Jangid Brahmin Samaj.Com



स्वाधीनता एवं पराधीनता

"स्वाधीनता ही जीवन है, पराधीनता मरण" 'इस सम्बन्ध में 'पंछी की अभिलाषा' यही संकेत करती है, यथा-
"मेरा अपना नीड़ छोड़कर, यदि करना पड़े स्वर्ग में वास ।
नरक तुल्य मुझको वह होगा, बनकर औरों का दास।।"
वस्तुतः स्वाधीनता में ही सुख-समृद्धि निहित है तथा इसके विपरीत पराधीनता ही सारे दुःखों का मूल है।
समर्थ गुरु रामदासजी महाराज के परम शिष्य मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी ने मुगल बादशाहों की पराधीनता स्वीकार नहीं की और हिन्दुओं की रक्षार्थ अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनके क्षात्र तेज के बारे में दार्शनिक संत प्रोफेसर डॉ. विनाय हरिदाते साहब ने समर्थ गुरु श्री रामदास महाराज रचित "मनाचे श्लोक" की अपनी अनुवादित रचना 'मनोबोध' की प्रस्तावना के प्रारम्भ में यह वर्णन किया है कि यदि छत्रपति शिवाजी का 'क्षात्रतेज' व समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज का ब्रह्मतेज एकत्र नहीं होते तो भारत वर्ष में हिन्दुओं का राज्य व हिन्दू धर्म का एक भी चिह्न नहीं रहता।
इसी प्रकार स्वतंत्रता के पुजारी मेवाड़ के 'महाराणा प्रताप' ने मुगलों की गुलामी अंगिकार नहीं की। हल्दीघाटी का भीषण युद्ध इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस अति भयानक युद्ध में राणा प्रताप ने अपने स्वामी भक्त घोड़े "चेतक" पर सवार होकर अनुपम वीरता एवं पराक्रम के बल पर सामना नहीं किया होता तो रंगीला राजस्थान का निर्माण नहीं होता। राणा प्रताप ने अपने परिवार के साथ जंगली जानवरों की बीच क्या-क्या कष्ट झेले इस विषय में भारतीय इतिहास के पन्ने रक्तरंजित हैं। महीनों तक घोर जंगल में रहकर घास की रोटियाँ खा-खाकर अति कठिन जीवन व्यतीत किया। उनकी नन्हीं बच्ची (राजकुमारी) की रोटी छीन कर उद्बिलाव ले भागा। ऐसा असहनीय जीवन उन्होंने 'स्वाधीनता' हेतु व्यतीत कर इतिहास में अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
राजस्थान के जयपुर नरेश श्री मानसिंह ने मुगलों की गुलामी स्वीकार कर ली तथा उनके परम सेवक की भाँति अनुसरण किया। मुगल बादशाह अकबर ने उनको मेवाड़ी महाराणा प्रताप के पास उनकी अधीनता स्वीकार करने के उद्देश्य से भेजा। राणा प्रताप ने राजा मानसिंह जी से मिलना तक स्वीकार नहीं किया। उन्होंने श्री मानसिंह से कहा- 'मेरे सिर दर्द हो रहा है, अतः मिल नहीं सकता।' राजा मानसिंह ने प्रत्युक्त में कहा- 'आपके सिर दर्द का इलाज शीघ्र ही करवा दिया जाएगा।' इस घटना के परिणाम स्वरूप ही 'हल्दी घाटी' का अति भीषण युद्ध हुआ।
राणा प्रताप ने अनुपम वीरता एवं पराक्रम के साथ मुकाबला किया और हार नहीं मानी। वहाँ नदी का प्रवाह आ गया। उनके स्वामी भक्त अश्व 'चेतक' ने ऊँची छलांग लगाकर राणा प्रताप को नदी के दूसरे किनारे पर सुरक्षित पहुँचा दिया, लेकिन अपने स्वामी की रक्षार्थ अपने प्राण त्याग दिए । आज उदयपुर की पहाड़ी पर श्वेत संगमरमर की विशाल मूर्ति पर्यटकों के दर्शनार्थ बड़े गर्व के साथ स्थित है।
महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्री सुभाष चन्द्र बोस आदि प्रमुख नेताओं के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम अनेक महीनों तक चला और अन्ततः अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही पड़ा। श्री भक्तसिंह, शंकर आदि • भारत की स्वाधीनता हेतु अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
निष्कर्ष: पंछी की अभिलाषा अनुरूप पराधीनता पूर्ण जीवन नर्क के समान है तथा स्वाधीनता ही जीवन है।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)