Jangid Brahmin Samaj.Com



संत-महिमा

संत-महिमा अनन्त है, वर्णनातीत है। भारतीय साहित्य के महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 में मनुष्य दो प्रकार के बतलाये गये हैं -
1. दैवी प्रकृति वाले और आसुरी प्रकृति वाले। दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और असुरी सम्पदा बांधने के लिए मानी गयी है। यथा-
"दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।। 16.05।।"
इसी प्रकार तुलसीकृत 'रामचरित मानस' में गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में असंत (दृष्ट मनुष्यों) की महिमा का वर्णन किया और उनके पश्चात् संत-महात्माओं की महिमा का उल्लेख किया है। उत्तरकाण्ड में ज्ञानी संत गरूड़जी मुनिराज काक भुशुण्ड जी को संत-महिमा गुणों का वर्णन करते हैं -
"सुनु मुनि संतन्ह के गुण कहऊँ।
जिन्ह ते मैं उन्ह के बस रहऊँ।।
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्मगति परम प्रबीना।। 45.5॥"
संत सदा सावधान एवं सजग रहते हैं। वे मद एवं अहंकार रहित होते हैं तथा सदा धीर-गम्भीर एवं धर्मगति मय रहते हैं। संत परम ज्ञानी एवं कुशल पुरुष होते हैं।
"वट विकार जित अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा।।
अमित बोध अनीह मित भोगी।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी।।44.4।।"
अर्थात् संत पुरुष मन में अपने विचारों को जीतकर उन्हें सदा शुद्ध एवं स्वच्छ रखते हैं। वे पाप रहित एवं कामना रहित होते हैं। संत-महात्मा स्थिर संकल्पों वाले, स्वयं को अकिंचन (सामान्य) मनुष्य मानने वाले, पवित्र एवं सुख-शान्ति के परम धाम होते हैं। वे महान् ज्ञानी, ईर्ष्या, द्वेष रहित, मित भोगी, सत्यवादी एवं प्रवीण कवि होते हैं।
"निज गुन श्रवण सुनत सकुचाहीं।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं मीती।
सरल सुभाउ सहि सन प्रीती।। 45.1।।"
अर्थात् साधु-संत पुरुष अपने गुणों को सुनने में सकुचाते हैं तथा दूसरों के गुणों को सुनकर प्रसन्न होते हैं। वे सदा विनम्र एवं शान्त रहते हैं तथा अपनी नीति का कभी त्याग नहीं करते हैं। वे अति सरल स्वभाव वाले एवं सबके प्रति स्नेह रखने वाले होते हैं।
"जप तप ब्रत दम संजम नेमा।
गुरु गोबिन्द बिन पर प्रेमा।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया।। 45.2।।
अर्थात् संत पुरुष जप, तप एवं व्रत में लीन रहते हैं। वे सदा संयम-नियम का पालन करते हैं। उनमें गुरुजनों एवं परमेश्वर के प्रति श्रद्धाभाव, क्षमाशीलता तथा मैत्रीभाव होता है। वे सदा प्रसन्नचित्त तथा मोह-माया रहित रहते हैं।
"बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।
बोध जथारथ बेद पुराना।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ।। 45.3।।"
अर्थात् संत वैराग्य पूर्ण, ज्ञान, विनयशील तथा विज्ञानी पुरुष होते हैं। वे दंभ, अभिमान नहीं करते हैं तथा मान-सम्मान एवं अहंकार रहित होते हैं। संत पुरुष भूलकर भी कुमार्ग पर अपने पैर नहीं रखते हैं।
"गावहिं सुनहिं सदा मम लीला।
हेतु रहित परहित रत सीला।।
पुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।। 45.4।।"
अर्थात् संत लोग सदा परमपिता परमेश्वर की लीला का गुणगान करने में तल्लीन रहते हैं। वे सदा हेतु रहित (निष्काम कर्मयोगी) के रूप में रहते हैं तथा दूसरों के हित में रत रहते हैं। वे शील-शान्त स्वभाव वाले होते हैं। अन्त में गरूड़जी कहते हैं कि संतों के गुणों का वर्णन विद्या माँ शारदा एवं श्रुति भी नहीं कर सकते हैं। अर्थात् संत गुण अनन्त हैं।
संत तुकाराम जी ने संत महिमा का वर्णन निम्नांकित छोटे से पद्य में अति सारगर्भित किया है। वस्तुतः उन्होंने गागर में सागर भर दिया है, यथा-
"काय या संतांचे मानूं उपकार। मज निरन्तर जागविती।।1।।
सहज बोलणे हित उपदेश। करूनी सायास शिकविती।।2।।
काय देवा यांसि व्हावें उतराई। ठेविता हा पायी जीव थोड़ा।।3।।
तुका म्हणे वत्स धेनुचिया चितीं। तैसे मज येथे संभालित।।4।।"
संत तुकाराम जी कहते हैं कि इन संतों के उपकार का वर्णन मैं कैसे करूं? वे मुझे सदा जगाते रहते हैं।।1।। इनके सहज बोलने में हित और उपदेश रहता है और वे स्वयं परिश्रम करके दूसरों को सिखाते हैं।।2।। क्या दूं? इनके चरणों पर मेरा 'जीव' अर्पण करना भी बहुत कम होगा।।3।। श्री तुकाराम जी महाराज कहते हैं, जिस प्रकार धेनु (गाय) के चित्त में वत्स (बछड़ा) रहता है, उसी प्रकार वे यहीं मेरी संभाल करते हैं।
निष्कर्ष : उपरोक्त वर्णनानुसार संत-महिमा अपार एवं अगाध है। अत: संतों की महिमा शब्दों के वर्णन से परे है।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)