नाना प्रकार के उलट फेर में न पड़कर केवल ऐसा यत्न करना चाहिए कि इच्छा उत्पन्न ही न हो। शास्त्र के ज्ञाताओं का कहना है कि मन का इच्छा रहित हो जाना ही समाधि है, क्योंकि मन को जैसी शक्ति इच्छा त्याग से मिलती है, वैसी उपदेशों से भी नहीं मिल सकती है। इच्छा की उत्पत्ति से जैसा दुःख मिलता है वैसा दुःख तो नरक में भी नहीं मिलता है । इच्छा की शक्ति से जैसा सुख मिलता है, वैसा तो सुख ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलता है इच्छा को ही दुःखदायी चित कहते हैं। और इच्छा की शान्ति ही मोक्ष है। प्राणी में जितनी जितनी इच्छा उत्पन्न होती है उतने ही दुःखों का बीजारोपण होता जाता है।
यदि एक साथ सारी इच्छाओं का त्याग नहीं किया जा सके तो धीरे-धीरे उनका त्याग करना चाहिए। जो इच्छाओं का दमन नहीं करता वह मानो अपने आपको अंधकूप में फेंक रहा है इच्छा ही दुःखों को जन्म देने वाली इस संसृति रूपी बेल का बीज है, यदि उसे ज्ञान रूपी अग्नि से जला दिया जाए तो वह पुनः अंकुरित नहीं होता है। ज्यों-ज्यों पुरुष की आन्तरिक इच्छा शान्त होती जाती है, त्यों-त्यों उसका मोक्ष के लिए कल्याण कारक साधन बढ़ता जाता है। विवेकहीन आत्मा की इच्छा को भली भांति पूर्ण करना है, वही मानो संसार रूपी विष वृक्ष को सींचना है। इच्छा ही हमारे जीवन का बंधन है और उसके त्याग से हमें मुक्ति मिल जाती है। वह मनुष्य शान्ति प्राप्त कर सकता है, जिसने सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया, जो धन-दौलत कुछ नहीं चाहता, मेरा मुझको के बंधन से मुक्त है, जो अहंकार रहित है। इतने गुणों से युक्त मनुष्य ही संसार में रहकर भी शान्ति प्राप्त कर सकता है और जब शान्ति नहीं तो सुख भी नहीं है। भगवान ने कहा है “अशान्तस्य कुतः सुखम" जिसके मन में शान्ति नहीं उसके लिए सुख कहाँ है।
जिसने साधना के द्वारा अपने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली जो समस्त प्राणियों और वस्तुओं के प्रति समदृष्टि रखता है, उसे शान्त कहते हैं। मनुष्यों को अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यापार उद्योग अवश्य लगाने चाहिए, लेकिन बहुत अधिक इच्छा नहीं बढ़ानी चाहिए। प्रत्येक कार्य में ईमानदारी बरतनी चाहिए। परिश्रम और ईमानदारी के द्वारा जो धन प्राप्त होता है, उसी में प्रसन्नचित रहना चाहिए। ऐसा मनुष्य ही इस संसार में सबसे अधिक सुखी रहता है। संतोष रूपी अमृत से तृप्त और शान्त चित्त वाले मनुष्यों को जिस सुख की प्राप्ति होती है, इधर-उधर दौड़ने और भटकने वाले धन के लोभियों को वह सुख-शांति प्राप्त नहीं होती है।
जैसे अपनी जन्म भूमि जंगल में हरिणी की मृत्यु निश्चित है वैसे ही नानाविध दुःखों का विस्तार करने वाले इच्छा रूपी विष के विकार से युक्त इस जगत में मनुष्य की मृत्यु निश्चित है। सब तरह से मनुष्य को इच्छा को शान्त करनी चाहिए, क्योंकि उसकी शान्ति से परम पद की प्राप्ति होती है । इच्छा रति हो जाना ही निर्वाण है और इच्छा युक्त रहना ही बंधन है। इसलिए यथा सम्भव इच्छा को जीतना चाहिए। विवेक द्वारा जैसे-जैसे मनुष्य की इच्छा क्षीण होती जाती है, वैसे-वैसे ही उसके दुःखों की चिंता रूपी विषूचिका शान्त होती जाती है।
सांसारिक विषयों की इच्छा आसक्ति वश ज्यों-ज्यों धनीभूत होती जाती है, त्यों-त्यों दुःखों की चिन्ता रूपी विषैली तरंगे बढ़ती जाती है, यदि अपने पौरूष प्रयत्न के बल से इस इच्छा रूपी व्याधि की चिकित्सा न की जा सकी तो इस व्याधि से छूटने की और दूसरी औषधि नहीं है। अतः इच्छाओं को सीमित रखकर ही सुखी जीवन की कल्पना की जा सकती है, अन्यथा नहीं ।
-- रोहिताश्व जांगिड (से.नि. वरि. अध्यापक), कोटपूतली