स्वामी विवेकानन्द का संदेश
भारत के महान् मनीषी श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानन्द जी का प्रमुख संदेश था - "मेरा आदर्श कुछ शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और वह है 'मानवता को उनकी दिव्यता' का उपदेश देना और उसे जीवन की प्रत्येक गतिविधि (कार्य) में प्रकट करना।"
वह कहते हैं "मस्तिष्क को सर्वोच्च विचारों से भर दो, उन्हें दिन-प्रतिदिन बड़े ध्यानपूर्वक सुनो, महीनों तक उनके विषय में चिन्तन करते रहो। मनुष्य के जीवन का आदर्श हर वस्तु में ‘परमेश्वर' की उपस्थति देखना है। लेकिन यदि आप उसे प्रत्येक वस्तु में नहीं देख सको तो उसे केवल एक ही वस्तु में देखो, जिसे तुम सर्वाधिक पसंद करते हो और फिर उसे दूसरी वस्तु में देखो। इसी प्रकार आगे बढ़ते रहो।"
सम्पूर्ण मानवता का अंतिम लक्ष्य सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है और वह है-'परमेश्वर के साथ पुनर्मिलन'।
अर्थात् प्रत्येक मनुष्य की 'दिव्यता' को देखना है। मनुष्य नाशवान शरीर नहीं है, वह तो सच्चिदानन्द घन परमेश्वर का ही अंश है, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने अपनी महान् रचना रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में व्यक्त किया है -
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।। 116-1 ।।
अर्थात् जीव ईश्वर का ही अंश है। वह चेतन स्वरूप है, निर्मल एवं सुख की खान है। वह अविनाशी-अमर है।
अत: मनुष्य को कभी निराश एवं दु:खी नहीं होना चाहिए। वह गरीब नहीं है। वह तो बादशाहों का भी बादशाह है। उसे किसी से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं है। इस संबंध ने स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने अपने परम् भक्त एवं परम् सखा अर्जुन को गीता में निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया है, यथा -
कमण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। 2.47।।
तेरा कर्म करने में अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
स्वामी विवेकानन्द जी आगे कहते हैं - यदि तुम अपने तीन लाख तैंतीस हजार पौराणिक देवी-देवताओं में विश्वास करते हो और फिर भी यदि तुम अपने में विश्वास नहीं करते हो तो तुम्हारे लिए कोई मोक्ष नहीं है। इसी प्रकार युनानी दार्शनिक महात्मा अरस्तु ने कहा-तू अपने आपको पहचान और तू प्रत्येक बात जान जायेगा।
तदनन्तर स्वामी जी श्री विवेकानन्द जी आगे कहते हैं - कोई 'भय' नहीं होना चाहिए, कोई भिक्षा नहीं मांगनी चाहिए, केवल परमेश्वर से सर्वोच्च वस्तु (मोक्ष) मांगना चाहिए। माँ के सच्चे भक्त 'वज्र' की भाँति कठोर और शेरों की भाँति निर्भय होते हैं। दिव्यात्मा में अटूट विश्वास आत्मा को ललकारता है। आप कुछ भी कर सकते हो। ज्योंही मनुष्य अथवा राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसकी मृत्यु हो जाती है। अत: जो व्यक्ति आत्मविश्वास नहीं रखता है, वह 'निरीश्वरवादी' है।
अत: सर्वप्रथम स्वयं में विश्वास रखो और फिर ईश्वर में। कभी मत सोचो कि आत्मा के लिए कोई वस्तु, कार्य असम्भव है। निरर्थक पढ़ना व्यर्थ है। जितना कम पढ़ो, उतना श्रेष्ठ है। गीता एवं अन्य वेदान्त की अच्छी पुस्तकें पढ़ो।
स्वामी जी उच्च कोटि के शिक्षाविद् थे। उनकी 'शिक्षा' की परिभाषा अद्वितीय है, यथा- शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
