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सदा प्रसन्न एवं शान्त रहो

मनुष्य जीवन अति दुर्लभ है। शास्त्रानुसार जीव मात्र की 84 (चौरासी) लाख योनियाँ हैं। जिनमें मनुष्य ही ऐसा प्राणी है. जिसमें बुद्धि (विवेक शक्ति) है। अन्य सभी प्राणियों का जीवन जन्मजात मूल प्रवृत्तियों द्वारा ही संचालित होता है। प्रसन्न एव शान्त रहने पर ही मनुष्य की बुद्धि उज्वल एव प्रखर रहती है, जिसे श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय-2, श्लोक-41 में 'व्यवसायात्मिका बुद्धि' कहा गया है, यथा -
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा हानन्ताश्च बुद्धयो अव्यवसायिनाम्।।
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मिका (व्यवसावात्मिका) बुद्धि एक ही होती है। किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनेक होती है। जब मनुष्य प्रसन्नचित्त एवं शान्त रहता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर एवं अविचलित रहती है और इसके विपरीत जब वह क्रोध के वशीभूत होकर अशान्त हो जाता है, तब उसकी बुद्धि एवं स्मृति विचलित एवं अस्थिर हो जाती है। इस सम्बन्ध में गीता शास्त्र-2, श्लोक-63 में बड़ा ही सटीक वर्णन किया गया है-
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभमः।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 2.63।।
अर्थात् क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से वह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। अत: हमें अपने जीवन में यथा सम्भव प्रसन्न एवं शांत भाव से रहना चाहिए, क्योंकि प्रसन्नचित्त वाले शांत पुरुष के दुःखों का नाश हो जाता है और मानव जीवन सुखद एवं आनन्दित हो जाता है, जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-2, श्लोक-65 में वर्णन किया गया है, यथा-
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो हाशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। 2.65।।
अर्थात् अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर मनुष्य के सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
सदा प्रसन्न रहने के लिए सिख धर्म के प्रवर्तक पुज्य 'गुरु नानकदेव ने अपनी दिव्य वाणी में अति सुगम उपाय बताया है
"जो प्रभु कीनो सो भल मानो,
यही सुमति साधु ते पायी।"
पुज्य संतों ने हमें सुमति दी है कि ईश्वर जो करता है वह अच्छा ही करता है।
इस सम्बंध में बड़ा ही रोचक प्रसंग 'अकबर-बीरबल' की एक कहानी में आता है, यथा -
एक समय हिन्दुस्तान का मुगल बादशाह अकबर महान् शिकार खेलने गए। उनकी अंगुली कट गई। जंगल में विलम्ब हो जाने से रात्रि हो गई। सम्राट अकबर ने वह रात्रि पेड़ पर बैठ बिताई। वहाँ पास ही में 'चामुण्डा माता' का मन्दिर था। वहाँ मनुष्य की बलि (नर बलि) देनी थी। अत: प्रात: होते ही उस मन्दिर के सेवक किसी मनुष्य की खोज में निकले। उनकी दृष्टि पेड़ पर बैठे 'बादशाह अकबर' पर पड़ गई। वे उसे पकड़कर देवी के मन्दिर में ले गए। मन्दिर में अकबर को स्नान करवाया गया। तत्पश्चात् उन्होंने शरीर का परीक्षण किया। उन्होंने देखा कि अकबर के एक हाथ की अंगुली कटी हुई है। अत: अंगभंग होने के कारण सम्राट अकबर को बलि पर नहीं चढ़ाया गया। इस प्रकार अंगुली कट जाने से अकबर के प्राण बच गये। राजधानी दिल्ली लौटने पर बादशाह अकबर ने अपने चतुर प्रधान मंत्री बीरबल' को बुलावा भेजा। बीरबल अविलम्ब बादशाह के समक्ष उपस्थित हुआ। सम्राट अकबर ने बीरबल को शिकार में अपने हाथ की अंगुली कट जाने की बात कही। बीरबल ने कहा “जहाँपनाह! ईश्वर करता है, वह अच्छा ही करता है।" इस पर बादशाह क्रोधित हो उठे। फिर उन्होंने मन में विचार किया कि मंत्री बीरबल ठीक ही कह रहा है। अंगुली कटी होने से ही तो उसके प्राण बचे थे। उन्होंने बीरबल को कहा "तुम्हारी बात उचित है।"
इसी सत्य की पुष्टि गोस्वामी तुलसीदास जी की महान् रचना 'रामचरित मानस में वर्णित कथन से भी होती है, यथा
"जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।
सीताराम-सीताराम-सीताराम कहिए।"
अत: यदि मनुष्य इस सत्य का अनुसरण करता है, तो उसे कभी दुःख व अशान्ति नहीं होगी। वह सदा प्रसन्न रहेगा। विद्वानों ने प्रसन्नचित्त रहने के कुछ अन्य उपाय भी बताए हैं, जैसे सकारात्मक सोच, आशावादी दृष्टिकोण और धीरज नकारात्मक विचारधारा से मनुष्य व्यर्थ में दुःखी होता है और सदा अप्रसन्न एवं अशान्त रहता है। अत: हमें सदा सकारात्मक विचारधारा का ही अनुसरण करना चाहिए।
आशावादी दृष्टिकोण वाला मनुष्य सदा यही मानता है कि 'सर्वोत्तम अभी होने वाला है। वह कभी निराश, हताश अथवा दुःखी मन नहीं रहता है।
मनुष्य को सदा 'धीरज' रखना चाहिए। कभी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इस विषय में किसी ने ठीक ही कहा है
"धीरज धर्म मित्र अरुनारी।
आपदकाल परिखिअहिं चारी॥"
धीरज, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा मनुष्य के संकटकाल में ही होती है।
हम प्रसन्न रहने के लिए संगीत, नृत्य आदि के माध्यम से मनोरंजन करते हैं। मोर जब अति प्रसन्न होता है तब वह अपने सुन्दर पंखों को फैला कर बड़ी मस्ती से नाचता है तथा बसन्त ऋतु में कोयल 'कुहू कुहू गुंजन करती है। संगीत और नृत्य स्वत: ही प्रसन्नता उत्पन्न करते हैं। अत: किसी गायक ने ठीक ही कहा है
"गाना आये न आये, हमें गाना चाहिए।
गाना नहीं आये, तो भी गुनगुनाना चाहिए।"
निष्कर्ष : उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हमें बड़े धैर्य के साथ परमपिता परमेश्वर का अपूर्व निष्ठा के साथ चिन्तन-मनन करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए। विपत्ति में हमारे प्रमुख साथी धीरज, आशावादी दृष्टिकोण एवं सकारात्मक सोच ही हैं। तभी हम सदा प्रसन्न एवं शान्त चित्त का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।

-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)