मानव जीवन के स्तम्भ : 'कर्म' एवं 'ध्यान'
A man's life should revolve round the two poles, namely of 'Activity' and 'Contemplation'.
- Samarth Guru Ramdass
रामदास महाराज के अनुसार मानव जीवन की सार्थकता दो स्तम्भों पर आधारित है 'कर्मण्यता' एवं 'सतर्कता'। मनुष्य को सदा सक्रिय रहना चाहिए और वह भी पूर्ण सावधानी के साथ। किसी ने ठीक कहा है - "सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।” मनुष्य को हर समय सचेत एवं सतर्क रहना चाहिए। हर कार्य उसे सोच-विचार कर करना चाहिए अन्यथा वह कार्य बिगड़ जायेगा। सचेत एवं सजग रहने पर ही कार्य सफल होता है क्योंकि -
"बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय। काम बिगारे आपुनो अरु जग में होत हँसाय।।"
जो व्यक्ति बिना विचार किये कोई भी कार्य करता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है, उसका काम भी बिगड़ता है और लोग उसकी मूर्खता पर हँसी उड़ाते हैं। अतः प्रत्येक कार्य सुनियोजित होना चाहिए। लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण कार्य की योजना तैयार की जानी चाहिए। उस कार्य को पूर्ण करने में कितना समय लगेगा? किन-किन साधनों का उपयोग करना होगा? कार्य करने की प्रक्रिया क्या होगी? उस कार्य में क्या बाधाएँ अथवा कठिनाइयां आ सकती हैं ? इत्यादि। इसके साथ ही व्यक्ति को जब तक वह कार्य पूर्ण न हो जाय, निरन्तर प्रयासरत रहना चाहिए। इस सम्बन्ध में किसी महापुरुष ने कहा है -
"Strive Strive and Strive till the end is achieved."
अर्थात् जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, तब तक प्रयत्न करते ही रहने चाहिए। कार्य सम्पूर्ण होने से पूर्व कहीं भी तनिक भी रिक्तता अथवा लापरवाही अथवा शिथिलता रही तो वह कार्य बिगड़ सकता है। अतः मनुष्य को उस कार्य के लक्ष्य एवं प्रक्रिया पर तीक्ष्ण दृष्टि रखनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक कार्य में श्रेष्ठता' (Excellence) होनी चाहिए। बुद्धिमान लोग जीवन का प्रत्येक कार्य अत्यधिक श्रेष्ठता के साथ करते हैं। उनके चलने-फिरने, बैठने-उठने, खानेपीने, वार्तालाप एवं व्यवहार करने में विलक्षणता एवं अपूर्वता होती है, सुन्दरता एवं मधुरता होती है।
इसी प्रकार किसी भी कर्त्तव्य कर्म को करने में आलस्य अथवा प्रमाद को तनिक भी समीप न आने दें। "Don't harbour idleness at any time." कार्य को बिना किसी विलम्ब के समय रहते कर देना चाहिए, एक क्षण का भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। 'काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, अवसर बीतो जाय है, फेर करोगे कब?' वस्तुतः गया हुआ समय पुन: हाथ नहीं आता। इसीलिए किसी विद्वान मनीषी ने कहा है- 'Catch the time by its hair lock' अर्थात् समय को सामने से उसके चुट्टों से पकड़ लो पीछे से समय नहीं पकड़ा जा सकता है। आलसी एवं प्रमादी लोग हाथ पर हाथ धरे पड़े रहते हैं। उनका मूलमंत्र होता है -
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों। व्यर्थ में चिन्ता क्यों करे, जीना है कई बरसों।।
अब 'ध्यान' पर ध्यान देने की आवश्यकता है। 'ध्यान' को केन्द्रित करना अथवा मन को वश में रखना अति दुष्कर कार्य है। भगवान श्री कृष्ण महाराज ने अर्जुन को 'गीता' का गूढ़ रहस्यमय ज्ञान प्रदान किया, लेकिन शोकयुक्त अर्जुन का ध्यान विषाद के कारण केन्द्रित नहीं हो पा रहा था। वह भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं।
'योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थिति स्थिराम्।।' (6/33)
अर्जुन बोले-हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चञ्चल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ।
'चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।' (6/34)
क्योंकि हे श्री कृष्ण! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन (भगेडू) स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए इसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।
इस पर योगीराज श्री कृष्ण ने अर्जुन को मन को वश में करने का बड़ा ही उपयुक्त उपाय, बताया।
'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।' (6/35)
श्री भगवान बोले-हे महाबाहो ! नि:संदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है, परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह 'अभ्यास' और 'वैराग्य' से वश में होता है।
अत: हमें बार-बार अभ्यास करते रहना चाहिए 'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात है, सिल पर होत निशान।।'
अर्थात्-रस्सी अत्यधिक कोमल होते हुए भी बार-बार की रगड़ से कठोर पत्थर पर (कुएं से पानी निकालते समय) भी निशान बना देती है। अत: अभ्यास करो, ध्यान लगेगा। यहाँ दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि मन भगेडू है, वह इधर-उधर उछल-कूद करता ही रहता है, एक समय में केवल एक ही वस्तु पर टिकता है और वह भी क्षण भर के लिए।
अतः दूसरा साधन 'वैराग्य' आवश्यक है। अनुचित कार्य से वैराग्य होने पर ही मन उचित कार्य की ओर आकर्षित होगा। बालक टी.वी. देखता है, खेलता है, वह पढ़ता नहीं। इसलिए टी.वी. और खेल के प्रति बालक के मन में वैराग्य (अरुचि) होने पर ही उसका मन पढ़ाई में लगेगा।
अब एक बड़ा प्रश्न शेष रह जाता है और वह यह है कि मनुष्य को कौन-सा कार्य करना चाहिए और कौन-सा नहीं। अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया। (2/7)
'कार्पण्य दोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।
अर्थात्- कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।
इस पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्तव्य कर्म की शिक्षा देते हुए कहते हैं। (18/5)
'यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।' (18/5)
अर्थात्- यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने योग्य नहीं, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप-ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि संगत्यक्तवा फलानि च।
कर्त्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।। (18/6)
इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
अत: हमें उपरोक्त कर्त्तव्य कर्मों का ध्यान पूर्वक पालन करना चाहिए। इनके पालन से ही दुर्लभ मनुष्य जीवन सार्थक हो सकेगा।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)