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मनुष्य अपना 'मित्र' है और 'शत्रु' भी

गीता अध्याय 6, श्लोक 5 में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यथा -
"आत्मैव हात्मनो बन्धुरात्मैव रिपु रात्मनः" अर्थात् मनुष्य आप ही तोअपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु।
इसके आगे के श्लोक 6-6 में मित्र भाव को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बतलाया कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, वह स्वयं ही शत्रु के समान बरतता है। यथा-
"बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ततात्मेव शत्रुवत्।। 6-6।।
इस प्रकार आत्म संयम ही मनुष्य जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होने का मार्ग है। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में शरीर, मन और इन्द्रियों को जीतने के फल का निरूपण करते हुए योगीराज श्री कृष्ण चन्द्र ने अर्जुन को बतलाया कि सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलि भांति शान्त हैं, ऐसे स्वाधीन आत्म वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन् परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है, अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय कुछ है ही नहीं।
और जिसका अन्त:करण, ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलि-भाँति जीती हुई है और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, वह योगी 'युक्त' अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है। इसलिए उचित है कि मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला आशा रहित और संग्रह रहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगावे। शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हो, ऐसा आसन न बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा। ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके और उस आसन पर बैठकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को पूर्ण रूप से वश में रखते हुए मन को एकाग्न करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का नियमित अभ्यास करे।
गीता के इसी अध्याय में ध्यान योग के लिए आसन-स्थापना की विधि का समुचित वर्णन किया गया है, यथा काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ - ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित भय रहित तथा भलि-भाँति शान्त अन्त:करण वाला सावधान योगी मन को रोककर परमात्मा में चित्त और उसके परायण होकर स्थित होवे।
वश में किए हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ परमेश्वर में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्टा रूप शान्ति को प्राप्त होता है। ध्यान योग के लिए उपयुक्त आहार विहार और फल का भी प्रतिपादन किया गया है। भगवान् श्री कृष्ण इस सम्बंध में अर्जुन से कहते हैं "हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का और न बिल्कुल न खाने वाले का और न अधिक शयन करने वाले स्वभाव वाले मनुष्य का और न सदा जागने वाले का सिद्ध होता है।"
यह दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले का कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले का और यथा-योग्य सोने तथा जागने वाले को ही सिद्ध होता है।
ध्यान योग की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षणों का निरूपण करते हुए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं, कि इस योग के अभ्यास से अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलि-भाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहा रहित पुरुष योग युक्त है कहा जाता है।
ध्यान किस प्रकार का तीक्ष्ण होना चाहिए। इस विषय में श्री कृष्ण कहते हैं -
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलयमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।
ध्यान योग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण बतलाते हुए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! योग के अभ्यास से निरूद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान में शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है तथा इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो 'परम आनन्द' है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से कभी विचलित होता ही नहीं है तथा परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्रामि रूप जिस अवस्था में योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता, यथा -
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत्:।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापिविचाल्यते।। 6.22॥"
लेकिन ध्यान की इस स्थिति की प्राप्ति करने हेतु बड़ी सावधानी की आवश्कता है। अतः इस विषय में दिशा-निर्देश का भी समुचित निरूपण किया गया है, यथा -
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धया धृतिग्रहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चित दपिचिन्तयेत्।। 6-25 ।।
अर्थात् क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरमति को प्राप्त हो तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवाय कुछ भी चिन्तन न करे। इस प्रकार मन को परमात्मा की ओर लगाने की प्रेरणा देते हुए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से उसे हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करें।
ध्यान योग से ही उत्तम और अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है, क्योंकि जिसका मन भलि भाँति शान्त है, जो पाप रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है। यह तभी सम्भव है जबकि साधक जीवात्मा को मन को मित्र बनावें।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)