संगति का प्रभाव
पाश्चात्य दार्शनिक बर्नार्ड शॉ का उपरोक्त कथन मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से अक्षरसः सत्य प्रतीत होता है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की यदि पहचान करनी हो तो उसके प्रमुख साथी-संगी (मित्रों) के व्यक्तित्व की समीक्षा करनी चाहिए क्योंकि मनोवैज्ञानिक तथ्यानुसार "Birds of the same feather flock together." बाज कबूतर उड़त हैं, बाज, कबूतर संग। मनोविज्ञान यह दर्शाता है कि समान रूचि, समान लक्ष्य एवं समान स्तर के लोग एक साथ रहने में आनन्दित होते हैं। वे अपना अधिकांश समय साथ-साथ खेलने, भ्रमण करने, अनेकानेक गतिविधियों में संलग्न रहने में सदा प्रेरित रहते हैं।
इस सम्बन्ध में व्यावहारिक दृष्टि से किसी कवि ने ठीक ही वर्णन किया है -
कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति होयगी, तैसोई फल दीन।।
अर्थात् कदली, सीप और भुजंग (सर्प) के मुख में एक स्वाति बूंद के तीन (अलग-अलग) गुण हो जाते हैं। वही स्वाति-बूंद एक में 'अमृत' एक में मोती' और एक में 'विष' का रूप धारण कर लेती है अर्थात् जैसी संगति होगी, वैसा ही फल देगी।
(बालकाण्ड) महान् भक्त-कवि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में सत्संग का महत्व बताते हुए वर्णन किया है -
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहिं पाई।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहु वेद न आन उपाऊ।।
अर्थात् जल, थल, नभ में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत् में हैं, उनमें जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनका प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं हैं। वे आगे इसी विषय में कहते हैं-
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कु घात सुहाई।
विधि बस सुजन कुसंगत परही। फनि मनिसम निज गुन अनुसरही।।
दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है)। किन्तु दैव योग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं (अर्थात जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि, उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण 'प्रकाश' को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रह कर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं। दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।) इस प्रकार सत्संग का महत्त्व बताते हुए गोस्वामीजी आगे कहते हैं -
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सतसंगत मुद मंगल मूला।सोई फल सिधि सब साधन फूला।।
अर्थात्-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल और सब साधन तो फूल हैं।
'संगति' और 'गति' दोनों में अटूट सम्बन्ध है। संगति के बिना 'गति' नहीं होती और 'गति' के बिना 'संगति' का मिलना सम्भव नहीं होता। 'गति' शब्द से तात्पर्य 'क्रियाशीलता' एवं 'लक्ष्य-प्राप्ति' है। सत्संग से व्यक्ति सक्रिय एवं प्रयत्नशील होता है। सत्संग से ही लक्ष्य प्राप्ति (पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) सुलभ होती है। इसी प्रकार 'गति' के अभाव में संगति 'सत्संग' की प्राप्ति नहीं होती। व्यक्ति को सत्पुरुषों अथवा सत्संग के कार्यक्रमों हेतु गतिशील अथवा प्रयत्नशील होना पडता है। सुसंगति से सद्गति और कुसंगति से अधोगति होती है। अत: व्यक्ति को अपने जीवन-लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि) की प्राप्ति हेतु सत्पुरुषों का संग करना चाहिए और उसे सदा गतिशील रहना चाहिए। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ. वी.एच. दाते के मतानुसार ईश्वर की कृपा भी अपने आप नहीं मिलती। कृपा से उनका तात्पर्य 'करि' और 'पा' शब्दों के योग से है। अर्थात् करोगे तो 'कृपा' पाओगे अन्यथा नहीं। ईश्वर का भजन-स्मरण करोगे अथवा आर्तभाव से प्रार्थना करोगे तभी ईश कृपा प्राप्त होगी। दूसरे शब्दों में व्यक्ति को सदा गतिशील रहना होगा और उसके लिए सत्संग' ही एक अमोध साधना है।
गति एवं संगति के संदर्भ में माता-पिता को अपने बालकों के सही दिशा में विकासार्थ उसकी संगति और गति पर पूर्ण सावधान रहना चाहिए- विशेषकर किशोरावस्था (12 से 18-19 वर्ष) में क्योंकि बालक इसी अवस्था में अपना भावी-मार्ग निर्धारित करता है। किशोरावस्था ही उसके निर्माण एवं विकास की प्रमुख अवस्था है। अच्छी संगति में वह उन्नति करेगा और कुसंगति में अधोगति की ओर उन्मुख होगा। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मनुष्य को अपने जीवन को सफल बनाने हेतु अथवा अपने जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति करने हेतु सुसंगति का यथा सम्भव लाभ उठाना चाहिए तथा सत्संगति हेतु उसे निरन्तर सावधान सजग एवं गतिशील रहना चाहिए।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)