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शिक्षा के उद्देश्य

विश्व में प्राय: दो प्रकार की शिक्षा प्रचलितरही है -इंग्लैण्ड, अमेरिका, जर्मनी आदि पाश्चात्य देशों में भौतिकवादी शिक्षा एवं भारत और चीन आदि पूर्वी देशोंमें आध्यात्मिक एवं धार्मिक शिक्षा का बोलबाला रहा है। यूरोपीयदेश एवं अमेरिका उद्योग प्रधान तथा भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। अत: दोनों क्षेत्रों में शिक्षा के उद्देश्य भिन्न-भिन्न रहे हैं।
भारत में शिक्षा के उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-
1. सर्वोच्च उद्देश्य - मोक्ष प्राप्ति,
2. गौण उद्देश्य - शारीरिक, बौद्धि, आर्थिक, वैदिक एवं सनातन धर्म प्रधान संस्कृति रही है।
मोक्ष प्राप्ति : शिक्षा में वैदिक संस्कृति का मूल मंत्र है- 'सा विधाया या विमुक्तये' अर्थात् शिक्षा वह है जो मनुष्य को जीवन-मरण से छुटकारा देकर उसे मोक्ष प्रदान करे।
आध्यात्मिक शिक्षा की प्रमुख मान्यता यह है कि शरीर नाशवान एवं क्षण भंगुर है और आत्मा अमर है। उसका कभी नाश एवं अन्त नहीं होता। वह एक शरीर छोड़कर तत्काल दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। ऐसी मान्यता है कि सभी प्राणियों की चौरासी लाख योनियाँ पशुपक्षी, कीट-पतंगे एवं मनुष्य योनि आदि। प्राणी मात्र में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसका जीवन बुद्धि से संचालित होता है तथा अन्य सभी प्राणियों का जीवन मूल प्रवृत्तियों द्वारा संचालित होता है। केवल मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठ माना गया है। जीवात्मा चौरासी लाख योनियों के भीतर भटकती हुई अपने श्रेष्ठ कमों (पुण्य कर्मों) से मानव शरीर प्राप्त करती है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार केवल मनुष्य योनि में ही नवीन कर्म करने का अधिकार प्राप्त है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों को नवीन कर्म करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। मोक्ष प्राप्ति का अधिकार एक मात्र मनुष्य को ही है। वस्तुत: मनुष्य शरीर की प्राप्ति अति दुर्लभ कही गई है। मनुष्य ही सच्चिदानन्दघन परमेश्वर की अनन्य भक्ति द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति कर परमेश्वर के परम धाम में निवास करता है, जैसा कि गीता अध्याय15, श्लोक 6 में उल्लिखित है -
'न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं ममः।।'
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस परमात्मा को प्राप्त कर मनुष्य संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वहीं मेरा परम धाम है।
गौण उद्देश्य:-
1. शारीरिक विकास : स्वास्थ्य ही संसार में सारे सुखों का मूल है। स्वस्थ जीवन है तो जीवन में सुख-शांति की प्राप्ति है, अन्यथा जीवन में दुःख ही दुःख हैं। अत: शारीरिक विकास के उद्देश्य को गौण उद्देश्यों में अति श्रेष्ठ माना गया है। उचित पौष्टिक खान-पान एवं व्यायाम ही स्वास्थ्य के प्रमुख आधार है। अत: पाठ्यक्रम में शारीरिक विकास की विषय सामग्री भी सम्मिलित है।
2. बौद्धि एवं मानसिक विकास : वेद-शास्त्रों में कहा गया है-'तमसो मा ज्योतिर्गमयः।।' अर्थात् हे प्रभु! मुझे अज्ञान रूपी अंधेरे से निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चलें। इस प्रकार शिक्षा का बौद्धि विकास का उद्देश्य भी अति महत्त्वपूर्ण है। पाठ्यक्रम के विषयों का समावेश मनुष्य को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान प्राप्ति के लिए ही किया जाता है।
3. सामाजिक उद्देश्य : मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना वह अकेला नहीं रह सकता। अकेला केवल 'देवदूत' ही रह सकता है। प्रेम, सहयोग, सहानूभूमि, सेवा एवं त्याग आदि गुणों के विकास के लिए पाठ्यक्रम में समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि विषयों का समावेश होता है।
4. आर्थिक विकास : सार्थक शिक्षा वही है जो मनुष्य को जीविकोपार्जन हेतु अर्थात् जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान आदि की पूर्ति हेतु उसे आत्मनिर्भर बनाए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आर्थिक विकास के उद्देश्य को पाश्चात्य शिक्षा में प्रमुखतम् स्थान दिया गया है। आज का युग वैज्ञानिक युग है। अत: विभिन्न यंत्रों (मशीनों) आदि के कौशल प्राप्ति हेतु आर्थिक उद्देश्य हेतु सर्वप्रमुख उद्देश्य माना गया है।
5. नैतिक शिक्षा (सदाचार एवं चरित्र निर्माण) की शिक्षा : भारतीय शिक्षा में इतिहास के प्रारम्भ में नैतिक विकास का उद्देश्य शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होता था। विद्यां ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। विद्या मनुष्य को विनयशील एवं नम्र बनाती है। कालान्तर में नैतिक शिक्षा के उद्देश्य का महत्त्व घटता गया और आज भारतीय शिक्षा पद्धति में नैतिक शिक्षा को वैकल्पिक शिक्षा माना जाने लगा है। आज के युग में समाज को चलता पूर्जा (चालाक) मनुष्य ही चाहिए। नैतिक गुणों वाले सदाचारी मनुष्य प्रगति की दौड़ में पीछे रह जाते हैं।
शिक्षा के उपरोक्त उद्देश्यों के अतिरिक्त अतिरिक्त समय के उपयोग (अतिरिक्त समय का सदुपयोग) को भी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना गया है। इस विषय में किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है - ठाले बैठे शैतानी सूझे (Idle-mind is devil's workshop) अतः कताई-बुनाई, बदईगिरी आदि विषय भी पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
शिक्षा के उपरोक्त सभी उद्देश्यों का सारांश यह है कि सर्वोत्तम शिक्षा वही है जो मनुष्य को पशुत्व से ऊपर उठाये। महर्षि भर्तृहरि ने शिक्षा (विद्या) के महत्त्व की व्याख्या करते हुए ठीक ही कहा है- विद्या विहीन: पशुः।
इस प्रकार उत्तम एवं सार्थक शिक्षा वहीं है, जो मनुष्य को एक आदर्श एवं परोपकारी मनुष्य बनाए। स्व-केन्द्रित एवं स्वार्थी व्यक्ति कदापि नहीं।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)