भामाशाह
वह धन्य देश की माटी है, जिससे भामाशाह सा लाल पला, उस दानवीर की यश गाथा को, रोक सका क्या काल भला। भामाशाह आज एक उपाधि के रूप में जीवंत है। दानवीर कर्ण जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर कुंडल और कवच दानकर दिए थे, उसी श्रेणी में आने वाले भामाशाह एक व्यक्ति नहीं, अपितु एक उपाधि बन चुकी है। इसका प्रयोग पिछले कुछ वर्षों से हमारे समाज में बहुत अधिक प्रचलित है, हमारे यहाँ हर व्यक्ति दान देकर स्वयं को भामाशाह कहलवाकर गौरवान्वित होना चाहता है। किंतु क्या सही मायने में वे भामाशाह के उपनाम के हकदार है, इसलिए आज हम भामाशाह के जीवन के कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालते हैं ताकि आम समाज जन भी इस शब्द का अर्थ जान सके।
भामाशाह का जन्म 29 अप्रैल, 1547 में मेवाड़ के वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता भारमल रणथम्भोर किले के किलेदार थे, जिन्हें राणा सांगा ने यह पद दिया था। महाराणा प्रताप ने मुगलों से 18 जून, 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध किया, जिसमें भारी मात्रा में धन, जन हानि हुई। यद्यपि यह युद्ध अनिर्णित रहा, किन्तु प्रताप अपना राज्य खो चुके थे और वहाँ मुगलों की सत्ता स्थापित हो गई। किंतु महाराणा ने हार नहीं मानी संघर्ष जारी रहा। मेवाड़ के कई सूबे उन्होंने मुगलों से मुक्त करा लिए। इसी मातृभूमि की रक्षा करने में वे एवं उनके सोने के पलंग पर सोने वाले राजकुमार घास की रोटी खाकर गुफाओं में दर-दर भटक रहे थे। किंतु उनके सैनिक अब बिना खाए-पीए कब तक ये जंग जारी रख सकते थे। धीरे-धीरे महाराणा का धैर्य जवाब देने लगा और वे राजस्थान की सीमाओं को छोड़ बाहर निकलने के लिए चल पड़े।
तभी राह में घोड़े पर लाव लश्कर के साथ उनके बचपन के मित्र, सहयोगी और परम हितैशी तथा सलाहकार भामाशाह उपस्थित हुए। और प्रताप से बोले आप हमें अनाथ बनाकर कहाँ जा रहे हैं। तब राणा ने जवाब दिया भाग्य अभी हमारे साथ नहीं है, कुछ धन एकत्र कर लूंगा तब सैन्य बल पुन: स्थापित कर लौटूंगा। तब भामाशाह ने परथा, भील को आदेश दिया जो कि उनके धन का संरक्षक था कि सारी थैलियां महाराणा के सम्मुख पेश करो। अर्शफियों से भरे थैले देश की सुरक्षा में पेश कर दिए गए। महाराणा की आँखों में आँसू आ गए। भामाशाह ने उन्हें इतना धन दिया था, जिससे 25 हजार सैनिकों की 12 वर्ष तक निर्वहन व्यवस्था हो सकती थी। महाराणा ने सैन्य बल शस्त्र आदि उदयपुर में एकत्र कर पुनः मुगलों से संघर्ष किया। महाराणा के शब्दों में
"भामा जुग जुग सिमरसी, आज कर्यो उपकार,
परथा पुंजा पीथला, हुया परताप एक चार।"
अर्थात् भामा, परथामीत, पुंजा और मैं प्रताप चारों मिलकर एक हो गए देश सेवा में तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह उपकार युग-युगों तक याद किया जाएगा और हमारा संकल्प एक है।
इस तरह प्रताप को धनबल, मनोबल प्रदान कर महाराणा प्रताप बनाने वाले भामाशाह थे, उनके ही शब्दों में "मेवाड़ धनी अपने घोड़े की बाध मेवाड़ की तरफ मोड़ ले, मेवाड़ी धरा मुगलों की गुलामी से आतंकित है, उसका उद्धार करो।" 1591 से 1596 चरम उत्कर्ष का समय था। ताउम्र अजेय योद्धा महाराणा प्रताप का एक वर्ष बाद निधन हो गया। उनकी मौत पर अकबर भी रोया था। उसके दो वर्षों बाद भामाशाह भी स्वर्ग सिधार गए। किन्तु मृत्यु से पूर्व वे अपनी पत्नी को बहीखाता देकर बोले ये राज्य की सेवा में दे देना। महाराणा संग अमर हो गए भामाशाह। मेवाड़ की असीमता को बचाने वाले ये महाराणा प्रताप और भामाशाह आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।
भारत सरकार ने भामाशाह के सम्मान में सन् 2000 में 3 रुपए का डाक टिकट जारी किया। आज राजस्थान में अनेक जनहित की भामाशाह योजनाएं चल रही हैं। अब कुछ धन राशि समाज को सिर्फ इसलिए प्रदान करें कि हमारा फोटो, हमारा नाम पुस्तकों में या सोशल मीडिया पर उछलेगा। स्वयं को भामाशाह सी पवित्र उपाधि से महिमा मंडित करने वाले तथाकथित भामाशाह आत्म चिंतन करें।
-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर