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भ्रम और विभ्रम

यह संसार एक विचित्र मायाजाल (मृग - मारिचिका) है। दार्शनिक शंकराचार्य के अनुसार यह दृश्यमान जगत् एक विचित्र मायाजाल है। मनुष्य प्रायः 'भ्रम' का शिकार हो जाता है और जब भ्रम अत्यधिक बढ़ जाता है तब कुछ मनुष्य विभ्रम के भँवर में फँस जाते हैं। मनोविज्ञान हमें बताता है कि मनुष्य 'प्रत्यक्षीकरण' को मुख्य प्रामाणिक ज्ञान मानता है। वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा) के माध्यम से अपनी आँखों से वस्तु जगत् देखता है। तब उसे वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है।
श्री परशुराम जी महाराज का कथन है "आखों देखी परसराम कदई न झूठी होय"। इसी प्रकार जब वह वक्ता को स्वयं अपने कानों से सुनता है, तब उसे ध्वनि (शब्दों) का ज्ञान होता है। अपनी नासिका से जब सूंघता है तब उसे गंध का ज्ञान होता है। जब वह किसी वस्तु को छूता है, तब उसे वस्तु ज्ञान प्राप्त होता है। नैत्रहीन मनुष्य वस्तुओं को छूकर ही बता देते हैं कि वह कौनसी वस्तु है। इसी प्रकार हमें अपनी जिह्वा (जीभ) से भोजन के स्वाद का पता चलता है कि वह मीठा है, कड़वा है, खट्टा है। हमारी कर्मेन्द्रियाँ (हाथ-पैर इत्यादि) से भी चढ़ाई, ढाल आदि का ज्ञान होता है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहते हैं।
लेकिन प्रत्यक्षीकरण से भी मनुष्य धोखा खा जाता है। इसके अनेक उदाहरण हैं। हम आए दिन समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि 'महाठग' लोग पीतल को सोना बताकर जेवर ले जाते हैं। इस संदर्भ में एक बड़ा ही अनोखा उदाहरण है। एक मनुष्य बकरे को अपने कंधे पर बिठाकर अपने गाँव जा रहा था। मार्ग में दो ठग बैठे थे। उन्होंने बकरे को लेने की योजना बनाई। पहले एक ठग उस मनुष्य के पास गया और बोला, "अरे भाई! इस बघेरे को अपने कंधे पर क्यों ले जा रहा है? उस मनुष्य ने प्रत्युत्तर में कहा, "भाई! यह मेरा बकरा है, बघेरा नहीं। क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं है?" वह उग चला गया। कुछ समय पश्चात् उस मनुष्य के पास दूसरा आकर भय दिखाते हुए बोला, "अरे मूर्ख! इस बघेरे को कंधे पर बिठाये क्यों ले जा रहा है?" तब उस मनुष्य को भ्रम हो गया कि सचमुच में वह बघेरा ही है और तुरन्त अपने बकरे को पटक दिया। इस प्रकार वह ठग बकरे को ले गया।
दार्शनिक श्री शंकराचार्य 'भ्रम' के विषय में 'मृग मारिचिका' का उदाहरण देते हैं। जैसे एक प्यासा मृग रेगिस्तान में बालू के चमकते कणों को पानी समझकर गुजरता है और पास जाकर देखता है तो वह पानी नहीं है। वह दौड़ता हुआ पानी के अभाव में अन्ततः गिर पड़ता है। और उसके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं यही कहानी मनुष्य जीवन की है। वह जगत् की मायावी कामनाओं में सुख ढूंढता है, लेकिन वस्तुतः उसे सुख मिलता नहीं है। महात्मा गौतम बुद्ध ने ठीक ही कहा है कि इस जगत् में दुःख ही दुःख हैं। अतः इस दुःखिया संसार से बचने के लिए अपनी तृष्णा (कामना) का त्याग करो। अपनी तृष्णाओं की पूर्ति हेतु मत दौड़ो, इत्यादि ।
'विभ्रम' तो भ्रम से अधिक हानिकारक है। मनोविज्ञान में हमें विभ्रम के अनेक उदाहरण मिलते हैं। एक बुढ़िया का इकलौता बेटा जगत् में नहीं रहा। वही उसका एक मात्र सहारा था। वह इतनी दुःखी हो जाती है कि उसे अपनी आँखों के सामने अपना पुत्र दिखाई देता है। कभी-कभी वह अत्यधिक दुःखी हो जाती है। उसे अपने पुत्र की आवाजें सुनाई देती हैं, जबकि कोई आवाज़ होती ही नहीं है। इस प्रकार कान भी उसे धोखा दे जाते हैं। 'विभ्रम' में कोई वस्तु नहीं होने पर भी मिथ्या वस्तुज्ञान हो जाता है।
निष्कर्ष : हमें भ्रम और विभ्रम से बचने हेतु पूर्ण सजगता की आवश्यकता है। गायत्री मंत्र ( ॐ भू भुर्वः स्व) में हम परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु! हमें सद्बुद्धि दीजिए ताकि हम भ्रम और विभ्रम से बचकर 'सत्य' ज्ञान प्राप्त कर सकें।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)