जीवात्मा का स्वरूप
श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 15, श्लोक 7 में जीवात्मा का कथन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:-
मनैवांशो जीव लोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थाति कर्षति ।। 7 ।।
अर्थात् हे अर्जुन! इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को आकर्षण करता है।
इसी प्रकार श्री तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी वर्णन किया गया है-
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी..."
'अंश' शब्द की व्याख्या गीता जी में निम्न प्रकार से की गई है- जैसे विभाग रहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक- पृथक की भांति प्रतीत होता है, इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान् ने अपना सनातन अंश कहा है।
गीता के अध्याय 15 में आगे के श्लोक 8 में वायु के द्वारा जीवात्मा के गमन का विषय आता है -
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश यात् ।। 8 ।।
अर्थात् वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।
इससे अगले श्लोक 9 में मन इन्द्रियों द्वारा जीवात्मा के विषय सेवन का कथन किया गया है, यथा-
श्रोत्रं चक्षुः स्पशनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसवते ।। 9।।
अर्थात् उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, प्राण और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।
इसी क्रम में श्लोक 10 में सर्व अवस्था में स्थित आत्मा को मूल व्यक्ति नहीं जानते हैं और ज्ञानीजन जानते हैं। इस विषय को कथन किया गया है-
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।। 10।।
अर्थात् परन्तु शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानीजन ही तत्त्व से जानते हैं।
आगे वाले श्लोक 14 में भगवान स्वयं को वेश्वानर रूप में सब प्रकार के अन्न को पचाने वाला बतलाते हैं। इसी क्रम में श्लोक 15 में भगवान् के प्रभावशाली स्वरूप का कथन है, यथा-
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानम पोहमं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्द्वेदविदेव द्वेदविदेव चाहम्।।
अर्थात् मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ ।
तत्पश्चात् समस्त भूत प्राणियों को क्षर और कूटस्थ तथा आत्मा को अक्षर पुरुष बतलाया गया है-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरक्षाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।
श्लोक 17 में पुरुषोत्तम के स्वरूप का कथन किया गया है-
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ||
अर्थात् उत्तम पुरुष तो अन्य ही हैं, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार कहा गया है।
तत्पश्चात् पुरुषोत्तमत्व की प्रसिद्धि के हेतु का कथन है-
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।
अर्थात् क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ ।
इस अध्याय (पञ्चदशो) के अन्तिम श्लोक में निष्कर्ष रूप में उपर्युक्त गुह्यतम विषय के ज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है-
इति गुहातमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एवबुद्धवा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।
अर्थात् भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है।
अतः ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है ।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)