कथनी और करनी
अनेकों राजनेता एवं धर्मोपदेशक दूसरों को बड़ा ही सारगर्भित उपदेश देने में प्रवीण होते हैं, लेकिन प्राय: यह देखा गया है कि अपने उपदेशों को महत्वपूर्ण बातों को वे अपने आचरण में नहीं ढाल पाते हैं।
वस्तुतः कथनी और करनी में बहुत बड़ी खाई है, जिसे पाटना अत्यधिक कठिन होता है। इस सम्बन्ध में सन्त श्री चरणदास ने कथनी और करनी के अन्तर सम्बन्धी बड़ा ही मार्मिक विवेचन किया है, जो निम्नानुसार है:
"करनी बिन कथनी इसी, ज्यों शशि बिन रजनी।
बिन साहस ज्यों सूरमा, भूषण बिन सजनी।।"
अर्थात् क्रिया के बिना कथन उसी प्रकार है, जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना अन्धेरी रात्रि होती है। हिम्मत के बिना वीर होता है अथवा आभूषणों के बिना नारी होती है।
वस्तुतः बिना करनी के केवल दूसरों को उपदेश देना अथवा अपनी कथनी के अनुसार अपने स्वयं के आचरण-निर्माण के अभाव में, केवल बड़ी-बड़ी बातें प्रसारित करना निरर्थक है। ऐसे लोग कहते-कहते ही मर जाते हैं, वे कभी-भी अपने जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं, जैसा कि सन्त कवि चरणदास ने अपने उपरोक्त पद्म रचना में वर्णन किया है:
"बहु डिम्भी करनी बिना, कथि-कथि करि भुए।
सन्तों कथि करनी करी, हर के सम हुए।। अर्थात् अति अभिमानी लोग जीवन में कुछ महत्वपूर्ण कार्य किये बिना ही इस संसार से चल दिये, किन्तु इनके विपरीत संतजन अपने कथन के अनुरूप आचरण कर के हरि' अर्थात् 'परमेश्वर' के समान पावन हो गये।
'रामचरित मानस' के रचयिता भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास' ने इस विषय में कितना स्पष्ट एवं सटीक कहा है:
"पर उपदेश कुशल बह तेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।"
लंका काण्ड-77.1 अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में अनेकों प्रवीण विद्वान् व्यक्ति मिल जाऐंगें, लेकिन बड़े खेद की बात है कि ऐसे मनुष्य कम होंगें जो अपनी कथनी के अनुसार आचरण का निर्माण करते हैं।
इस कड़ी में सन्त-शिरोमणि कबीर जी ने अपने निम्नांकित दोहे में भजनोपदेशकों के करनी रहित जीवन का वर्णन करते हुए लिखा
"गाया है बूझा नहीं, गया न मन का मोह। पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह।।"
कबीर कहते हैं कि 'तूने' केवल गाया ही है, परन्तु उसे जान नहीं लिया है। इसीलिए तेरे मन का मोह नहीं गया। तू 'पारस' (परमेश्वर) तक नहीं पहुँच पाया और इसी कारण तू लोहा मात्र ही बनकर रह गया है, अर्थात् पारस की रगड़ के अभाव में तू स्वर्ण' नहीं बन पाया।
इसी संदर्भ में 'जैन मुनि श्री चन्द्रप्रभ' अपने सम्बोधि-सूत्र में यह दर्शाते हैं कि बिना समझ के केवल सिद्धान्तों का अन्धानुगमन करने वाले लोगों की क्या दशा होती है ? उसका विवेचन करते हुए कहते
"समझ मिली तो मिल गई, भव सागर की नाव।
बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव।।"
उपरोक्त पद्यांश में स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मनुष्य को यह समझ मिलने पर कि वह कौन है? तथा वह इस संसार में क्यों आया है? और उसे जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए क्या करना चाहिए? जब उसे अपने जीवन के चरम लक्ष्य 'मोक्ष' की समझ मिल जाती है, केवल तभी वह संसार रूपी भवसागर को पार कर, जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो सकता है, अन्यथा 'चौरासी लक्ष योनियों में भटकाव चलता ही रहेगा।
कथनी और करनी के सम्बन्ध में एक बड़ा ही रोचक वृतान्त 'महाभारत' में मिलता है। पाण्डवों और कौरवों के आचार्य द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की एक परीक्षा ली। उस परीक्षा में पाण्डु पुत्र युधिष्ठर को छोड़, अन्य सभी छात्र उत्तीर्ण हो गये। यह देखकर द्रोणाचार्य को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनका सबसे बुद्धिमान शिष्य युधिष्ठर असफल कैसे हो गया? उन्होंने युधिष्ठर को अपने पास बुलाया और पूछा, 'बेटे! क्या कारण है कि सदा सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाला तू परीक्षा में असफल कैसे हो गया?' युधिष्ठर ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया, 'आचार्य प्रवर, मैं पुस्तक के पहले ही पाठ 'सदा सत्य बोलो' में ही अटक गया और आगे के पाठ पढ़ ही नहीं सका, क्योंकि उस समय तक मैं पूर्ण रूप से सत्य नहीं बोलता था। अत: जब तक मैं पूर्ण रूप से सत्य बोलने की आदत नहीं बना लेता हूँ, तब तक आगे कैसे बढ़े। युधिष्ठर रात भर जोर-जोर से पढ़ता रहा, 'सदा सत्य बोलो-सदा सत्य बोलो....' और लोग यह सुनकर बड़े अवाक रह गये।
इस वृतान्त का तात्पर्य यही है कि जब मनुष्य की कथनी और करनी में सामञ्जस्य नहीं होगा, तब तक केवल सैद्धान्तिक ज्ञान निरर्थक एवं सारहीन होगा। ऐसी स्थिति में मानव जीवन्त चन्द्रमा रहित, रात्रि का अंधेरा ही रहेगा। युधिष्ठर ने इस मर्म को समझ लिया था, जिस बल पर ही वह 'सत्यवादी' कहलाए। शिवाजी भोंसले के गुरु 'समर्थगुरु रामदास' अपनी महान् रचना 'दासबोध' में केवल कथनी तक ही सीमित रहने वाले शिक्षित लोगों की तुलना 'पठत मूर्ख' (Learned Fool) से की है, क्योंकि वह जानते तो हैं और कहते भी हैं, लेकिन वैसा आचरण नहीं बना पाते हैं। किसी मनुष्य ने चाहे, धर्म ग्रन्थों एवं नैतिक सद् साहित्य का भरपूर ज्ञान क्यों न प्राप्त कर लिया हो और उसकी करनी उसके अनुकूल न हो तो रामदास महाराज कहते हैं कि ऐसा 'पठत मूर्ख' साधारण मूर्ख की अपेक्षा अधिक हानिकारक है।
अतः उनका आचरण सम्बन्धी यही परमार्थ है। "किसी कार्य को दूसरों को करने के लिए कहने से पूर्व मनुष्य को स्वयं वह कार्य करने में प्रवीण होना चाहिए।"
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वही मनुष्य श्रेष्ठ होता है, जिसकी कथनी और करनी में सामञ्जस्य हो। ऐसा होने पर ही वह अपने जीवन-लक्ष्यों की प्राप्ति कर मानव-जीवन को सार्थक एवं सफल बना सकता है।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)