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श्रीमद्भगवद्गीता - संजीवनी औषध

परम पूज्य स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज ने अपने द्वारा रचित 'श्रीमद्भगवद्गीता, सचित्र साधक संजीवनी के परिशिष्ट के रूप' में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है, "श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आज तक न तो कोई पार पा सका, न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है। गहरे उतर कर इसका अध्ययन-मनन करने पर नित्य नए-नए विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं। गीता असीम है, पर उसकी टीका सीमित होती है।"
वस्तुतः श्रीमद्भगवद्गीता एक महान् संकट मोचन ग्रन्थ है। इसके द्वारा भौतिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक कष्टों एवं दुःखों का, साधक की अनन्य निष्ठा से, भगवद् कृपा से स्वतः ही विनाश हो जाता है। अध्याय अठारह, श्लोक अठावन (18.58) में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।। 18.58।।
अर्थात् हे अर्जुन! मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाये और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।
श्री रामसुखदास महाराज उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करते हुए उल्लेख करते हैं: -
व्याख्या : 'मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि' भगवान् कहते हैं कि मेरे में चित्त वाला होने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख आदि से पार हो जाएगा। अर्थात् उनको दूर करने के लिए तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार साधक पर कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। यदि वह स्वयं को भगवान् को अर्पित कर देता है। प्रत्युत उन दोषों को, विघ्न-बाधाओं को दूर करने की पूरी जिम्मेदारी भगवान् की हो जाती है।
इसलिए भगवान् कहते हैं- 'मत्प्रसादात्तरिष्यसि' अर्थात् मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को तर जाएगा। इसका तात्पर्य यह निकला कि भक्त अपनी तरफ से, उसको जितना समझ में आ जाए, उतना पूरी सावधानी के साथ कर ले, उसके बाद जो कुछ भी कमी रह जाएगी, वह भगवान् की कृपा से पूरी हो जाएगी। स्वामी जी इसकी व्याख्या करते हुए आगे कहते हैं कि मनुष्य द्वारा अगर कुछ अपराध हुआ है तो वह यही हुआ है कि उसने संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान् से विमुख हो गया। अब उस अपराध को दूर करने के लिए वह अपनी ओर से संसार का सम्बन्ध तोड़कर भगवान् के सम्मुख हो जाए। सम्मुख हो जाने पर जो कुछ कमी रह जाएगी, वह भगवान् की कृपा से पूरी हो जाएगी। अब आगे का सब काम भगवान् कर लेंगे।
साधन-काल में जीवन निर्वाह की समस्या. शरीर में रोग आदि अनेक विघ्न-बाधाएं आती हैं, परन्तु उनके आने पर भी भगवान् का सहारा रहने से साधक विचलित नहीं होता। उसे तो उन विघ्नबाधाओं में भगवान् की विशेष कृपा ही दिखती है, विघ्न-बाधाएं बाधा रूप से दिखती ही नहीं।
'अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि' - भगवान् अत्यधिक कृपालुता के कारण आत्मीयता पूर्वक अर्जुन से कह रहे हैं कि 'अथ' पक्षान्तर में मैंने जो कुछ कहा है, उसे न मानकर अगर अहंकार के कारण अर्थात् 'मैं कुछ जानता हूँ, करता हूँ तथा मैं कुछ समझ सकता हूँ, कर सकता हूँ' आदि भावों के कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा, तो तेरा पतन हो जाएगा। तात्पर्य यह है कि भगवान् से विमुख होने के कारण ही प्राणी का पतन होता है।'
इस तथ्य की पुष्टि में एक ज्वलन्त उदाहरण इस प्रकार है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलाधिपति 'डॉ. आर.डी. रानडे' सन् 1909 ई. में टी.बी. की घातक बीमारी से पीड़ित हो गए। अस्पताल के डॉक्टरों ने अथक प्रयासों के पश्चात् सब आशाएं छोड़कर उन्हें अन्तिम जवाब दे दिया। घर लौटने पर श्री रानडे ने अपने एक परम मित्र को बुलाया और उन्हें गीता सुनाने को कहा। उनके मित्र ने ज्योंही अध्याय अठारह का पूर्वोक्त अठावनवाँ श्लोक सुनाया, रानडे साहब ने उन्हें उस श्लोक को पुनः सुनाने को कहा। श्री आर.डी. रानडे को इस श्लोक से इतनी प्रेरणा मिली कि उसी समय से वह पूर्ण हदय से परमेश्वर की भक्ति में लग गए। रात और दिन परमेश्वर की इस अनन्य तपस्या के फलस्वरूप वह केवल उस घातक बीमारी से मुक्त ही नहीं हुए बल्कि जन्म-मृत्यु के बन्धन से भी मुक्त हो गए। तत्पश्चात् वे करीब 25 वर्ष जीवित रहे और उन्होंने अनेकों महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना की और एक महान् सन्त बन गए। इस प्रकार टी.बी. की बीमारी से मुक्त होकर उन्होंने सोलापुर और बीजापुर रेलवे मार्ग के मध्य में निम्बाल रेलवे स्टेशन से करीब दो फलांग की दूरी पर एक आध्यात्मिक आश्रम की स्थापना की जहाँ नियमित रूप से प्रात:काल से काकड आरती, प्रातः काल, मध्याह्नकाल एवं रात्रि की आरती के साथ-साथ भजन-कीर्तन एवं नामस्मरण के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। उनके निर्वाण (6 जून, 1957) के पश्चात् वहाँ उनकी समाधि स्थापित हो गई। उनकी इस समाधि (श्री रानडे आश्रम) पर प्रतिदिन सैंकड़ों साधक आते हैं और प्रात: 3 बजे से प्रारम्भ नामस्मरण के साथ प्रतिदिन के नामस्मरण, पोथी-वाचन और भजन-कीर्तन के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। आश्रम में आवास एवं भोजन की नि:शुल्क समुचित व्यवस्था है। इस प्रकार श्री रानडे की यह समाधि स्थली आध्यात्मिक प्रशिक्षण केन्द्र बन गई है। समाधि पर मुमुक्षुओं को नाम भी दिया जाता है।
डॉ. आर.डी. रानडे की भाँति न जाने कितने ही लोगों ने श्रीमद्भगवद्गीता से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सफल बनाते हुए असंख्य साधकों को प्रेरित किया होगा। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता को अति गोपनीय शास्त्र बताया है। गीता अध्याय 18 के 68वें श्लोक में श्री गीताजी के प्रचार का महात्म्य बताते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा है -
“य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्य संशयः।। 18.68।।
अर्थात् जो पुरुष मुझ में परम प्रेम करके इस परम रहस्य युक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा।
उपरोक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता जैसा कि परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज ने व्यक्त किया है, एक अत्यन्त विलक्षण ग्रन्थ है, जिसके अनुसरण से मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। गीता का सम्वाद भगवान् श्री कृष्ण और पाण्डव पुत्र धनुर्धर अर्जुन के मध्य ही नहीं है, बल्कि स्वयं परमेश्वर और प्रत्येक साधक के मध्य है। संक्षेप में गीता शास्त्र भौतिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक कष्टों एवं दुःखों के निवारण हेतु संजीवनी औषध है।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)