सुख-दुःख की महिमा
लोग सुख को उत्तम एवं दुःख को गौण मानते हैं, लेकिन वास्तव में दोनों ही उत्तम हैं। पांडवों की माता कुन्ती ने भगवान से सुख नहीं, बल्कि दुःख मांगा।
दुःख में सब सुमिरन करे, सुख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होई ।।
वह परमेश्वर से प्रार्थना करती है कि हे भगवान! मुझे आप दुःख देना, ताकि मैं आपको स्मरण करती रहूँ। वस्तुतः सुख-दुःख का जोड़ा (द्वन्द) है। जीवन में सुख व दुःख आते रहते हैं। वे सदा एकरस नहीं रहते।
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक - 14 में अर्जुन से कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेयशीतोष्ण सुख दुःखदाः।
आगमापायिनो ऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। 2.14।।
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।
इससे आगे अध्याय - 2, श्लोक 38 में श्री कृष्ण महाराज अर्जुन से बल पूर्वक कहते हैं-
सुख-दुःखे समे कृत्वा लाभा लाभौ जया जयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। 2-38।।
अर्थात् हे अर्जुन! यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा नहीं तो भी जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर इसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से पाप को नहीं प्राप्त होगा।
इसी अध्याय के श्लोक 65 में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन दुःखों के निवारण हेतु कहते हैं-
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। अर्थात् अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलिभांति स्थिर हो जाती है। इस प्रकार प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु श्री कृष्ण भगवान ने उपाय बताया है यथा अध्याय 2 श्लोक 64 में वे कहते हैं-"अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
हमारे सनातन धर्म के दूसरे महान् ग्रन्थ वाल्मिकी कृत रामायण एवं तुलसीकृत रामचरित मानस में हर्ष शोक, राग-द्वेष आदि इन्दों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है-
जिस दिन भगवान राम को अयोध्या नरेश के रूप में राजतिलक होने वाला था, उन्हें राज गद्दी न मिलकर वनवास हो गया। तब अयोध्यावासियों को बहुत दुःख हुआ ही, राम के अति प्रिय भाई भरत जी को अत्यधिक संताप हुआ। वे राज गुरु श्री वशिष्ट जी के पास गए और अपने हृदय की तीव्र वेदना प्रकट करते हुआ कहा-
'हे गुरुदेव ! आप ज्ञानी ध्यानी और भविष्य दृष्टा हो, फिर भी बड़े आश्चर्च की बात है कि आपने 'सीता राम विवाह' की ऐसी क्या कुण्डली बनाई कि राजतिलक की जगह मेरे परम पूज्य भाई राम को वनवास हो गया?
भरत के इस कथन पर श्री वशिष्ठ जी ने प्रत्युत्तर में कहा- सुनो भरत ! भावी प्रबल, विलख कहे मुनिनाथ, हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ। "
भगवान राम की अलौकिक लीला देखिए कि जब राम दुष्ट दैत्य रावण को मारकर अयोध्या लौटे तो दीपावली महोत्सव का सृजन हो गया। इस विषय में किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
रावण मार राम घर आए, घर-घर ज्योतिर्मय दीप जलाये।
इस प्रकार अयोध्यावासी राम के वनगमन के दुःख को भूल गए और बड़े आनन्द के साथ नाच उठे।
भगवान राम के जन्मोत्सव 'रामनवमी' पर्व पर धार्मिक अखाड़ों के लोग युवकों के अपूर्व संगठन का जुलूस निकालते हैं। वे इस अवसर शक्ति प्रदर्शन नहीं करते, बल्कि राम के जन्मोत्सव को बड़े धूमधाम से मनाते हुए आनन्द की अनुभूति करते हैं।
इस प्रकार विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि सुख-दु:ख, यश-अपयश, हानि-लाभ, जय-पराजय का जोड़ा है। वे एक-दूसरे के बाद क्रमशः आते रहते हैं।
रामराज्य में लोग कितने सुखी एवं आनन्दित थे, यह अवर्णनीय है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसी रामराज्य की कल्पना की थी और भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी ने अयोध्या में राम मन्दिर का सुन्दरतम् नव निर्माण इस स्वप्न को पूरा किया।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सुख-दुःख की अपार महिमा है। कड़वे नमक के बिना मीठे का आनन्द अधूरा रहता है। अतः विवेकशील मनुष्य को सदा प्रसन्न एवं सक्रिय रहना चाहिए।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)