स्वामी जी के अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जो मनुष्य को आत्मनिर्भर बना सके। वह शिक्षा जो आज तुम विद्यालयों और महाविद्यालयों में प्राप्त कर रहे हो। वह तो तुम्हें केवल मन्दाग्निग्रस्त रोगियों की जमात बना रही है। तुम यंत्रों की भाँति कार्य कर रहे हो और मछली (जेलीफिश) की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हो।
हमें 'जीवन' एवं 'चरित्र' निर्माण के विचार संग्रह करने चाहिए। यदि तुमने केवल पाँच विचारों को आत्मसात् कर लिए हैं और उन्हें अपना जीवन एवं चरित्र बना लिया है, तो तुमने उस व्यक्ति से भी अधिक शिक्षा प्राप्त कर ली है, जिसने सम्पूर्ण पुस्तकालय कण्ठस्थ कर लिया हो।
स्वामीजी महाराज ने 'स्त्री शिक्षा' के बारे में अत्युत्तम विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है जब तक स्त्रियों की दशा को उन्नत नहीं बनाया जाता है, तब तक विश्व के कल्याण का कोई अवसर नहीं है। एक पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है। ओ भारत! यह मत भूलो कि 'नारीत्व' का तुम्हारा आदर्श सीता, सावित्री और दमयन्ती है।
वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द अति उच्च कोटि के वेदान्ती आध्यात्मिक ज्ञानी महापुरुष थे।
स्वामी की विद्वता की कहानी सुनिए। एक समय अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। वहाँ विश्व के बड़े-बड़े विद्वानों को आमंत्रित किया गया, लेकिन स्वामी विवेकानन्द को आमंत्रित नहीं किया। पूज्य स्वामीजी को इसकी सूचना उनके श्रद्धालु भक्तजन ने दी तथा उन्होंने स्वामीजी से आग्रह पूर्ण निवेदन किया कि आप इस सम्मेलन में अवश्य भाग लें। उनकी सहायता से स्वामी समुद्री मार्ग से अमेरिका गए। वहाँ भी स्वामी जी के भक्त मिल गए और वहाँ वक्ता के रूप में आमंत्रण प्राप्त किया। विषय था - शाश्वत (Etermity)| स्वामी जी घण्टों तक प्रवचन देते रहे। लोग उठने को तैयार नहीं थे। केवल एक व्यक्ति खड़ा हुआ। उसके हवाई जहाज का समय हो रहा था, लेकिन वह स्वामी जी के भाषण को छोड़ना भी नहीं चाहता था। वह साहस करके उठा और स्वामीजी से कहा - स्वामी जी कृपा करके अपने इस प्रवचन को संक्षिप्त करिए। इस पर स्वामी विवेकानन्द ने बड़ा मार्मिक एवं सटीक उत्तर दिया। तुम अमेरिकन्स अपनी घड़ियों में समय देखते हो, लेकिन हम भारतीय शाश्वता में समय देखते हैं और शाश्वता में जीते हैं। श्रोतागण यह सुनकर अवाक रह गए और सभी ओर से तालियों की गड़गड़ाहट की ध्वनि होने लगी। तालियों का यह गर्जन लम्बे समय तक चलता रहा। सम्मेलन के आयोजकों ने स्वामी जी को आमंत्रित न करने के लिए क्षमा मांगी।
राजस्थान के शेखावाटी में खेतड़ी के महाराजा स्वामी जी के शिष्य बन गए। उन्होंने स्वामी जी को राजस्थानी साफा पहनना सिखाया। इस प्रकार स्वामी जी ने सदा धोती, अंगरखा और साफा (राजस्थानी पोशाक) ही धारण की।
एक बार स्वामी जी की सत्सग में खेतड़ी महाराजा की प्रमुख वैश्या उस सत्संग में आकर बैठ गई। महाराजा ने उसे विदा होने के लिए आदेश दिया। उस पर उसने एक भजन - प्रभुजी! मेरे अवगुन चित्त न धरो गाना प्रारम्भ कर दिया। स्वामी जी अपने स्थान से उठे और उस वैश्या से पूरा भजन सुनाने का निवेदन किया। इस प्रकार उस दिन की सत्संग की समाप्ति इस भजन से ही हुई। ऐसे महापुरुषों की भारत माता को शत्-शत् नमन।
-- प्रो. बी.पी. पथिक (जांगिड) ब्यावर (राज.)