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सुखी कौन? (राजा या रंक)

इस संसार में सुखी कौन है? यह प्रश्न बड़ा भ्रामक है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ज्ञानी पुरुष सुखी है तथा अज्ञानी दुःखी है। इस सम्बन्ध में संस्कृत में प्रार्थना है:
तमसो मा ज्योतिर्गमयः। असतो मा सद्गमय।।
अर्थात् हे प्रभो! हमें अज्ञान रूपी अंधेरे से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर एवं असत्य से सत्य की ओर ले चल। इसके विपरीत कुछ लोगों का मत है:
"Ignorance is bliss and knowledge is curse."
अर्थात् अज्ञान परम आनन्द है और ज्ञान अभिशाप है। इस पक्ष के समर्थन में कवि पृथ्वीराज कहते हैं:
"खर, गोगू, मूर्ख पशु सदा मस्त पृथ्वीराज।"
अर्थात् खर (गधा), गोगू (उल्लू), मूर्ख एवं पशु सदा मस्त रहते हैं। इन्हें कभी भी कोई चिन्ता नहीं रहती है, क्योंकि इन्हें कोई ज्ञान नहीं है।
कर्म योगी मनीषी कहते हैं कि कर्म ही सुख है और अकर्म (निष्कर्मण्यता) दुःख है। कुछ लोग ललित कलाओं (साहित्य, संगीत, कला) में सुख का अनुभव करते हैं। कुछ लोग खाने-पीने की वस्तुओं में सुख देखते हैं। कुछ लोग भ्रमण एवं पर्यटन में सुख अनुभव करते हैं तो कुछ मनोरंजन एवं विश्राम में सुख की अनुभूति करते हैं। कुछ भोग-विलास में सुख देखते हैं तो कुछ विद्वान संतोषी पुरुष को सुखी मानते हैं, यथा :
"संतोषी सदा सुखी।
जो आवे संतोष-धन सब धन धरि समान।।"
कोउ काह में मगन, कोउ काह में मगन।
जिसको लागी है लगन वो वाहु में मगन।।
अर्थात् लगन (निरन्तर अटूट रूचि) एवं संतोष ही सुखी जीवन के मूल आधार हैं।
सुखी जीवन के बारे में एक बड़ा ही रोचक वृतान्त है जो निम्न प्रकार है:
एक राजा था। उसे शिकार करने का बड़ा शौक था। वह कुछ दिनों शिकार पर नहीं जा सका। उस काल में उसे शरीर में विचित्र सुस्ती लगी और उसे ऐसे लगा कि उसे कोई बीमारी लग गई है। अत: उसने अपने राज वैद्य को बुलाया। राज वैद्य ने राजा के शरीर की सब प्रकार से जाँच की, लेकिन उसे किसी बीमारी का पता नहीं चला। उसने राजा से कहा, “महाराज! आपको कोई बीमारी नहीं है।" राजा ने उसे कारागृह में भेज दिया। उसने राज्य के प्रसिद्ध वैद्यों एवं डॉक्टरों को बुलावा भेजा। एक, एक करके सभी ने राजा के शरीर की जाँच की, लेकिन उनको भी कोई बीमारी नज़र नहीं आई। राजा ने उन सबको भी कारागृह में बन्द कर दिया। वैद्य और डॉक्टर भय के मारे राज्य छोड़कर भागने लगे। अन्त में भागते हुए वैद्यों एवं डॉक्टरों में से सिपाही दो डॉक्टरों को पकड़ कर राजा के पास लाये। उनमें एक डॉक्टर बड़ा हट्टा-कट्टा था और दूसरा दुबला-पतला। पहले हट्टे-कट्टे डॉक्टर की बारी आई। वह खाने-पीने में ही मस्त रहता था तथा उसे चिकित्सा के बारे में भी अधिक ज्ञान नहीं था। उसने राजा के शरीर की खूब जाँच की, लेकिन उसे कोई बीमारी नज़र नहीं आई। अतः उसने भी राजा से कहा, “महाराज! आपको कोई बीमारी नहीं है।" उसे भी कारागृह में भेज दिया गया। अब उस दुबले-पतले डॉक्टर की बारी आई। वह डॉक्टर बड़ा चतुर एवं बुद्धिमान था। उसने राजा के शरीर की लम्बे समय तक जाँच की और अन्त में राजा से कहा, "महाराज! आपको बड़ी विचित्र बीमारी है, लेकिन उसका उपचार बड़ा कठिन है।" राजा ने उस डॉक्टर से कहा, "मेरे लिए कोई कठिन या असम्भव बात नहीं है। तुम जो भी बताओगे, मैं तुरन्त उसकी व्यवस्था कर दूंगा।" तब डॉक्टर ने राजा से कहा, "यदि आप पूर्ण रूप से सुखी आदमी का कुर्ता रातभर पहनकर सो जाएँ तो प्रात:काल होते ही आप पूर्ण स्वस्थ हो जाऐंगें।"
