धर्म के लक्षण
भारतीय संस्कृति में 'धर्म' का विशेष महत्त्व है। वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) इस संस्कृति के मूल आधार हैं। वाल्मीकि रामायण, गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस एवं श्रीमद् भगवद् गीता आदि धार्मिक ग्रन्थों का यहाँ बड़ा प्रचार एवं प्रसार है। घर-घर में 'सुन्दरकाण्ड' के संगीतमय पाठों की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। इस प्रकार बड़े हर्ष की बात है कि हम भारत के नागरिक हैं।
वेद शास्त्रों में धर्म की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। जैसे- 'धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रिय निग्रहः । धीविद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥ अर्थात् धैर्य, क्षमा, आत्मदमन, अस्तेय, अक्रोध, पवित्रता, इन्द्रिय संयम, विद्या (ज्ञान), सत्य आदि धर्म के दस लक्षण बताए हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16, श्लोक 1 और 2 में 'दैवी सम्पदा' के अन्तर्गत 'धर्म' की अतिसुन्दर एवं सटीक व्याख्या एवं विवेचन किया गया है ।
यथा, भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।। 1।।
अर्थात् भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की सेवा-पूजा तथा अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण वेदशास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना और शरीर, मन, इन्द्रियों सहित अन्तःकरण की सरलता तथा श्लोक 16/2 के अनुसार-
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ।। 2।।
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध न करना, कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की निर्मलता अर्थात् चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक शास्त्र के विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।। 16 / 31
तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव ये सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने 'धर्म' की बड़ी सरल, सुगम एवं संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की है
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।
तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण ।।
सब भूत प्राणियों में दयाभाव रखना ही धर्म का मूल है।
निष्कर्ष : इस प्रकार भारतीय साहित्य में धर्म का बड़ा ही सुन्दर एवं विस्तृत विवेचन किया गया है।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)