राजा ने राज्य की चारों दिशाओं में अपने घुड़सवार सिपाहियों को सुखी व्यक्ति का कुर्ता लाने को भेज दिया। राजा का आदेश पाते ही अनेक घुड़सवार सिपाही बड़ी तेजी के साथ दौडे़। वे पहले साधन-सम्पन्न धनिक सेठों के पास गये, लेकिन धनवानों की कोठियों में भी उन्हें कोई पूर्ण रूपेण सुखी नहीं मिला। सभी धनी सेठ किसी न किसी चिन्ता से ग्रस्त थे। उन सिपाहियों ने दूर-दूर तक राज्य को छान मारा, लेकिन उन्हें कोई सुखी आदमी नहीं मिला। वे निराश होकर लौट ही रहे थे कि उन्होंने एक खेत में एक किसान को नाचते-गाते व जोर-जोर से किलकारियाँ करते हुए बैलों के सहारे हल चलाते देखा। वे उस किसान के पास गये और उससे पूछा “क्यों भाई। तुम सुखी हो?" उसने खिलखिलाते हुए उत्तर दिया, “मुझे किस बात का दुःख है ? मैं तो सभी प्रकार सुखी हूँ।" यह सुनकर राजा के सिपाही बड़े आनन्दित हुए, क्योंकि उनको अन्त में सुखी आदमी मिल ही गया। सिपाहियों ने उस किसान से कहा, “अरे भाई! हमें तुम्हारा कुर्ता चाहिए राजा ने मंगाया है। शीघ्र इनाम के साथ उसे वापस लौटा देंगे।" इस पर वह ठहाके के साथ हँसकर बोला, “मेरे पास कोई कुर्ता नहीं है। मैं तो यूं ही नंगे बदन ही रहता हूँ।" अन्त में सिपाही राजा के पास आये और कहा, “महाराज! सुखी आदमी तो मिल गया, लेकिन उसके पास कोई कुर्ता नहीं है।" राजा को सिपाहियों की बात पर विश्वास नहीं हुआ और उसने अपने सिपाहियों से कहा, "ऐसे कैसे हो सकता है कि सुखी आदमी के पास कुर्ता नहीं है।" अतः राजा ने सिपाहियों से कहा, "मुझे वह आदमी दिखलाओ।" राजा ने अपना घोड़ा तैयार करवाया और उस पर सवार होकर सिपाहियों के जत्थे के साथ चल दिया। जब राजा उस किसान के खेत में पहुँचा तो देखा कि एक हट्टा-कट्टा किसान नंगे बदन, नाचता-गाता बैलों के साथ बड़े मजे से हल चला रहा है। उसके पास जाकर राजा ने उससे पूछा “क्या तुम पूर्ण सुखी हो?" किसान ने राजा को भी वही उत्तर दिया, “अन्नदाता! मैं पूर्ण रूप से सुखी हैं। मुझे किसी प्रकार दुःख नहीं है।" तब राजा ने उससे अपना कुर्ता देने को कहा। किसान ने उत्तर में कहा, "महाराज! मैं तो गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कोई कुर्ता नहीं है।"
इस प्रकार राजा को भी निराश होकर लौटना पड़ा। उसने डॉक्टर को बुलाया और कहा, "हमें सुखी आदमी तो मिल गया, लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि उसके पास कुर्ता नहीं है।" डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए राजा से कहा, “वास्तव में आपके कोई रोग नहीं था। शिकार में नहीं जाने के कारण, आपके शरीर में शिथिलता आ गई और आपको भ्रम हो गया कि आप बीमार हो गये हैं। आप घोड़े पर सवार होकर खुली हवा में इतनी दूर जाकर आये हैं। आप स्वस्थ नजर आ रहे हैं। अब आप कैसा अनुभव कर रहे हैं? राजा भी अब अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगा और डॉक्टर से कहा, "तुम ठीक कह रहे हो, अब मुझे कोई बीमारी का भान नहीं रहा।" इस प्रकार राजा उस चतुर डॉक्टर से बड़ा प्रसन्न हुआ और उसे हीरे जवाहरात, स्वर्ण-मुद्राएँ देकर विदा किया तथा उसके अनुग्रह पर सभी बन्दी वैद्यों एवं डॉक्टरों को भी मुक्त कर दिया।
उपरोक्त वृतान्त से स्पष्ट है कि भ्रम ही दुःख का मूल है। भ्रम का कोई उपचार नहीं है। श्रम एवं संतोष में ही सुख है। संत कबीर ने भी गरीबी और सबूरी (संतोष) को सुखी जीवन का साधन बताया है। यथा :
"मन लागो यार फकीरी में, जो सुख पावों राम भजन में।
सो सुख नांहि अमीरी में। भला बुरा सब को सुनि लीजै,
करि गुजरान गरीबी में। कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिले सबरी में।।
अत: पाठकगण स्वयं निर्णय करें कि सुखी कौन है?

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)